राजस्थान का इतिहास कांस्य युगीन सभ्यता/सिन्धु घाटी सभ्यता/नगरीय सभ्यता

राजस्थान का इतिहास कांस्ययुगीन सभ्यता/सिन्धु घाटी सभ्यता/नगरीय सभ्यता

राजस्थान का प्राचीन इतिहास कांस्ययुगीन संस्कृति, सिंधु घाटी सभ्यता के विस्तार और प्रारंभिक नगरीय बसावटों से जुड़ा है, जहाँ मानव जीवन, व्यापार और सामाजिक विकास की शुरुआती झलक मिलती है।
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हड़प्पा सभ्यता

सिन्धु सभ्यता नाम जॉन मार्शल द्वारा दिया गया था। 1826 में चार्ल्स मेसन ने हड़प्पा क्षेत्र में एक बड़ा टीला देखकर सबसे पहले इस स्थान की ओर ध्यान खींचा। हड़प्पा की प्रारंभिक पहचान के कारण इसे कभी-कभी सिन्धु सभ्यता का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है, और इसी वजह से इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता नाम से भी जाना जाता है।
सिन्धु घाटी सभ्यता लगभग 13 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी और इसका काल डी.पी. अग्रवाल ने रेडियोकार्बन विधि से 2350–1750 ईसा पूर्व निर्धारित किया है। यह संस्कृति न केवल उत्तर-पश्चिम भारत बल्कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ भागों तक विस्तृत थी।
इस सभ्यता के प्रथम उत्खनित स्थल हड़प्पा का कार्य 1920–21 में दयाराम साहनी और माधव स्वरूप वत्स ने किया था। यह नगर पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र में रावी नदी के बाएँ तट पर स्थित है। यहाँ से नटराज जैसी नृत्यमुद्रा वाली मूर्ति प्राप्त हुई थी।
  • दूसरा प्रमुख स्थल मोहनजोदड़ो है, जिसका उत्खनन 1922 में राखलदास बनर्जी द्वारा कराया गया।
  • गुजरात में भोगवा नदी के किनारे स्थित लोथल एक प्रमुख व्यापारिक नगर था, जहाँ से प्राचीन बन्दरगाह (गोदीवाड़ा) के अवशेष मिले हैं। इसी प्रकार धोलावीरा से स्टेडियम-जैसी संरचना प्राप्त हुई।
  • हरियाणा में स्थित बनवाली और राखीगढ़ी भी इस सभ्यता के महत्वपूर्ण स्थल हैं।
  • राखीगड़ी भारत में स्थित सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है। इस सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत 'अन्नागार' होती थी। भारत में सिन्धु घाटी का खोजा गया प्रथम स्थान रोपड़ (पंजाब) था।
  • इसे वर्तमान में रूपनगर कहते हैं। इसे 1950 में बी.बी. लाल ने खोजा था व उत्खनन 1953-54 में यक्ष दत्त शर्मा ने किया। रोपड़ में मनुष्य के साथ कुत्ते को भी दफनाया गया था।
  • सिन्धु घाटी के नगर दो भागों में विभक्त मिले। नगर का पूर्वी भाग अदुर्गीकृत व पश्चिमी भाग दुर्गीकृत होता था।
  • एकमात्र धोलावीरा (कच्छ, गुजरात) स्थान है जहाँ नगर तीन विभागों में विभक्त मिला। धोलावीरा से सुनामी के साक्ष्य भी मिले, धोलावीरा से साइनबोर्ड व खेल स्टेडियम भी मिला।
  • चंहुदड़ो (पाकिस्तान) से अधर राज प्रसाधन सामग्री, मनके निर्माण के कारखाने मिले हैं।
  • इस सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक था। सिन्धु सभ्यता कांस्य युगीन थी, ये सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। यह प्रथम नगरीय क्रान्ति का साक्ष्य है इसमें 16 की इकाई का महत्व था। इसके अंक 16 के गुणज में थे।

ताम्र पाषाणिक संस्कृति के राजस्थान में स्थान

ताम्र पाषाणिक का अर्थ है पत्थर व ताँबे की उपयोग की व्यवस्था। मानव ने सर्वप्रथम 5 हजार ईसा पूर्व ताँबे की खोज की थी।
इस संस्कृति के लोग पत्थर के साथ-साथ ताँबे की वस्तुओं का उपयोग करते थे। कई बार काँसे का उपयोग भी करते थे। यह सभ्यता ग्रामीण पशुचारी व कृषक समुदाय से संबंधित थी।
यहाँ लोग पहाड़ियों व नदियों के आस पास रहते थे। इस संस्कृति के लोग गैरिक मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे।
इसके अलावा काले व लाल (कृष्ण-लोहित) मृदभाण्ड इस संस्कृति में सर्वाधिक प्रचलित व सर्वाधिक प्राप्त हुए हैं।
यह मृदभाण्ड चाक से बनाये जाते थे। सर्वाधिक ताँबे के उपकरण (424 ताम्रवस्तु) मध्यप्रदेश के गुनेरिया स्थान से प्राप्त हुए।

विभिन्न ताम्रपाषाणिक स्थल
ताम्र व पाषाण युगीन सभ्यता अवशेष-
  • आहड़ - उदयपुर
  • गिलुण्ड - राजसमंद
  • बालाथल - उदयपुर
  • ओझियाणा - भीलवाड़ा
  • गणेश्वर - सीकर
  • कालीबंगा - हनुमानगढ़

1. कालीबंगा सभ्यता

यह सिन्धुघाटी सभ्यता के समकालीन राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थल है। सिन्धु घाटी में सर्वप्रथम 1921 में हड़प्पा को खोजा गया। 1922 में मोहनजोदड़ो को खोजा गया।
ये दोनों स्थान वर्तमान में पाकिस्तान में चले गये। सिन्धु घाटी का तीसरा महत्वपूर्ण स्थल कालीबंगा (हनुमानगढ़) है। दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सिन्धु घाटी की तीसरी राजधानी कहा है।
इसकी सर्वप्रथम जानकारी इटली के L.P. टेसीटोरी (1887-99) ने दी थी।
कालीबंगा खोज 1951-52 में अमलानन्द घोष ने की तथा इसका विस्तृत उत्खनन 1961 से 1969 तक ब्रजवासी लाल व बालकृष्णा थापर ने किया था। यह क्षेत्र घग्घर नदी के किनारे हनुमानगढ़ जिले में स्थित है (घग्घर नदी सरस्वती नदी का अवशेष है)।

