राजस्थान की सामन्ती व्यवस्था एवं किसान आन्दोलन
सामन्त शासक और रैयत (जनता) के बीच योजक कड़ी के रूप में कार्य करते थे। राजा सामन्त को “भाईजी” या “काकाजी” कहकर संबोधित करता था, जबकि सामन्त राजा को “बापजी” कहकर पुकारते थे।
प्रारम्भिक काल में राजा और सामन्तों के बीच रक्त सम्बन्ध होते थे, क्योंकि अधिकांश सामन्त राजा के पारिवारिक सदस्य होते थे। उस समय राजा की स्थिति समकक्षों में प्रथम मानी जाती थी, अर्थात् राजा अन्य सामन्तों से श्रेष्ठ होता था लेकिन पूर्ण निरंकुश नहीं।
मुगल काल में स्थिति में परिवर्तन हुआ। जब शासक मनसबदार प्रणाली के अंतर्गत आ गए, तब सामन्त और राजा के संबंध स्वामी-सेवक जैसे हो गए। अब सामन्त स्वतन्त्र शक्ति न रहकर शासक के अधीन अधिकारी बन गए।
ब्रिटिश काल में 1818 ई. की संधियों के बाद जब राजस्थान के शासकों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली, तब सामन्तों की भूमिका लगभग समाप्त हो गई। अंग्रेजों ने अपनी सेना संगठित कर ली, जैसे-
- जोधपुर लीजन
- मेवाड़ भील कोर
- मारवाड़ बटालियन
- शेखावाटी ब्रिगेड
- कोटा कंटीनेट
इन सैन्य टुकड़ियों के गठन से सामन्तों पर आधारित सेना की आवश्यकता समाप्त हो गई और उनकी राजनीतिक शक्ति धीरे-धीरे कमजोर पड़ गई।
नोट
शासकों ने चाकरी को रोकड़ में तब्दील कर दिया जिससे सामन्तों की स्थिति इस समय नौकर जैसी हो गई।
सामन्तों की श्रेणियाँ
मेवाड़ में सामन्तों की तीन श्रेणियाँ थी।
- उमराव- प्रथम श्रेणी के सामन्त उमराव कहलाते थे। इनकी संख्या 16 थी।
- बत्तीस- द्वितीय श्रेणी के सरदार बत्तीस थे, इन्हें सरदार भी कहा जाता था।
- गोल- तृतीय श्रेणी के सरदारों को गोल कहा जाता था।
मारवाड़ की सामन्त श्रेणी
मारवाड़ में सामन्तों की चार श्रेणियाँ थी।
- राजवी- राजा के निकट सम्बंधी इन्हे तीन पीढी तक रेखा, चाकरी व हुक्म नामें में छूट थी
- सरदार- राजपरिवार के अतिरिक्त राठौड़
- मुत्सद्दी- अधिकारी जिन्हें जागीर दी जाती थी।
- गनायत- राठौड़ों के अलावा अन्य शाखा के शामन्त
जयपुर रियासत की सामन्त श्रेणी
यहाँ की सामन्त श्रेणी 12 कोटड़ी पर आधारित थी।
कोटड़ी 'जागीर' को कहा जाता था। राजावत, नाथावत, खंगारोत, कल्याणोत, शेखावत, नरूपों, बांकावत, गोगावत आदि।
कोटा की सामन्तों की श्रेणियाँ
कोटा में सामन्तों की दो श्रेणियाँ थी।
- देशवी- देश में रहकर रक्षा करने वाले
- हुजूरथी- राजा के साथ मुगल सेवा में रहने वाले
चाकरी
शासक द्वारा सामन्त को खास रूक्का/आदेश देकर जमीयत (सेना) सहित उपस्थित होकर सेवा देने को 'चाकरी' कहते थे। चाकरी शान्ति व युद्ध दोनों समय दी जाती थी।
चाकरी का निर्धारण रेख (पट्टे में दर्ज ठिकाणे की आय) के आधार पर होता था।
रेख
यह ठिकाणे की वार्षिक होती थी। इस आधार पर उत्तराधिकार शुल्क सैनिक सेवा, न्यौत आदि तय होते थे।
उत्तराधिकार शुल्क
जब नया शासक बनता अथवा जागीर के नए उतराधिकारी से शासक द्वारा वसूला जाने वाला कर।
इसे हुक्म नामा, पेश कसी, कैद खालसा, नजराना व तलवार बंधाई कहा जाता था।
राजपूतों को यह प्रथा मुगलों ने दी थी।
जोधपुर में इसे कैद खालसा, पेश कसी कहा जाता था।
अजीतसिह ने इसे हुक्मनामा नाम दे दिया था।
- जयपुर, उदयपुर में - नजराना
- अन्य रियासतों में - तलवार बंधाई।
- न्यौत- राजा द्वारा राज कुमारी के विवाह पर सामन्तों से लिया जाने वाला कर।
- चंबरी कर- सामन्त की पुत्री अथवा किसान के यहाँ लड़की की शादी पर सामन्त के द्वारा यह कर लिया जाता था।
- खिचड़ी लाग- राज्य की सेना जब किसी गाँव के पास पड़ाव डालती तब उसके खाने की व्यवस्था के लिए सामंत द्वारा लगाया जाने वाला कर।
- गनीम बराड- मेवाड में युद्ध के समय लिया जाने वाला कर/लाग
- फौज खर्च/खेड़ खर्च- सेना के लिए अतिरिक्त वसूला जाने वाला कर फौज खर्च कहलाता था।
- राम-राम लाग- इसे गुजरना लाग/गुजरा लाग भी कहते थे।
- कमठा लाग- दुर्ग निर्माण के लिए लिया जाने वाला कर
- जाजम लाग- भुमि के विक्रय पर लिया गया कर
- हल लाग- खेत के जोत पर लिया जाने वाला कर
- सिंगोटी लाग- पशु क्रय-विक्रय पर लाग
- डाण- माल को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने की चुंगी।
- बंदोली लाग- सामन्त/जागीदार के घर पर विवाह होने पर
- चूड़ा लाग- नया चूड़ा पहनने पर कृषकों से लिया जाने वाला लाग
- आबियाना- पानी पर लगने वाले कर को कहा जाता था बीकानेर में किसान आन्दोलन आबियाना कर के कारण हुए थे।
- हीद भराई- मालियों या सब्जी विक्रेताओं पर लगता था।
- कीणा- ग्रामीण क्षेत्र में सामग्री खरीदने के बदले में अनाज दिया जाता था।
- खरडा- श्रम जीवीयों से ली जाने वाली लाग
- नाताकर- विधवा के पुर्नविवाह पर जो कर लगता था, इसके अलग अलग नाम थे। जोधपुर में इसे कागली, कोटा में नाता कागली, मेवाड में नाता बराड़, जयपुर में छैली राशि, बीकानेर में नातभाछ कहा जाता था।
- घर गिनती लाग- इस कर को मारवाड़ में किवाड़ बाब, मेवाड़ में घर बराड़, जयपुर में घर की बिछोती, बीकानेर में धुँआ भाछ कहा जाता था।
- काठ लाम- जलाने की लकड़ियों के लिए जंगल से जो लकड़ी लाई जाती थी उस पर लगता था। काठ लाग को मारवाड़ में कबाड़ा बाब, जयपुर में दरखत की बिछौती, मेवाड़ में खडलाकड/लकड़ बराड़, बीकानेर में काठ भाछ कहा जाता था।
- घास मरी- पशुओं की चराई पर लगने वाला कर
- जांगड/जांगड़ा- युद्ध से पूर्व सैनिकों को उत्साहित करने वाला व्यक्ति जांगड़ कहलाता था। ये युद्ध में राजा के साथ वीर गाथा व युद्ध के समय वीर रस के दोहे बोलता था। वीर रस की कविताएँ बोलने वाले व्यक्ति को जांगड़ कहते थे।
- फारसी भाषा/मुगल काल में- तजकीरा कहलाता है।
- कासीद- पत्र वाहक को कहते थे।
- लवाजमा- शासक द्वारा सामन्त को नगाड़ा, निशान, चंवर व सोने-चाँदी की छड़ी दी जाती थी जिसे लवाजमा कहा जाता है।
- ताजिम- प्रथम श्रेणी सामन्तों के आने पर उनके सम्मान में राजा द्वारा खड़े होकर उसका आदर-सत्कार करने की प्रथा को ताजिम कहा जाता था।
- मंसूर- बादशाह की उपस्थिति में शहजादे द्वारा जारी किया गया आदेश मंसूर कहलाता था।
- निशान- बादशाह या उसके परिवार द्वारा मनसबदार को दिया जाने वाला शाही आदेश।
- सनद- बादशाह की सहमति जो अधीनस्थ जागीरदार को जागीर के रूप में दी जाती थी।
- अखबार- मुगल दरबार की लिखित दैनिक कार्यवाही।
- अर्ज-ए-दास्त- एक प्रकार का प्रार्थना-पत्र
- इल्तिमास- विनम्र अपील
- तल्की- शासकों की आज्ञाएँ अन्य शासकों, सामन्तों व अधिकारियों को भेजे जाने वाले पत्रों की नकल का उल्लेख। नकल/प्रतिकॉपी
- आऊ-छोक- रियासती राग-रंग अर्थात् मनोरंजन को कहते थे।
- सुरत खाना- धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के चित्रों का विभाग
- कूरब- सामन्त के कंधे की गतिविधियों का वर्णन
रुक्का
रुक्का- अधिकारियों के सहज पत्र व्यवहार सामान्य खुले पत्र, जिन्हें इकट्ठा करके नत्थियों व बण्डलों के रूप में व्यवस्थित किया गया हो उन्हें रुका कहा जाता था।
- फरमान- बादशाह द्वारा जारी शाही आदेश फरमान कहलाता था।
- गुणीजन खाना- राजपरिवार के मनोरंजन व संगीत का विभाग को गुणीजन खाना कहते थे। जयपुर में इसकी स्थापना सवाई प्रतापसिंह ने की थी जिसमें गान्धर्व, बाइसी प्रसिद्ध थी।
- ग्रासीये राजपूत- गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ग्रासीये वे जागीरदार थे जो सैनिक सेवा के बदले में शासक से भूमि की उपज का भाग जिसे ग्रास कहते थे, का उपभोग करने वाले।
- भौमिये राजपूत- वे राजपूत जिन्होंने राज्य की सेवार्थ अपना बलिदान दिया हो उन्हें भौमिये राजपूत कहते थे।
- खातूत- आपसी शासकीय पत्राचार, इसे खरीता अथवा अहल का रान भी कहा जाता था।
भूमि दो प्रकार की थी (प्रशासकीय दृष्टि से)
- खालसा भूमि- सरकारी भूमि को खालसा भूमि कहते थे ये सीधे राजा या बादशाह के अधिकार में होती थी।
- जागीर- जागीरदार के अधीन भूमि।
बेगार- बेगार लेने की निम्न विधियाँ थी।
बटाई प्रथा- लगान निर्धारण करने की पद्धति
खेत बटाई/कुंता- खड़ी फसल पर लगान तय किया जाता था उसे कुंता कहा जाता था।
लॉग बटाई- फसल को बिना निकाले इकट्ठा करने के बाद जो कर लगता था उसे लाग बटाई कर कहा जाता था।
रास बटाई- अनाज निकालने के बाद लगान तय की गई।
(कूता- खड़ी फसल पर लगान।)
(लाटा- अनाज निकालने के बाद)
- बांह पसाव- सामन्त तलवार रखकर राजा की अचकन छूता तथा राजा उसे गले लगाता था, इसे बांह पलाव कहा जाता था।
- बिगोड़ी- लगान नगद के रूप में लगान लेना बिगोड़ी कहलाता था।
- कनकूत- सल्तनत काल में नकद के रूप में ली गई लगान को कनकूत कहलाता था।
- दस्तूर कौम वार- जयपुर में जातियों के अभिलेख जिनसे देशी, रियासतों तथा केन्द्र की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का ज्ञान होता था।
- अड्सट्टा- जयपुर का राजस्व रिपोर्ट/रिकॉर्ड
- पड़ाखा- उदयपुर रियासत का रेवेन्यू रिकॉर्ड
- परवाना- जोधपुर की रियासत में अभिलेखिता/लिखित बहियाँ
- रिंगणी, हिसणी, पीसंणी- ठकुराइन के पीहर से प्राप्त दहेज को कहा जाता था।
- याददास्त- पट्टे की किस्म जिसमें शासक द्वारा जागीर की स्वीकृति होती थी अर्थात जागीरदार की मृत्योपरान्त उतराधिकारी द्वारा पुनः स्मरण कराना।
- सांसाण जागीर- चारण पंडित व संगीतज्ञों को दी जाने वाली कर मुक्त जागीर को सांसाण जागीर कहा जाता था।
राजस्थान में किसान आन्दोलन
राजस्थान की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक संरचना सामन्ती रही है। यह व्यवस्था त्रिस्तरीय थी- शासक, जमींदार/सामंत तथा कृषक।
ब्रिटिश आधिपत्य के कारण त्रिस्तरीय व्यवस्था की कड़ी के जोड़ ढीले पड़ गए। शासक की सामन्त पर से निर्भरता समाप्त हो गई।
सामन्त जनता का सर्वेसर्वा हो गया। इस दौर में चाकरी को रोकड़ में बदल दिया गया, जिसका सीधा असर भारत के कृषकों पर पड़ा।
सामन्तों ने खिराज (भूमि कर) के अतिरिक्त कर वसूलने प्रारम्भ किए जिन्हें लाग-बाग कहा जाता है। अकाल के समय किसानों को कोई राहत का प्रावधान नही था।
बिजौलिया किसान आंदोलन (1897-1941 ई.)
बिजौलिया मेवाड़ का प्रथम श्रेणी का/ठिकाणा था। बिजौलिया वर्तमान में भीलवाड़ा में है। भारत में संगठित किसान आन्दोलन प्रारम्भ करने का कार्य बिजौलिया ने किया।
इसका संस्थापक अशोक परमार (जग्नेर भरतपुर वर्तमान आगरा जनपद) था, जिसे सांगा ने खुश होकर भैंसरोडगढ़ (चित्तौड़) से बिजौलिया तक के बीच का 256 वर्ग कि.मी. भाग ऊपरमाल जागीर के रूप में दिया था।
बिजौलिया जागीरदार 'रावजी' कहलाते थे। बिजौलिया भारत का सबसे लम्बा चलने वाला किसान आन्दोलन था, यह आन्दोलन 44 वर्ष चला। भारत में संगठित किसान आंदोलन प्रारम्भ करने का श्रेय बिजौलिया ठिकाने को है।
नोट
भारत का प्रथम अहिंसात्मक किसान आंदोलन था, जो 'भारत का मैराथन किसान आंदोलन' कहलाता है।
यहाँ सर्वाधिक धाकड़ जाति के किसान थे। बिजौलिया आंदोलन के समय मेवाड़ के महाराणा फतेह सिंह थे।
प्रथम चरण (1897 से 1915 ई.)
1894 ई. में जागीरदार गोविंदसिंह की मृत्यु के बाद किशनसिंह (1894-1906) जागीरदार बना। ठिकाणे में धाकड़ जाति के किसान अधिक थे। किसानों से 1/2 भाग भूमि कर के रूप में तथा 84 प्रकार की लाग-बाग वसूल की जाती थी।
1897 ई. में गंगाराम धाकड़ के पिता का मौसर/औसर हुआ, जिसमें किसानो गिरधारीपुरा गाँव में एकत्रित होकर लाग-बाग के विरोध में आन्दोलन का निर्णय लिया।
नानजी पटेल व ठाकरी पटेल को महाराणा फतेहसिंह से मिलने के लिए भेजा, ये 6 माह तक मेवाड़ में रहे परन्तु महाराणा से भेट नहीं हुई। साधु सीताराम की सलाह पर शिकायती पत्र को कार्यालय में छोड़कर आ गए।
महाराणा ने हादिम हुसैन से जाँच करवायी। हामीद हुसैन 6 माह तक बिजौलिया रहा, किसानों की मांगे सही बताई लेकिन कोई कारवाई नहीं हुई।
किशनसिंह का हौसला बढ़ गया, नानजी व ठाकरी पटेल को निर्वासित कर दिया। 1903 ई. में किशनसिंह ने अतिरिक्त चंवरी कर लागू कर दिया जो लड़की के विवाह पर ₹5 कर था। किसानों ने चंवरी के विरोध में 2 वर्ष तक कन्याओं का विवाह नहीं किया। 1905 ई. में किसान 200 विवाह योग्य कन्याओं को ले जाकर चंवरी कर हटाने की प्रार्थना की। राव ने अपमानजनक व्यवहार किया किसान पलायन करने लगे व विरोध में अक्षय तृतीय के दिन हल नहीं चलाए। तब किशनसिंह ने चंवरी कर समाप्त कर दिया तथा लगान 50 प्रतिशत के स्थान पर 40 प्रतिशत कर दी। ये किसानो की प्रथम जीत थी।
1906 ई. में किशनसिंह की मृत्यु के बाद नया सामन्त कामां का पृथ्वीसिंह बना जिसे महाराणा को 'तलवार बंधाई' भारी रकम (लगभग ₹40 हजार) देने पड़े तो पृथ्वीसिंह ने नया कर तलवार बधाई/उत्तराधिकारी/अपमानित कर लगा दिया। साधु सीताराम दास, फतेहकरण चारण, ब्रह्मदेव आदि ने इसका विरोध किया।
सीताराम के नेतृत्व में किसानों ने विरोध तो किया किन्तु खास सफलता नहीं मिली। पृथ्वीसिंह ने दमनकारी नीति अपनायी व साधु सीताराम को पुस्तकाल की नौकरी से निकाल दिया। फतेहकरण व ब्रह्मदेव को बिजौलिया से निकाल दिया। 1914 ई. में पृथ्वीसिंह के मरने के बाद केसरीसिंह अल्पव्यस्क सामंत बना। जागीर पर कोर्ट ऑफ वार्डस (मुसर मात) का अधिकार हो गया अर्थात् जागीर सीधे महाराणा के अधीन खालसा में आ गई महाराणा ने 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध का युद्ध-ऋण जनता से वसूलना प्रारम्भ किया।
द्वितीय चरण (1915-23 ई.)
1915 ई. में बिजौलिया आन्दोलन की कमान विजयसिंह पथिक ने सम्भाली। इस दौर का नेतृत्व विजयसिह पथिक के हाथों में था, इन्हें भारत में किसान आंदोलन का जनक कहा जाता है। राजस्थान में किसान आन्दोलनों के जनक साधु सीताराम दास हैं।
नोट
विजयसिंह पथिक (1873-1954 ई.) के बचपन का नाम भूपसिंह था।
पिता- हमीर सिंह व माता- कमल कंवरी ने 1857 की क्रांति में बहादुरी दिखाई, पथिक के दादा 1857 की क्रांति में मालगढ की सेना का नेतृत्व करते हुए शहीद हुए।
भूपसिंह का 1907 ई. में शचीन्द्र सान्याल व रास बिहारी बोस के सम्पर्क से क्रान्तिकारी विचारों वाले बन गए।
- सान्याल व बोस ने 1857 की क्रांति की तरह ही क्रान्ति करने की योजना बनाई, जिसकी तिथि 21 फरवरी, 1915 रखी।
- क्रान्ति 'गदर पार्टी' के नेतृत्व में होनी थी जिसका केन्द्र लाहौर में था।
- राजस्थान में बाल मुकुंद बीस्सा, भूपसिंह व खरवा के ठाकुर गोपालसिंह जैसे लोगों को नेतृत्व दिया गया।
- बीसा राजस्थान में जोधपुर में आकर शिक्षण का कार्य करने लगे। भूपसिंह ने अजमेर में रेलवे विभाग में नौकरी करने लगे। कुछ समय खरवा 61 कूट के दीवान पद पर भी रहे।
- क्रांति की तिथि नजदीक आने पर किसी मुखबीर (कृपालसिंह, मणिलाल) ने सरकार को सूचना दे दी। योजना असफल हुई। भूपसिंह को टॉडगढ जेल में बंदी बना लिया गया।
- जेल से (1915 ई. में) भागकर ओछडी (चित्तौड़) नामक स्थान पर आकर रहने लगे। अपना नाम भूपसिंह से विजयसिंह पथिक कर लिया, जनता के बीच महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
- पथिक जी ने विवाह जानकी देवी से किया। पथिक जी ने हरिभाई किंकर द्वारा चित्तौड़ में संचालित 'विद्या प्रचारिणी सभा' से नाता जोड़ लिया, इसकी एक शाखा सीताराम दास ने बिजौलिया में स्थापित की।
- इस सस्था के वार्षिक जलसे में भाग लेने 1915 ई. साधु सीताराम चित्तौड़ आये यहाँ उनकी मुलाकात विजयसिंह पथिक से हुई। सीताराम ने इन्हें बिजौलिया के बारे में बताया पथिक ने आन्दोलन की कमान स्वयं ली।
- 1915 ई. में साधु सीताराम, माणिक्य लाल वर्मा, भंवरलाल व प्रेमचंद जैसे- लोगों ने पथिक को किसानों की स्थिति से अवगत करवाया।
- 1916 ई. में पथिक ने 'किसान पंच बोर्ड' का गठन साधु सीताराम की अध्यक्षता में किया। बोर्ड का उद्देश्य युद्ध ऋण को देने से इनकार करना था। नवम्बर, 1916 ई. में ठिकाने ने 10 प्रति हल हिसाब से प्रथम प्रथम विश्व युद्ध का युद्ध कर वसूलना प्रारम्भ किया, पथिक के नेतृत्व का विरोध हुआ।
- नारायण पटेल ने बेगार देने से मना किया, इसे गिरफ्तार कर लिया। किसान एकत्रित होकर गये नारायण पटेल को छुड़वाया।
- भंवरलाल स्वर्णकार अपनी कविता के माध्यम से अलख जगाते थे-
- "मान-मान मेवाड़ा राणा प्रजा पुकारे रे,
- रूस जार को पतो न लाग्यो, सुण राणा फतमाल रे"
- 1917 ई. में मन्ना पटेल की अध्यक्षता में ऊपरमाल पंचायत का गठन किया। हरियाली अमावस्या के दिन, उमाजी खेड़े भूमिगत थे।
- 1918 ई. में कानपुर से प्रकाशित होने वाले 'प्रताप' नामक समाचार पत्र के माध्यम से आंदोलन का राष्ट्रीयकरण किया। प्रयाग 'अभ्युदय' कोलकाता 'भारत मित्र' पूना 'मराठा' में आन्दोलन की खबर छपवायी। गाँधीजी निजी सचिव महादेव देसाई को स्थिति जाँच के लिए भेजा।
- 1919 ई. में बिन्दुलाल भट्टाचार्य आयोग का गठन किया गया, इसने सभी माँगे सही बतायी परन्तु कोई समाधान नहीं हुआ।
- पथिक जी ने 1919 ई. में अमृतसर काग्रेस अधिवेशन में इस मामले को रखा। महाराणा ने फरवरी, 1921 ई. में ठाकुर राजसिंह रमाकान्त मालवीय व तख्त सिंह मेहता का त्रिसदस्यीय आयोग नियुक्त किया।
- 1920 ई. में कांग्रेस नागपुर अधिवेशन में पथिक ने बिजौलिया के किसान कालूजी, नन्दराम जी, गोकुलजी की मदद से देशी राज्यों में अत्याचारों की प्रदर्शनी लगायी। यह आंदोलन की चरमोत्कर्ष स्थिति थी। 1919 ई. 'राजस्थान सेवा संघ' का 'वर्धा' में गठन हुआ।
राजस्थान सेवा संघ
राजस्थान सेवा संघ की स्थापना अर्जुनलाल सेठी, केसरी सिंह बारठ, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज आदि के सहयोग से 1919 ई. में वर्धा (महाराष्ट्र) में हुई। इसका अध्यक्ष विजयसिंह पथिक व मंत्री रामनारायण चौधरी को बनाया।
इस संघ ने वर्धा से 'राजस्थान केसरी' पत्रिका निकाली, जिसका सम्पादक विजयसिंह व प्रकाशक रामनारायण चौधरी थे।
राजस्थान सेवा संघ को 1920 ई. में अजमेर स्थानान्तरण कर दिया, अजमेर साप्ताहिक 'नवीन राजस्थान' पत्रिका निकाली जिसका बाद में नाम 'तरूण राजस्थान' कर दिया।
राजपूताना मध्य भारत सभा (1918 ई.)
- इसका प्रथम अधिवेशन दिल्ली में प. गिरधर शर्मा की अध्यक्षता में हुआ था। इसका प्रथम सभापति जमनालाल बजाज थे। राजपूताना मध्य भारत सभा का प्रथम कार्यालय कानपुर में था व दूसरा अधिवेशन 1919 ई. में नागपुर में, तीसरा अजमेर (1920 ई.) चौथा नागपुर में हुआ।
- 1920 ई. में इस संघ को अजमेर स्थानान्तरित किया गया।
- 1920 ई. में वर्धा से पथिक ने 'राजस्थान केसरी' समाचार पत्र निकाला।
- 1922 ई. में अजमेर से 'राजस्थान सेवा संघ' ने पथिक के प्रयासों से नवीन राजस्थान समाचार पत्र निकाला। इसका सम्पादक पथिक व प्रकाशक रामनारायण चौधरी थे। 1923 ई. में इसका नाम बदलकर 'तरूण राजस्थान' कर दिया गया।
- 1928 ई. में- 'मजदूर संघ' बनाया।
- 1942 ई. में प्रेस जब्त सरकार ने 'भारत छोड़ो' आन्दोलन चलाया। पथिक जी ने 1928 ई. में 'राजस्थान संदेश', सन्देश पत्र व पुस्तक 'वाट आर इण्डियन स्टेट' लिखी।
- ठिकाना कोर्ट ऑफ वार्डस करके लाला अमृतलाल को मुंसारिया बनाया।
बिजौलिया स्थिति नियंत्रण करने मेवाड़ सरकार ने अप्रैल, 1919 ई. में किसानों की शिकायतों की जाँच के लिए ठाकुर अमरसिंह, न्यायाधीश अफज़ल अली, हाकिम, बिन्दुलाल भट्टाचार्य ने आयोग का गठन किया व साधु सीताराम व माणिक्यलाल वर्मा को जेल से रिहा करवाया।
समझौता (4 फरवरी, 1922 ई.)
1920 ई. से 1922 ई. तक राष्ट्रीय स्तर पर गाँधीजी के असहयोग आंदोलन ने सरकार व रियासती शासकों पर जनतंत्रवादी भावनाओं को हावी कर दिया।
इस समय किसानों का प्रतिनिधित्व राजस्थान सेवा संघ ने किया। इस प्रतिनिधि मंडल में किसान पंचायत के सरपंच मोतीलाल, मंत्री रामनारायण पटेल, राजस्थान सेवा संघ के मंत्री रामनारायण चौधरी व माणिक्यलाल वर्मा आए थे।
इस कारण AGG हॉलैण्ड की मध्यस्थता से 4 फरवरी, 1922 ई. को किसानों के साथ समझौता हुआ। इसमें बेगार प्रथा समाप्त कर दी। 84 में से 35 लगान माफ कर दिए गए।
किसानों पर लगाये मुकदमे वापस ले लिए। समझौता लागू होने से पहले 5 फरवरी, 1922 ई. के चौरा-चौरी काण्ड (उत्तरप्रदेश, जिला-गोरखपुर) के कारण 12 फरवरी, 1922 ई. को गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन बंद कर दिया। महाराणा ने समझौते को लागू करने के स्थान पर दमनात्मक कार्यवाही की।
पथिक को बंदी बनाकर 3½ वर्ष तक केस चलाया 5 वर्ष की सजा हुई। सीताराम ने बिजौलिया छोड दिया, मध्यप्रदेश जाकर खादी के कार्य में लग गये। अब बिजौलिया किसान आन्दोलन की जिम्मेवारी माणिक्यलाल वर्मा पर आ गयी।
वर्मा जी को 6 माह का कठोर कारावास दिया गया। दुर्गादास चौधरी, लादूराम, अचलेश्वर प्रसाद, श्रीमती रमा देवी, प्यारचन्द बिश्नोई आदि भी बिजौलिया आए।
तृतीय चरण (1923-1941 ई.)
1923 ई. में भूमि बंदोबस्त- प्रारम्भ हुआ जिसमें लगान की दरे बढ़ाई गई। अंग्रेज अधिकारी ट्रेच ने 1926 ई. में बारानी भूमि पर कर बढा दिया तथा पीवल भूमि पर कर को कम किया।
- किसानों ने पथिक की सलाह पर बारानी भूमि छोड़ दी। ठिकाणे ने भूमि अन्य किसानों को दे दी, पथिक का 'राजस्थान सेवा संघ' छिन्न-भिन्न हो गया। रामनारायण चौधरी यहाँ पथिक के विचारों से असहमत थे।
- 1926-1927 ई. तक आंदोलन को नेतृत्व देने का काम जमनालाल बजाज ने किया। इन्होंने गाँधीवादी विचारों पर चलते हुए 1927 ई. में चरखा संघ की स्थापना भी की।
- इनके पश्चात हरिभाऊ उपाध्याय व माणिक्य लाल वर्मा ने किसानों को नेतृत्व दिया। हरिभाऊ के नेतृत्व में 21 अप्रैल, 1931 ई. को अक्षय तृतीया के दिन भूमि पर हल चलाया। राणा ने दमनात्मक कार्यवाही भी की।
- 1938 ई. में प्रजामंण्डल आंदोलन प्रारम्भ हुआ, राणा को भय था कि किसान प्रजामण्डलों के साथ नहीं मिल जाए इसलिए मेवाड़ के प्रधानमंत्री 'सर टी विजया राघवाचारी' ने किसान पंचायत के साथ वार्ता की तथा यहाँ तय हुआ कि माल भूमि वापस किए जाने पर किसान भविष्य में किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लेंगे।
मेवाड़ प्रजामण्डल के साथ नही जुड़ने का वायदा करेंगे। किसानों की हाँ पर 1941 ई. में माल भूमि उन्हें लौटा दी।
बिजौलिया किसान आंदोलन ने स्वयं को मेवाड़ प्रजामण्डल से पृथक रखा था।
नोट
बिजौलिया में महाकालेश्वर शिवालय है जो हजारेश्वर महादेव का मंदिर या सहस्रलिंग का मंदिर कहा जाता है।
बिजौलिया किसान आंदोलन में 'तुलसी भील' ने संदेशवाहक का कार्य किया था।
बेगूँ किसान आंदोलन (1921-25 ई.)
बेगूँ (चित्तौड़) मेवाड़ का प्रथम श्रेणी का ठिकाणा था। यहाँ 25 प्रकार की लाग-बाग थी। यहाँ के किसान आंदोलन का नेतृत्व रामनारायण चौधरी ने किया था।
1921 ई. में बिजौलिया किसान आंदोलन से प्रभावित होकर यहाँ के किसानों ने भी 1921 ई. मेनाल (भीलवाड़ा) के भैरूकुण्ड से चौधरी के नेतृत्व में आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। 1922 ई. मंडावरी किसान सम्मेलन में गोलियाँ चली। बेगूँ में स्थानीय सेठ अमृतलाल व पुलिस ज्यादती कर रही थी।
'बोलशेविक' समझौता (2 फरवरी, 1922 ई.)
बेगूँ सामन्त अनूपसिंह के समय 2 फरवरी, 1922 ई. को किसानों के साथ हॉलेण्ड की मध्यस्थता से समझौता हुआ।
अनूपसिंह इसे लागू करना चाहता था, किन्तु महाराणा नहीं। राणा ने अनूपसिंह की इस नीति को 'बोलशेविक' समझौता नाम देकर सामन्त को नजरबंद कर दिया। भ्रष्टाचार के दमन के लिए लाला अमृतलाल को नियुक्त किया।
मेवाड़ सरकार ने जाँच के लिए सेन्टलमेन कमिश्नर ट्रेंच को नियुक्त किया ट्रेंच व किसानों के मध्य बात नहीं हो पायी। किसान रायता गाँव में बात करना चाहते थे। ट्रेंच ने एक दो लाग-बाग छोड़कर सभी लाग-बाग सही बताई।
इससे किसान भड़क गये। ट्रेंच के निर्णय पर विचार करने के लिए किसान 13 जुलाई, 1923 ई. गोविन्दपुरा/चांदखेडी गाँव में इकट्ठा हुए. सभा की किन्तु ट्रेंच द्वारा घेरा बंद कर गोलियाँ चलाई गई, जिसमें रूपाजी धाकड़ व कृपाजी धाकड़ नामक दो किसान मारे गए।
बेगूँ किसान आंदोलन को दबा दिया गया। ट्रेंच की दमनकारी नीति के कारण गुप्त रूप से विजयसिंह पथिक व हरिजी मानक बेगूं पहुँच गए। भूमिगत होकर रूपाजी के खेड़े से पथिक जी ने आंदोलन चलाया। विजयसिंह पथिक को गिरफ्तार करके 5 वर्ष की कठोर कारावास की सजा दी गई।
1928 ई. में पथिक जी रिहा हुए। पथिक जी की गिरफ्तारी के बाद नेतृत्व माणिक्यलाल ने किया। वर्मा जी के साथ समझौता हुआ, 1925 ई. में आंदोलन समाप्त हुआ।
बेगूँ में महिलाओं का नेतृत्व रामनारायण चौधरी की पत्नी अंजना चौधरी ने किया।
नोट
1921 ई. में हुए बेगूँ आंदोलन की कमान विजयसिंह पथिक के हाथों में थी। 1923 ई. को पथिक गिरफ्तार हुए व कमान कांग्रेसी नेता रामनारायण चौधरी के हाथों में सौंपी
सीकर/शेखावाटी किसान आंदोलन
सीकर में मुख्य लाग-बाग-
हरि की लाग- फसल पकने से पहले वसुली जाती थी। लगान न देने पर ब्याज लेते थे जिसे हरि का ब्याज कहते थे।
सिटे की लाग- ठिकानेदार के घर भिजवानी पड़ती थी।
कंवर कलेवा- ये एक प्रकार का खर्च था।
बाई जी का खर्च-
यहाँ किसान आंदोलनों के समय जयपुर का शासक मानसिंह द्वितीय व सीकर का सामंत कल्याण सिंह था।
1921 ई. में रामनारायण चौधरी ने चिड़ावा सेवा समिति बनाकर इस क्षेत्र में जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। तरूण राजस्थान समाचार पत्र में भी इससे सम्बंधित (किसानों की समस्या) लेख लिखे।
1922 ई. के भूमि बंदोबस्त से सीकर के ठाकुर कल्याण सिंह ने लगान 1/4 (25 प्रतिशत) से बढाकर 1/2 (50 प्रतिशत) भाग कर दिया। लगान बढ़ने के कारण 1923 ई. से किसानों का विरोध प्रारम्भ हुआ।
1925 ई. में शेखावाटी क्षेत्र के पंच पाणे बिसाऊ, डूंडलोद, मलसीसर, मंडावा व नवलगढ़ में भी किसान आंदोलन प्रारम्भ हो गए। क्षेत्रीय जाट सभा की स्थापना 1931 ई. में हुई।
1933 ई. में जाट क्षेत्रीय महासभा के प्रयासों से पलसाना (सीकर) में सम्मेलन आयोजित किया, जिसके परिणामस्वरूप 13 अगस्त, 1933 ई. को समझौता हुआ जिसे ठाकुर कल्याण सिंह ने लागू नहीं किया। देशराज सुझाव पर 1934 ई. में जाट प्रजापति महायज्ञ का आयोजन हुआ जिसमें 3.5 लाख लोग इकट्ठे हुए।
कटराथल सभा-सीकर (1934 ई.)
25 अप्रैल, 1934 ई. को कटराथल में किशोरी देवी पत्नी श्री हरलाल के नेतृत्व में 10000 महिलाओं ने सम्मेलन में भाग लिया।
इस सम्मेलन में ओजस्वी भाषण उत्तमा देवी ने दिया था। उत्तमा देवी ठाकुर देशराज की पत्नी थी।
अन्य महिलाओं में दुर्गादेवी शर्मा, फूलादेवी, रमादेवी, उमा देवी आदि थी। आंदोलन को नेतृत्व देने का काम हरलाल चौधरी, पं. तारकेश्वर शर्मा, घासीराम व नेतराम कर रहे थे।
यहाँ महिलाएँ, सिहोठ या सोथिया गाँव के सामंत ने जाट महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया इस कारण एकत्रित हुई।
जयसिंहपुरा की घटना (1934 ई.) झुंझुनूं
डूंडलोद, झुंझुनूं में ठाकुर ईश्वरसिंह ने खेती कर रहे किसानों पर गोलीबारी करवाई, जिसमें ठाकुर ईश्वरसिंह को डेढ़ वर्ष की सजा हुई। यह जयपुर रियासत में दर्ज होने वाला पहला मुकदमा था। 1924 ई. में आगरा से जाटवीर साप्ताहिक पत्रिका निकाली।
यहाँ पर अत्याचारों को रोकने के लिए अंग्रेज अधिकारी 'डब्ल्यू.टी. वेब' को नियुक्त किया गया।
ठाकुर देशराज के कहने पर 21 जुलाई, 1934 ई. को जयसिंहपुरा गोलीकांड दिवस मनाया गया।
कृषकों की एकता से 15 मार्च, 1935 ई. को फिर समझौता हुआ जिसमें किसानों को कुछ रियायतें दी. समझौते को लागू नहीं करने के विरोध में खूड़ी व कुदन गाँव में किसान सभाएँ हुई।
खूड़ी (सीकर) गाँव की घटना (25 मार्च, 1935 ई.)
ठाकुरों द्वारा किसानों की बारात में दूल्हे को घोड़ी पर बैठकर तोरण मारने से रोक दिया गया। जिसके विरोध में किसान 8 दिन तक बारात के साथ खूडी गाँव में रूके रहे।
ठिकानेदारों ने किसानों पर ही अत्याचार शुरू कर दिया। ठिकानेदारों का विरोध किया तो जाट महिला रत्ना चौधरी का सिर काट दिया गया।
किसान धरने पर बैठे तो अंग्रेज कैप्टन वेब ने लाठी चार्ज करवा दिया। जिसमें 4 किसान मारे गए और 100 किसान घायल हो गए।
कूदन गाँव हत्या कांड (सीकर)
अप्रैल, 1935 ई. में कूदन में एक वृद्ध महिला धापी देवी से प्रेरित होकर किसानों ने लगान न देने का निर्णय लिया।
कूदन गाँव में अंग्रेज वेब ने अत्याचार किए। गोठड़ा व पलथाना गाँव में भी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया।
जिसकी चर्चा ब्रिटिश संसद की हाऊस ऑफ कॉमन्स में हुई।
सीकर दिवस
इस घटना के विरोध में पूरे भारत में 26 मई, 1935 ई. को जयपुर रियासत में सीकर दिवस मनाया गया।
1940 ई. में हीरालाल शास्त्री के प्रयासों से शेखावाटी किसान आन्दोलन का अंत हुआ।
नोट
रामनारायण चौधरी लंदन के डेली हैराल्ड समाचार पत्र में इस आंदोलन से सम्बंधित लेख लिखते थे. इस कारण शेखावाटी की समस्या इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स (निम्न सदन) में उठी। यह मामला हाउस ऑफ कