राजस्थान के मुख्य शिलालेख एवं सिक्के | Rajasthan Ke Mukhya Shilalekh Evam Sikke

राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत: अभिलेख एवं सिक्के

राजस्थान के इतिहास की प्रामाणिक जानकारी अभिलेखों और प्राचीन सिक्कों से मिलती है, जो उस समय की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।
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राजस्थान के प्रमुख अभिलेख

राजस्थान में मिले अभिलेख राज्य के प्राचीन इतिहास को समझने का अहम आधार माने जाते हैं। पुराने समय में शासक अपनी महत्वपूर्ण बातें, आदेश और घटनाएँ पत्थरों या धातु की पट्टिकाओं पर अंकित करवाते थे, जिनसे आज के इतिहासकारों को मूल्यवान जानकारी मिलती है।
अभिलेखों के अध्ययन को एपीग्राफी या पुरालेखशास्त्र कहा जाता है। वहीं, इन अभिलेखों में प्रयोग की गई प्राचीन लिपियों को पहचानने और समझने की विद्या पेलियोग्राफी (पुरालिपिशास्त्र) कहलाती है।
भारतीय लिपियों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन सबसे पहले डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने किया। उन्होंने इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भारतीय प्राचीन लिपिमाला’ की रचना की, जो आज भी लिपिशास्त्र का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

घोसुन्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ई.पू.)
  • द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का यह लेख नगरी (चित्तौड़) के समीप घोसुन्डी ग्राम से प्राप्त हुआ है।
  • इस शिलालेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रसार, संकर्षण और वासुदेव की मान्यता तथा अश्वमेध यज्ञ का प्रचलन आदि से है।
  • इस प्रकार यह वैष्णव/भागवत धर्म के प्रचलन की जानकारी देने वाला यह राजस्थान में प्राचीनतम प्रमाण है। यह सबसे पहले डॉ. डी. आर भण्डारकर द्वारा पढ़ा गया था।

नांदसा यूप-स्तम्भ लेख (225 ई.)
  • भीलवाड़ा जिले में स्थित इस यूप-स्तम्भ की स्थापना 225 ई. में की गई थी।
  • इस लेख से पता चलता है कि शक्तिगुणगुरु नामक व्यक्ति ने यहाँ पष्ठिरात्र (छः रातों में सम्पन्न) यज्ञ किया था।
  • इस स्तम्भ की स्थापना पश्चिमी (शक) क्षत्रपों के राज्य-काल में सोम द्वारा की गई थी।

बड़वा स्तम्भ लेख (238-39 ई.)
  • बारां जिले में अन्ता के समीप बड़वा ग्राम से 238-239 ई. के (पूर्व गुप्तकालीन) तीन यूप-स्तम्भ लेख प्राप्त हुए हैं।
  • इनमें त्रिरात्र यज्ञों का उल्लेख है जिन्हें बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह नामक तीन भाइयों ने सम्पादित किया था।
  • एक अन्य लेख में मौखरी वंशी धनत्रात द्वारा किये गये अप्तोयाम (एक पूरे दिन के बाद दूसरे दिन तक चलने वाला) यज्ञ का उल्लेख है।

गंगधार का लेख (423 ई.)
  • यह लेख झालावाड़ जिले में गंगधार नामक स्थान से प्राप्त हुआ है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस लेख के अनुसार राजा विश्वकर्मा के मंत्री मयूराक्ष ने एक विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया था। उसने तांत्रिक शैली का मातृगृह और एक बावड़ी का भी निर्माण करवाया था।
  • इस लेख से पाँचवीं शताब्दी की सामंती व्यवस्था के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है।

भ्रमरमाता का लेख (490 ई.)
  • छोटी सादड़ी (प्रतापगढ़) के भ्रमरमाता मन्दिर से प्राप्त इस लेख की तिथि 490 ई. है।
  • संस्कृत पद्म में लिखित इस प्रशस्ति का रचियता ब्रह्मसोम और उत्कीर्णक पूर्वा था।
  • इसमें गौर वंश और औलिकर वंश के शासकों का वर्णन है।
  • यह लेख प्रारम्भिक सामन्त प्रथा और पाँचवीं शताब्दी की राजनीतिक स्थिति की जानकारी के लिए महत्त्वपूर्ण है।

सांमोली शिलालेख (646 ई.)
उदयपुर जिले के सांमोली ग्राम से प्राप्त यह लेख गुहिल वंश के शासक शिलादित्य के समय का है।
मेवाड़ के गुहिल वंश के समय को निश्चित करने तथा उस समय की आर्थिक और साहित्यिक स्थिति की जानकारी के लिए यह लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है।

अपराजित का शिलालेख (661 ई.)
  • वि. सं. 718 (661 ई.) का यह लेख नागदा के समीपस्थ कुण्डेश्वर मन्दिर की दीवार पर लगा हुआ था, जिसे डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने विक्टोरिया हॉल म्यूजियम (अजमेर) में सुरक्षित रखवाया।
  • लेख की भाषा संस्कृत है। गुहिल शासक अपराजित के इस लेख से गुहिलों की उत्तरोत्तर विजयों के बारे में सूचना प्राप्त होती है।
  • लेखानुसार अपराजित ने एक तेजस्वी शासक वराहसिंह को पराजित कर उसे अपना सेनापति नियुक्त किया था।
  • इसमें विष्णु मन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख है। इस लेख की सुन्दर लिपि तथा स्पष्ट भाषा से मेवाड़ में विकसित शिल्पकला का पता चलता है।
  • इससे 7वीं शताब्दी के मेवाड़ की धार्मिक तथा राजनैतिक व्यवस्था के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस प्रशस्ति की रचना दामोदर ने की और इसे यशोभट्ट ने उत्कीर्ण किया था।

चित्तौड़ का मानमोरी का लेख (713 ई.)
  • 713 ई. का यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील के तट पर कर्नल टॉड को प्राप्त हुआ था।
  • इसके रचयिता पुष्प और उत्कीर्णक शिवादित्य थे।
  • जेम्स टॉड ने इस लेख को ब्रिटेन ले जाते समय किसी कारणवश समुद्र में फेंक दिया था, परिणामस्वरूप इस लेख की प्रतिलिपि केवल टॉड की पुस्तक 'एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान' में मिलती है।

कणसवा (कंसुआ) का लेख (738 ई.)
यह लेख कोटा के निकट कंसुआ के शिवालय से मिला है जिसकी तिथि 738 ई. है।
इस लेख में धवल नाम के मौर्य शासक का उल्लेख है। इसके बाद किसी मौर्यवंशी राजा का राजस्थान में वर्णन नहीं मिलता है।

चाकसू की प्रशस्ति (813 ई.)
  • कारणीक (कायस्थ) भानु इसके रचियता थे व उत्कीर्णकर्ता माईल थे यह प्रशस्ति जयपुर जिले के चाकसू नामक स्थान से प्राप्त हुई है, जिसमें चाकसू के गुहिल शासकों की वंश परम्परा और उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।
  • इस लेख से पता चलता है कि चाकसू के गुहिल प्रतिहार वंश के शासकों के अधीन थे।
  • इस वंश में मेवाड़ के गुहिलों की भाँति शिवभक्ति और विष्णुभक्ति का प्रचलन था।

बुचकला शिलालेख (815 ई.)
  • जोधपुर जिले में बिलाड़ा के समीप बुचकला गाँव के पार्वती मन्दिर में यह शिलालेख मिला है।
  • इसकी भाषा संस्कृत पद्म है। यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय के समय का है।
  • इस लेख में प्रतिहार वंश के शासकों और सामन्तों के नाम मिलते हैं, जिससे उस समय के शासकों और सामन्तों के सम्बन्ध और स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है।

मण्डोर का शिलालेख (837 ई.) - जोधपुर ग्रामीण
यह लेख मूलतः मण्डोर के विष्णुमन्दिर में लगा हुआ था जिसे बाद में जोधपुर के शहरपनाह में लगा दिया गया। यह लेख मण्डोर के प्रतिहारों की वंश परम्परा जानने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

घटियाला का शिलालेख (861 ई.)
  • घटियाला (जोधपुर) नामक स्थान पर एक जैन मन्दिर जिसे 'माता की साल' कहते हैं, के समीप स्थित स्तम्भ पर चार लेखों का समूह है।
  • लेख की भाषा संस्कृत है जिसमें गद्य और पद्य का प्रयोग किया गया है। इस लेख में प्रतिहार शासकों, मुख्यतः कक्कुक प्रतिहार की उपलब्धियों और राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक नीतियों के बारे में सूचना प्राप्त होती है।
  • इस लेख में 'मग' जाति के ब्राह्मणों का भी विशेष उल्लेख किया गया है जो वर्ण विभाजन का द्योतक है।
  • 'मग' ब्राह्मण ओसवालों के आश्रय में रहकर निर्वाह करते थे तथा जैन मन्दिरों में भी पूजा सम्पन्न करवाते थे।
  • ये लेख 'मग' द्वारा लिखे गये तथा स्वर्णकार कृष्णेश्वर द्वारा उत्कीर्ण किये गये थे।

घटियाला के दो अन्य लेख (861 ई.)
यह लेख भी मंडोर के प्रतिहार शासक कक्कुक के समय का है।
इस लेख में हरिश्चन्द्र से प्रारम्भ कर कक्कुक तक के मंडोर के प्रतिहारों की वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है।
इस लेख का अन्तिम श्लोक स्वयं कक्कुक ने लिखा था जिससे प्रतिहार शासकों की विद्वता की जानकारी मिलती है।

सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.)
  • यह प्रशस्ति उदयपुर के श्मशान में स्थित सारणेश्वर नामक शिवालय के पश्चिमी द्वार के छबने पर लगी हुई है।
  • इसकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है।
  • इस प्रशस्ति से तत्कालीन शासन तथा कर व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
  • इसमें मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा अल्लट और उसके पुत्र नरवाहन एवं मुख्य कर्मचारियों के नाम उनके पद सहित दिये गये हैं।
  • इस प्रशस्ति के लिपिकार कायस्थ पाल और वेलक थे।

ओसियाँ का लेख (956 ई.) - जोधपुर
यह लेख संस्कृत पद्य में है जिसे सूत्रधार पदाजा द्वारा उत्कीर्ण किया गया था।
लेख में प्रतिहार शासक वत्सराज को रिपुओं का दमन करने वाला कहा है तथा उसके समय की समृद्धि पर प्रकाश डाला गया है। इससे उस समय के वर्ण विभाजन की भी जानकारी मिलती है।

चित्तौड़ का लेख (971 ई.)
  • इस लेख से परमार शासकों की उपलब्धियों, उनका चित्तौड़ पर अधिकार, चित्तौड़ की समृद्धि आदि पर प्रकाश पड़ता है।
  • इस प्रशस्ति में देवालयों में स्त्रियों के प्रवेश को निषिद्ध बतलाया है जो उस समय की सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक स्तर पर भी स्त्रियों के साथ भेदभाव का परिचायक है।

एकलिंगजी की नाथ प्रशस्ति (971 ई.)
यह शिलालेख उदयपुर के एकलिंग मन्दिर के पास लकुलीश मन्दिर में लगा हुआ है।
यह प्रशस्ति मेवाड़ के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए उपयोगी है। इस प्रशस्ति के रचयिता आघ्र कवि थे।
गुहिल वंशी शासक नरवाहन के समय उत्कीर्ण इस लेख की भाषा संस्कृत और लिपि देवनागरी है।

हर्षनाथ मन्दिर की प्रशस्ति (973 ई.)
  • यह प्रशस्ति सीकर के हर्षनाथ मन्दिर में लगी हुई है जो संस्कृत पद्य भाषा में है।
  • इससे चौहान शासकों के वंशक्रम तथा उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है।
  • इसमें वागड़ के लिए 'वार्गट' शब्द का प्रयोग किया गया है।