नोट
घग्घर नदी सरस्वती के अवशेष पर बहती है। ऋग्वेद में उल्लिखित 99 नदियों में से सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण नदी के रूप में उल्लेख हुआ है। सरस्वती को ऋग्वेद में नदीत्मा (नदियों में श्रेष्ठ) कहा गया है। ऋग्वेद में राजस्थान की 3 नदियों का उल्लेख है।
  1. सरस्वती
  2. दृषद्वती
  3. आपया
बंगा शब्द पंजाबी भाषा का है जिसका अर्थ है बंगड़ी या चूड़ी कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ काली चूड़ियाँ है। कालीबंगा से हड़प्पा व प्राक् हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। इस सभ्यता का समय 2350 से 1750 ई. पू. है, रेडियो कार्बन पद्धति द्वारा माना गया है। कालीबंगा संग्रहालय की स्थापना 1985-86 में हुई।

कालीबंगा की विशेषता
  • नगर नियोजन - नगर का दो भागों में विभाजन
  • पश्चिमी भाग दुर्गीकृत तथा पूर्वीभाग अदुर्गीकृत
  • कालीबंगा से 5 स्तर मिले हैं, 2 स्तर हड़प्पा से प्राचीन व 3 हड़प्पा के समकालीन हैं।
  • समकोण पर काटती सड़कें। ग्रिड सिस्टम/शतरंज जैसी।
  • पक्की व ढकी हुई नालियों की व्यवस्था।
  • भारत प्राचीन सामूहिक तंदूर मिले।
  • कपड़े लिपटा उस्तरा व मिट्टी पैमाना मिला।
  • बेलनाकार मुहर जो मेसोपोटोमिया संबंध बताया जाता।
  • कलश शवादान साक्ष्य।
  • अण्डाकार कब्र मिली जिन्हें चिरायु कक्ष कहते हैं।
  • सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन पर आधारित राजस्थान का आधुनिक नगर - जयपुर है।
  • ऋग्वेद के सातवें मण्डल की रचना सरस्वती नदी (घग्घर) की उपत्यका (किनारे) में हुई थी।
  • जुते हुए खेत के एकमात्र साक्ष्य यहीं से प्राप्त हुए हैं। अग्निकुण्ड के दृश्य, 7 अग्निवेदिकाएँ मिलीं, युग्म समाधियाँ, बेलनाकार मुहरें, ताँबे के बैल की आकृति, भूकम्प के साक्ष्य, ईंटों के मकान के साक्ष्य मिले हैं।
  • मुख्य फसलें गेहूं व जौ थी। कपास को इस सभ्यता में सिण्डन कहा जाता था। कालीबंगा सिन्धु सभ्यता का एकमात्र स्थल है,
  • यहाँ से मातृदेवी की मूर्तियाँ प्राप्त नहीं हुई। सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी (प्रथम: द्वितीय हड़प्पा, मोहनजोदड़ो) व इसे दीन हीन बस्ती कहा जाता है।
  • ये लोग शव को गाड़ते थे, शव के पास बर्तन, गहने आदि रखते थे। ये पुनर्जन्म में विश्वास करते थे।
  • इनकी लिपी दायें से बायें लिखी जाती थी जिसे सर्पाकार, गोमूत्राकार या बुस्ट्रोफेदन कहते हैं। इसको अभी तक पढ़ा नहीं गया है।
  • यहाँ से अग्नि वैदिकाएँ भी (हवन कुण्ड) मिली हैं। इनमें जानवरों की हड्डियाँ भी मिली हैं जो उनकी बली प्रथा प्रचलन को सिद्ध करती है। इनके चूल्हे वर्तमान तन्दूर की तरह के थे।
  • सिन्धु घाटी में जो घर मिले हैं उनके दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर गली में खुलते हैं। कालीबंगा में भी ऐसे ही घर मिले हैं। इसका एकमात्र अपवाद लोथल (गुजरात) है।
  • कालीबंगा से खिलौना गाड़ी मिली है भूकम्प के अवशेष मिले हैं। कालीबंगा से काले मृद पात्र मिले हैं। हरिण चित्र युक्त बाहर खुरदरे चित्र मिले।
  • यहाँ से जो प्राक् हड़प्पा मृदभाण्ड मिले हैं उन्हें अमलानंद घोष ने 'सोथी मृदभाण्ड' कहा।
  • गहुँ व जौ के अवशेष मिले समकोण पर दो फसलें एक साथ बोयी जाती थी। सिन्धु घाटी में कपास को 'सिडन' कहा जाता था (कालीबंगा से बालक की खोपड़ी मिली है जिसमें छह छेद हैं ये 'शल्य चिकित्सा' के अवशेष माना गया)।
  • कालीबंगा से 7 अग्नि वैदिकाएँ मिली हैं। सिन्धु से किसी प्रकार के मंदिर अवशेष नहीं मिले (कालीबंगा से 'स्वास्तिक' का चिह्न मिला है) यहाँ सिक्के मिले हैं।
  • एक सिक्के पर व्याघ्र व दूसरे पर कुमारी देवी चित्र मिला है। ये कुत्ते को पालते थे। यहाँ पक्की ईंटों के साथ कच्ची ईंटों के भी मकान मिले हैं, कच्ची ईंटों के मकान मिलने कारण इसे 'दीन हीन बस्ती' कहा गया है।
  • कालीबंगा नगर भी रक्षा प्राचीर से घिरा था इसलिए कालीबंगा को 'दोहरे परकोटे की सभ्यता' कहा है।
  • कालीबंगा में सड़कें 5-7.20 मी. तक चौड़ी थी व गलियों की चौड़ाई 1.8 मी. थी। कालीबंगा से पशु अलंकृत ईंटें मिली हैं। कालीबंगा से मिट्टी, ताँबे, काँसे की चूड़ियाँ मिली।
  • कालीबंगा से में बलि प्रथा का प्रचलन था। कालीबंगा से तीर भी मिले हैं। कुत्ता कालीबंगा का पालतु पशु था।
  • कालीबंगा हड़प्पा की तरह अवतल चक्की, सालन, सिल बट्टा सेलखड़ी मिट्टी की मुहरें मिली। कालीबंगा में शव दफनाते थे (कालीबंगा से मातृदेवी की कोई मूर्ति नहीं मिली।)

