राजस्थान में 1857 की क्रान्ति

राजस्थान में 1857 की क्रांति

राजस्थान की धरती वीरता, त्याग और मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण की मिसाल रही है। यहाँ का इतिहास बलिदान और शौर्य की ऐसी गाथाओं से भरा पड़ा है, जिनमें अपने देश के लिए सर्वस्व अर्पित करने की भावना स्पष्ट दिखाई देती है।
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1857 ईस्वी में राजस्थान में घटित घटनाओं की पृष्ठभूमि को समझने के लिए 1818 ईस्वी में हुई संधियों और उनके परिणामों को देखना आवश्यक है। इन समझौतों ने आगे चलकर ऐसे हालात पैदा किए, जिनका प्रभाव 1857 की क्रांति के रूप में सामने आया।
मुगल साम्राज्य की केंद्रीय सत्ता के कमजोर पड़ने के बाद राजस्थान की अनेक देशी रियासतें प्रशासनिक नियंत्रण खो बैठीं। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए मराठा और पिण्डारी दलों ने क्षेत्र में लूट-पाट और अत्याचार आरंभ कर दिए, जिससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया।
इन कठिन परिस्थितियों से मुक्ति पाने के लिए राजस्थान की कई रियासतों ने ब्रिटिश शासन की संरक्षण नीति को स्वीकार करना उचित समझा। इसी क्रम में 29 सितंबर 1803 ईस्वी को भरतपुर राज्य ने अंग्रेजों के साथ संधि कर ली।
इसके बाद 11 सितंबर 1823 ईस्वी को सिरोही राज्य के साथ हुई संधि के उपरांत लगभग पूरे राजस्थान में ब्रिटिश प्रभाव स्पष्ट रूप से स्थापित हो गया, जिसने आगे चलकर 1857 की क्रांति की भूमिका तैयार की।

1857 की क्रांति के प्रमुख कारण

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लॉर्ड वैलेजली द्वारा देशी रियासतों के साथ की गई संधियों ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी। इन समझौतों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने स्थानीय शासकों को अपने संरक्षण में लेकर उनकी स्वतंत्रता को धीरे-धीरे सीमित करना शुरू किया, जिससे असंतोष की भावना जन्म लेने लगी।
1857 की क्रांति से पहले भारत के गवर्नर-जनरल रहे लॉर्ड डलहौजी की नीतियाँ भी विद्रोह का एक बड़ा कारण बनीं। उन्होंने ‘व्यपगत सिद्धांत’ (Doctrine of Lapse) को लागू कर भारतीय रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की नीति अपनाई, जिसे आम तौर पर हड़प नीति कहा जाता है।
इस नीति के अंतर्गत 1848 ईस्वी में सबसे पहले सतारा राज्य को ब्रिटिश शासन में सम्मिलित किया गया। इसके बाद क्रमशः जैतपुर और सम्भलपुर (1849 ई.), बहार (1850 ई.), झाँसी (1853 ई.), उदयपुर (1852 ई.) तथा नागपुर (1854 ई.) जैसे कई राज्यों को समाप्त कर अंग्रेजी राज्य का हिस्सा बना दिया गया। आगे चलकर 1856 ईस्वी में अवध को कुशासन का आरोप लगाकर ब्रिटिश शासन द्वारा अपने अधिकार में ले लिया गया।
इसके अतिरिक्त डलहौजी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब की पेंशन भी समाप्त कर दी, जिससे उनमें गहरा आक्रोश उत्पन्न हुआ। यह निर्णय भी 1857 की क्रांति को भड़काने वाले प्रमुख कारणों में शामिल था।

आर्थिक कारण
स्थायी बन्दोबस्त प्रणाली, भू राजस्व नीति, जागीरदारी प्रथा,
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 100 वर्षों तक शासन करने के बाद भारतीय उद्योग धन्धों व हस्तशिल्प को नष्ट कर दिया।

धार्मिक कारण
ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार (1833 के चार्टर एक्ट द्वारा)

सामाजिक कारण
सती प्रथा, कन्या वध, बाल विवाह, दास प्रथा।

सैनिक कारण
वेतन में भेदभाव
सैनिकों को भेजे जाने वाले डाक पर कर बढ़ा दिए
भारतीयों के साथ भेदभाव व उच्च पदों पर नियुक्तियों से वंचित

तात्कालिक कारण
तत्कालीन गवर्नर जनरल कैनिंग द्वारा ब्राउनबैंस राइफलों के स्थान पर एनफील्ड राइफलों का प्रयोग शुरू किया।
इन राइफलों के कारतूसों में गाय व सुअर की चर्बी लगी होती थी, जिससे भारतीय हिन्दू व मुस्लिम सैनिकों में असंतोष फैल गया।

नोट
1854 ई. में क्रीमिया के युद्ध में पहली बार एनफील्ड राइफलों का प्रयोग शुरू हुआ था। इस बन्दूक का सर्वप्रथम विरोध बुरहानपुर छावनी (मध्यप्रदेश) में हुआ था।

राजपूताना रेजीडेन्सी

राजपूताना रेजीडेन्सी की स्थापना 1832 ई. में हुई। इसका मुख्यालय अजमेर में बनाया गया। इसका मुख्य अधिकारी ए.जी.जी (एजेन्ट टू गर्वनर जनरल) होता था।
प्रथम A.G.G. मि. लॉकेट था। विलियम बैंटिक द्वारा राजपूताना रेजीडेन्सी का मुख्यालय 1845 ई. में ग्रीष्मकालीन कार्यालय आबू में स्थानान्तरित कर दिया। 1857 ई. की क्रान्ति के समय ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स था।
क्रांति के समय ब्रिटेन प्रधानमंत्री पार्मस्टन थे और ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ऐलिजाबेथ थी।
क्रांति के समय गवर्नर जनरल कैनिंग था।
कम्पनी का मुख्य सेनापति कैम्पवैल था।
1857 की क्रान्ति का प्रतीक चिन्ह- कमल का फूल व रोटी (चपाती) थी।
क्रांति की तारीख 31 मई को तय हुई थी। लेकिन क्रांति 10 मई को मेरठ (उत्तर प्रदेश) से प्रारम्भ हो गई।
क्रांति का मुख्य नेता बहादुर शाह जफर-द्वितीय था।
1857 की क्रांति के समय राजस्थान का प्रशासन उत्तर-पश्चिम प्रान्त का कॉल्विन के नियंत्रण में था। उत्तर-पश्चिम प्रान्त का मुख्यालय- आगरा (उत्तरप्रदेश)

क्रांति के समय पॉलिटिकल एजेंट
रियासत पॉलिटिकल एजेन्ट शासक
जयपुर ईडन रामसिंह-द्वितीय
कोटा बर्टन रामसिंह-द्वितीय
जोधपुर G.H. मेकमोसन बख्त सिंह
उदयपुर शावर्स स्वरूप सिंह
सिरोही जे.डी. हॉल शिवसिंह
भरतपुर मॉरीसन जसवंत सिंह
धौलपुर निक्सन भगवन्त सिंह
बाँसवाड़ा कर्नल रांक लक्ष्मण सिंह

नोट
भरतपुर के शासक जसवंत सिंह नाबालिग थे। इसलिए मॉरीसन को वापस भेज दिया गया। निक्सन ने ही धौलपुर व भरतपुर के पॉलिटिकल एजेन्ट के रूप में कार्य किया।

क्रान्ति के समय राजस्थान में 6 छावनियाँ थी
  • नसीराबाद (अजमेर):- यहाँ 15वीं बंगाल पैदल सेना नियुक्त थी। नसीराबाद सबसे शक्तिशाली छावनी थी।
  • ब्यावर:- यहाँ मेर रेजीमेन्ट नियुक्त थी।
  • देवली (टोंक):- कोटा कन्टिनजेन्ट के सैनिक थे।
  • एरिनपुरा (पाली):- जोधपुर लीजन के पुर्बिया सैनिक थे।
  • खेरवाड़ा (उदयपुर):- यहाँ मेवाड़ भील कोर के सैनिक थे।
  • नीमच (मध्यप्रदेश):- यहाँ भारतीय ब्रिगेड के सैनिक थे। (फर्स्ट बंगाल केवेलरी)

नीमच एकमात्र राजस्थान से बाहर की सैनिक छावनी थी इसके नियन्त्रण का कार्य मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट के अधीन था।
सभी छावनियों में लगभग 5 हजार सैनिक थे। ब्यावर व खेरवाड़ा छावनी में प्रत्यक्ष रूप से कोई विद्रोह नहीं हुआ था।
10 मई, 1857 ई. को मेरठ में हुई क्रान्ति की सूचना ए.जी.जी. को आबू में 19 मई 1857 ई. को मिली।
ए.जी.जी. लॉरेन्स ने घोषणा की, कि रियासती शासक 1818 ई. की सहायक सन्धियों के तहत हमारे प्रति वफादार रहे।
लॉरेन्स के सामने सबसे बड़ी समस्या अजमेर की सुरक्षा थी क्योंकि अजमेर में अंग्रेजों का गोला बारूद व धन था।

नसीराबाद की क्रान्ति (28 मई, 1857 ई.)