आहड़ का देवकुलिका का लेख (977 ई.) - उदयपुर
  • संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध यह लेख मेवाड़ के गुहिल शासक शक्तिकुमार के समय का है, जो आहड़ के एक जैन मन्दिर की देवकुलिका के छबने में लगा हुआ है।
  • इस लेख से मेवाड़ के तीन शासकों - अल्लट, नरवाहन और शक्तिकुमार के समय के अक्षपटलाधीशों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इससे अल्लट और प्रतिहार शासक देवपाल के मध्य युद्ध पर भी प्रकाश डाला गया है, इस युद्ध में देवपाल मारा गया था।
  • मेवाड़ के प्राचीन शासकों और शासन सम्बन्धी जानकारी के लिए यह लेख महत्त्वपूर्ण है।

आहड़ का शक्तिकुमार का लेख (977 ई.)
  • शक्तिकुमार के इस लेख को कर्नल टॉड अपने साथ इंग्लैण्ड ले गये, उन्होंने अपनी पुस्तक 'एनाल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान' में इस लेख की विषयवस्तु का वर्णन किया है।
  • संस्कृत भाषा के इस लेख से मेवाड़ के गुहिल शासक शक्तिकुमार की राजनीतिक प्रभुता और उसके समय में आहड़ को आर्थिक सम्पन्नता की जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में गुहिल शासक अल्लट की रानी हरियादेवी को हूण राजा की पुत्री बताया गया है जिसने हर्षपुर नामक ग्राम बसाया था।
  • इस लेख में गुहदत्त से शक्तिकुमार तक पूरी वंशावली दी गई है जो मेवाड़ के प्राचीन इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है।

जालौर का लेख (1118 ई.) - जालौर
यह लेख जालौर में तोपखाना की इमारत की उत्तरी दीवार पर लगा हुआ था, वर्तमान में जोधपुर के संग्रहालय में रखा हुआ है। यह जालौर के परमारों से सम्बन्धित है तथा बताया गया है कि परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ के यज्ञ से हुई थी। इस लेख में जालौर के परमार वंश के संस्थापक वाक्पतिराज का उल्लेख है।

चित्तौड़ का कुमारपाल का शिलालेख (1150 ई.)
चालुक्य (सोलंकी) शासक कुमारपाल का यह लेख चित्तौड़ के समिद्धेश्वर मन्दिर में लगा हुआ है।
इस लेख में चालुक्यों का यशोगान करते हुए मूलराज और सिद्धराज का वर्णन किया गया है।
इस लेख से सिद्ध होता है कि चित्तौड़ पर कुछ समय चालुक्यों का शासन रहा था।
इस प्रशस्ति का रचयिता दिगंबर जैन विद्वान रामकीर्ति था।

किराडू का लेख (1152 ई.)
  • यह लेख किराडू (बाड़मेर) के निकट एक शिवमन्दिर में उत्कीर्ण है।
  • यह लेख एक प्रकार से राजाज्ञा है जिसमें चौहान सामंत आल्हादेव ने मास के दोनों पक्षों की अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी पर पशुवध निषेध घोषित कर दिया था।
  • दण्डस्वरूप सर्वसाधारण से 5 द्रम और राज्य परिवार के व्यक्ति से 1 द्रम लेने की व्यवस्था से स्पष्ट है कि विशेष अधिकार को उस युग में मान्यता दी जाती थी।
  • इस लेख में विभिन्न प्रकार के पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है।

बिजौलिया शिलालेख (1170 ई.) - भीलवाड़ा
  • यह शिलालेख बिजौलिया के पार्श्वनाथ मन्दिर के समीप एक चट्टान पर उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता गुणभद्र था तथा गोविन्द ने इसको उत्कीर्ण किया।
  • इसमें साँभर और अजमेर के चौहान वंश की सूची तथा उनकी उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
  • लेख में चौहान शासकों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है।
  • बिजौलिया क्षेत्र जिसे ऊपरमाल भी कहा जाता है, को इस लेख में 'उत्तमाद्रि' कहा गया है।
  • अनेक क्षेत्रों के प्राचीन नाम भी इस लेख से प्राप्त होते हैं।
  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत है।
  • इसमें 13 पद्य हैं। मूलतः यह लेख दिगम्बर लेख है, जिसको दिगम्बर जैन श्रावक लोलाक ने पार्श्वनाथ मंदिर के कुण्ड निर्माण की स्मृति में लिखवाया, इसमें देवालय निर्माण के अतिरिक्त चौहान वंश की जानकारी है।
  • इस शिलालेख में जालौर का नाम जाबालिपुर, सांभर का नाम शांकम्बरी व भीनमाल का नाम श्रीमाल मिलता है।
  • टॉड के अनुसार बिजौलिया का वास्तविक नाम 'बिजयावल्ली' था।

नादेसमाँ गाँव का लेख (1222 ई.)
यह लेख उदयपुर जिले के नादेसमाँ गाँव के चारभुजा मन्दिर के निकट टूटे हुए सूर्यमन्दिर के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है।
इस लेख से पता चलता है कि जैत्रसिंह की राजधानी नागदा थी।
इससे स्पष्ट है कि 1222 ई. तक नागदा नगर नष्ट नहीं हुआ था।

लूणवसाही की प्रशस्ति (1230 ई.) - सिरोही
  • यह प्रशस्ति देलवाड़ा के लूणवसाही मन्दिर की है जो संस्कृत भाषा में है और पद्य में लिखी गई है।
  • इस लेख से आबू के परमार शासकों और तेजपाल व वास्तुपाल के वंश के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  • इससे पता चलता है कि आबू के परमार शासक सोमसिंह के समय में मंत्री वास्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने लूणवसाही नामक नेमिनाथ का मन्दिर अपनी स्त्री अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था।

बीठू गाँव का लेख (1273 ई.)
पाली के पास बीठू गाँव में यह लेख प्राप्त हुआ है।
इस लेख से राव सीहा के व्यक्तित्व और उसकी मृत्यु की तिथि निश्चित करने में मदद मिलती है।
इस लेख के अनुसार मारवाड़ के राठौड़ों का आदिपुरुष सीहा सेतराम का पुत्र था।
उसकी पत्नी पार्वती ने उसकी मृत्यु पर देवल का निर्माण करवाया था। बीठू गाँव के उक्त देवल पर ही यह लेख उत्कीर्ण है।
इस लेख के ऊपरी भाग में अश्वारोही सीहा को शत्रु पर भाला मारते हुए दर्शाया है।

चीरवा का शिलालेख (1273 ई.)
  • यह लेख उदयपुर के समीप चीरवा गाँव के एक मन्दिर पर लगा हुआ है।
  • आचार्य भुवनसिंह सूरि के शिष्य रत्नप्रभासूरि ने इस लेख की रचना की और केलिसिंह ने इसे उत्कीर्ण किया।
  • इसमें गुहिलवंशीय शासकों पद्मसिंह, जैत्रसिंह, तेजसिंह और समरसिंह की उपलब्धियों का वर्णन है।
  • इसमें 51 श्लोक लिखे गये हैं।
  • इसकी तिथि कार्तिक शुक्ल वि.स. 1330 है।
  • यह लेख बागेश्वर और बागेश्वरी की आराधना से प्रारम्भ होता है।
  • इस लेख से अनुमान लगता है कि उस समय सती प्रथा का प्रचलन था।

रसिया की छतरी का लेख (1274 ई.)
चित्तौड़ में रसिया की छतरी पर यह लेख लगा हुआ था। इसका रचयिता वेद शर्मा था। इसमें बापा से नरवर्मा तक के गुहिलवंशीय शासकों की उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है।

चित्तौड़ के पार्श्वनाथ मन्दिर का लेख (1278 ई.)
इस लेख से पता चलता है कि राजा तेजसिंह की पत्नी जयतल्लदेवी ने श्याम पार्श्वनाथ मंदिर बनवाया था। इस लेख से मेवाड़ के शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी मिलती है।

अचलेश्वर का लेख (1285 ई.) सिरोही
यह लेख आबू के अचलेश्वर मन्दिर के पास मठ के एक चौपाल की दीवार में लगा हुआ है। शुभचन्द्र इस लेख का लेखक व कर्मसिंह उत्कीर्णक था। इस लेख में (उदयपुर) में हारित ऋषि की तपस्या एवं उनकी कृपा से बप्पा को राजत्व की प्राप्ति तथा बप्पा से लेकर समरसिंह तक की वंशावली मिलती है।

गंभीरी नदी के पुल का शिलालेख
यह लेख मेवाड़ के शासक समरसिंह के समय का है जिसे सम्भवतः अलाउद्दीन खिलजी ने इस पुल के निर्माण के दौरान इसमें लगवा दिया। इस लेख से समरसिंह द्वारा भूमि दान देने की जानकारी मिलती है।

श्रृंगी ऋषि का लेख (1428 ई.)
  • राणा मोकल के समय का यह लेख एकलिंगजी (उदयपुर) के समीप श्रृंगी ऋषि नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।
  • इसके रचयिता कविराज वाणीविलास योगेश्वर और उत्कीर्णक पन्ना थे।
  • इस लेख से राणा हम्मीर की उपलब्धियों और भीलों की सामाजिक स्थिति का पता चलता है।
  • इस लेख में राणा लाखा के बारे में कहा गया है कि उसने काशी, प्रयाग और गया (त्रिस्थली) में हिन्दुओं से लिए जाने वाले कर को हटवाया तथा गया में मन्दिर बनवाये।
  • इसकी भाषा स्पष्ट है कि इसमें 30 श्लोक हैं।

देलवाड़ा का लेख (1434 ई.) - पाली
देलवाड़ा से प्राप्त इस लेख से टंक नाम की मुद्रा के प्रचलन की जानकारी मिलती है। यह लेख संस्कृत और मेवाड़ी भाषा में है।

रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.)
  • कुम्भाकालीन यह प्रशस्ति रणकपुर के चौमुखा जैन मन्दिर से मिली है। इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि नागरी है।
  • यह लेख मेवाड़ के गुहिल वंश के वंशक्रम की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  • इसमें बापा तथा कालभोज की अलग-अलग व्यक्ति माना है तथा बापा को गुहिल का पिता बताया है।
  • रणकपुर मंदिर निर्माता नाम का जैता मिला है।
  • इसमें बप्पा रावल से कुम्भा तक की जानकारी है।
  • इसमें गुहिल को बप्पा का पुत्र बताया गया है।

कुम्भलगढ़ का शिलालेख (1460 ई.) - राजसमंद
कुम्भा की विजयों का विस्तृत वर्णन इस लेख में दिया गया है। डॉ. ओझा के अनुसार इस लेख का रचयिता महेश था।
यह शिलालेख 5 शिलाओं पर लिखा है।
इसमें 270 श्लोक हैं। इस शिलालेख में महाराणा कुम्भा द्वारा सपादलक्ष, नाराणा, वसन्तपुरा और आबू विजय वर्णन है। इसमें एकलिंग जी मंदिर तथा कुटिला नदी का वर्णन है।

कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति (1460 ई.)
चित्तौड़ के किले में कीर्तिस्तम्भ (विजयस्तम्भ) की नौवीं अर्थात् अन्तिम मंजिल पर यह प्रशस्ति उत्कीर्ण है।
इस प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि और महेश थे।
इस लेख में कुम्भा की उपलब्धियों और उसके व्यक्तिगत गुणों, उपाधियों, संगीत ग्रन्थों आदि की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
इसमें 187 श्लोक है। इसमें कुम्भा को 'दानगुरु, राजगुरु, शैल गुरु' उपाधि दी गई।

एकलिंगजी के मंदिर की रायमल की प्रशस्ति (1488 ई.)
  • महाराणा रायमल ने एकलिंग जी के मंदिर के जीर्णोद्धार के समय इस प्रशस्ति को उत्कीर्ण करवाया था। यह प्रशस्ति एकलिंगजी के मंदिर के दक्षिणी द्वार के ताक में लगी हुई है।
  • लेख नागरी लिपि में है और भाषा संस्कृत है।
  • इसमें कुल 101 श्लोक हैं।
  • इसे सूत्रधार अर्जुन ने उत्कीर्ण किया था।
  • अर्जुन की देखरेख में ही एकलिंगजी के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
  • इस प्रशस्ति-लेख में हम्मीर से रायमल तक मेवाड़ के महाराणाओं को प्रमुख उपलब्धियों, दान, निर्माण, विद्योन्नति व जनता के नैतिक जीवन सहित तात्कालीन मेदपाट (मेवाड़) और चित्तौड़ (चित्रकूट) की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन दिया गया है, जो मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।

बीकानेर की रायसिंह प्रशस्ति (1594 ई.)
  • बीकानेर के दुर्ग के सूरजपोल के पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति महाराजा रायसिंह के समय की है।
  • इसकी भाषा संस्कृत है।
  • इसमें बीकानेर के दुर्ग के निर्माण की जानकारी मिलती है।
  • इस प्रशस्ति में राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता जैता नामक एक जैन मुनि था।
  • बीका से रामसिंह तक वर्णन है। इसमें रामसिंह की काबुल विजय का वर्णन है।

आमेर का लेख (1612 ई.)
यह लेख राजा मानसिंह के समय का है जिसमें कछवाहा वंश को 'रघुवंशतिलक' कहा गया है तथा इसमें पृथ्वीराज, उसके पुत्र भारमल, उसके पुत्र भगवंतदास और उसके पुत्र महाराजाधिराज मानसिंह के नाम क्रम से प्राप्त होते हैं।
इसमें जहाँगीर के राज्य की दुहाई दी गई है, जिससे आमेर और मुगलों के संबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
इस लेख में मानसिंह द्वारा जमवारामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का भी उल्लेख किया गया है।

मांडल की जगन्नाथ कछवाहा की छतरी का लेख (1613 ई.)
मांडल (भीलवाड़ा) में जगन्नाथ कछवाहा की बत्तीस खम्भों की छतरी स्थित है जिसे सिंहेश्वरी महादेव का मन्दिर भी कहते हैं।
इसमें उल्लेख है कि मेवाड़ अभियान से लौटते समय जगन्नाथ कछवाहा का देहान्त मांडल में हुआ था, जिसके स्मारक के रूप में यह छतरी बनाई गई।

जगन्नाथ राय प्रशस्ति (1652 ई.)
यह प्रशस्ति उदयपुर के जगन्नाथ राय मन्दिर के सभामण्डप पर लगी हुई है। इस मन्दिर का निर्माण मेवाड़ महाराणा जगतसिंह प्रथम ने करवाया था। इसमें बापा से लेकर सांगा तक मेवाड़ के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है।
इसमें हल्दीघाटी के युद्ध का भी वर्णन मिलता है।

त्रिमुखी बावड़ी का लेख (1675 ई.)
यह प्रशस्ति देबारी (उदयपुर) के पास त्रिमुखी बावड़ी में लगी हुई है।
इसमें राजसिंह के समय सर्वऋतु विलास नाम के बाग बनाये जाने, मालपुरा की विजय और लूट, चारुमति का विवाह, डूंगरपुर की विजय आदि का उल्लेख मिलता है।

राजप्रशस्ति (1676 ई.)
  • मेवाड़ के महाराणा राजसिंह (1652-80 ई.) ने अकाल के समय प्रजा को राहत पहुँचाने के लिए राजसमन्द नामक विशाल झील का निर्माण करवाया था।
  • इस झील की पाल पर 25 पाषाण पट्टिकाओं पर यह प्रशस्ति उत्कीर्ण है।
  • संस्कृत पद्य भाषा में लिखी इस प्रशस्ति का रचयिता रणछोड़ भट्ट था।
  • राजप्रशस्ति को भारत का सबसे बड़ा शिलालेख माना जाता है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ का विस्तृत व क्रमबद्ध इतिहास लिखा गया है। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, तकनीकी और आर्थिक स्थिति के बारे में पर्याप्त जानकारी प्रदान करती है।

जानासागर प्रशस्ति
उदयपुर में बड़ी गाँव के पास है। यह महाराणा राजसिंह के समय की है। जानासागर का निर्माण राजसिंह ने अपनी माता जनादेकी याद में करवाया था। इस शिलालेख में मेड़ता परिवार को वैष्णव बताया गया। इस प्रशस्ति में 41 श्लोक हैं। प्रशस्ति लक्ष्मीनाथ ने लिखी थी।

बैराठ का लेख (कोटपुतली बहरोड़)
यहाँ छतरी का निर्माण सावंलदास ने करवाया यह गौड ब्राह्मण था। औरंगजेब ने इसे सिंह की उपाधि व पीपाड़ की जागीर दी। यहाँ लेख ढूंढाड़ी भाषा में है। यहाँ छतरी का निर्माण छीतरमल की पत्नी जमना के सती होने पर करवाया था। सांवलदास छीतरमल का भतीजा था।

घोसुन्डी शिलालेख
चित्तौड़ में स्थित है। यह शिलालेख महाजनी लिपी व हर्षकालीन लिपी में लिखा गया है।