2. सोंथी सभ्यता

बीकानेर खोज - 1953 अमलानंद घोष ने इसे 'कालीबंगा प्रथम' कहते हैं।

3. रंगमहल सभ्यता

हनुमानगढ़, घग्घर नदी, उत्खनन् 1952 हन्नारिड (स्वीडन) द्वारा। इसका समय 1000 से 300 ई.पूर्व है।
यहाँ कनिष्क प्रथम व कनिष्क तृतीय की मुद्रा पंचमार्क के सिक्के मिले हैं। रंगमहल से 105 ताँबे के सिक्के मिले।
गुरु शिष्य की मूर्तियाँ मिली, गांधार शैली की मूर्तियाँ मिली हैं। यहाँ सें मृणमूर्तियाँ मिली जिन पर गांधार शैली की छाप के कुछ पंचमार्क सिक्के मिले।
  • वासुदेव काल के सिक्के मिले। यहाँ से 105 ताँबें के सिक्के मिले।
  • गुरु शिष्य की मूर्ति मिली। यहाँ से घंटाकार मृदपात्र, टोंटींदार घड़े, प्याले, कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपक, दीपदान, धूपदान मिले। अनेक मृणमूर्तियाँ मिली।
  • जिन पर श्रीकृष्ण के अंकन मिले। ये मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं। बच्चों के खेलने की मिट्टी की छोटी पहियेदार गाड़ी मिली।
  • पीलीबंगा - सरस्वती/घग्घर, हनुमानगढ़ सिंधु सभ्यता अवशेष। विशेष प्रकार के घड़े मिले। बाबा रामदेव का मंदिर मिला। पीपल वृक्ष के प्रमाण मिले।

4. गणेश्वर सभ्यता

कांतली नदी, नीम का थाना (सीकर) इस सभ्यता की खोज 1972 में रतनचन्द्र अग्रवाल ने की व इसका उत्खनन 1978 में रतनचन्द्र अग्रवाल व विजय कुमार ने किया।
गणेश्वर को 'ताम्र सभ्यताओं की जननी' कहा जाता है। ध्यान रहे ताँबा नीमकाथाना को व ताम्रवती नगरी आहड़ को कहा जाता है।
इस सभ्यता का समय 2800 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व माना गया है।
यहाँ से प्राक् हड़प्पा व हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। यहाँ भवन निर्माण में पत्थर का उपयोग होता था।
यहाँ से पत्थर के पुल व मकान, ताँबे का मछली पकड़ने का कांटा मिला है। दोहरी पेचदार पिनें मिली हैं।
ऐसी पिनें मध्य एशिया में मिली हैं। सिन्धु घाटी में ताँबा यहीं से निर्यात होता था। इसलिए इसे 'पुरातत्व का पुष्कर' कहा जाता है। यहाँ के लोग मांसाहारी थे।
यहाँ से 2 हजार ताँबे के उपकरण मिले, गणेश्वर से नालीदार प्याला मिला। यहाँ से प्राप्त ताँबें की सामग्री में 99 प्रतिशत ताँबा था।
गणेश्वर से जो मृद्पात्र प्राप्त हुए हैं वे 'कृष्णवर्णी मृदपात्र/गैरूक मृदपात्र' कहलाते हैं।
गणेश्वर से प्राप्त 'रिजवर्ड शिल्प मृदभाण्ड' गणेश्वर के अलावा सिन्धु घाटी के बनवाली (हरियाणा) से मिला है।
गणेश्वर सभ्यता को ताँबा, खेतड़ी एवं अलवर की खो-दरीबा नामक ताँबे की प्रसिद्ध खान से प्राप्त होता था।

5. आहड़ सभ्यता

ताम्रवती नगरी/आघाटपुर / धुलकोटा-उदयपुर- आहड़ में मेवाड़ के महाराणाओं का दाह संस्कार होता था इसे 'महासतियों का टिल्ला' भी कहा है।
शिलालेखों में आहड़ का प्राचीन नाम 'ताम्रवती' मिलता है। 10वीं 11 वीं शताब्दी में इसे 'आघाटपुर' नाम से जाना जाता था। स्थानीय लोग इसे धूलकोट कहते थे। यहाँ के लोग लाल, भूरे व काले मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे जिन पर रेखीय व सफेद बूँदों वाले डिजाइन बने हुए हैं।
आहड़ सभ्यता आयड़ नदी के किनारे है। आहड़ संस्कृति बनास व उसकी सहायक नदियों के आस-पास पनपी इसलिए इसे 'बनास संस्कृति' भी कहते हैं।
इसकी खोज-1953 में अक्षय कीर्ति व्यास, 1956 आर.सी. अग्रवाल ने तथा विस्तृत उत्खनन-1961-62 में हंसमुख धीरजलाल सांकलिया, वी.एन. मिश्र ने किया। आहड़ से पाषाण-ताम्र तथा लौहयुगीन अवशेष मिले हैं।
इस सभ्यता का समय 1800 ई.पू. से 1200 ई.पू. है। गोपीनाथ शर्मा ने इस सभ्यता का समय 1900 से 1200 ई.पू. बताया है।
बड़े अनाज रखने के मृद्भाण्डों को स्थानीय भाषा में गोरे व कोट कहते हैं। ये सभ्यता आठ बार बनी व उजड़ी।
आहड़वासियों के आभूषण सीप, बीज, मूंगा, मूल्यवान पत्थरों के बने होते थे। मृतक को आभूषण के साथ गाड़ते थे।
जिसका सिर उत्तर व पाँव दक्षिण में करते थे। ये ताँबा गलाना जानते थे।
घर में छह चूल्हे मिले। मछली, बकरी, हरिण हड्‌डी मिली। बलुआ पत्थर, सिलबटा मिला। ताँबे धातु का उपयोग करते थे।
तश्तरी व पूजा के काम आने वाली धूप दानियाँ/ईरानीयाँ शैली में मिली इस सभ्यता का संबंध ईरान से बताया गया है।
ताँबा गलाने की भट्टी मिली है। बिना हत्थे के जलपात्र मिले ऐसे जलपात्र पूर्वी ईरान में पाए गए।
मकान ईंटों तथा छत बाँस की चटाइयों पर मिट्टी लेप करके बनाते थे। सिन्धु सभ्यता को ताम्रधातु तथा उससे बनी वस्तुओं की सप्लाई (आपूर्ति) आहड़ सभ्यता से होती थी।
यहाँ ताम्र उद्योग में बर्तन व उपकरण बनाना प्रमुख व्यवसाय था। आहड़ सभ्यता के लोग मकान गीली मिट्टी (गारा) व पत्थर से बनाते थे। नींव में प्रायः पत्थरों का प्रयोग करते थे। पशुपालन इस अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था।
आहड़ से एक बैल की मूर्ति मिली जिसे 'बनाशियल बुल' नाम दिया गया। इसके अलावा आहड़ से बहुमुखी चूल्हे, पैर से चालित चक्की, सूत कातने के चरखे, लोहे की वस्तुएँ, ईरानी धूप, दीप पात्र मिले हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में लोहे का प्राचीनतम साक्ष्य आहड़ से मिला है। चावल व बाजरा आहड़वासियों का मुख्य खाद्यान्न फसल थी। ध्यान रहे सिन्धु घाटी में चावल के अवशेष लोथल (गुजरात) से मिले हैं।
ताम्र निर्मित छल्ले, चूड़ियाँ, सुरमें की सलाइयाँ, कुल्हाड़ियाँ आदि भी बनाई जाती थी। जहाँ कालीबंगा सभ्यता नगरीय थी वहीं आहड़ सभ्यता ग्रामीण थी।
आहड़ में पानी सोखने के लिए गड्‌ढे बने मिले जिनमें घड़े के ऊपर घड़ा रखते थे। इस सभ्यता का संबंध ईरान से है, जबकि सिन्धु सभ्यता का संबंध मेसोपोटोमिया से है। बर्तन निर्माण में चाक का प्रयोग किया गया। एक मुद्रा त्रिशूल अन्य मुद्रा यूनानी शैली। कपड़ों की छपाई के ठप्पे, शरीर से मैल छुड़ाने के लिए झांबे। तौल के बाँट मिले।
गेहूँ, ज्वार, चावल के प्रमाण मिले। पत्थर की अन्न पीसने की चक्की, रंगों का प्रयोग, ताँबा गलाने की भट्टी। कुत्ता, गेंड़ा, हाथी, मेंढ़क पशु पालने के प्रमाण मिले।

