बीकानेर का इतिहास

बीकानेर का इतिहास

बीकानेर क्षेत्र का प्राचीन नाम जांगलदेश था। इसके उत्तर दिशा में स्थित कुरू और मद्र देशों के कारण महाभारत कालीन ग्रंथों में इस भूभाग का उल्लेख कुरूजांगल तथा माद्रेजांगल जैसे नामों से मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि यह क्षेत्र प्राचीन भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट पहचान रखता था।
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बीकानेर पर राठौड़ वंश का शासन स्थापित हुआ, जिनके शासक जांगलदेश के अधिपति माने जाते थे। इसी कारण बीकानेर के राजाओं को ‘जांगलधर बादशाह’ की उपाधि से संबोधित किया गया। आज भी बीकानेर के राजचिह्न पर “जय जांगलधर बादशाह” अंकित मिलता है, जो इस परंपरा का प्रतीक है।
राठौड़ों के सत्ता में आने से पूर्व बीकानेर का दक्षिणी भाग और जोधपुर का उत्तरी क्षेत्र ‘जांगलू’ नाम से जाना जाता था। यह नाम उस समय के भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाता है।
मध्यकाल में इस क्षेत्र की प्रमुख राजधानी अहिच्छत्रपुर थी, जिसे वर्तमान में नागौर के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि अहिच्छत्रपुर नाम के नगर भारत के अन्य भागों में भी पाए जाते हैं। उत्तरी पांचाल देश की राजधानी भी अहिच्छत्रपुर थी, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग (वेन्सांग) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘सी-यू-की’ में किया है।
राठौड़ों के अधिकार से पहले बीकानेर की रियासत एकीकृत न होकर कई छोटे-छोटे भागों में विभाजित थी। मरुस्थलीय क्षेत्र और विरल जनसंख्या के कारण इस प्रदेश की ओर बाहरी आक्रमणकारियों का अधिक ध्यान नहीं गया, जिससे यहाँ के स्थानीय शासक अधिकांश समय स्वतंत्र रहे। महाभारत काल में यह क्षेत्र कुरू राज्य के अंतर्गत माना जाता था।
यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि यहाँ किस एक राजवंश का दीर्घकालिक शासन रहा, किंतु उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर माना जाता है कि इस क्षेत्र पर समय-समय पर जोहियो, चौहान, सांखला परमार, भाटी और जाट वंशों का प्रभाव रहा। आगे इनके शासन का संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।

जोहियों
जोहियों के लिए संस्कृत में 'यौधेय' शब्द मिलता है ये बहुत प्राचीन एक क्षत्रिय जाति है इनका मूल निवास पंजाब था, इन्हीं के नाम पर सतलज नदी के पास भावलपुर राज्य के निकट का क्षेत्र 'जोहियावार' कहलाता है।
बीकानेर राज्य का उत्तरी भाग पहले जोहियों के अधीन था, जब बीका ने यहाँ अधिकार किया और इसके बढ़ते हुए वैभव को देखकर जोहियों ने इनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया और जोहियों का क्षेत्र बीकानेर के अधीन आ गया।

चौहान
चौहानों की पुरानी राजधानी अहिच्छत्रपुर नागौर थी, यहाँ से चौहान सांभर की ओर बढ़ गए व सांभर को राजधानी बना लिया।
सांभर के आस-पास का क्षेत्र 'सपादलक्ष' कहलाता था, चौहानों का राज्य सांभर के पास होने के कारण ये सांभरिय चौहान कहलाये।

नोट
बीकानेर राज्य में भी कई चौहानों के शिलालेख मिलते हैं, चौहान शासक विग्रहराज ने दिल्ली, झांसी, हिसार के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। इससे यह अनुमान होता है कि बीकानेर का क्षेत्र भी चौहानों के अधिकार में रहा होगा, बीकानेर राज्य में अजयराज का एक तांबे का सिक्का भी मिला है, जिस पर उसकी पत्नी सोमलवती का चित्र है।
यहाँ चौहानों के सिक्के चलते थे इसीलिए यहाँ चौहानों के सामंत रहे होंगे।

भाटी
बीकानेर राज्य की स्थापना से पूर्व यहाँ का क्षेत्र जैसलमेर से पंजाब तक भाटियों के अधिकार में था।
इनके भी दो भाग थे, पश्चिम की तरफ जैसलमेर राज्य की सीमा से मिले हुए पूगल के भाटी राजपूत और उत्तर की तरफ भटनेर के आस-पास के भाटी मुसलमान थे जो भट्टी कहलाते थे।
जब बीका ने जांगलु की ओर बढ़कर अपना अधिकार किया उस समय भाटी राव शेखा पूगल का राजा था जिसको मुलसमानों ने पकड़ लिया था, राव बीका ने शेखा की पत्नी के निवेदन पर शेखा को कैद से छुड़वाया व शेखा की पुत्री का विवाह राव बीका से हुआ।
बीका ने कोडमदेसर के नजदीक अपनी राजधानी के लिए दुर्ग बनवाना चाहा तब भाटियों ने इसका विरोध किया।
बीका ने ध्यान नहीं दिया तब भाटी जैसलमेर से आए व बीका के मध्य युद्ध हुआ, भाटियों से निरन्तर युद्ध की सम्भावना देखकर बीका ने कोडमदेसर को छोड़कर 1485 ई. में बीकानेर नगर की स्थापना की।
बीका के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर शेखा ने भी इसकी अधीनता स्वीकार कर ली और पूगल भी बीकानेर राज्य के अन्तर्गत मिल गया।
अंत में महाराजा सूरतसिंह ने भाटियों का दुर्ग भटनेर छीन लिया जो वर्तमान में हनुमानगढ़ कहलाता है।

जाट
बीकानेर के राज्य के आस-पास का बहुत सा क्षेत्र जाटों के अधीन था आत्मरक्षा के लिए इन्होंने अपनी शक्ति भी बढ़ा ली थी, जाटों की यहाँ कई जातियाँ थी और इनका इलाका कई भागों में बंटा हुआ था।
गोदारा जाट पाण्डू और सारण जाट पूला के आपसी झगड़े में राव बीका ने पाण्डू का पक्ष लिया, पूला के सहायक नरसिंह के मारे जाने पर बीका का यहाँ अधिपत्य हो गया, अन्त में इन्होंने राव बीका की अधीनता स्वीकार कर ली।
इनका सारा क्षेत्र बिना रक्तपात के बीका के अधीन हो गया और जाट साधारण प्रजा की तरह भूमि कर देकर निवास करने लगे।

राव बीका (1465-1504 ई.)

बीका का जन्म जोधपुर के राजा राव जोधा की पत्नी सांखली रानी नौरंगदे से हुआ, बीका का जन्म 5 अगस्त, 1438, मंगलवार को हुआ।

बीकानेर स्थापना से सम्बंधित कथा

एक बार जोधा का दरबार लगा हुआ था, तब राव बीका व बीका के चाचा कांधल आपस में काना-फूसी कर रहे थे, तब जोधा ने पूछा "आज चाचा-भतीजे में क्या सलाह हो रही है क्या कोई नया ठिकाणा जीतने की योजना चल रही है" जब कांधल ने कहा "आपके प्रताप से यह भी हो जाएगा।"
उस समय जांगलू का नापा सांखला भी दरबार में आया हुआ था उसने बीका से कहा 'जांगलू बिलोचों के आक्रमण से कमजोर हो गया और सांखले इसे छोड़कर अन्यत्र चले गए अगर आप चाहे तो जांगलू पर आसानी से अधिकार कर सकते है' राव जोधा को भी यह बात पसन्द आयी उसने बीका और कांधल को नापा के साथ नया राज्य स्थापित करने की आज्ञा दे दी।
तब बीका अपने चाचा कांधल व कुछ सरदारों के साथ 30 सितम्बर, 1465 को जोधपुर से रवाना हुआ और नए राज्य की स्थापना की।
मण्डोर होते हुए बीका देशनोक पहुँचा व करणी माता से आशीर्वाद लिया कि तेरा प्रताप जोधा से बढ़ेगा व कई राजा तेरे नौकर होंगे।
यहाँ से चलकर बीका कोडमदेसर आया, और बीका ने अपने आपको राजा घोषित किया। फिर यहाँ से जांगलू पहुँचकर सांखलों के चौरासी गाँव पर अधिकार किया।

शेखा की पुत्री से बीका का विवाह
ख्यातों में उल्लेख मिलता है कि पूगल का भाटी राव शेखा लूट-पाट करता था, एक बार वह मुल्तान की ओर गया हुआ था, शेखा को मुल्तान में कैद कर लिया।
शेखा को मुक्त कराने के बदले शेखा की पत्नी ने अपनी पुत्री रंगकुंवरी का विवाह बीका से कर दिया।

बीकानेर नगर की स्थापना

कोडमदेसर में जब बीका दुर्ग बनवा रहा था, तब जैसलमेर के भाटी राव शेखा से बीका का विवाद बढ़ गया, भाटियों के साथ युद्ध हुआ, युद्ध में भाटियों की हार हुई लेकिन बीका को भाटियों से युद्ध की आशंका हमेशा थी।
इस कारण भाटियों की परेशानी को देखकर बीका ने अन्य स्थान पर दुर्ग की योजना बनायी। 1485 ई. में रातीघाटी स्थान पर गढ़ की नींव रखी और 12 अप्रैल, 1488 आखा तीज पर गढ़ के आस-पास अपने नाम पर बीकानेर नगर बसाया, आखा तीज को बीकानेर दिवस के रूप में मनाया जाता है।