राजस्थान के सिक्के

सिक्कों के अध्ययन को न्यूनिसमेटिक्स (मुद्रा शास्त्र) कहा जाता है। भारत के प्राचीनतम सिक्कों को आहत तथा पंचमार्क सिक्के कहा जाता है। ये चाँदी के बने हुए थे। आहत सिक्कों को साहित्य में 'काषार्पण' कहा गया है। आहत सिक्कों पर कोई लेख व तिथि अंकित नहीं होती थी।
भारत में पहली बार लेख युक्त (राजा का नाम) सिक्के हिन्द-यवन या यूनानी (इण्डो-ग्रीक) शासकों ने जारी किए थे।
भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के भी यूनानी शासकों ने चलाए थे। बड़े पैमाने पर सोने के सिक्के सर्वप्रथम कुषाण शासकों ने जारी किए थे।
रैढ़ (टोंक) से 3075 चाँदी की आहत मुद्राएँ मिली हैं। यह भारत में एक ही स्थान से प्राप्त आहत सिक्कों का सबसे बड़ा भण्डार है। इन सिक्कों को धरण या पण कहा गया है।
रैढ़ के अतिरिक्त विराटनगर (कोटपूतली-बहरोड़), आहड़, नगर (टोंक), नगरी (चित्तौड़) और साँभर आदि स्थानों से भी आहत मुद्राएँ मिली हैं।
मालव गण से सम्बन्धित 6000 ताँचे के सिक्के नगर (टोंक) से प्राप्त हुए हैं जिनकी खोज कार्लाइल ने की थी। ये सिक्के संसार में सबसे छोटे और सबसे कम वजन वाले सिक्के माने जाते हैं।
रंगमहल (हनुमानगढ़) से 105 तांबे के सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक सिक्का कुषाण शासक कनिष्क का है।
बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) से 36 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें 8 आहत और 28 इण्डो-ग्रीक शासकों की हैं।
आहड़ से ताँबे के छः सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक मुद्रा पर त्रिशूल खुदा हुआ है तथा एक अन्य मुद्रा यूनानी शैली की है जिस पर यूनानी देवता अपोलो का अंकन है।
भरतपुर जिले में बयाना के समीप नगलाछैल नामक स्थान से गुप्तकालीन सोने के सिक्कों का ढेर मिला है जिसमें लगभग 1800 सिक्के हैं। इस ढेर में सर्वाधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' के हैं। यह गुप्तकालीन सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर है।
टोंक जिले में रैढ़ से गुप्तकालीन 6 स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें से 4 चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की हैं।
नलियासर (साँभर) से गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की चाँदी की मुद्राएँ मिली हैं, जिन पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण है।
हूण शासकों द्वारा मेवाड़ और मारवाड़ में 'गधिया' सिक्कों का प्रचलन किया गया था।

रियासतकालीन सिक्के

मेवाड़ राज्य के सिक्के
गुप्तोत्तरकाल में मेवाड़ में 'गधिया मुद्रा' का प्रचलन था। मेवाड़ के प्रथम संस्थापक गुहिल ने ताँबे के सिक्के जारी किए थे। 'गुहिलपति' लेख वाले सिक्के गुहिल द्वारा चलाना माना जाता है।
बप्पा का एक स्वर्ण सिक्का प्राप्त हुआ है जिसका वजन 115 ग्रेन है, इस प्रकार बप्पा मेवाड़ के प्रथम गुहिल शासक थे जिन्होंने स्वर्ण सिक्के जारी किये। राणा कुम्भा ने चाँदी और ताँबे के सिक्के जारी किए थे। मुगल-मेवाड़ संधि (1615 ई.) के साथ मेवाड़ में मुगल सिक्कों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया।
मुगल बादशाह मुहम्मदशाह (1719-1748 ई.) ने पुनः मेवाड़ में सिक्के जारी करने की अनुमति दी, परिणामतः चित्तौड़, भीलवाड़ा और उदयपुर में सिक्के ढलने लगे, जिन्हें क्रमशः चित्तौड़ी, भिलाड़ी और उदयपुरी रुपया कहते थे।
महाराणा स्वरूपसिंह (1842-1861 ई.) ने स्वरूपशाही रुपया चलाया। स्वर्ण सिक्का चाँदोड़ी (वजन 116 ग्रेन) भी स्वरूपसिंह ने चलाया था।

गुहिल वंश के सिक्के

A. शाहपुरा
  • मेवाड़ के सिक्के- चित्तौड़ी, भिलाड़ी का प्रचलन
  • 1760 ई. में शाहपुरा सिक्का ग्यारसंदिया चलाया गया।

B. मेवाड़
  • गधिया मुद्रा - गुप्तोत्तर काल
  • गुहिलपति - ताँबे का सिक्का
  • बप्पा का स्वर्ण सिक्का 115 ग्रेन
  • कुम्भा चाँदी-ताँबे के सिक्के
  • मेवाड़-मुगल संधि के बाद मुगल सिक्के
  • मुहम्मदशाह द्वितीय (1719-1848)-पुनः मेवाड़ को सिक्के जारी करने की अनुमति दी। तब से चित्तौड़ी, भिलाड़ी, उदयपुरी चाँदी के सिक्के जारी किये गये
  • चांदोड़ी-116 ग्रेन स्वर्ण सिक्का - स्वरूपसिंह द्वारा
  • स्वरुपशाही-स्वरुप सिंह ने, 1842-1861 ई. में ताँबे के सिक्के-ढींगला, भिलाड़ी, त्रिशुलिया, भीडरिया, नाथद्वारिया

C. बाँसवाड़ा
सालिमशाही सिक्के प्रचलन में
1870 ई. में लक्ष्मण सिंह ने सोने, चाँदी, ताँबे के सिक्के जारी किए।
1902 ई. में कलदार

D. प्रतापगढ़
1784 ई. में सालिम सिंह द्वारा सालिमशाही सिक्के, 1818 ई. में अंग्रेजों से सन्धि के बाद इसे 'नया सालिमशाही'
1904 ई. में कलदार का प्रारम्भ

E. डूंगरपुर
पृथक सिक्के जारी नहीं
मेवाड़ में ताँबे के सिक्कों को ढींगला, भिलाड़ी, त्रिशूलिया, भीडरिया, नाथद्वारिया आदि नामों से जाना जाता था।

प्रतापगढ़ राज्य के सिक्के
सर्वप्रथम 1784 ई. में सालिमसिंह ने 'सालिमशाही' नामक चाँदी की मुद्रा जारी की।
1818 ई. में अंग्रेजों से सन्धि के बाद परिवर्तित होने पर इसे 'नया सालिमशाही' कहा जाने लगा। 1904 में यहाँ कलदार का प्रचलन प्रारम्भ हो गया।

बाँसवाड़ा राज्य के सिक्के
बाँसवाड़ा रियासत में भी 'सालिमशाही' सिक्कों का प्रचलन था। 1870 ई. में महारावल लक्ष्मणसिंह ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के जारी किए।
इन सिक्कों को 'लक्ष्मणशाही' कहा जाता था। 1902 ई. में यहाँ भी कलदार का प्रचलन प्रारम्भ हो गया।

डूंगरपुर राज्य के सिक्के
डूंगरपुर राज्य द्वारा स्वतंत्र रूप से सिक्के जारी नहीं किए गए।
यहाँ मेवाड़ के 'चित्तौड़ी' और प्रतापगढ़ के 'सालिमशाही' रुपयों का प्रचलन था।

जोधपुर राज्य के सिक्के
यहाँ भी प्रारम्भ में 'गधिया मुद्रा' प्रचलित थी। प्रतिहार शासक भोज (जिसे मिहिरभोज और भोजप्रथम भी कहा जाता है) ने मारवाड़ में 'आदिवराह' सिक्के चलाये थे। 'आदिवराह' उसकी उपाधि थी।
महाराजा विजयसिंह ने सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के जारी किए थे, जिन्हें 'विजयशाही' कहा जाता है।
1900 ई. में मारवाड़ में कलदार का प्रचलन हो गया।

बीकानेर राज्य के सिक्के
बीकानेर में सम्भवतः 1759 ई. में टकसाल की स्थापना हुई और मुगल सम्राट शाहआलम के नाम के सिक्के ढलने लगे।
बीकानेर के शासकों ने सिक्कों पर अपने विशेष चिह्न भी अंकित करवाये, जैसे-गजसिंह का चिह्न 'ध्वज', सुरतसिंह का चिह्न, 'त्रिशूल', रतनसिंह का 'नक्षत्र', सरदारसिंह का 'छत्र' तथा डूंगरसिंह का चिह्न 'चंवर' था। बीकानेर रियासत में प्रचलित सिक्कों में 'आलमशाही' और 'गजशाही' सिक्के प्रमुख थे।

जैसलमेर राज्य के सिक्के
मुगलकाल में जैसलमेर में चाँदी का 'मुहम्मदशाही' सिक्का चलता था।
1756 ई. में महारावल अखैसिंह ने चाँदी का 'अखैशाही' सिक्का जारी किया। जैसलमेर का ताँबे का सिक्का 'डोडिया' कहलाता था जिसका वजन 18-20 ग्रेन था।

किशनगढ़ राज्य के सिक्के
किशनगढ़ राज्य में भी शाहआलम के नाम का सिक्का जारी किया गया था।
यहाँ 166 ग्रेन का 'चांदोड़ी' नाम का रुपया, मेवाड़ की राजकुमारी चाँदकुँवरी के नाम पर चलाया गया था।

धौलपुर राज्य के सिक्के
धौलपुर में 1804 ई. में टकसाल की स्थापना हुई।
यहाँ के सिक्के 'तमंचाशाही' कहलाते थे क्योंकि उन पर तमंचे का चिह्न लगाया जाता था।

जयपुर राज्य के सिक्के
जयपुर राज्य की मुद्रा को 'झाड़शाही' कहते थे, क्योंकि उस पर 6 टहनियों के झाड़ का चिह्न बना रहता था।
महाराजा माधोसिंह और रामसिंह ने स्वर्ण सिक्के चलाये। माधोसिंह के रुपये को 'हाली' कहा जाता था।
जयपुर में ताँबे के सिक्के का प्रचलन 1760 ई. से माना जाता है इसे 'झाड़शाही पैसा' कहते थे जिसका वजन 262 ग्रेन था।

अलवर राज्य के सिक्के
अलवर राज्य की टकसाल राजगढ़ में थी। यहाँ 1772 ई. से 1876 ई. तक बनने वाले सिक्के 'रावशाही रुपया' कहलाता था जिसका वजन 173 ग्रेन था। अलवर रियासत के ताँबे के सिक्के 'रावशाही टक्का' कहलाते थे।

भरतपुर राज्य के सिक्के
1763 ई. में सूरजमल ने बादशाह शाहआलम के नाम के चाँदी के सिक्के जारी किए थे।
ताँबे के सिक्कों का प्रचलन 1763 से 1891 ई. तक रहा। भरतपुर राज्य में दो टकसालें थी- डीग और भरतपुर।

शाहपुरा राज्य के सिक्के
यहाँ मेवाड़ के 'चित्तौड़ी' और 'भिलाड़ी' सिक्कों का प्रचलन था।
1760 ई. में शाहपुरा के शासक ने सिक्का चलाया जिसे 'ग्यारसंदिया' कहते थे।

बूँदी राज्य के सिक्के
बूंदी राज्य में 1759 से 1859 ई. तक 'पुराना रुपया' प्रचलित था।
अकबर द्वितीय (1806- 1837 ई.) के ग्यारहवें वर्ष 'ग्यारह-सना' (186 ग्रेन) सिक्का जारी किया गया था।
1859 से 1866 ई. के मध्य 'रामशाही रुपया' प्रचलित रहा। यहाँ 'हाली' और 'कटारशाही' सिक्के भी जारी किए गए थे।
1901 ई. में कलदार के साथ 'चेहरेशाही' नामक चाँदी का रुपया चलाया गया जो 1925 ई. में बंद कर दिया गया।
बूंदी के ताँबे के सिक्के को 'पुराना बूंदी का पैसा' कहा जाता था। बूंदी में स्वर्ण मुद्रा का अभाव दिखाई देता है।

कोटा राज्य के सिक्के
मध्यकाल में यहाँ माण्डू और दिल्ली के सुल्तानों के सिक्के चलते थे। यहाँ 'हाली', 'मदनशाही' और 'गुमानशाही' सिक्कों का भी प्रचलन रहा। यहाँ ताँबे के सिक्के भी बनते थे जो चौकोर होते थे।
कोटा राज्य के सिक्के कोटा, गागरोन और झालरापाटन में ढलते थे। 1901 ई. में स्थानीय सिक्कों के स्थान पर कलदार का चलन प्रारम्भ हो गया।

झालावाड़ राज्य के सिक्के
झालावाड़ में कोटा के सिक्के प्रचलित थे। यहाँ 1837 से 1857 ई. तक 'पुराने मदनशाही' सिक्के प्रचलन में थे।
'नये मदनशाही' सिक्कों का प्रचलन 1857 से 1891 ई. तक रहा। इस पर 'पंच पंखुड़ी' और 'फूली' का चिह्न अंकित रहता था। ताँबे के सिक्कों में 'मदनशाही पैसा' एवं 'मदनशाही टंका' चलते थे।

हाड़ौती के सिक्के

बूँदी (Bundi)
  • 1759-1859 ई. तक पुराना रुपया।
  • अकबर द्वितीय (1806- 1837 ई.) के 11वें वर्ष 'ग्यारह सना' सिक्का जारी, वजन 186 ग्रेन।
  • 1859-1866 ई. में रामशाही।
  • हाली, कटारशाही सिक्के।
  • 1901 ई. में कलदार के साथ चेहरेशाही 'चाँदी का सिक्का' 1925 में बंद।
  • स्वर्ण मुद्रा का अभाव।

कोटा (Kota)
  • दिल्ली एवं मांडु के सिक्कों का प्रचलन।
  • मदनशाही, गुमानशाही सिक्कों का प्रचलन।
  • ताँबे के सिक्के चौकोर।
  • टकसाल-गागरोन (झालावाड़), कोटा, झालरापाटन (झालावाड़)।

झालावाड़ (Jhalawar)
  • कोटा के सिक्के प्रचलित।
  • 1837-1857 ई. मदनशाही।
  • नये मदनशाही 1857-1891 पर पंच पंखुड़ी फूल चिह्न के सिक्के।

सिरोही राज्य के सिक्के
सिरोही की कोई स्वतन्त्र मुद्रा नहीं थी और न ही यहाँ टकसाल थी। मेवाड़ का चाँदी का 'भीलाड़ी' और मारवाड़ का ताँबे का 'ढब्बूशाही' रुपया यहाँ प्रचलन में था।

अन्य रियासतों के सिक्के

किशनगढ़
चांदोड़ी नाम का सिक्का-166 ग्रेन (मेवाड़ की राजकुमारी चाँदकुँवरी के नाम पर)

धौलपुर
1804 ई. में टकसाल की स्थापना, सिक्के 'तमंचाशाही' (तमंचों का चिह्न), शाह आलम नाम का सिक्का।

अलवर
टकसाल राजगढ़ में 1772 से 1876 ई. तक बनने वाले सिक्के रावशाही रुपया (173 ग्रेन)
ताँबे का सिक्का रावशाही टका।

भरतपुर
डीग व भरतपुर में टकसाल 1763 ई. में शाहआलम नाम से सिक्का- सूरजमल द्वारा चलाया गया।
ताँबे के सिक्कों का प्रचलन 1763-1891 ई. तक।

राजस्थान के सिक्के व रियासतें 

क्र. सिक्के रियासतें
1. ढींगला, सिक्का एचली, चित्तौड़ी, भीलाड़ी, उदयपुरी, चाँदोड़ी, शाहआलमी स्वरूपशाही, फतेहशाही, भोपालशाही, भींडरिया मेवाड़
2. पदमशाही सलूम्बर
3. भिलाड़ी, ढब्बुशाही सिरोही राज्य
4. अखयशाही, मुहम्मदशाही, डोडिया (ताँबे) जैसलमेर राज्य
5. गधिया सिक्के, विजयशाही (बाइसंदा), भीमशाही, गजशाही, लल्लूलिया, ढब्बूशाही (ताँबे का) जोधपुर राज्य
6. बिजेशाही (विजयशाही) पाली टकसाल
7. गजशाही, गंगाशाही बीकानेर राज्य
8. शाहआलमी किशनगढ़ राज्य
9. अमरशाही नागौर टकसाल
10. इकतीसंदा कुचामन टकसाल (डीडवाना-कुचामन)
11. अठ्यासिया, चाँदशाही मेड़ता टकसाल (नागौर)
12. ग्यारसंदा/संदिश, माधोशाही शाहपुरा राज्य
13. चंवरशाही टोंक
14. झाड़साही, मुहम्मदशाही, हाली जयपुर राज्य
15. रावशाही रूपया, रावशाही टका अलवर राज्य
16. शाहआलमी भरतपुर राज्य
17. तमंचाशाही धौलपुर राज्य
18. माणकशाही करौली राज्य
19. मदनशाही, हाली, गुमानशाही कोटा राज्य
20. रामशाही, कटारशाही, चेहरेशाही, पुराना रूपया, ग्यारह सना बूँदी राज्य
21. पुराने मदनशाही, नये मदनशाही झालावाड़ राज्य
22. सालिमशाही, नया सालिमशाही, मुबारकशाही प्रतापगढ़ राज्य
23. लक्ष्मणशाही, सालिमशाही बाँसवाड़ा राज्य
24. उदयशाही, त्रिशूलिया, पत्रीसिरिया डूंगरपुर

  • झाड़शाही सिक्का जयपुर रियासत में प्रचलित था।
  • बसंतगढ़ शिलालेख चावड़ा वंश से संबंधित है।
  • कनसवा (कोटा) एवं मानमोरी (चित्तौड़गढ़) से ज्ञात होता है कि मौर्यों का सम्बन्ध राजस्थान से था।
  • बिजोलिया शिलालेख में चौहानों को 'वत्सगौत्र' ब्राह्मण कहा गया है।
  • पाशुपत सम्प्रदाय से सम्बद्ध गुरू विश्वरूप का उल्लेख हर्ष पर्वत शिलालेख 973 ई. में मिलता है।
  • ढिंगला, भींडरिया और नाथद्वारा मेवाड़ में प्रचलित तांबे के सिक्के हैं।
  • झाड़शाही सिक्के राजस्थान की जयपुर रियासत में प्रचलित थे।
  • 'आबू के अभिलेख' के लेखक शुभचन्द्र है।
  • मुगल शासक अकबर ने चित्तौड़ विजय के उपरान्त मेवाड़ में सिक्का एलची जारी किया।
  • विजौलिया लेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण वासुदेव ने करवाया।
  • राजस्थान में यूनानी राजाओं के सिक्के, नालियासर, बैराठ तथा नगरी में प्राप्त हुए हैं।
  • अखेशाही सिक्के जैसलमेर रियासत में प्रचलित थे।
  • बरली का शिलालेख जो अशोक काल से पूर्व का माना जाता है, अजमेर में स्थित है।

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