आहड्‌वासियों के मकान
आहड़वासी काला पत्थर/शिष्ट पत्थर से नींव भरते थे। दीवार धूप में सुखाई ईटों, पत्थरों से बनाते थे।
मकान बड़े व आयाताकार होते थे। मकान की छत पर बाँस बिछा कर उस पर मिट्टी का लेप लगाते थे।
मकान का फर्श चिकनी मि‌ट्टी में पीली मिट्टी मिलाकर बनाते, मकानों का पानी 15 से 20 फीट गहरे गड्‌ढे में डालते, गड्ढे में घड़े के ऊपर घड़ा रखकर पानी सोखने के लिए 'शोषण पात्र' बनाते यह पद्धति चक्रकूप पद्धति कहलाती थी।

आहड़ में मुद्रा
ताँबे की 6 मुद्रा व 3 मोहरें मिली थी। एक मुद्रा पर त्रिशुल व दूसरी पर यूनानी देवता अपोलो (हाथ में तीर व पीछे तरकश) का चित्र बना था। मुद्रा पर यूनानी भाषा में मोहरों पर 'बिहितभ विस', 'पलितसा' तथा 'तातीय तोम सन' अंकित है। लेख लिखा था।

आहड़ में मृदभाण्ड
लाल-काले (कृष्ण लोहित) मृदभाण्ड मिले व भूरे मृदभाण्ड भी मिले, श्वेत रंग के चित्रित पात्र भी मिले, चित्रों पर रेखा व ज्यामितिय आकार की बहुलता है।

आहड़ के प्रमुख स्थल

1. गिलूण्ड (राजसमंद)
इसकी खोज 1957-58 में बी.बी. लाल ने की। बनास नदी के पास ताम्र व लौहयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
यहाँ पक्की ईंटों का प्रयोग भी ज्ञात हैं। यह आहड़ संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना जाता है।
यह एकमात्र ताम्रपाषाणिक स्थल है जहाँ से पत्थर के फलक उद्योग के साथ मकानों के निर्माण में पक्की ईंटों के साक्ष्य मिले हैं।
यहाँ से 'स्तम्भ गर्त' के प्रमाण भी मिले हैं। ये सभ्यता ताम्रयुगीन मानी जाती है। इसका समय 1700-1300 ई. पूर्व माना जाता है।
यहाँ से काले रंग के चित्रित पात्रों पर नृत्य मुद्रा में चकतेदार हरिण के चित्र मिले। यहाँ से सरसों के दाने मिले।

2. बागौर (भीलवाड़ा)
कोठारी नदी के किनारे भीलवाड़ा जिले में कपड़े के अवशेष, बैल, कुत्ते की मृणमूर्ति, प्राचीन पशुपालन के अवशेष, आदिम संस्कृति संग्रहालय कोठारी नदी के किनारे स्थित इस स्थान से मध्य पाषाण काल तथा ताम्रयुग के अवशेष मिले हैं।
इसका उत्खनन 1967-69 में V.N. मिश्र व डॉ. L.S. लेस (जर्मनी) ने किया था।
बागौर से हाथ, कान के काँच के बने आभूषण मिले हैं। बागौर (भीलवाड़ा) व आदमगढ़ (मध्यप्रदेश) से भारत में पशुपालन के प्राचीनतम पाषाणकालीन साक्ष्य मिले।
बागौर से 14 प्रकार से सर्वाधिक कृषि किए जाने के अवशेष मिले। पत्थर के उपकरण मिले।
हस्त कुठार बागौर सभ्यता का प्रमुख हथियार था। हाथ व कान के काँच के बने आभूषण मिले।
बागौर में पाषाणीक काल के पत्थर के औजारों का विशाल भण्डार मिला।
यह भारत में पाषाणिक औजारों का विशाल भण्डार मिला। यहाँ से जली हुई हड्डी के 5 नर कंकाल, मांस के भुने जाने के साक्ष्य मिले।

3. बालाथल (वल्लभ नगर, उदयपुर)
इसकी खोज 1962-63 V.N मिस्त्र ने की थी। नवीनतम ज्ञात ताम्र पाषाण स्थल से ताम्र व पाषाण युग के अवशेष मिले हैं।
इसका उत्खनन भी V.N. मिश्र ने 1993 में किया था। यहाँ से रेड स्लिप वेयर (लाल लेप मृद्भाण्ड) यू आकार के चूल्हों के साक्ष्य मिले।
यहाँ से 11 से 12 कमरों से युक्त दुर्गनुमा भवन मिला। योगी मुद्रा में शवाधान के साक्ष्य मिले।
बालाथल से एक विशाल मिट्टी की दीवार द्वारा की गई घेरे बंदी के प्रमाण मिले हैं।
बालाथल से 4 हजार वर्ष पुराना कंकाल मिला है जो भारत में कुष्ठ रोग का प्राचीनतम प्रमाण माना जाता है।
इसके अलावा ताँबे की ढेर सारी वस्तुएँ, हड्डियों के बने औजार, बड़े पैमाने पर पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं।
बालाथल बैराठ के बाद दूसरा स्थान है जहाँ से कपड़े के अवशेष मिले। बालाथल से बैल, सांड, कुत्ते, मृण्मय मूर्ति मिली।
यहाँ से हड़प्पा समय के मृदभाण्ड मिले। हाथी व चन्द्रमा अंकित ताँबे के सिक्के मिले। पशुपालन, मछली पकड़ना, ताँबे के औजार बनाने के अवशेष प्राप्त हुए।
यहाँ से 500 ई.पू. का हाथ से बना कपड़ा मिला।
लोहा गलाने की 5 भट्टी मिली, ताँबे के सिक्के मिले जिन पर हाथी व चन्द्रमा की आकृति थी।

4. ओझियाणा (भीलवाड़ा)
कोठारी नदी के किनारे स्थित उत्खनन सन् 2000 में बी.आर. मीणा व आलोक त्रिपाठी। सर्वाधिक गायों के अवशेष मिले।
गायों व सफेद बैल की मूर्ति मिली इस बैल को ओझियाणा बुल कहा गया।

ताम्र अवशेष मिलने वाले स्थान
  • पिण्ड पाडलिया (चित्तौड़)
  • कुराडा (नागौर)
  • झाड़ोल (उदयपुर)
  • पुंगल (बीकानेर) - आहड़ का नहीं
  • किरोडीत (जयपुर) - आहड़ का नहीं
  • मलाह (भरतपुर) - आहड़ का नहीं
  • एलाना (जालौर) - यहाँ से ताँबे के अवशेष मिले हैं।

लौहयुगीन सभ्यताएँ

लोहे का प्रथम साहित्यिक उल्लेख अथर्ववेद में हुआ है। अथर्ववेद में लोहे के लिए 'श्याम अयस या कृष्ण अयस' शब्द का प्रयोग किया गया है।
प्रथम पुरातात्विक साक्ष्य 1000 ई.पू. में अन्ता नामक स्थान (एटा जिला उत्तर प्रदेश) से प्राप्त हुआ है।
सर्वप्रथम एशिया माइनर की हिती नामक जाति ने 1300 ईसा पूर्व में लौह का प्रयोग किया।
भारत में सर्वप्रथम लोहे का प्रचलन ईरान के हकामनी शासकों द्वारा किया गया।
अष्टाध्यायी में लोहे के हल को 'कुशी' कहा गया है। पालि साहित्य में कुम्हार को कम्मार कहा गया है।
उत्तर वैदिक काल में भारतीयों को लोहे का ज्ञान हो गया था। भारत में लौहयुगीन संस्कृति के अधिकांश स्थल मध्यभारत व उत्तरी गंगाघाटी में मिले हैं।
लौहयुगीन सभ्यता के लोग विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्डों का प्रयोग करते थे जिन्हें 'चित्रित धूसर मृद् भाण्ड' कहा गया है।
जबकि राजस्थान के नोह से काले लाल मृदभाण्ड़ों के साथ लोहा प्राप्त हुआ है। जिनकी तिथि 1400 ईसा पूर्व है। सर्वप्रथम अंतरजीखेड़ा व नौह से लोहे की निर्मित हल्की हल प्राप्त हुई।

राजस्थान लौहयुगीन सभ्यता के स्थान
  1. रैढ़ सभ्यता,
  2. सुनारी सभ्यता,
  3. जोधपुरा सभ्यता,
  4. ईशवाल सभ्यता,
  5. नगर सभ्यता,
  6. नगरी सभ्यता,
  7. तिलवाड़ा सभ्यता
  8. नोह सभ्यता,
  9. बैराठ सभ्यता,
  10. नलियासर

1. रैढ़ (टोंक)
  • ढील नदी किनारे। उत्खनन 1938-40 में केदारनाथ पुरी। राजस्थान में लौहयुगीन सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है।
  • यहाँ लोहे के विशाल भण्डार प्राप्त हुए हैं। इसलिए इसे प्राचीन राजस्थान का टाटा नगर कहा जाता है।
  • यहाँ से पूर्व गुप्तकालीन समय तक के अवशेष मिले हैं।
  • यहाँ टूटे प्याले, मणके, यहाँ से अपोलोडोट्स का सिक्का व इण्डोससेनियन सिक्के मिले हैं।
  • रैढ़ (टोंक) से 3075 पंच मार्ग/आहत सिक्के मिले है जो भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं।
  • इन सिक्कों पर चिह्न उकेरित है। लेख विहिन ये सिक्के अधिकांशतः चाँदी के बने हैं।

2. सुनारी (सीकर)
  • इसका उत्खनन 1980 में हुआ।
  • सुनारी कांतली नदी के किनारे है।
  • यहाँ से लोहे की भट्टियाँ प्राप्त हुई है। सुनारी से लोहे को पिघलाने के लिए दो भट्टियाँ प्राप्त हुई।
  • यह भट्टियाँ खुले प्रकार की हैं तथा इनमें धौकनियाँ लगी हुई हैं। यह लोग चावल का प्रयोग नहीं करते थे।
  • घोड़े से रथ खींचते थे। धान (अनाज) संग्रहण का कोठा मिला है। लोहे का प्याला मिला।

3. जोधपुरा (कोटपूतली-बहरोड़)
  • साबी नदी के किनारे है।
  • यहाँ से लोहे की प्राचीनतम भट्टियाँ मिली हैं।
  • जोधपुरा से विशेष प्रकार के लोहे गलाने के फर्नेस मिले हैं जिनमें अवकरण प्रक्रिया द्वारा लोहा गलाया जाता था फिर उसे खुले फर्नेस में रखकर गर्म किया जाता था।
  • शुंग कुषाणकालीन सभ्यता के अवशेष मिले। काली पॉलिश युक्त मृद्भाण्ड मिले।
  • मौर्यकालीन अवशेष भी मिले हैं। जोधपुरा सभ्यता से डिश ऑन स्टैण्ड मिला है।

4. ईसवाल (उदयपुर)
  • यह प्राचीन औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है।
  • इसकी खोज 200 ई. में हुई है, यहाँ से भी लौहयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
  • ऊँट के दांत मिले। नौह (भरतपुर) भी लौहयुगीन सभ्यता का स्थल है।

5. नगर (टोंक)
  • इसे खेड़ा सभ्यता भी कहते हैं।
  • मालव जनपद का प्रमुख स्थान था।
  • यहाँ से 6000 ताँबे के सिक्के मिले हैं। जो मालव जनपद के थे, सर्वाधिक सिक्के मालव जनपद के से मिले हैं।
  • इन सिक्कों को कार्लाइल ने खोजा था।
  • ये सिक्के हल्के व छोटे हैं। यहाँ से महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा व रति-कामदेव की मूर्ति मिली।
  • पत्थर पर मोदक के रूप में गणेश जी का अंकन मिला। देवी दुर्गा का अंकन मिला।
  • फनधारी नाग का अंकन, कमल धारण किए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा मिली है।

6. नगरी (चित्तौड़गढ़)
  • उत्खनन-1904. डी. आर. भण्डारकर।
  • नगरी का प्राचीन नाम मध्यमिका (चित्तौड़गढ़) था।
  • यहाँ से शिवि जनपद के सिक्के मिले।
  • गुप्तयुगीन मंदिर, चार चक्राकार कुएँ, 5वीं शताब्दी (गुप्तकाल) निर्मित नटराज शिव मूर्ति में राजस्थान नटराज मूर्ति निर्माण के प्राचीनतम साक्ष्य भी मिले हैं।

7. तिलवाड़ा (बालोतरा)
  • यह लूणी नदी के किनारे स्थित है।
  • इसकी खोज वी.एन. मिश्र ने की।
  • इसे 500 ई.पू. से 200 ई. पूर्व बताया गया है।
  • अग्निकुण्ड मिला जिसमें मानव अस्थिभस्म मिले।
  • लोहे के टुकड़े, काँच की चूड़ियाँ, सीप की चूड़ी मिली है।

8. नोह (भरतपुर)
  • रूपारेल नदी के किनारे।
  • इसका उत्खनन 1963-67 में रतनचन्द्र अग्रवाल व डेविडसन ने किया।
  • यहाँ से लौहयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
  • यहाँ से काले, लाल मृद्भाण्ड मिले।
  • कुल्हाड़ी व चम्मच मिली।
  • यहाँ से 5 संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं।
  • वैदिक सभ्यता के अवशेषों में ताम्र सिक्के, चित्रित स्लेटी तथा गैरू रंग के मृद्भाण्ड मिले हैं।
  • कुषाणयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले।
  • मौर्ययुगीन सभ्यता के अवशेष मिले।
  • पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता के अवशेष मिले।
  • बारहवीं शताब्दी के अवशेष मिले।
  • नोह (भरतपुर) से 1700 वर्ष पुरानी पक्षों चित्रित ईटें भी मिली हैं।
  • नोह से 1.5 मीटर ऊँची यक्ष की मूर्ति मिली है जिसे 'जोख बाबा' नाम दिया गया।
  • कुषाण शासक कनिष्क व वासुदेव के सिक्के मिले हैं तथा गंदे पानी को एकत्रित करने के लिए चक्रकूप मिले हैं।

नोट
अनूपगढ़ व तरखान वाला का डेरा (अनूपगढ़) से भी वैदिकयुगीन मिट्टी के बर्तन मिले हैं। सुनारी (सीकर) से भी वैदिक सभ्यता के अवशेष मिले हैं।

9. बैराठ सभ्यता
  • बाणगंगा नदी कोटपूतली-बहरोड़।
  • सर्वप्रथम यहाँ से 1837 में कैप्टन बर्ट ने बीजक की डूंगरी से भाब्रु शिलालेख खोजा था।
  • इस शिलालेख में बुद्ध, धम्म व संघ नाम मिलते हैं।
  • शिलालेख में बौद्ध धर्म से संबंधित त्रिरत्न (बुद्ध, धम्म व संघ) का उल्लेख एकमात्र इसी शिलालेख में हुआ है।
  • वर्तमान में यह शिलालेख कोलकाता के म्यूजियम में है।
  • इसके बाद यहाँ से 1871-72 में कारलाइल ने भीम की डूंगरी से एक दूसरा शिलालेख खोजा था।
  • यह स्थल मौर्यकाल में बौद्धधर्म का राजस्थान की लिहाज दृष्टि से केन्द्र बिन्दु था।
  • इसका उत्खनन 1936-37 में दयाराम साहनी 1962-63 में नील रत्न व कैलाश दीक्षित ने किया।
  • उससे पूर्व के अवशेष मिले हैं।
  • यहाँ भीम जी की डूंगरी, बीजक पहाड़ी, गणेश डूंगरी तथा महादेव डूंगरी है।
  • बीजक पहाड़ी पर अशोककालीन बौद्ध मंदिर व बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं, जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित थे।
  • सम्राट अशोक का ब्राह्मी लिपि से संबंधित भाब्रू शिलालेख भी यहीं से मिला है।
  • यहाँ से भगवान बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं मिली।
  • यहाँ से मौर्यकालीन चमकीली मिट्टी के पात्र मिले हैं जिन्हें एन.बी.पी. नाम दिया गया है।
  • यहाँ से एक बाला की मूर्ति मिली जिसके सिर व पैर नहीं हैं। यहाँ से शंख लिपि के प्रमाण मिले।
  • 1999 में बीजक पहाड़ी से अशोककालीन गोल मंदिर बौद्ध स्तूप व मठ मिला।
  • रामसिंह द्वितीय के समय उनके किलेदार किताजी खंगारोत ने उत्खनन करवाया यहाँ से एक स्वर्ण कलश मिला जिसमें भगवान बुद्ध की अस्थियाँ थी।
  • विराटनगर (कोटपूतली-बहरोड़) का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है।
  • यहाँ पर पाण्डवों ने अपना एक वर्ष का अज्ञातवास में बिताया था।
  • यहाँ से मंदिर के अवशेष मिले। बैराठ में पत्थर होते हुए भी ईंटों का प्रयोग किया गया है।
  • यहाँ सूती कपड़े से लिपटी 36 मुद्राएँ मिलीं एवं 8 पंचमार्क सिक्के भी मिले तथा 28 इण्डोग्रीक यूनानी शासकों के सिक्के भी मिले हैं।
  • अंलकृत घड़े मिले। स्वास्तिक का चिह्न (स्वास्तिक का चिहन कालीबंगा से भी मिला था।) मिला, त्रिरत्न चिह्न मिला, काले चमकीले मृदपात्र मिले।
  • बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) में ईंटों का बना फर्श मिला। बैराठ से बीजक पहाड़ी, गणेश इंगरी, भीम बेंगरी, महादेव डूंगरी स्थित है।
  • बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) से प्राप्त मृदभाण्डों पर स्वास्तिक व त्रिरत्न के चिन्ह मिले।
  • बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) का ध्वंस (विनाश) शैवधर्म के अनुयायी हूणों ने (मिहिर कुल हूण) ने किया था।

नोट
चीनी यात्री हवेन्सांग बैराठ आया था। इसने यहाँ 8 बौद्ध विहार बताये, हवेन्सांग ने बैराठ के लिये प्रो-लि-ये ता-लो शब्द का प्रयोग किया। बाडौली (चित्तौड़) का शिव मंदिर मिहिरकुल हुण ने बनवाया था। इतिहासकारों का अनुमान है कि बैराठ के बौद्ध मंदिर को अशोक ने बनवाया था। (अनुमान)

10. नलियासर (जयपुर)
जयपुर जिले में साँभर के पास स्थित नलियासर से खुदाई में आहत मुद्राएँ, उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, हुविष्क के सिक्के, इण्डोग्रीक (यूनानी) सिक्के, यौधेय गण के सिक्के तथा गुप्तयुगीन चाँदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
यहाँ से सोने से निर्मित खुदा हुआ सिंह का सिर, ताँबे की घण्टिका, मिट्टी के तोलने के बाट, मिट्टी की तलवार, नालियों के गोल पाईप, हड्डी का बना पासा तथा ताँबे की 105 मुद्राएँ भी मिली हैं जिनमें एक सिक्का कुषाण शासक कनिष्क का है।
नलियासर से प्राप्त सामग्री के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है यह स्थल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से चौहान युग तक की संस्कृति का केन्द्र रहा है।

राजस्थान के अन्य प्रमुख पुरातात्विक स्थल

स्थल स्थिति विशेष
जोधपुरा कोटपूतली - बहरोड़ साबी नदी के तट पर स्थित जोधपुरा से शुंग व कुषाणकालीन सभ्यता और लोहे की भट्टियों के अवशेष मिले हैं।
बरोर अनूपगढ़ हड़प्पाकालीन बरोर से मिट्टी के बर्तनों में काली मिट्टी प्राप्त हुई है जो देश के अन्य किसी स्थल से नहीं मिली है।
भीनमाल जालौर यहाँ से शक क्षत्रपों के सिक्के और यूनानी दुहत्थी सुराही मिली है।
सोंथी बीकानेर सोंथी को 'कालीबंगा प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है।
गरदड़ा बूंदी यहाँ से भारत की प्राचीनतम 'बर्ड राइडर रॉक पेंटिंग्स' प्राप्त हुई हैं।
तिपटिया कोटा दर्रा क्षेत्र के इस स्थल से प्रागैतिहासिक शैल चित्र मिले हैं।
रेलावन बाराँ यहाँ से 5000 वर्ष पुरानी दुगेरी सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं।
मण्डोर जोधपुर यहाँ से एक शिलापट्ट पर गुप्तकालीन कृष्णलीला का चित्रांकन मिला है।
मगरी भीलवाड़ा यहाँ से पाषाणकालीन और आहड़ सभ्यता के समकालीन पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।

सभ्यताओं का लगभग अनुमानित समय

सभ्यता समय
बागोर सभ्यता- प्रथम स्तर 4480 ई. पूर्व से 400 ई.
बागोर सभ्यता- द्वितीय स्तर 2765 ई. पूर्व से 400 ई.
बागोर सभ्यता- तृतीय स्तर 500 ई. पूर्व -500 ई.
बालाथल सभ्यता 2700 ई. पूर्व- 1200 ई.
गणेश्वर सभ्यता 2500 ई. पूर्व- 1200 ई.
जोधपुरा संस्कृति 2500 ई. पूर्व- 200 ई.
कालीबंगा सभ्यता 2300 ई. पूर्व- 2000 ई.
आहड़ सभ्यता 2000 ई. पूर्व- 1000 ई.
गिलुण्ड सभ्यता 1700 ई. पूर्व- 1300 ई.
नोह सभ्यता 1200 ई. पूर्व- 900 ई.
सुनारी सभ्यता 1200 ई. पूर्व- 200ई.
तिलवाड़ा सभ्यता 500 ई. पूर्व- 200 ई.
बैराठ सभ्यता 300 ई. पूर्व-100 ई.
नगरी सभ्यता 200 ई. पूर्व- 600 ई.
रेढ़ सभ्यता 200 ई. पूर्व- 200 ई.
नलियासर सभ्यता 200 ई. पूर्व- 900 ई.
नगर संस्कृति 100 ई. पूर्व- 500 ई.
रंगमहल सभ्यता 100 ई. पूर्व- 400 ई.
भीनमाल सभ्यता 100 ई. पूर्व- 400 ई.

सभ्यता संबंधी अन्य तथ्य
राजस्थान में पुरा पाषाणकालीन प्रमाण लूणी नदी के किनारे जैसलमेर, बड़ी ढाणी में प्रारम्भिक प्रस्तर युग के उपकरण प्राप्त हुए हैं।
  • विराटनगर से आदिम मानव की गुफाएँ ज्ञात हुई।
  • उत्तर-पाषाणकालीन मृदभाण्ड/शस्त्र/औजार चित्तौड़गढ़ जिलों में गम्भीरी, बेड़च, चम्बल नदियों से प्राप्त।
  • अनूपगढ़ के ढेर, तरखान वाला (अनूपगढ़) में आर्यों के भाण्ड के साक्ष्य।
  • नाहरगढ़ (जयपुर) के समीप स्थित 'चरण मंदिर' कृष्ण आगमन का प्रमाण है।
  • महाभारतकालीन शाल्व जाति का निवास राज्य में भीनमाल (जालौर), साँचोर है।
  • आर्यकालीन चित्रित भाण्ड नोह भरतपुर, जोधपुर, जयपुर, विराटनगर, सुनारी से प्राप्त। (नीमकाथाना)
  • जनपदयुग- राज्य में विराटनगर, पुष्कर, वियागा, खोल्बे (झालावाड़) बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र थे।
  • पुष्कर की पुष्टि साँची में दूसरी सदी ईसा पूर्व के बौद्धकालीन शिलालेख की प्राप्ति।
  • 497 ई. पूर्व जैनाचार्य 'स्वयं प्रभुसूरि' श्रीमाल (जालोर) में वहाँ के क्षत्रिय राजा जैसन के समक्ष हजारों लोगों ने जैन धर्म की दीक्षा ली।
  • पूर्वी राजस्थान में बौद्ध संस्कृति, पश्चिमी राजस्थान में जैन संस्कृति।
  • मालवों की शक्ति का केन्द्र नगर (टोंक) के समीप था।
  • टोंक-अजमेर-भीलवाड़ा क्षेत्र में राज्य जनपद था।
  • 225 ई. में सोम मालव ने क्षत्रपों (शत्रु) को हराकर एकषष्ठी यज्ञ किया था- ब्राह्मणों को गोदान दिया।
  • अर्जुनायन ने मालवों की क्षत्रपों के विरुद्ध सहायता की थी (अलवर-भरतपुर क्षेत्र)।
  • कुमारनामी- यौद्धेय जाति का वीर था, यौधेय गणतन्त्र को शक्तिशाली बनाया।


मृदभाण्डों से संबंधित विशेष जानकारी

सर्वप्रथम फ्लिंडर्स पेट्री ने मृदभाण्डों पर अध्ययन किया। इसने मृदभाण्डों को 'पुरातत्व की वर्णमाला' कहा। मृदभाण्डों का प्रचलन उत्तर या नवपाषाण काल में माना जाता है। मृदभाण्ड मानव का प्रथम रासायनिक आविष्कार था।
चौपानीमाण्डों (उत्तर प्रदेश) से प्राचीनतम मृदभाण्ड के साक्ष्य मिले है।

1. गेरुए चित्रित/गैरिक मृदभाण्ड (ochre coloured pottery) O.P.C (2000 से 1200 ईसा पूर्व)
ये मृदभाण्ड परिपक्व हड़प्पा संस्कृति के अन्तिम चरण व उत्तर हड़प्पा संस्कृति में मिले हैं।
गैरिक मृदभाण्ड चाक से बनाये गये थे। इन पर गहरे लाल रंग का लेप तथा काले रंग की कलाकृति पायी गई।
नोह (भरतपुर) से गैरिक काला व लाल चित्रित धूसर मृद्भाण्ड मिले हैं।

2. कृष्णा लौहित (काले लाल) मृदभाण्ड (B.R.W.) (1200 से 1000 ईसा पूर्व)
ये प्रागैतिहासिक काल के प्रमुख मृदभाण्ड थे।
गैरिक मृदभाण्ड व चित्रित धूसर मृदभाण्ड के मध्य की संस्कृति काला लाल मृदभाण्ड थी।
हड़पा संस्कृति के मृदभाण्ड मुख्यतः लाल व गुलाबी है जिन पर काले रंग की आकृति बनी हुई है।
काले लाल मृदभाण्डों को अथर्ववेद में कृष्ण लोहित कहा गया है।
इन मृदभाण्डों की बाहर के चारों ओर का भाग काला शेष बाहरी भाग लाल होता था।
इन मृदभाण्डों को उलटकर पकाया गया है तभी ऐसा संभव है। सामान्यतः काले लाल मृदभाण्डों के प्रयोगकर्ता ताम्रपाषाणीक लोग थे।

3. चित्रित धूसर मृदभाण्ड (Painted Grey Ware (P.G.W.)) (1000 से 600 ईसा पूर्व)
ये मृदभाण्ड सर्वप्रथम अहिच्छत्र (बरेली) से खोजे गये।
ये मृदभाण्ड राजस्थान में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (कोटपूतली-बहरोड़) व गिलुण्ड (राजसमंद) से मिले हैं।
ये मृदभाण्ड बहुत ही उच्च कोटि की बारीक चिकनी मि‌ट्टी से बनाये थे।
इनका रंग धूसर इस कारण हो गया कि मिट्टी में काले रंग में फैरिस ऑक्साइड की मात्रा थी।
ये मृदभाण्ड उत्तरवैदिक व महाभारत काल के समय के है।
महाभारतकालीन स्थलों की खोज चित्रित धूसर मृदभाण्ड़ों से की गई है।

4. उत्तरी कृष्णमार्जित (पॉलिशदार) मृदभाण्ड (N.B.P.W.) (200 ईसा पूर्व से 200 ई) मौर्यत्तर काल, गुप्तकाल में मिले हैं। बौद्धकाल में भी ये मृदभाण्ड मिले हैं।

राजस्थान के सभ्यता स्थल व उत्खननकर्ता

सभ्यता स्थल उत्खननकर्त्ता वर्ष
आहड़ (उदयपुर) अक्षय कीर्ति व्यास
रतनचन्द्र अग्रवाल
वीरेन्द्र नाथ मिश्र व एच.डी. साँकलिया
1953 ई.
1956 ई.
1961 ई.
सोंथी (बीकानेर) अमलानन्द घोष 1953 ई.
भीनमाल (जालौर) रतनचन्द्र अग्रवाल 1953-54 ई.
गिलुण्ड (राजसमंद) बी.वी. लाल 1957-58 ई.
नोह (भरतपुर) रतनचन्द्र अग्रवाल 1963-64
तिलवाड़ा (बालोतरा) पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग 1966-67 ई.
बागौर (भीलवाड़ा) वीरेन्द्रनाथ मिश्र 1967-69
जोधपुरा (कोटपूतली-बहरोड़) रतनचंद्र अग्रवाल व विजय कुमार 1972-75 ई.
गणेश्वर (नीमकाथाना, सीकर) रतनचंद्र अग्रवाल व विजय कुमार 1977 ई.
सुनारी (नीमकाथाना) राजस्थान पुरातत्व विभाग 1980 ई.
बालाथल (उदयपुर) वीरेन्द्रनाथ मिश्र 1993 ई.
लाछुरा (भीलवाड़ा) बी.आर. मीणा 1998-99 ई.
औझियाना (भीलवाड़ा) बी.आर. मीणा 2000
बरोर (गंगानगर) पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग 2003
जयपुर व इन्द्रगढ़ (कोटा) सी.ए. हैकेट 1870 ई.
बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) कैप्टन बर्ट,
दयाराम साहनी
नीलरत्न बनर्जी व कैलाशनाथ दीक्षित
1837
1936
1962 ई.
नगर (टोंक) कार्लाइल 1871-72 ई.
झालावाड़ सेटनकार 1908 ई.
नगरी (चित्तौड़) डी.आर. भंडारकर
के.बी. सौन्दराजन
केन्द्रीय पुरातत्व विभाग
1904 ई.
1915-16 ई.
1962 ई.
मण्डोर (जोधपुर) बृजवासी लाल व सर जॉन मार्शल 1933-34 ई.
कुराड़ा (नागौर) पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग 1934 ई.
रैढ़ (टोंक) केदारनाथ पुरी 1938 ई.
कालीबंगा (हनुमानगढ़) अमलानन्द घोष बी.वी. लाल व बी.के. थापर 1952-
1961-62 ई.
रंगमहल (हनुमानगढ़) डॉ. हन्नारिड 1952-54 ई.

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