राजस्थान में सर्वप्रथम क्रान्ति नसीराबाद में हुई
नसीराबाद छावनी का निर्माण- 1818 ई. में हुआ था। इसकी स्थापना सर ऑक्टरलोनी द्वारा की गई। (अपने खिताब नासिरूद्दौला के नाम पर नामकरण)
क्रांति की शुरुआत- 28 मई, 1857 ई. बृहस्पतिवार के दिन
नेतृत्व कर्त्ता- बख्तावर सिंह
अजमेर में अंग्रेजों का कार्यालय, खजाना व आयुध भण्डार था। इसका मुख्य केन्द्र मैग्जीन का दुर्ग था।
यहाँ पर 15वीं बंगाल पैदल सेना व 30वीं बंगाल पैदल सेना नियुक्त थी। 15वीं पैदल सेना कुछ दिन पूर्व मेरठ से आयी थी।
लॉरेन्स को भय था कि ये अपने साथ क्रान्ति का बीज लेकर तो नहीं आ गए है। इसलिए 15वीं बंगाल सेना को अजमेर से नसीराबाद स्थानान्तरित कर दिया।
अजमेर में ब्यावर से दो मेर रेजीमेन्ट बुलाई क्योंकि मेर रेजीमेन्ट विश्वसनीय थी क्योंकि इन पर गाय व सूअर की चर्बी की अफवाह का कोई प्रभाव नहीं था।
बम्बई से बॉम्बे लॉचर्स के सैनिक नियुक्त किए तथा दुर्ग के चारों ओर तोपें तैनात कर दी। साथ ही यूरोपियन रेजीमेन्ट की भी मांग की गई।
जोधपुर से मेकमोसन ने कुशल राज सिंघवी के नेतृत्व में जोधपुर से अश्वारोही सेना अजमेर भेजी।
नसीराबाद में मेरठ तथा दिल्ली क्षेत्रों से आए क्रान्तिकारी साधुओं के भेश में घूमकर प्रचार कर रहे थे कि सैनिकों को दिए जाने वाले खाने में हड्डियों का चूरा मिला है।
27 मई, 1857 ई. को अंग्रेज रिचर्ड/प्रिचार्ड से सैनिक बख्तावर सिंह ने पूछा कि क्रान्तिकारियों के विरूद्ध क्या यूरोपियन रेजीमेन्ट बुलाई जा रही है।
"तुम्हें हमारे ऊपर विश्वास नहीं है।" सन्तोषप्रद जवाब नहीं मिलने पर 28 मई 1857 ई. को 15वीं बंगाल पैदल सेना के सैनिक बागी हो गए, छावनी को लूट लिया, न्यूबरी व स्पोटिशवर्ग नामक अंग्रेज अधिकारी को मार दिया।
लेफ्टिनेंट लॉक व कर्नल हार्डी घायल हो गए। नसीराबाद में विद्रोह 2:30 बजे प्रारम्भ हुआ ये सैनिक अजमेर नहीं जाकर सीधे 18 जून को दिल्ली पहुँच गए।

नीमच की क्रान्ति (3 जून, 1857 ई. रात्रि 11 बजे)

नीमच छावनी वर्तमान मध्यप्रदेश में स्थित है। क्रांति के समय मेवाड़ रियासत के अधीन थी। यहाँ पर P.A. शॉवर्स व मेवाड़ शासक स्वरूप सिंह थे।
2 जून को अन्य सैनिक क्रांतियों को देखते हुए नीमच में अंग्रेज अधिकारी एबोट ने सैनिकों की परेड लेकर वफादार रहने की शपथ दिलाई किन्तु इसी समय मौहम्मद अली बेग ने कहा कि हम आपके प्रति वफादार क्यों रहे, क्या आप हमारे प्रति वफादार रहे हैं? अली का इशारा अवध की तरफ था। वह अवध का ही एक सैनिक था।
अवध रियासत को अंग्रेजों ने 1856 ई. में प्रशासनिक अव्यवस्था की आड़ में हड़प लिया था।
मो. अली बेग ने एबोट को गोली मार दी। नीमच के सैनिक 3 जून 1857 ई. को बागी हो गए। 1857 ई. की क्रान्ति में सर्वाधिक सैनिक अवध के थे। अवध को 1857 की क्रांति की पौधशाला कहते हैं। मोहम्म्द अली व हीरालाल के नेतृत्व में विद्रोह हुआ।
छावनी को लूटा, अंग्रेज परिवारों की हत्याएँ की, कुछ बचकर भाग गए। क्रांतिकारियों ने 40 अंग्रेज अधिकारियों को बंदी बना लिया। जिन्हें डुंगला गाँव (चित्तौड़गढ़) के किसान रूघाराम ने शरण दी। इसके बाद राणा स्वरूपसिंह ने जगमंदिर में इनको ठहराया। इनकी देखभाल के लिए गोकुलचन्द मेहता को नियुक्ति किया। सैनिक निम्बाहेड़ा, हम्मीरगढ़, बनेड़ा, फिर देवली छावनी को लूटा, देवली में महीदपुर की सैनिक टुकड़ी थी जो इनके साथ मिल गई इसके बाद सैनिक आगरा फिर 20 जून को दिल्ली पहुँचे।
नीमचे की क्रान्ति का दमन करने के लिए मेवाड़ P.A. शावर्स का साथ देने के लिए कोटा का P.A बर्टन भी आया था। शावर्स ने 6 जून, 1857 ई. को दुबारा छावनी पर अधिकार कर लिया।
नीमच सैनिकों में अफवाह फैली कि धर्म भ्रष्ट करने के लिए आटे में हड्डियों का चूरा मिला है, मेवाड़ के सेनापति (वकील) अर्जुन सिंह ने इस आटे की रोटी खाकर सैनिकों को संतुष्ट किया।

नोट
क्रांति में सर्वाधिक सैनिक अवध से थे।
12 जून को बचे हुए सैनिकों ने नीमच में दोबारा विद्रोह कर दिया जिसको अंग्रेज अधिकारी जैक्सन ने दबा दिया।
स्वरूप सिंह राजस्थान के पहले शासक थे, जिन्होंने 1857 की क्रान्ति में सर्वप्रथम अंग्रेजों की सहायता की।

देवली छावनी (टोंक)- 5 जून, 1857 ई.