राणा ऊदा का बीकानेर आना
महाराणा कुम्भा के पुत्र ऊदा ने अपने पिता कुम्भा की हत्या कर दी और मेवाड़ का शासक बन गया।
राजपूतों में पिता को मारने वाले को हत्यारा कहा जाता है, उसका मुख देखने से भी घृणा करते हैं, पिता को मारने वाले को राजपूत अपनी वंशावली में नाम भी नहीं लिखते, ऐसा ही ऊदा के साथ हुआ मेवाड़ सरदारों ने ऊदा को हटाने की योजना बना ली और ऊदा के छोटे भाई रायमल को ईडर से बुलवा लिया। इसने चित्तौड़ को घेर लिया, रायमल की विजय हुई, रायमल भागकर कुम्भलगढ़ आया।
यहाँ से अपने दोनों पुत्र सेसमल व सूरजमल के साथ ऊदा अपने ससुराल सोजत आया, इसके बाद वह बीका के पास आया, बीका ने इसे शरण तो दी लेकिन सहायता करने से इन्कार कर दिया।
इसके बाद ऊदा माण्डू सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी के पास चला गया वहाँ बिजली गिरने से उसकी मृत्यु हो गई।

बीका का जाटों पर अधिकार
बीकानेर के उत्तर-पूर्व में जाटों का अधिकार था, शेखसर का इलाका गोदारा जाट पाण्डू के अधिकार में तथा भाडंग सारण जाट पूल्ला के अधीन था किसी बात को लेकर पाण्डू व पूल्ला के मध्य विवाद हो गया।
तब पूल्ला ने रायसाल व सिदमुख के कसवां जाट कंवर पाल की सहायता मांगी परन्तु पाण्डू का सहायक बीका था।
इस कारण किसी की भी पाण्डू से युद्ध की हिम्मत नहीं हुई, तब सभी मिलकर सिवाणी के स्वामी नरसिंह जाट के पास गये और उसे पाण्डु के विरुद्ध ले आये, पाण्डू की हार हुई तब बीका व कांधल सिद्धमुख में थे। पाण्डू ने उनके पास जाकर सहायता मांगी उन्होंने पूल्ला का पीछा किया।
सिद्धमुख के पास नरसिंह को मार दिया और रायसल, कंवरपाल व पूल्ला आदि ने अधीनता स्वीकार कर ली।
इस प्रकार जाटों के सभी ठिकानों पर बीका का अधिकार हो गया।
बीका ने पाण्डू के वंशजों को बीकानेर के राजाओं का राजतिलक करने का अधिकार दिया।
बीकानेर के राठौड़ राजपूतों का आज भी राजतिलक गोदारा जाट पाण्डू के वंशज करते हैं।

कांधल की मृत्यु
कांधल हिसार के पास था तब हिसार के फौजदार सारंग खाँ ने कांधल की हत्या कर दी, तब बीका ने सारंगखाँ को मारने की प्रतिज्ञा ली और उसने जोधा को सूचना देने के लिए चौथमल को जोधपुर भेजा।
जोधा भी मेड़ता के दूदा व वरसिंह के साथ सहायता के लिए आया। द्रोणपुर में पिता व पुत्र मिले यहाँ से सेना आगे बढ़ी झांसल में दोनों दलों के मध्य युद्ध हुआ बीका के पुत्र नरा के हाथों सारंगखाँ मारा गया।

बीका की जोधपुर पर चढ़ाई
सारंगखां को मारकर वापस लौटते समय जोधा ने बीका से कहा "बीका तू तो सपूत है अतः मैं तुमसे एक वचन माँगता हूँ एक तो लाडनूं मुझे दे दे और तूने अपने पराक्रम से नया राज्य भी स्थापित कर लिया अतः तू जोधपुर राज्य को अपने भाई को दे दे" बीका ने यह बात स्वीकार कर ली और कहा "मेरी भी एक प्रार्थना है मैं बड़ा पुत्र हूँ अतः मुझे तख्त, छत्र, आपकी ढाल-तलवार मुझे मिलनी चाहिए" जोधा ने कहा मैं जोधपुर पहुँचकर यह सारी वस्तुएँ पहुँचा दूंगा।

नोट
जोधा का देहान्त होने के बाद गद्दी पर सातल देव बैठा, वह अधिक समय तक शासन नहीं कर पाया और मुसलमानों के हाथों मारा गया।
इसके कोई संतान नहीं थी तो सातल का छोटा भाई सूजा राजगद्दी पर बैठा, बीका ने राजचिह्न लाने के लिए पड़िहार बेला को सूजा के पास जोधपुर भेजा परन्तु सूजा ने यह वस्तुएँ देने से इन्कार कर दिया, तब बीका ने बड़ी फौज के साथ जोधपुर पर आक्रमण कर दिया व जोधपुर दुर्ग को घेर लिया।
10 दिन में ही दुर्ग में पानी की समस्या हो गई, तब सूजा की माता हाडी सजमादे के मध्यस्थता में समझौता हुआ, बीका ने समझौता कर लिया व अपनी पूजनीय चीजें तख्त, ढाल, तलवार, चंवर, छत्र आदि बीकानेर ले आया।
ये वस्तुएँ वर्तमान में बीकानेर दुर्ग में रखी हुई हैं, वर्ष में दो बार विजयादशमी व दीपावली को बीकानेर के शासक स्वयं इसकी पूजा करते है।
बीका की अंतिम चढाई रेवाड़ी पर थी। बीका की मृत्यु 1504 ई. में हुई।

राव नरा (1504-05 ई.)

बीका की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र नरा बीकानेर का शासक बना, लेकिन कुछ माह बाद ही इसकी 1505 ई. में मृत्यु हो गई।

राव लूणकरण (1505-26 ई.)

बीका की रानी रंगकुंवरी का पुत्र था इसका जन्म 1470 ई. में हुआ, नरा के निसंतान मरने के कारण लूणकरण को राजा बनाया गया।

ददरेवा पर आक्रमण (चूरू)
राव बीका ने जिन क्षेत्र को बीकानेर में मिलाया था, उनमें कुछ क्षेत्र उत्पात करने लग गए थे।
लूणकरण ने इनका दमन शुरू किया, सर्वप्रथम 1509 ई. में ददरेवा (चूरू) पर आक्रमण किया, यहाँ का स्वामी मानसिंह चौहान था जिसने 7 मास तक किले में रहकर लूणकरण का मुकाबला किया, परन्तु खाद्य सामग्री की कमी होने के कारण गढ़ के द्वार खोलने पड़े मानसिंह अपने 500 साथियों सहित लूणकरण के छोटे भाई घड़सी के हाथों मारा गया।
ददरेवा का परगना लूणकरण के अधीन हो गया, लूणकरण यहाँ थाना स्थापित करके वापिस आ गया।

फतेहपुर पर आक्रमण (1512 ई.) (सीकर)
फतेहपुर कायमखानियों के अधिकार में था, यहाँ दौलतखां शासन कर रहा था।
लूणकरण ने 1512 ई. में फतेहपुर पर आक्रमण किया और फतेहपुर पर भी अधिकार कर लिया

चायलवाड़े पर अधिकार
चायलवाड़ा सिरसा व हिसार की सीमा पर है।
लूणकरण ने यहाँ आक्रमण किया यहाँ का चायल स्वामी पूना से भटनेर आ गया, और इस क्षेत्र पर भी लूणकरण का अधिकार हो गया।
नागौर के मुहम्मद खाँ ने 1513 ई. में बीकानेर पर आक्रमण किया, लूणकरण ने इसे हराकर भेज दिया।
लूणकरण ने 1514 ई. में मेवाड़ की रायमल की पुत्री से विवाह किया था उस समय मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह थे।
जोधपुर के राव जोधा ने नागौर के खान पर आक्रमण किया तब लूणकरण नागौर के खान की सहायता के लिए गया था।

नोट
लूणकरण की मृत्यु 1526 ई. में नारनोल के शेख अबीमीरा से लड़ते हुए हुई थी। लूणकरण को 'कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यम्' (जयसोम) में 'दानी कर्ण' कहा गया है।
बीटू सूजा द्वारा लिखित 'जैतसी रो छंद' में लूणकरण को कलयुग का कर्ण कहा गया है। लूणकरणसर कस्बा झील बनवाई।

राव जैतसिंह (1526-42 ई.)

लूणकरण का बड़ा पुत्र जैतसिंह का जन्म 1489 ई. में हुआ।

द्रोणपुर पर अधिकार
1527 ई. में जैतसिंह ने द्रोणपुर पर चढ़ाई के लिये सेना भेजी।
उदयकरण का पुत्र कल्याणमल द्रोणपुर से भागकर नागौर आ गया जैतसिंह ने द्रोणपुर बीदा के पुत्र सांगा को सौंप दिया, इसके बाद जैतसिंह ने सांगा को सिंहाणकोट की ओर जोहियों के विरुद्ध भेजा जोहियों का सरदार तिहुणपाल लाहौर की ओर चला गया।

बाबर के पुत्र कामरान से जैतसिंह का युद्ध
हुमायूँ ने अपना साम्राज्य चारों भाईयों में बांट दिया। कामरान ने लाहौर पर अधिकार कर लिया, उस समय तक बीकानेर के राठौड स्वतत्रे थे तब कामरान एक बड़ी सेना के साथ बीकानेर की ओर रवाना हुआ, सतलज नदी को पार कर भटिण्डा व अभोहर के बीच से होते हुए भटनेर को घेर लिया।
उस समय भटनेर कांधल के पौत्र खेतसिंह के अधिकार में था, खेतसिंह यहाँ युद्ध करते हुए मारा गया और भटनेर पर कामरान का अधिकार हो गया।
भटनेर से कामरान की फौज बीकानेर की ओर रवाना हुई, जैतसिंह बड़ी सेना का सामना करना उचित न समझ कर दूर हट गया, भोजराज रूपावत बीकानेर के पुराने गढ़ की रक्षा करते हुए मारे गए, गढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया, जैतसिंह ने एक सेना तैयार करके 26 अक्टूबर, 1534 ई. को रात्रि के समय मुगलों पर आक्रमण कर दिया, राठौड़ों के इस आक्रमण को मुगल सेना सहन नहीं कर पाई और लाहौर की ओर भाग गई।

राव मालदेव का बीकानेर पर आक्रमण और जैतसिंह की मृत्यु
मालदेव ने कुंपा के नेतृत्व में बीकानेर पर सेना भेजी, जैतसिंह ने अपने मंत्री नागराज को सहायता के लिए शेरशाह सूरी के पास भेजा व जैतसिंह ने अपने पुत्र कल्याणमल व परिवार को भी नागराज के साथ भेजा, नागराज ने जैतसिंह के परिवार को सिरसा में छोड़ा और स्वयं शेरशाह सूरी के पास गया और उधर जैतसिंह मालदेव की सेना से युद्ध करने के लिए आया और इस युद्ध में जैतसिंह की मृत्यु हुई।
इस युद्ध को पाहेबा-साहेबा युद्ध कहा जाता है जो 1542 ई. में हुआ था। मालदेव ने बीकानेर कूंपा को सौंप दिया। कुंपा से ही राठौड़ों की कुंपावत शाखा चली थी।

राव कल्याणमल (1542-74 ई.)

जन्म- 1519 ई. जैतसिंह को मारकर बीकानेर पर मालदेव का अधिकर हो गया, बीकानेर मालदेव ने कुंपा को सौंप दिया, नागराज शेरशाह सूरी के पास जाते समय कल्याणमल व राजपरिवार को सिरसा में छोड़ दिया था, सिरसा से ही कल्याणमल अपने राज्य को वापस लेने का प्रयास करने लगा।
शेरशाह सूरी जब मालदेव पर आक्रमण के लिए दिल्ली से रवाना हुआ तब सिरसा से कल्याणमल भी शेरशाह सूरी से मिल गया।
गिरी सुमेल के युद्ध में मालदेव की हार हुई व जोधपुर पर शेरशाह का अधिकार हो गया और कल्याणमल को भी शेरशाह की सहायता से बीकानेर वापस मिल गया।

बैरामखाँ को शरण देना
1556 ई. से 1560 ई. तक अकबर बैरामखाँ के सरक्षण में रहा, बाद में अकबर ने शासन अपने अधिकार में ले लिया, बैरामखाँ ने मक्का जाने की इजाजत मांगी परन्तु बैरामखां का इरादा पंजाब जाकर बगावत करने का था, बादशाह को इस बात पता चला तो बादशाह ने इस पर आक्रमण कर दिया।
उस समय बैरामखाँ ने मालदेव के राज्य से गुजरात जाना चाहा परन्तु जब बैरामखाँ को पता चला कि मालदेव ने रास्ता रोक रखा है तब बैरामखाँ गुजरात का रास्ता छोड़कर बीकानेर चला आया, बीकानेर में राव कल्याणमल व कुँवर रायसिंह ने इसे आदर के साथ यहाँ रखा।

कल्याणमल द्वारा अकबर की अधीनता
सितम्बर, 1570 ई. में अकबर ख्वाजा साहब की जियारत के लिए अजमेर की ओर रवाना हुआ, 12 दिन फतेहपुर में रुककर अजमेर में पहुँचा इसके बाद वह नवम्बर में नागौर आया, यहाँ 'शुक्र तालाब' बनवाया। जब अकबर नागौर में रुका हुआ था, राजस्थान के कई राजा यहाँ पहुँचे व बीकानेर का कल्याणमल अपने पुत्र रायसिंह के साथ नागौर पहुँचा व अधीनता स्वीकार की, कल्याणमल बीकानेर का प्रथम शासक है जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
यहाँ से कल्याणमल बीकानेर आ गया और कुंवर रायसिंह बादशाह की सेवा में रहा।
1571 ई. में कल्याणमल की मृत्यु हो गई।
कल्याणमल के बाद शासक उसका बड़ा पुत्र रायसिंह बना व इसका एक अन्य पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ अकबर के दरबार में चला गया था।

पृथ्वीराज राठौड़
पृथ्वीराज राठौड़ का चरित्र बड़ा ही आदर्श और महत्वपूर्ण है, पृथ्वीराज का जन्म 6 नवम्बर, 1549 ई. को हुआ।
पृथ्वीराज विष्णु का परम् भक्त था पृथ्वीराज को संस्कृत और डींगल भाषा का अच्छा ज्ञान था पृथ्वीराज को 'डींगल का हेरोन्स' कहा जाता है।
डींगल का हेरोन्स पृथ्वीराज को इटली के टेस्सीटोरी ने कहा था।
अकबर के दरबार में पृथ्वीराज का अच्छा सम्मान था, अकबर ने इन्हें गागरोन की जागीर दी थी, गागरोन दुर्ग में पृथ्वीराज राठौड़ ने डिंगल भाषा में 1580 ई. में 'वेली किशन रूकमणी री' नामक ग्रंथ लिखा था।
इस ग्रंथ को दुरसाआढ़ा ने पाँचवां वेद व 19वाँ पुराण कहा था।
वेली किशन रूकमणी री ग्रंथ को पृथ्वीराज समाप्त करके द्वारका में श्री कृष्ण के चरणों में अर्पित करने के लिए जा रहे थे, तब भगवान कृष्ण ने स्वयं वैश्य के भेष में आकर इस ग्रंथ को सुना था। पृथ्वीराज के वंशज 'पृथ्वीराजोत बीका' कहलाते हैं जो ददरेवा के पट्टेदार थे और छोटी ताजीम का सम्मान रखते थे।

पृथ्वीराज बड़े ही देशप्रेमी थे, अकबर के दरबार में रहने के बाद भी यह महाराणा प्रताप के प्रति श्रद्धा रखते थे, राजपूताने में ऐसी जनश्रुति है कि एक दिन बादशाह ने पृथ्वीराज से कहा कि राणा प्रताप अब मुझे बादशाह कहने लग गया और हमारी अधीनता स्वीकार करेगा, पृथ्वीराज को यह विश्वास नहीं हुआ तब उन्होंने महाराणा प्रताप को एक दोहा लिखा -
पातल जो पतसाह, बोले मुख हूंतां बयण।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत ।।
पटकुं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक ।।
अर्थ - महाराणा प्रताप अगर अकबर को बादशाह कहे तो सूर्य पश्चिम में उग जाये अर्थात् जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना असम्भव है वैसे ही महाराणा प्रताप के मुख से बादशाह निकलना असम्भव है। हे महाराणा मैं अपनी मूछों पर ताव दूँ या अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूँ, इन दोनों में से मैं क्या करूँ आप लिख दीजिए।

उपर्युक्त दोहे के उत्तर में महाराणा ने लिखा -
तुरक कहासी मुख पती, इण तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग ।।
खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पर्ती, कलमाँ सिर केवाण ।।
सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सूं वाद ।।
अर्थ - बादशाह को मैं तुर्क ही कहूंगा, मेरा राजा एकलिंगजी हैं वहीं रहेंगे, सूर्य पूर्व में उदय हो रहा है पूर्व में ही होगा, हे पृथ्वीराज राठौड़ जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव लगाएँ।
पृथ्वीराज राठौड़ ने अकबर को 6 माह पूर्व ही बता दिया था कि मेरी मृत्यु मथुरा के विश्रांत घाट पर होगी, पृथ्वीराज की मृत्यु विश्रांत घाट पर 1600 ई. में हुई।

महाराजा रायसिंह (1574-1612 ई.)

जन्म 1541 ई. शासक 1574 ई. में बना। रायसिंह ने अपनी उपाधि 'महाराजाधिराज व महाराजा' रखी। अकबर ने रायसिंह 'राय' उपाधि व 4000 मनसब दी।

अकबर का रायसिंह को जोधपुर सौंपना
जोधपुर के शासक मालदेव ने अपने बड़े पुत्र राम को जोधपुर का शासक न बनाकर झालीरानी स्वरूपदे से विशेष अनुराग के कारण तीसरे पुत्र चंद्रसेन को उत्तराधिकारी बनाया था।
1570 ई. में बादशाह अकबर नागौर आया तब जोधपुर की गद्दी के हकदार राम व उदयसिंह बादशाह के पास गये, चन्द्रसेन भी अपने पुत्र रायसिंह सहित नागौर दरबार में उपस्थित हुआ।
यहाँ पर अकबर का पक्षपात रवैया देखकर चन्द्रसेन वापस भद्राजुन आ गया। उस समय अकबर ने रायसिंह को जोधपुर का प्रशासन सौंपा था, जोधपुर राज्य की ख्यात में अकबर द्वारा रायसिंह को जोधपुर 1572 ई. में दिया जाना लिखा है।
जोधपुर रायसिंह के अधिकार में कब तक रहा इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं आता, दयालदास की ख्यात में लिखा है की तीन वर्ष तक जोधपुर रायसिंह के अधिकार में रहा था।
अकबर ने रायसिंह को इब्राहीम हुसैन मिर्जा के विरूद्ध भेजा था, रायसिंह अकबर के साथ गुजरात अभियान में भी गया था।

बादशाह द्वारा रायसिंह को चन्द्रसेन के विरूद्ध भेजना
1574 ई. में जब बादशाह अजमेर में था तब उसे चन्द्रसेन के विद्रोह की सूचना मिली उस समय चन्द्रसेन सिवाना के गढ़ में था।
अकबर ने रायसिंह, शाह कूल्ली खाँ, केशव दास आदि को चन्द्रसेन के विरूद्ध भेजा, उस समय सोजत पर मालदेव के पौत्र व राम के पुत्र कल्ला का अधिकार था, मुगलों ने इस पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद मुगल सेना सिवाना की ओर चली, चन्द्रसेन ने राठौड़ फत्ता को गढ़ सौंपकर पहाड़ियों में आ गए, 2 वर्ष तक घेराबंदी के बाद में रायसिंह सिवाना दुर्ग को नहीं जीत पाया तब अकबर ने रायसिंह को वापस बुलवा लिया व शाहबाज खाँ को भेजा। शाहबाज खाँ ने इस दुर्ग को जीत लिया था।

रायसिंह को काबुल भेजना
1581 ई. में काबुल के शासक हाकिम मिर्जा जो अकबर का सौतेला भाई था, ने विद्रोह कर दिया और भारत की ओर अग्रसर होने लगा, उस समय सिंधु के निकटवर्ती प्रदेशों में मुहम्मद युसुफ खाँ नियुक्त था, बादशाह ने इसे हटाकर मानसिंह को भेजा, बाद में मानसिंह की सहायता के लिए रायसिंह, जगनाथ आदि को भेजा।
मिर्जा हाकिम पंजाब पहुँच गया, तब बादशाह स्वयं पंजाब की ओर रवाना हुआ, बादशाह के आगमन की सूचना सुनकर हाकिम यहाँ से भाग गया तब बादशाह ने शहजादे मुराद, रायसिंह व मानसिंह को मिर्जा हाकिम को समझाने के लिए भेजा, न माने तो युद्ध का आदेश दिया, मिर्जा हाकिम ने मुकाबला किया व हार हुई।
काबुल पर भी बादशाह का अधिकार हो गया। बादशाह अकबर स्वयं काबुल पहुँचा मिर्जा हाकिम को क्षमा कर दिया व वापस काबुल का अधिकारी बना दिया, इसके बाद बादशाह सरहिंद पहुँचा, इसके बाद रायसिंह, भगवनदास अपनी-अपनी रियासत में आ गए।
1585 ई. में बलुचिस्तान में विद्रोह हुआ, विद्रोह को दबाने के लिए अकबर ने रायसिंह को भेजा था।
1586 ई. में अकबर ने रायसिंह व भगवन दास को लाहौर का प्रशासक नियुक्त किया।

जुनागढ़ का निर्माण
1589 ई. बीकानेर के जूनागढ़ का निर्माण प्रारम्भ हुआ, 1594 ई. में गढ़ बनकर पूर्ण हुआ। ये दुर्ग मंत्री कर्मचन्द की देखरेख में बना था। बीकानेर पुराने दुर्ग बीकाजी टेकरी, आगे जयमल से की थी।
अकबर ने रायसिंह को जूनागढ़ (काठियावाड़, गुजरात) का प्रदेश रायसिंह को सौंपा था। 1600 ई. में भगवनदास के पुत्र माधोसिंह को हटाकर नागौर का परगना रायसिंह को दिया था।

सलीम के साथ रायसिंह का मेवाड़ अभियान
1603 ई. में अकबर ने पुनः सलीम को मेवाड़ अभियान पर भेजा, इसमें सलीम के साथ रायसिंह, जगन्नाथ, माधोसिंह, मोटा राजा का पुत्र सकतसिंह आदि कई राजपूत थे।
सलीम फतेहपुर में रूका, सलीम का मेवाड़ जाने का मन नहीं था इसलिए बादशाह से आदेश लेकर इलाहाबाद चला गया।
1605 ई. में जब अकबर बीमार हुआ उस समय दरबार में मानसिंह व खान आजम कर्ता-धर्ता थे, ये दोनों खुसरों को बादशाह बनाना चाहते थे क्योंकि खुसरों मानसिंह का भाणजा व खान आजम का जवांई था।
ऐसे समय में रायसिंह एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर सलीम भरोसा कर सकता था, सलीम ने शीघ्रताशीघ्र आने के लिए निमंत्रण भेजा।
अक्टुबर 1605 ई. को अकबर की मृत्यु हुई, सलीम जहाँगीर नाम से बादशाह बना, बादशाह बनते ही रायसिंह की मनसबदारी जो अकबर के समय 4000 थी बढ़ाकर 5000 कर दी गई।
जहाँगीर ने रायसिंह की नियुक्ति दक्षिण में कर दी, 1612 ई. में बुरहानपुर में मृत्यु हुई।
रायसिंह अकबर के राज्य का एक सुदृढ स्तम्भ था, अकबर के समय हिंदू राजाओं में आमेर के बाद बीकानेर वालों का ही बढ़-चढ़कर था, रायसिंह 'मुगल साम्राज्य का स्तम्भ' माना जाता है।
मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है "यदि चारण व बीकानेर के इतिहास की बात सत्य माने तो रायसिंह राजपूताने का कर्ण था।"
रायसिंह के समय बीकानेर में रहकर जैन साधु ज्ञानविमल ने महेश्वर के 'शब्द भेद' की टीका समाप्त की थी। रायसिंह ने 'रायसिंह महोत्सव' व 'ज्योतिष रत्नाकर/रत्नमाला' नामक ग्रंथ लिखे थे।
ज्योतिष रत्नमाला एक टिका है जो बालबोधिनी पर लिखी गई है। अकबर ने रायसिंह को जूनागढ़, नागौर, शम्साबाद आदि की जागीरे दी थी।
रायसिंह को 'कर्मचन्द्रवंशोत्कीर्तनकं काव्यं' में रायसिंह को 'राजेन्द्र' कहा गया है।

महाराजा दलपतसिंह (1612-13 ई.)

दलपतसिंह के ज्येष्ठ होने पर भी भटियाणी रानी गंगा पर विशेष प्रेम होने के कारण रायसिंह की इच्छा थी कि गंगा का पुत्र सूरसिंह बीकानेर का शासक बने इसलिए रायसिंह ने अपना उत्तराधिकारी सूरसिंह को नियुक्त किया।
दलपतसिंह जहाँगीर की सेवा में उपस्थित हुआ, जहाँगीर ने उसे राय का खिताब दिया व शासक नियुक्त किया व पैतृक राज्य सौंप दिया। दलपतसिंह ने अनूपगढ़ के नजदीक चूड़ेहर दुर्ग बनवाना प्रारम्भ किया परन्तु भाटियों के विरोध करने के कारण दुर्ग नहीं बनवा पाया।
कुछ दिनों बाद जहाँगीर ने बीकानेर का राज्य सूरसिंह को दे दिया व दलपतसिंह को गद्दी से हटाने के लिए नवाब जियाउद्दीन खाँ को भेजा, सुरसिंह जब शाही सेना लेकर रवाना हुआ तब दलप्रतसिंह भी सेना लेकर छापर पहुँचा, दोनों दलों में युद्ध हुआ, जियाउ‌द्दीन खाँ भाग गया, दलपतसिंह की विजय हुई तब जियाउद्दीन ने दिल्ली से और सहायता मंगवायी व सूरसिंह ने सभी सरदारों को अपनी तरफ मिला लिया केवल ठाकुर जीवण दासोत दलपतसिंह की तरफ ही रहा।
यह भटनेर का शासक था, दूसरे दिन लड़ाई प्रारम्भ होने पर दलपतसिंह हाथी पर चढ़कर मैदान में आया, दलपतसिंह के पीछे चूरू का ठाकुर भीमसिंह बैठा था, इसने दलपतसिंह के दोनों हाथ पकड़ लिये व दलपतसिंह को बंदी बना लिया। 'तुजुक ए जहाँगीरी' में लिखा है दलपतसिंह को गिरफ्तार करके बादशाह के आगे पैश किया, दलपतसिंह को मृत्यु दण्ड दे दिया और सूरसिंह की मनसबदारी 5000 से अधिक कर दी।

महाराजा सूरसिंह (1613-31 ई.)

सूरसिंह का जन्म 1594 ई. में हुआ। दलपत सिंह को परास्त करके 1613 ई. में बीकानेर का शासक बना।
सूरसिंह को बादशाह जहाँगीर ने दक्षिणी सूबों में खुर्रम के विरुद्ध भेजा था, जहाँगीर के समय सूरसिंह की मनसबदारी 3 हजार जात व 2 हजार सवार थी।

नोट
शाहजहाँ ने सूरसिंह की मनसबदारी बढ़ाकर 4 हजार जात व ढाई हजार सवार कर दी।
सूरसिंह को काबुल में मुहम्मद खां के विरुद्ध भी भेजा था।

सूरसिंह का जैसलमेर से वैवाहिक संबंध न करने की प्रतिज्ञा
ख्यातों में लिखा है कि सूरसिंह की एक भतीजी (रामसिंह की पुत्री) का विवाह जैसलमेर के रावल हरराज के पुत्र भीमसिंह से हुआ था।
भीमसिंह की मृत्यु के बाद जैसलमेर के सरदारों ने उसके पुत्र को मारने का निश्चय किया तब रानी ने अपने चाचा सुरसिंह से पुत्र की रक्षा का निवेदन किया, सूरसिंह 1 हजार राजपूतों के साथ जैसलमेर की ओर रवाना हुआ, लाठी गाँव के पास उसे बालक की हत्या का समाचार मिला।
जैसलमेर वालों की इस नृशंस कार्य के कारण सूरसिंह ने प्रतिज्ञा की कि बीकानेर की किसी भी राजकुमारी का विवाह जैसलमेर में नहीं किया जाएगा। बीकानेर में इस प्रतिज्ञा का पालन अब तक हो रहा है।
जैसलमेर की तवारीख में सूरसिंह की भतीजी के पुत्र का फलौदी में चेचक या जहर से मरना लिखा है व भतीजी के स्थान पर बहन लिखा है।
जहाँगीर के समय सूरसिंह को राजा की उपाधि से सम्बोधित किया है, शाहजादे खुर्रम ने सूरसिंह को 'उच्च कुल के राजाओं में सर्वश्रेष्ठ' लिखा है। सूरसिंह की मृत्यु 1631 ई. में बुरहानपुर के नजदीक बौहरी गाँव में हुई थी।

महाराजा कर्णसिंह (1631-69 ई.)

सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कर्णसिंह का जन्म 1616 ई. में हुआ था।
शाहजहाँ ने सूरसिंह को 2 हजार व डेढ़ हजार सवार का मनसबदार बनाया।

कर्णसिंह व अमरसिंह के मध्य विवाद
जोधपुर के राजा गजसिंह के ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह था परन्तु गजसिंह ने जोधपुर का शासक जसवंतसिंह को बना दिया। अमरसिंह बादशाह की सेवा में चला गया, बादशाह ने उसे राव का खिताब व नागौर की जागीर दी कुछ दिनों बाद बीकानेर के जाखणियाँ गाँव पर अमरसिंह ने अधिकार कर लिया जब कर्णसिंह को इसकी सूचना दिल्ली में मिली तो कर्णसिंह ने सेना भेजी, उस समय मुहता जसवंत बीकानेर का दीवान था वह युद्ध करने आया।
अमरसिंह की ओर से केसरीसिंह आया, केसरीसिंह की हार हुई। यह लड़ाई 1644 ई. में हुई थी।
इस लड़ाई के संबंध में एक जनश्रुति है कि बीकानेर सीमा के खेत में मतीरे की एक बैल लग गई थी जो फैलकर नागौर की सीमा में चली गई थी और मतीरा भी नागौर की सीमा में लगा।
जब नागौर का किसान मतीरा तोडने आया तो बीकानेर वाले ने मना किया इस पर किसानों का झगड़ा हुआ और ये सूचना शासकों के पास पहुँच गई और दोनों के मध्य झगड़ा हुआ।
राजपूतानें में इसे 'मतीरे की राड़' कहा जाता है।

कर्णसिंह की पूगल पर चढ़ाई
कर्णसिंह के अधीन पूगल का राव सुदर्शन भाटी विद्रोही हो गया। कर्णसिंह ने सेना सहित गढ़ को घेर लिया। 1 माह की घेराबंदी के बाद सुदर्शन भागकर लखवेराज आ गया, मुहणीत नैणसी यह घटना 1665 ई. के आस-पास बताता है।
शाहजहाँ ने 1648-49 ई. में कर्णसिंह की मनसबदारी बढ़ाकर 2 हजार जात व 2 हजार सवार कर दी व दौलताबाद का किलेदार भी नियुक्त किया, इसके 1 वर्ष बाद इसकी मनसबदारी बढ़ाकर ढाई हजार जात व ढाई हजार सवार कर दी व 1652 ई. में कर्णसिंह की मनसबदारी 3 हजार जात व 2 हजार सवार कर दी।
उत्तराधिकारी युद्ध में कर्णसिंह किसी की ओर से भी नहीं लड़े थे और बीकानेर आ गये, औरंगजेब बादशाह बनने के बाद कर्णसिंह अपने पुत्र अनूपसिंह व पदमसिंह के साथ बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। कर्णसिंह को 'जांगलधर' बादशाह भी कहा जाता है।
औरंगजेब ने कर्णसिंह को औरंगाबाद भेजा, वहाँ कर्णसिंह ने अपने नाम पर कर्णपुरा गाँव बसाया व केसरीसिंहपुरा व पदमपुरा गाँव भी बसाये।
कर्णसिंह ने इनमें से एक गाँव वल्लभ सम्प्रदाय के गोकुलजी विठ्ठल नाथजी को भेंट कर दिया था, कर्णपुरा, केसरीसिंहपुरा व पदमपुरा 1904 ई. तक बीकानेर राज्य के अधीन रहे।
जब अंग्रेजों ने औरंगाबाद की छावनी को बढ़ाना चाहा तब इनके बदले में इतनी ही आय के पंजाब जिले के दो गाँव रताखेड़ा और बावलवास और पच्चीस हजार रुपये नगद देकर बीकानेर के अधीन किये थे। कर्णसिंह की मृत्यु औरंगाबाद में हुई।

कर्णसिंह के समय लिखे गए ग्रंथ-
  • साहित्यकल्पद्रुम- यह अलंकार संबंधी ग्रंथ है, यह बड़े-बड़े 383 पत्रों पर लिखा गया है इसके प्रारम्भ में महाराजा रायसिंह से कर्णसिंह तक वंश विवरण है। यह ग्रंथ कई विद्वानों की सहायता से कर्णसिंह ने लिखवाया था।
  • कर्णभूषण व काव्य डाकिनी- पण्डित गंगानंद मैथिल द्वारा लिखा गया है।
  • कर्णवतंस- भट्ट होसिक द्वारा रचित।
  • कर्णसन्तोष- कवि मुद्रल द्वारा रचित।

महाराजा अनूपसिंह (1669-98 ई.)

अनूपसिंह का जन्म 1638 ई. में हुआ। फारसी तवारीखों के अनुसार अनूपसिंह मुगलों की ओर से बड़ी वीरता से लड़ा था, इसी कारण अनूपसिंह को खाजहाँ बहादुर जफरगंज कोकल्दास का खिताब दिया व अनूपसिंह को महाराजा की उपाधि दी।
महाराणा राजसिंह ने राजसमंद झील बनवाकर उत्सव का आयोजन किया, इस उत्सव में राजसिंह का बहनोई अनूपसिंह उपस्थित नहीं हो सका, तब राजसिंह ने अनूपसिंह के लिए मनमुक्ति नाम का हाथी, सहणसिंगार नाम का घोड़ा व तेज निधान घोड़ा, वस्त्र व आभूषण जोशी माधव के साथ बीकानेर भेजे।
औरंगजेब की ओर से अनूपसिंह दक्षिण में गोलकुण्डा की लड़ाई में शामिल हुआ इसके अलावा आदूणी और औरंगाबाद में बादशाह की ओर से शासक रहा। औरंगजेब ने अनूपसिंह को 'माही मरातिब' की उपाधि दी। माहीमरातिब की उपाधि फारस के बादशाह नौशेरवा के पौत्र खुसरो परवेज ने सर्वप्रथम इसका प्रारम्भ किया था। अनूपसिंह के अतिरिक्त महाराजा गजसिंह व महाराजा रतनसिंह को भी माहीमरातिब की उपाधि मिली थी।

भाटियों पर विजय व अनूपगढ़ का निर्माण
अनूपसिंह दक्षिण में आदूणी में नियुक्त था, इसके पास भाटियों के विद्रोह की सूचना मिली, तो अनूपसिंह ने मुकन्दराय को भाटियों के विरुद्ध भेजा, भाटियों को हराकर गढ़ पर अनूपसिंह ने अधिकार कर लिया और 1678 ई में नये गढ़ का निर्माण प्रारम्भ हुआ जिसका नाम अनूपगढ़ रखा गया।
महाराजा अनूपसिंह ने जोधपुर का राज्य अजीतसिंह को देने के लिए बादशाह औरंगजेब से निवेदन किया था, परन्तु औरंगजेब ने यह निवेदन स्वीकार नहीं किया था।
औरंगजेब के बीजापुर अभियान में भी अनूपसिंह गया था, 1698 ई. में आदूणी में अनूपसिंह की मृत्यु हुई।
अनूपसिंह ने संस्कृत में अनूपविवेक, कामप्रबोध, श्रज्ञाद्धप्रयोग चिन्तामणि ग्रंथ लिखे व गीत गोविंद पर 'अनुपोदय' नामक टीका लिखी। अनूपसिंह के समय इसके दरबार में विद्यानाथ सूरी ने 'ज्योत्पत्तिसार' ग्रंथ व मणिराम दीक्षित ने 'अनूपव्यवहारसागर' 'अनूपविलास', 'धर्मशास्त्र ग्रंथ', अनन्त भट्ट ने तीर्थ 'रत्नाकर' ग्रंथ, उदयचन्द्र नै 'पाण्डित्यदर्पण' नामक ग्रंथ लिखे।
अनूपसिंह ने अपने पिता के समय 'शुकसारिका' ग्रंथ का भाषा अनुवाद किसी विद्वान से करवाया था। अनूपसिंह के आश्रय में आनन्दराम ने श्रीधर की टीका के आधार पर गौता का गद्य-पद्य में अनुवाद किया था।
औरंगजेब के राजगद्दी पर बैठने के बाद जब औरंगजेब ने संगीत पर प्रतिबंध लगाया तब शाहजहाँ के दरबार का प्रसिद्ध संगीताचार्य जनार्दनभट्ट का पुत्र भावभट्ट अनूपसिंह के दरबार में आया था यहाँ रहते हुए उसने "संगीतअनूपांकुश", "अनूपसंगीतविलास", "अनूपसंगीतरत्नाकर" नामक ग्रंथ लिखे थे। औरंगजेब की कट्टरता के कारण दक्षिण में आक्रमण के समय वहाँ के ब्राह्मणों को धार्मिक ग्रंथों को नष्ट करने का भय रहता था। मुसलमानों के हाथों पुस्तकों के नष्ट होने के भय से वे इन्हें नदियों में बहा देते थे। संस्कृत ग्रंथों के इस प्रकार नष्ट होने से हिन्दू संस्कृति के नष्ट होने की आशंका थी, तब अनूपसिंह ने उन ब्राह्मणों को धन देकर यह पुस्तकें बीकानेर भिजवायी। बीकानेर पुस्तकालय में ये बहुमूल्य पुस्तकें अभी तक सुरक्षित हैं। महाराणा कुम्भा द्वारा बनाये गये संगीत ग्रंथों का पूरा संग्रह बीकानेर पुस्तकालय में ही है।
दक्षिण में जब मुसलमान सैनिक हिन्दू मंदिरों व मूर्तियों को तोड़ते थे, तब अनूपसिंह दक्षिण में रहते हुए इन मूर्तियों की रक्षा की और इन्हें बीकानेर पहुँचाया, ये मूर्तियाँ बीकानेर के किले में अभी तक सुरक्षित हैं जो 'तैंतीस करोड़ देवी देवताओं का मंदिर' नाम से प्रसिद्ध है।

स्वरूप सिंह
अनूपसिंह का ज्येष्ठ पुत्र स्वरूप सिंह जिसका जन्म 1689 ई. में हुआ। अनूपसिंह की मृत्यु के समय वह आदूणी में ही था।
स्वरूपसिंह की उम्र कम होने के कारण बीकानेर का शासन स्वरूपसिंह की माता सिसोदा रानी चलाती थी। लगभग 2 वर्ष तक स्वरूपसिंह ने शासन किया व शीतला में इसकी मृत्यु हो गई।

महाराजा सुजानसिंह
स्वरूपसिंह की छोटी अवस्था में निस्सन्तान मृत्यु होने के कारण उसका छोटा भाई सुजानसिंह शासक बना।
उस समय औरंगजेब दक्षिणी अभियान में था।
औरंगजेब ने सुजानसिंह को दक्षिण में बुलवाया व लगभग 10 वर्ष तक सुजानसिंह दक्षिण में ही रहा।

अजीतसिंह की बीकानेर पर चढ़ाई
जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया था, अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु के बाद अजीतसिंह ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह मुअज्जम बहादुर शाह नाम से बादशाह बना।
अजीतसिंह बीकानेर पर आक्रमण के लिए चला व लाडनूं में आकर डेरा डाला व भण्डारी रघुनाथ को बड़ी सेना देकर बीकानेर की ओर भेजा।
बीकानेर पर अजीतसिंह का अधिकार हो गया, तब बीकानेर के सरदारों ने भूकरका के ठाकुर पृथ्वीराज व मलसीसर के बीदावत आदि ने सेना एकत्रित करके जोधपुर की सेना से मुकाबला किया तब जोधपुर की सेना वापस लौट गई।

जोरावर सिंह
जोहियों से भटनेर लेना ठाकुर भीमसिंह जोरावर सिंह से भटनेर पर अधिकार करने की आज्ञा ली।
भटनेर दुर्ग तलवाड़े के जोहिया स्वामी मल्ला गोदारा के अधीन था। भीमसिंह ने जोहिया मल्ला को धोखे से मरवा दिया।
भटनेर पर भीमसिंह का अधिकार हो गया। दुर्ग में चार लाख सम्पति हाथ लगी। इसने सारी सम्पति स्वयं रख ली।
बीकानेर सेना नाराज होकर वापस लौट गई। यह सूचना जोरावरसिंह को मिलने पर उसने हसन खाँ भट्टी को भटनेर पर अधिकार करने के लिये भेजा।
भीमसिंह भाग गया। हसन खां का भटनेर पर अधिकार हो गया।
राज माता सिसोदिणी ने बीकानेर में चतुर्भुज मंदिर बनवाया।
जोरावरसिंह ने इसकी प्रतिष्ठा की 1744 ई. में जोरावरसिंह ने कोलायत जाकर चाँदी का तुला दान किया।
कुछ समय बाद रेवाड़ी के गुजरमल ने जोरावरसिंह के पास संदेश भेजा की आप और हम मिलकर हिसार पर अधिकार कर ले।
जोरावरसिंह ने सेना भेजी। दौलतसिंह व बख्तावरसिंह रिणी भेजे गये। जुझारसिंह व साहबसिंह चंगोई गये।
फिर सेना हासी हिसार भेजी गयी और वहाँ जोरावरसिंह का अधिकार हो गया। हिसार से लौटते समय जोरावरसिंह अनूपपुर में ठहरे वहाँ इनकी मृत्यु हो गई।
जोरावरसिंह ने संस्कृत में दो ग्रंथ वैद्यकसार व पुजा पद्यति लिखी। रसिकप्रिया पर टिकाएँ लिखी।
जोरावरसिंह ने 1734 ई. के हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया था।

गज सिंह (1746-1787 ई.)

गजसिंह का विवाह जैसलमेर के रावल अखैराज की पुत्री चंद्रकुंवरी से हुआ था।
बादशाह अहमद शाह ने हिसार की जागीर गजसिंह को दी थी क्योंकि हिसार दूर होने के कारण बादशाह इसका सुचारू रूप से प्रबंध नहीं कर पा रहा था।
गजसिंह ने बख्तावरसिंह को भेजकर 1752 ई. में हिसार पर अधिकार कर लिया।
बादशाह अहमद शाह के समय वजीर मनसूर अल्ली खां ने विद्रोह कर दिया।
गजसिंह ने बादशाह की सहायता के लिए सेना भेजी, समय पर सहायता देने के कारण बादशाह ने गजसिंह की मनसबदारी 7000 कर दी व गजसिंह को 'श्री राजराजेश्वर महाराजाधिराज महाराजाशिरोमणि श्री गजसिंह' की उपाधि दी व गजसिंह को 'माहीमराति' की श्रेष्ठ उपाधि भी दी।

राजसिंह
राजसिंह बीमार रहने के कारण राज कार्य मनसुख नाहटा को सौंपा था। 21 दिन राज्य करने के पश्चात 1787 ई. में राजसिंह की मृत्यु हो गई।
कर्नल टॉड के अनुसार राजसिंह के भाई सूरतसिंह की माता ने राजसिंह को जहर दे दिया था। राजसिंह की चिता में उनका एक सेवक मण्डलावत संग्रामसिंह ने भी अग्नि में प्रवेश किया था।

महाराजा सूरतसिंह (1787-1828 ई.)
सूरतसिंह ने जयपुर के शासक प्रतापसिंह की युद्ध में सहायता की थी।
जयपुर की सहायता करने के कारण जॉर्ज टॉमस ने बीकानेर पर आक्रमण किया टॉमस ने सर्वप्रथम जीतपुर को जीता।
सूरतसिंह ने टॉमस से समझौता कर लिया।

भटनेर पर अधिकार 1805 ई.
सूरतसिंह ने 1804 ई. में अमरचन्द सुराणा के नेतृत्व में भटनेर पर आक्रमण के लिए भेजा।
जाब्ताखां ने बाध्य होकर बीकानेर के सरदारों से कहा "हम पर आक्रमण न करने का वचन दिया जाए तो हम गढ़ छोडकर चले जाएँगे", ये वचन पाकर जाब्ताखाँ व सभी भट्टी गढ़ छोड़कर राजपुरा चले गए।
1805 ई. में भटनेर पर बीकानेर का अधिकार हो गया। ये दुर्ग मंगलवार के दिन जीता गया था इसलिए इसका नाम हनुमानगढ़ कर दिया गया। सूरतसिंह ने 1818 ई. में अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली।
सूरतसिंह ने अपने शासनकाल में सूरतगढ़ का निर्माण करवाया था। सूरतसिंह के समय दयालदास ने 'बीकानेर राठौड़ री ख्यात 'लिखी थी।

महाराजा रतनसिंह (1828-1851 ई.)

रतनसिंह को अकबर द्वितीय ने माहीमरातिब की उपाधि दी।
1836 ई. में अपने पिता की स्मृति में देवीकुण्ड में एक छतरी बनवायी व अन्य छतरियों का जीर्णोद्धार करवाया। इसके बाद महाराजा रतनसिंह गया की यात्रा के लिए रवाना हुए।
मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, काशी आदि होते हुए महाराजा रतनसिंह गया पहुँचे। वहाँ महाराजा ने अपने सरदारों से 1837 ई. में पुत्रियों को न मारने की प्रतिज्ञा करवायी।
इसके बाद बीकानेर पहुँचकर 1844 ई. में अंग्रेजों से भी इस प्रथा को रोकने का निवेदन किया व नियम बनाया कि सभी सरदार अपनी हैसियत के अनुसार विवाह करेंगे, जिसके पास भूमि नहीं है वह विवाह में 100 रुपये खर्च करेगा जिसमें से त्याग के 10 रुपये होंगे। चारण लोग न किसी के साथ त्याग के लिए झगड़ा करेंगे न दूसरे इलाकों में त्याग मांगने जायेंगे।
रतनसिंह ने भावलपुर व सिरसा के मार्ग में कुएँ बनवाये व कर में छूट की।
बठोद पाटोदा (सीकर) के डूंगजी को अंग्रेजों ने आगरा के किले में कैद कर लिया, जवार जी ने मानसिंह आदि के सहयोग से इन्हें छुड़वा लिया।
ये सूचना मिलने पर महाराजा ने सभी परगनों व जागीरदारों को आज्ञा दी कि डूंगजी, जवार जी व उनके सहयोगी बीकानेर में प्रवेश करे तो उन्हें गिरफ्तार कर लेवें।
अंग्रेजों की ओर से मि. फार्स्टर को डूंगजी को गिरफ्तार करने के लिए आया। रतनसिंह ने उनकी सहायता के लिए केसरी सिंह को भेजा।
डूंगजी जवारजी जेल से भागकर रामगढ़ आ गए थे जवार जी अपने साथियों सहित बीकानेर आ गये थे।
अंग्रेजों की ओर से कप्तान शॉ रतनसिंह से मिला, रतनसिंह ने हरनाथसिंह व हरिसिंह को सहायता के लिए भेजा, जब जवारजी गाँव विगा में थे तब कप्तान शॉ ने उन्हें घेर लिया, ठाकुर हरनाथ सिंह के समझाने पर जवारजी ने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। द्वितीय सिक्ख (1848 ई.) युद्ध में रतनसिंह ने अंग्रेजों की सहायता के लिए ऊंटों की सेना भेजी थी।

नोट
1846 ई. में महाराजा ने अपने नाम पर रतनबिहारी मंदिर (बीकानेर) बनवाया। रतनसिंह की प्रसंशा में जसरत्नाकर ग्रंथ लिखा गया व बीठू भोमा ने रतनविलास ग्रंथ लिखा, कविया सागरदान ने रतनरूपक ग्रंथ लिखा।

महाराजा सरदार सिंह (1851-72 ई.)

सरदार सिंह ने कई कुप्रथाओं को बंद किया। अतिरिक्त महाजनों से 'बाछ' नाम से कर लिया जाता था वह बंद कर दिया। सरदार सिंह ने कानून बनाया कि मृत्यु भोज पर 'लापसी' के अलावा कुछ नहीं बनेगा। 1854 ई. में सरदार सिंह ने सती प्रथा व जीवित समाधि पर रोक लगा दी।

1857 की क्रांति व सरदार सिंह
दिल्ली में विद्रोह हुआ, बीकानेर की सीमा के नजदीक झाँसी में दो बटालियन विद्रोह में मिल गई।
हरियाणा में भी विद्रोह हुआ। बहादुर शाह का एक रिस्तेदार मोहम्मद अजीम बेग हिसार में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त था।
विद्रोह के समय इसने भी उत्पात मचाया। हांसी व हिसार की सेना ने विद्रोह कर दिया।
सरदार सिंह सेना सहित विद्रोह स्थानों पर गये वहाँ विद्रोहियों का दमन किया, पीड़ित अंग्रेजों की सहायता की।
1857 ई. की क्रांति में एकमात्र सरदारसिंह ही शासक है जो स्वयं विद्रोहियों से युद्ध करने के लिए गये थे।
सरदार सिंह ने अंग्रेजों को आश्रय भी दिया। बीकानेर के महलों में आश्रय लेने वालों में प्रसिद्ध कर्नल जेम्स स्किनर था, इसके नाम पर अब तक 'फर्स्ट स्किनर हॉर्स' नामक घुड़सवारी भी है।
1859 ई. में तात्या टोपे, राव साहब, फिरोज शाह आदि को सीकर में कर्नल होम्स ने हराया, इनमें से 600 विद्रोही भागकर बीकानेर चले गये उन्होंने सरदार सिंह के माध्यम से अंग्रेजों से क्षमा याचना मांगी। सरदार सिंह के कहने पर अंग्रेजों ने इन्हें माफ कर दिया।
अंग्रेजों की सहायता करने के कारण सरदारसिंह को टीबी तहसील के 41 गाँव अंग्रेजों ने उपहार में दिये।
क्रांति से पूर्व बीकानेर में सिक्के बादशाह शाह आलम द्वितीया के नाम से चलते थे, विद्रोह के बाद जब भारत का शासन विक्टोरिया के अधीन आया तब सरदारसिंह ने सोने व चाँदी के सिक्कों पर बादशाह का नाम हटाकर 'औरंगाराय हिन्द व इंग्लिस्तान क्वी विक्टोरिया 1859' और दूसरी तरफ 'जर्व श्री बीकानेर 1916 'फारसी लिपि में लिखवाया।
सरदार सिंह ने रसिक शिरोमणी मंदिर बनवाया राजलवाड़ा गाँव के स्थान पर सरदारशहर (चूरू) बसाया जो बीकानेर राज्य में तीसरे दर्जे का शहर था।

महाराजा डूंगरसिंह (1872-1887 ई.)

सरदार सिंह के कोई पुत्र नहीं था तब डूंगरसिंह को शासक बनाया गया।
काबुल की दूसरी लड़ाई में 1878 ई. में महाराजा ने अंग्रेजों की सहायता करते हुए 800 ऊँट भेजे थे। डूंगरसिंह ने आगरा में प्रिंस ऑफ वेल्स से भी मुलाकात की थी।
डूंगरसिंह ने बीकानेर किले का जीर्णोद्धार करवाया व सोहन बुर्ज, सुनहरी बुर्ज, चीनी बुर्ज, गणपति निवास, शक्ति निवास आदि महल बनवाये।
हरिद्वार में गंगा मंदिर, कासी में डूंगेश्वर मंदिर, द्वारका में मुरली मनोहर मंदिर बनवाया।
डूंगरसिंह ने सरदारसिंह की भी छतरी बनवायी। अपने नाम पर डूंगरगढ़ बसाया, डूंगरसिंह ने अपने पिता लालसिंह के नाम पर शिवबाड़ी में लालेश्वर का शिव मंदिर व लक्ष्मीनारायण का मंदिर बनवाया।
डूंगरसिंह के समय बीकानेर में 'बीकानेरी भूजिया 'बनना प्रारम्भ हुई थी।

महाराजा गंगासिंह (1887-1943 ई.)

डूंगरसिंह ने मुकदमों की सुनवाई के लिए बीकानेर में चार न्यायालयों की स्थापना की थी, किन्तु इनके फैसलों की अपील सुनने के लिए कोई पृथक अदालत नहीं थी।
तब कप्तान थॉर्नटन ने प्रान्तीय न्यायालयों की अपील सुनने के लिए बीकानेर में अपील कोर्ट की स्थापना की। पण्डित कालिका प्रसाद व हाफिज हमीदुल्ला को कोर्ट का जज बनाया।
गंगासिंह की शिक्षा व्यवस्था के लिए अजमेर के मेयो कॉलेज के पण्डित रामचन्द्र दुबे को शिक्षक नियुक्त किया। 1889 ई. में महाराजा गंगासिंह को मेयो कॉलेज में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा गया।
1889 ई. में अंग्रेजों के साथ जोधपुर व बीकानेर राज्यों में रेल लाने के लिए इकरारनामा हुआ। 1891 ई. में बीकानेर में रेल की शुरूआत हुई व तार सेवा भी प्रारम्भ हो गई।
भवन, सड़क बनाने के लिए कोई महकमा नहीं था 1891 ई. में 'पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट' की स्थापना की गई।
1893 ई. में 30 वर्ष के लिए बीकानेरी टकसाल में रुपया बनाना बंद कर दिया व अंग्रेजी टकसाल में बनाये गये। इसमें एक तरफ विक्टोरिया का चित्र व दूसरी तरफ गंगासिंह का चित्र था।
1896 ई. में पलाना गाँव में कुआँ खोदते समय कोयले की खान निकली।
1896-97 ई. में घग्घर नदी से नहरें काटकर बीकानेर में कुछ स्थानों पर पानी लाया गया।
गंगासिंह के समय 'गंगारिसाला या कैमल कोर' नामक ऊंटों की सेना बनायी गई। 1896 ई. में भारत का वायसराय व गवर्नर जनरल लॉर्ड एल्गिन बीकानेर आया था।

छप्पनिया अकाल
विक्रम संवत् 1956 व ईस्वी 1899-1900 में बीकानेर ही नहीं सम्पूर्ण राजपूताने में अकाल पड़ा।
अकाल के साथ लोगों में हैजे की बीमारी फैल गई। इस समय गंगा सिंह ने चूरू व राजगढ़ के अन्न क्षेत्र खोले।
लोगों को भोजन दिया गया, सहायक कार्यों में राजधानी में शहरपनाह का कार्य बढ़ाया गया, 'गजनेर झील' का निर्माण प्रारम्भ किया।
हैजे की बीमारी के समय गंगासिंह स्वयं बीमारों के पास जाकर उनका निरीक्षण करते थे।
भारत सरकार ने अकाल के समय किये गये जनता के हित के कार्यों से खुश होकर गंगासिंह को प्रथम श्रेणी का केसर-ए-हिंद पदक दिया।

चीन का बॉक्सर युद्ध व महाराजा गंगासिंह
चीन में एक नया आन्दोलन चला जिसे 'बॉक्सर आन्दोलन' नाम दिया गया, बॉक्सर दल ने चीन में रहने वाले ईसाइयों पर आक्रमण कर दिया, ईसाइयों की हत्याएँ की, बॉक्सर दल ने पटरियों को उखाड़ना, स्टेशनों को नष्ट करना शुरू कर दिया।
इस विद्रोह को दबाने के लिए 3 फौज की टुकडियाँ भारत से भी भेजी गई थी, गंगासिंह ने भी इस युद्ध में जाने की अभिलाषा प्रकट की, महारानी विक्टोरिया ने स्वीकृति दे दी तब 1900 ई. में गंगासिंह गंगारिसाला सेना लेकर रवाना हये।
इनके साथ प्राइवेट सेक्रेटरी मेजर आर. डी. कुपर, पृथ्वीराज सिंह तंवर, सालीग्राम आदि थे।
चीन पहुँचकर लेफ्टीनेन्ट जनरल सर आल्फ्रेड के साथ कई लड़ाइयाँ लड़ी। फिर विद्रोह शांत होने के बाद बीकानेर प्रस्थान किया। भारतीय राजाओं में केवल गंगासिंह ही स्वयं चीन युद्ध में सम्मिलित हुए थे, साम्राज्ञी की ओर से गंगासिंह को चीन युद्ध पदक का मेडल व के. सी. आई. ई. (नाईट कमाण्डर ऑफ दी इण्डियन एम्पायर) की उपाधि दी।

विक्टोरिया मेमोरियल क्लब की स्थापना
1901 ई. में विक्टोरिया की मृत्यु हो गई, इस शोक में बीकानेर राज्यों में कई दिनों तक शोक बनाया गया। महारानी की स्मृति को जीवित रखने के लिए विक्टोरिया मेमोरियल क्लब बनाया गया।
1902 ई. में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण में लंदन गये, वहाँ प्रिंस ऑफ वेल्स ने गंगासिंह को अपना ए.डी.सी. नियुक्त किया और इसी अवसर पर इन्हें चीन युद्ध पदक भी दिया गया।
1902 ई. में गंगासिंह को पुत्र शार्दुल सिंह का जन्म हुआ।
1904 ई. में गंगासिंह को के.सी.एस.आई. (नाइट कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया) की उपाधि दी।
मुगल बादशाहों ने बीकानेर के राजाओं को दक्षिण में गाँव उपहार में दिये थे,
1905 ई. में अंग्रेजों ने जब औरंगाबाद छावनी का विस्तार करने का निर्णय लिया तब गंगासिंह ने करणपुरा, पदमपुरा, केसरीसिंहपुरा आदि गाँव अंग्रेजों को दिये। अंग्रेजों ने इन गाँवों के बदले बावलवास गाँव (हिसार जिला) व रत्ताखेड़ा गाँव व 25000 रुपये गंगासिंह को दिये।
1905 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स भारत में घूमने आया था। वह बीकानेर भी आया। गंगासिंह ने इनकी याद में 'प्रिंस जॉर्ज मेमोरियल हॉल' बनवाया इसकी नींव प्रिंस ने ही रखी थी। प्रिंस जॉर्ज मेमोरियल हॉल में बीकानेर व्यवस्थापक सभा के अधिवेशन होते थे। बाद में सम्राट जॉर्ज पंचम के रजत जुबली की याद में इसे पुस्तकालय में परिवर्तन कर दिया।
1907 ई. में सम्राट एडवर्ड सप्तम ने गंगासिंह की उत्तम शासन प्रणाली व कर्तव्य पालन के उपलक्ष्य में जी.सी.आई.ई. (नाइट ग्रेड कमाण्डर ऑफ दी इण्डियन एम्पायर) की उपाधि दी।
1909 ई. में एडवर्ड सप्तम ने अंग्रेजी सेना का सम्मानित पद लेफ्टिनेन्ट कर्नल गंगासिंह को दिया।
1911 ई. में लंदन में जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक में गये। वहाँ केम्ब्रीज युनिवर्सिटी ने इन्हें एल.एल.डी. (डॉक्टर ऑफ लॉ) की उपाधि दी।
1912 ई. में गंगासिंह को राज्य करते हुए 25 वर्ष हो गये थे। बीकानेर में रजत जयंती महोत्सव मनाया गया, इस अवसर पर गंगासिंह ने 'अँगर मेमोरियल कॉलेज' का उद्घाटन किया, जिसमें बालकों को अंग्रेजी की उच्च शिक्षा दी जाती थी।
लॉर्ड हार्डिंग जब बीकानेर आये तब हार्डिंग ने बीकानेर में पब्लिक गार्डन का उद्घाटन किया।

नोट
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद में वर्सिलेज की संधि में भारतीय राजाओं में सिर्फ गंगासिंह के हस्ताक्षर हैं।
इस समय जब ये गंगासिंह यूरोप में थे तब उन्हें ऑक्सफोंड यूनिवर्सिटी ने इन्हें डी.सी.एल. (डॉक्टर ऑफ सिविल लॉ) की उपाधि दी।
मिश्र के सुल्तान ने इन्हें ग्रैन्ड कॉर्डन ऑव दी ऑर्डर ऑव दी नाइल' की उपाधि दी।

नरेन्द्र मण्डल का चान्सलर नियुक्त
मॉन्टेग्यू चेम्सफॉर्ड सुधारों को सही रूप में लागू करने के लिए जॉर्ज पंचम ने अपने चाचा ड्यूक ऑफ कनोट को 1921 ई. में भारत भेजा, इसने दिल्ली के 'दरबार आम' में दरबार लगाया, यहाँ नरेन्द्र मण्डल की स्थापना की जिसका चांसलर गंगासिंह को बनाया गया।
1921 ई. में गंगासिंह ने जमीदार परामर्शिणी सभा की स्थापना की गई इसमें चुने गये तीन प्रतिनिधियों की व्यवस्थापक सभा थी, इसमें जमीदारों की शिकायतों को दूर किया गया।

हाईकोर्ट की स्थापना
1922 ई. में पूर्व में स्थापित चीफ कोर्ट को हाईकोर्ट में बदल दिया, इसके सुचारू संचालन के लिए एक चीफ जज व दो सब जज नियुक्त किये गये।
बीकानेर राज्य में रेलवे का प्रबंध जोधपुर-बीकानेर का सम्मिलित रूप से था जिसे गंगासिंह के समय बीकानेर से अलग कर दिया गया।
महाराजा गंगासिंह बीकानेर में गंगनहर लेकर आये, गंगनहर लाने के कारण गंगासिंह को आधुनिक भारत का भागीरथ कहा जाता है। गंगनहर का निर्माण कार्य 1927 ई. में पूर्ण हुआ इसका उद्घाटन लार्ड इरविन ने किया, इस उद्घाटन में मदनमोहन मालवीय भी थे।
महाराजा गंगासिंह तीनों गोलमेज सम्मेलनों (1930, 1931, 1932) में देशी राज्यों के प्रतिनिधित्व के रूप में भाग लिया था।
पहले बीकानेर रेलवे का प्रबंध जोधपुर के तहत था। महाराजा गंगासिंह ने 1924 ई. बीकानेर रेलवे विभाग अलग से बना दिया।

गंगनहर
महाराजा गंगासिंह ने नहर के लिए प्रयास किया सतलज नदी का पानी राजस्थान में लाने के लिए 4 दिसम्बर, 1920 ई. को पंजाब के भावलपुरम व बीकानेर राज्यों के मध्य समझौता हुआ।
5 सितम्बर 1921 ई. में फिरोजपुर में गंगासिंह ने गंग नहर की नींव रखी। 1927 को वायसराय लार्ड इरविन ने गंग नहर का शिवपुर में उद्घाटन किया, उद्घाटन में पंडित मदन मोहन मालवीय भी आये थे।
गंग नहर लाने के कारण गंगासिंह को आधुनिक 'भारत का भागीरथ' कहा जाता है।
1937 ई. में महाराजा गंगा को शासन करते हुए 50 वर्ष हो गये। इस अवसर पर महाराजा की 50वीं स्वर्ण जयंती मनाई गयी।
गंगा सिंह ने गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) का आधुनिक स्वरूप दिया था।
बीकानेर संयंत्र केस- चंदलमल बहड़ ने गंगा सिंह के विरुद्ध 'बीकानेर दिग्दर्शन' पत्रिका में खबरें छपवायी।
चंदनमल बहड़ व इनके सहयोगी गोपालदास को मुकदमा लगा कर गिरफ्तार कर लिया। इसे बीकानेर संयंत्र केस कहा जाता है।
गंगा सिंह ने बीकानेर में स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की इन्हीं के समय डूंगर कॉलेज की स्थापना हुई।
गंगा सिंह ने अपने पिता लाल सिंह की याद में लालगढ़ पैलेस बनवाया। गंगा सिंह की मृत्यु 1943 ई. में मुम्बई में हुई।

शासक सार्दुल सिंह
बीकानेर रियासत का अंतिम शासक एकीकरण व आजादी के समयं बीकानेर के शासक यही थे।
विलयपत्र पर सर्वप्रथम हस्ताक्षर बीकानेर रियासत के सार्दुल सिंह ने किये थे। सार्दुल स्पोट्स नाम से स्कूल बीकानेर में है।

मारवाड़ व बीकानेर के शासकों की उपाधियाँ व उपनाम
उपाधि नाम शासक
हशमत वाला शासक, महान पुरूषार्थी राजकुमार, बावन युद्धों का विजेता, हिन्दू बादशाह मालदेव (जोधपुर)
महाराणा प्रताप का अग्रगामी, भूला-बिसरा राजा, मारवाड़ का प्रताप, महाराणा प्रताप का पथ प्रदर्शक राव चन्द्रसेन (जोधपुर)
मोटा राजा उदयसिंह (जोधपुर)
दलथम्मन गजसिंह (जोधपुर)
जहाँगीर का नमूना विजय सिंह (जोधपुर)
संन्यासी राजा मानसिंह (जोधपुर)
सवाई राजा सूर सिंह (जोधपुर)
आधुनिक मारवाड़ का निर्माता उम्मेदसिंह (जोधपुर)
कलयुग का कर्ण राव लूणकरण (बीकानेर)
राजपूताने का कर्ण महाराजा रायसिंह (बीकानेर)
जांगलधार बादशाह कर्णसिंह (बीकानेर)
माही मरातिब अनूपसिंह (बीकानेर)
आधुनिक भारत का भागीरथ गंगासिंह (बीकानेर)

महत्वपूर्ण तथ्य

  • मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण राव जोधा ने करवाया।
  • महाराजा गजसिंह जोधपुर राज्य के शासक थे।
  • 'मुगल बादशाह अपनी विजयों में से आधी के लिए राठौड़ों की एक लाख तलवारों के अहसानमंद थे' ये कथन कर्नल टॉड का है।
  • 'मुण्डीयार री ख्यात' मारवाड़ के राठौड़ राजवंश से सम्बन्धित है।
  • 1818 की संधि के पश्चात् ब्रिटिश विरोधी भावना रखते हुए जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने अंततः संन्यास ले लिया था।
  • जसवंतसिंह, अजीतसिंह और मोटा राजा उदयसिंह जोधपुर के शासक थे।
  • महारानी विक्टोरिया के स्वर्ण जुबली उत्सव में भाग लेने के लिये 1887 ई. में मारवाड़ के प्रतिनिधि के रूप में प्रतापसिंह को इंग्लैण्ड भेजा गया था।
  • 'मारवाड़ रा परगना री विगत' ग्रन्थ मुहणौत नैणसी ने लिखा है।
  • मारवाड़ के शासक मोटा राजा उदयसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार की।
  • 1572-73 ई. में अकबर ने जोधपुर बीकानेर के रायसिंह को सुपुर्द किया।
  • अकबर ने अपनी 1570 ई. की नागौर यात्रा के पश्चात् जोधपुर दुर्ग रायसिंह को सौंपा।
  • मुगल विरोधी कार्यवाही की दृष्टि से महाराणा प्रताप का पथ प्रदर्शक राव चन्द्रसेन को माना जाता है।
  • मालदेव के पश्चात् मारवाड़ का शासक राव चन्द्रसेन बना।
  • जोधपुर के राठौड़ नरेशों में अकबर का प्रबल प्रतिरोधी राव चन्द्रसेन था।
  • राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट से बना है जो दक्षिण की एक जाति थी।

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Kartik Budholiya

Kartik Budholiya

Education, GK & Spiritual Content Creator

Kartik Budholiya is an education content creator with a background in Biological Sciences (B.Sc. & M.Sc.), a former UPSC aspirant, and a learner of the Bhagavad Gita. He creates educational content that blends spiritual understanding, general knowledge, and clear explanations for students and self-learners across different platforms.