नीमच छावनी से क्रांतिकारी देवली पहुँचे और छावनी में आग लगा दी।
टोंक के शासक वजीरूद्दौला खाँ थे।
देवली में क्रान्ति के नेतृत्वकर्ता मीर आलम थे।
ताराचन्द पटेल नामक क्रान्तिकारी को टोंक में तोप के मुँह के आगे बाँधकर बारूद से उड़ा दिया था।
यहाँ पर महिलाओं व बच्चों ने तिलक लगाकर तात्याँ टोपे का स्वागत किया था।
ख्वाजा हसन निजामी की पुस्तक 'गदर की सुबह और शाम' में लिखा है कि टोंक के नवाब ने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को पाँच रूपये व कुछ मुजाहिद सैनिकों को सहायता के लिए भेजा था।
मोहम्मद मुजीब ने अपने नाटक 'आजमाईश' में लिखा है कि 1857 की क्रान्ति के समय टोंक की महिलाओं ने भी भाग लिया था।

एरिनपुरा की क्रान्ति (21 अगस्त, 1857 ई.) - पाली

एरिनपुरा छावनी का गठन 1835 ई. में हुआ। यहाँ जोधपुर लीजन के पुर्बिया सैनिक थे यहाँ के 90 सैनिक ट्रेनिंग के लिए आबू गये हुए थे।
इन सैनिकों को नसीराबाद व नीमच छावनी में क्रान्ति की सूचना मिलने पर इन्होंने माउण्ट आबू में ए.जी.जी. लारेन्स के पुत्र एलेक्जेन्डर व कर्नल होम्स की गोलीबारी से हत्या कर दी। जब ये सैनिक एरिनपुरा आए तब इनका जबरदस्त स्वागत हुआ।
शीतलप्रसाद, मोती खाँ, तिलकराम आदि के नेतृत्व में आन्दोलन हुआ। शिवनाथ के नेतृत्व में 'चलो दिल्ली, मारो फिरंगी' का नारा दिया। पाली में अंग्रेजों ने पहले से सेना नियुक्त कर दी थी तब पुर्बिया सैनिक 'चलो दिल्ली मारो फिरंगी' का नारा देते हुए आऊवा आ गए। यहाँ के ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत ने इन्हे सहयोग दिया। दिल्ली जा रहे विद्रोही सैनिकों ने खैरवा (पाली) में अपना डेरा डाला था।

नोट
सैनिकों के समर्पण हेतु अब्बास अली पैट्रिक लॉरेंस के पास पहुँचे, परन्तु सहमति नहीं बनी।
आऊवा, पाली, मारवाड़ में क्रान्ति का मुख्य केन्द्र था। यहाँ पर ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत ने नेतृत्व किया।
कुशाल सिंह चम्पावत की ईष्टदेवी सुगाली माता है।
सुगाली माता को 1857 की क्रान्ति की 10 सिर व 54 हाथ वाली देवी कहते हैं।
आऊवा में क्रान्ति के समय कामेश्वर महादेव का मन्दिर भी स्थित था। वर्तमान में आऊवा में सत्याग्रह उद्यान बना हुआ है।

ठाकुर कुशाल सिंह व 1857 ई. की क्रांति

कुशाल सिंह के सहयोगीः-
  1. आसोप का शिवनाथ
  2. गूलर का बिशन सिंह
  3. आलनियावास का अजीतसिंह
  4. लाम्बिया के पृथ्वीसिंह,
  5. बोगावा ठाकुर जोधसिंह
  6. बंतावास ठाकुर प्रेमसिंह,
  7. बसवाना ठाकुर चांद सिंह
  8. तुलगिरी ठाकुर जगत सिंह

ठाकुर कुशाल सिंह व अंग्रेजों के मध्य प्रमुख युद्ध हुए

बिथौड़ा युद्ध (8 सितम्बर 1857 ई.) - पाली
ए.जी.जी. लॉरेन्स ने जोधपुर शासक तख्तसिंह को आऊवा सामन्त को दबाने के निर्देश दिए, तख्त सिंह ने किलेदार ओनाडसिंह व कुशलराज सिंघवी के नेतृत्व में सेना आऊवा भेजी।
बिथौड़ा युद्ध में तख्तसिंह का सेनापति ओनाडसिंह मारा गया।
कैप्टन हीथकोट व कुशलराज सिंघवी युद्ध से बचकर निकले। कुशाल सिंह चम्पावत की विजय हुई।

चेलावास युद्ध/काला पाली गौरों का युद्ध (18 सितम्बर 1857 ई.)
ए.जी.जी. लॉरेन्स स्वयं अजमेर से आया, P.A. मैकमोसन की संयुक्त सेना का क्रान्तिकारियों के साथ चेलावास युद्ध हुआ।
मेकमोसन को मारकर उसके सिर को काटकर आऊवा के किले पर लटका दिया।
जब बड़ा अंग्रेज अधिकारी मारा गया तब गवर्नर जनरल कैनिंग ने ब्रिगेडियर हॉम्स व डीसा के नेतृत्व में पालनपुर से बड़ी सेना भेजी, कुशाल सिंह के पास 700 सैनिक थे, क्रांतिकारियों ने सैनिकों को नारनौल (हरि.) के रास्ते से दिल्ली भेज दिया।
चेलावास विजय के उपलक्ष्य में आऊवा (पाली) में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया गया।

आऊवा का युद्ध (पाली)
20 जनवरी, 1858 ई. को आऊवा को घेर लिया। 23 जनवरी को कुशाल सिंह ने किले का कार्यभार अपने भाई लाम्बिया के ठाकुर पृथ्वीसिंह को सौंपकर स्वयं कोठारिया (भीलवाड़ा) के जोधसिंह के यहाँ रुके।
इसके बाद सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के यहाँ शरण ली। मारवाड़ के आसोप ठाकुर शिवनाथ, गुलर ठाकुर बिशनसिंह, आलनियावास ठाकुर अजीतसिंह ने कुशाल सिंह चम्पावत को सहायता प्रदान की।
हॉम्स व डीसा ने आऊवा को बुरी तरह से लूटा, यहाँ से कुशालसिंह की कुल देवी सुगाली माता की मूर्ति ले गये। जिसे पाली के बांगड़ संग्रहालय में क्रान्ति के बाद लाया गया। वर्ष 2018 में पाली के मन्दिर में देवी की स्थापना कर दी गई।
8 अगस्त, 1860 में नीमच में कुशाल सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसकी जाँच के लिए मेजर टेलर आयोग का गठन किया गया, जिसमें कुशालसिंह निर्दोष साबित हुए।
10 नवम्बर, 1860 ई. कुशालसिंह को रिहा कर दिया।
25 जुलाई, 1864 ई. में कुशालसिंह की उदयपुर में मृत्यु हो गयी। कुशालसिंह के पुत्र देवी सिंह ने दुबारा आऊवा पर अधिकार कर लिया था। मेलेसन ने कहा था कुशालसिंह तख्तसिंह का विरोधी था, अंग्रेज विरोधी नहीं।

कोटा की क्रान्तिः- (15 अक्टूबर, 1857 ई.)

कोटा में छावनी नहीं थी यहाँ जनता ने विद्रोह किया था यहाँ जन विद्रोह का नेतृत्व जयदयाल व मेहराब खाँ ने किया था। जयदयाल कांमा (डीग) व मेहराब खाँ करौली का था।
अन्य विद्रोही नेता मौहम्मद खाँ, अम्बर खाँ, गुल मौहम्मद थे। शासक रामसिंह को कैद कर लिया, 127 तोपों पर अधिकार कर लिया। 6 माह तक जनता का शासन रहा, बर्टन व उसके पुत्र फ्रांसिस व ऑर्थर की हत्या कर दी, साथ में डॉक्टर सेंडलर व कॉटम भी मारे गए।
बर्टन का सिर काटकर पूरे शहर में घुमाया। महाराव रामसिंह ने मथुराधीश मंदिर के महल गुंसाई महाराज (कन्हैयालाल) की मध्यस्थता से विद्रोहियों के नेता जयदयाल और मेहराब से 9 सूत्री समझौता किया था।
इस समझौते की एक शर्त में लिखा था कि बर्टन की हत्या महाराव के आदेशों पर की गई है।
रॉबर्ट्स बड़ी सेना लेकर आया, मेहराब को करौली से, जयदयाल को बैराठ से गिरफ्तार किया गया इन्हें कोटा में फाँसी दे दी। मेहराब खाँ राजस्थान का प्रथम मुस्लिम क्रांतिकारी था जिसे फाँसी दी गई।

नोट
कोटा विद्रोह दबाने में करौली के मदनपाल ने अंग्रेजों की सहायता की। करौली के शासक मदनपालसिंह ने ग्राँड कमाण्डर इंडिया की उपाधि दी।
रामसिंह पर बर्टन को मारने का आरोप लगाकर केस चलाया गया। मेजर बर्टन की हत्या के लिए गठित जाँच आयोग ने कोटा शासक रामसिंह द्वितीय को जिम्मेदार ठहराया।
जिसमें बिना सबूतों के वह बरी हो गया तथा 17 तोपों की सलामी के स्थान पर उसके तोपों की संख्या 13 कर दी व मदनपाल की तोपों की सलामी 13 के स्थान पर बढ़ाकर 17 कर दी।
रामसिंह द्वितीय के सेनापति रतनलाल व चिमनलाल को फाँसी दे दी गई।

जयपुर
यहाँ विलायत खाँ, सादुल खाँ व उस्मान खाँ ने अंग्रेज विरोधी कार्य किए। किन्तु शासक रामसिंह ने अंग्रेजों की तन-मन-धन से सहायता की, अंग्रेजों ने इन्हें सितार-ए-हिन्द की उपाधि व कोटपूतली की जागीर दी।
जयपुर राजस्थान की एकमात्र ऐसी रियासत थी, जिसकी जनता व राजा दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का साथ दिया।

नोट
राजस्थान में क्रान्तिकारियों के अधीन सर्वाधिक समय कोटा दुर्ग रहा (लगभग 6 माह)।
यह राजस्थान का सबसे बड़ा जन विद्रोह था।
सितार-ए-हिन्द उपाधि वीर विनोद के लेखक श्यामलदास की भी है, केसर-ए-हिन्द उपाधि गाँधीजी की है।

धौलपुर में विद्रोह-12 अक्टूबर, 1857
यहाँ नेतृत्व का कार्य रामचन्द्र व हीरालाल व गुर्जर देवा ने किया था। धौलपुर का शासक भगवन्तसिंह था।
यहाँ पर ग्वालियर व इन्दौर के 5000 क्रान्तिकारी पहुँचे और विद्रोह शुरू कर दिया। भगवन्त सिंह ने 2000 सिक्ख सैनिकों को पटियाला पंजाब से धौलपुर में बुलाया और इन्होंने विद्रोह का दमन किया।
राजपुताने का एकमात्र विद्रोह जहाँ क्रान्ति बाहर के सैनिकों ने की व बाहर के सैनिकों ने ही विद्रोह को दबाया।

अलवर में विद्रोह (11 जुलाई, 1857 ई.)
अलवर में फैज्जुला खाँ ने नेतृत्व किया था, अलवर का शासक बन्नेसिंह था। अलवर के शासक बन्नेसिंह आगरा दुर्ग में कैद अंग्रेज अधिकारियों को छुड़वाने के लिए अपनी सेना सहित आगरा गए थे।
अलवर महाराजा ने 2500 सैनिकों के साथ कैप्टन निक्सन की सहायता की।

भरतपुर में विद्रोह (31 मई, 1857 ई.)
भरतपुर की सेना को तात्या टोपे का सामना करने के लिए दौसा भेजा गया।
यहाँ का शासक जसवन्त सिंह था, यहाँ गुर्जर व मेवाती जनता ने विद्रोह किया। P.A. मॉरिसन आगरा चला गया।

बीकानेर
यहाँ का शासक सरदार सिंह था जो अंग्रेजों की सहायता के लिए 5000 सेना लेकर राज्य से बाहर हांसी, हिसार होते हुए पंजाब गया था। सरदार सिंह ने पंजाब के बडालु नामक स्थान पर जाकर अंग्रेजों की सहायता की।
सरदार सिंह राजस्थान के पहले शासक थे, जो राज्य से बाहर जाकर अंग्रेजों की सहायता करते हैं। अंग्रेजों ने सरदार सिंह को टिब्बी तहसील (हनुमानगढ़) के 41 गाँव (परगने) उपहार में दिए।

तात्या टोपे व राजस्थान

  • मूलनाम- रामचन्द्र पांडुरंग
  • जन्म- येवला अहमदनगर (महाराष्ट्र)
  • तात्याँ नाना साहब (धौधूपंथ) का सेनापति था।
  • तात्या टोपे दो बार राजस्थान आया था। तांत्या 8 अगस्त, 1857 ई. माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) पहुँचा, तांत्या के पास रशद की कमी थी यहाँ एक-एक रोटी के बदले एक-एक रुपया देना पड़ा था सैनिकों के सिर पर पगड़ियाँ न होने के कारण महिलाओं के वस्त्र बांधे अंग्रेज रॉबर्ट्स पीछा कर रहा था।

कुआड़ा का युद्ध (9 अगस्त, 1852 ई.)

भीलवाड़ा में कोठारी नदी के किनारें तात्यां व रॉबर्ट्स के मध्य हुआ। तात्यां हारकर बूँदी गया, यहाँ के शासक रामसिंह ने दरवाजे बन्द कर लिए। इसके बाद नाथद्वारा चला गया श्रीनाथ जी के दर्शन किये इसके बाद आकोला, चित्तौड़, सिंगोली, बाँसवाड़ा होते हुए झालावाड़ पहुँचा झालावाड़ के पृथ्वी सिंह को हराकर इस पर अधिकार कर लिया ब्रिगेडियर पार्क तात्यां का पीछा कर रहा था।
इसके बाद तात्यां छोटा उदयपुर चला गया।
दूसरी बार तात्यां ने राजस्थान में 11 सितम्बर को बाँसवाड़ा से प्रवेश किया। बाँसवाड़ा शासक लक्ष्मण सिंह को पराजित कर इस पर अधिकार कर लिया।
यहाँ से तात्यां को मेजर रॉक व लिन माउंथ ने भगा दिया।
इसके बाद सलूम्बर भींडर फिर टोंक पहुंचा, टोंक के नासीर मौहम्मद ने तात्यां का सहयोग किया।
21 जनवरी को तात्यां सीकर पहुँचा, मण्डावा के आनन्दसिंह ने तात्यां का सहयोग किया। नरवर के सामन्त मानसिंह ने धोखे से तात्यां को नरवर के जंगलों में पकड़वा दिया।
न्यायाधीश बाग ने तात्यां को 8 अप्रैल को फाँसी की सजा सुनाई।
शिवपुरी, शिप्री मध्यप्रदेश में 18 अप्रैल, 1859 ई. को तात्यां को फांसी दी गई। तात्यां राजस्थान में जैसलमेर को छोड़कर प्रत्येक रियासत में घूमा था।

नोट
कैप्टन शावर्स ने तात्यां की फाँसी के विरोध में कहा था "तात्यां पर देशद्रोह का आरोप लगाना कहाँ तक सही है इतिहास में तात्यां को फांसी देना अपराध समझा जाएगा, आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि इस सजा के लिए किसने स्वीकृति दी व किसने पुष्टि की।"
राजस्थान में 1857 की क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से व अंत सीकर से हुआ।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
क्राति के दौरान विद्रोहियों ने राजपूताना की 6 रियासतों पर अधिकार कर लिया था-
  • धौलपुर
  • भरतपुर
  • टोक
  • कोटा
  • झालावाड़
  • बाँसवाड़ा

अमरचन्त बाठिया
  • बीकानेर निवासी
  • उपनाम- ग्वालियर नगर का सेठ
  • 1857 की क्रान्ति का भामाशाह
  • राजस्थान की मंगल पाण्डे
  • राजस्थान का 1857 की क्रांति का प्रथम शहीद माना जाता है इन्हें 22 जून, 1858 को ग्वालियर में नीम के पेड़ पर फांसी दी थी।
  • अमरचन्द बाठिया ने अपनी सारी सम्पत्ति 1857 की क्रान्ति के समय झांसी की रानी लक्ष्मी बाई व तात्या टोपे को ग्वालियर में दान कर दी थी।

डूंगरजी जवाहर जी
  • जन्म- बाठोठ पाटोदा, सीकर
  • उपनाम- शेखावाटी के लोकदेवता, राजस्थान के रॉबिनहुड, गरीबों के मसीहा।
  • कछवाह वंशी राजपूत रिश्ते में चाचा-भतीजा लगते थे। यह अमीरों से धन लूटकर गरीबों में बाँट दिया करते थे।
  • इन्होंने 1857 की क्रान्ति से पहले नसीराबाद छावनी, अजमेर को लूटा था। डुंगरजी के साले भैरूसिंह ने डूंगरजी को धोखे से अंग्रेजों को पकड़वा दिया।
  • अंग्रेजों ने डूंगरजी को आगरा किले में कैद किया।
  • 1838 ई. में जवाहर जी, लोहटजी निठारवाल, करणा मीणा, सांवता नाई मिलकर डूंगरजी को आगरा किले से छुड़वा कर लाते हैं।
  • जवाहर जी को बीकानेर महाराजा रतनसिंह शरण देते हैं तथा डूंगरजी को जोधपुर महाराजा तख्तसिंह शरण देते हैं।
  • डूंगरजी-जवाहर जी का सम्बन्ध शेखावाटी बिग्रेड से था।

बांकीदास
जोधपुर महाराजा मानसिंह राठौड़ के दरबारी कवि थे। इन्हें मारवाड़ का बीरबल कहा जाता है। इन्होंने 'आयो अंग्रेज मुलक रै ऊपर' कविता लिखी थी। भरतपुर पर अंग्रेज लेक के आक्रमण के समय 1805 ई. में इन्होंने लिखा था कि-
"हट जा रै गोरा राज भरतपुर को आठ फिरंगी नौ गोरा लडै जाट का दो छोरा।"

सूर्यमल्ल मिश्रण
  • जन्म- हरणा गाँव, बूँदी
  • उपनाम- राजस्थान के राज्य कवि
  • बूँदी के महाराजा रामसिंह द्वितीय के दरबारी कवि थे। इन्होंने डींगल भाषा में 'वीर सतसई' (288 दोहे) नामक ग्रन्थ 1857 की क्रान्ति के समय लिखा।
क्रान्ति के समय मातृभूमि की रक्षा करने के लिए क्रान्तिकारियों को प्रेरित करने वाला इनका दोहा आज भी प्रसिद्ध है।
इला न देणी आपणी, हालरियां हुलराय।
पूत सिखावै पालणै, मरण बड़ाई मांय ।।
हेमु कालानी (सरदारशहर, चूरू) को राजस्थान का सबसे कम उम्र का शहीद माना जाता है।, इन्हें टोंक में फाँसी हो गई थी।
नसिराबाद छावनी के एक सैनिक अधिकारी कैप्टन प्रिचार्ड ने अपनी पुस्तक 'प्यूटिनीज इन राजपूताना' में इसे सैनिक विद्रोह माना हैं।
जॉन लॉरेन्स ने कहा था कि "भारत में अगर बहादुरशाह जफर के बदले कोई योग्य नेता चुना होता तो हम 1857 में हार जाते।"

इन्हें भी जाने
जैसलमेर महारावल रणजीतसिंह को अंग्रेजों के प्रति सेवा प्रशंसा को देखते हुए 2000 रूपये मूल्य की खिलअत दी गई।
मण्डावा झुंझुनू के ठाकुर आनन्द सिंह क्रान्ति के समय अपने 300 शेखावत सरदारों के साथ अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए बहल (हरियाणा) जाकर युद्ध करते हैं।
करौली में जन्में मेहराब खाँ कोटा राज्य की सेना में रिसालदार के पद पर कार्यरत थे।
1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुए मामू-भान्जे वीरगति को प्राप्त हुए। झालावाड़ में आज भी मामू-भान्जे का चौराहा उनकी शहादत की याद दिलाता है। यहाँ पर उनकी मजार भी बनी है।

सुजा कुँवर राजपुरोहित
  • जन्म- लाडनूं (डीडवाना कुचामन)
  • 1857 की क्रान्ति के समय एकमात्र महिला क्रान्तिकारी जिसने पुरुष वेश में अंग्रेजों का मुकाबला किया और लाडनूँ क्षेत्र से अंग्रेजों को भागने पर मजबूर किया।
  • करौली के गुल मोहम्मद कोटा स्टेट आर्मी में रिसालदार थे। इन्होंने कोटा महाराजा की सेना व अंग्रेजी सेना के विरूद्ध लड़ाई लड़ी।
  • बिशन सिंह और शिवभानसिंह राजपुताना के दो प्रमुख सामन्त थे, जिन्होंने 1857 के विद्रोह में भाग लिया था।
  • अशोक मेहत्ता ने 1857 को राष्ट्रीय विद्रोह कहा।
  • रमेश चन्द्र मजूमदार ने 1857 को सैनिक विद्रोह कहा।
  • इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री डिजरायली ने 1857 की क्रान्ति को राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा दी।
  • वी.डी. सावरकर ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया।
  • जेम्स आउट्रम ने इसे हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच का षड़यंत्र बताया।
  • टी.आर. होम्स ने बर्बरता व सभ्यताओं के बीच का युद्ध कहा।
  • एल.ई.आर. रीज ने धर्मान्धों व ईसाइयों के विरूद्ध युद्ध बताया।
  • भारत का अंतिम गवर्नर जनरल कैनिंग था। यही 1 नवम्बर, 1858 ई. को रानी एलिजाबेथ के इलाहाबाद दरबार के बाद भारत का पहला वायसराय बना।

नोट
पश्चिमी राजपुताना स्टेट एजेन्सी का मुख्यालय- जोधपुर
दक्षिणी राजपुताना स्टेट एजेन्सी का मुख्यालय- मेवाड़ (उदयपुर)
मध्य राजपुताना स्टेट एजेन्सी का मुख्यालय- जयपुर
पूर्वी राजपुताना स्टेट एजेन्सी का मुख्यालय- कोटा

बटालियन मुख्यालय स्थापना वर्ष
अजमेर-मेरवाड़ा बटालियन ब्यावर 1822 ई.
जोधपुर लीजन बटालियन एरिनपुरा 1835 ई.
शेखावाटी ब्रिगेड झुन्झुनूँ 1834 ई.
मेवाड़ भील कोर खैरवाड़ा 1841 ई.

1857 की क्रांति के दौरान राजपूतानों के शासक
राज्य शासक
धौलपुर महाराजा भगवन्तसिंह
भरतपुर महाराजा जसवंतसिंह
जोधपुर महाराजा तख्तसिंह
उदयपुर (मेवाड़) महाराणा स्वरूपसिंह
बीकानेर महाराजा सरदारसिंह
करौली महाराजा मदनपाल
टोंक नवाब वजीरुदौला (नवाब वजीर खाँ)
बूँदी महाराव रामसिंह
जयपुर महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय
अलवर महाराजा विनयसिंह (बन्नेसिंह)
प्रतापगढ़ महारावल दलपतसिंह
बाँसवाडा महारावल लक्ष्मणसिंह
डूंगरपुर महारावल उदयसिंह
झालावाड़ राजराणा पृथ्वीसिंह
जैसलमेर महारावल रणजीतसिंह
कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय
सिरोही महारावल शिवसिंह
किशनगढ़ पृथ्वीसिंह

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • राजस्थान में आउवा का विद्रोह ठाकुर कुशाल सिंह के नेतृत्व में हुआ था।
  • कोटा में 1857 के विद्रोह का नेतृत्वकर्ता जयदयाल था।
  • कंपनी अधिकारी मेजर बर्टन की 1857 की क्रांति के दौरान कोटा में हत्या की गई थी।
  • आउवा के ठाकुर कुशालसिह ने अंग्रेजों के समक्ष नीमच में समर्पण किया था।
  • राजपूताना एजेन्सी की स्थापना 1832 में अजमेर में हुई थी।
  • 'अंग्रेजों ने अपनी शपथ भंग की है। क्या उन्होंने अवध पर अधिकार नहीं किया ? अतः उन्हें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि भारतीय अपनी शपथ का अनुपालन करेंगे।' 1857 ई. की क्रांति के संदर्भ में यह मुहम्मद अली बेग ने कहा।
  • 1857 के विद्रोह के प्रति मेवाड़ के महाराणा की नीति अंग्रेजों का सहयोग थी।
  • राजपूताना एजेंसी राजस्थान में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का राजनीतिक कार्यालय था, इसका मुख्यालय माउंट आबू में था।
  • ए जी जी जॉर्ज पैट्रिक लॉरेंस की सेना को आउवा के निकट 18 सितम्बर, 1857 ई. को क्रान्तिकारियों ने चेलावास स्थान पर परास्त किया।
  • राजस्थान में सर्वप्रथम 1857 का विद्रोह नसीराबाद (28 मई, 1857) में हुआ था।
  • अजमेर में राजपूताना एजेंसी की स्थापना 1832 ई. में की गई।
  • 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में कोटा महाराव की सहायता के लिए करौली राज्य ने सैनिक सहायता भेजी थी।
  • 1857 की क्रांति के समय धौलपुर का शासक भगवन्त सिंह था।
  • सरदार सिंह- बीकानेर ने 1857 के युद्ध राज्य से बाहर जाकर अंग्रेजों का साथ दिया।

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Kartik Budholiya

Kartik Budholiya

Education, GK & Spiritual Content Creator

Kartik Budholiya is an education content creator with a background in Biological Sciences (B.Sc. & M.Sc.), a former UPSC aspirant, and a learner of the Bhagavad Gita. He creates educational content that blends spiritual understanding, general knowledge, and clear explanations for students and self-learners across different platforms.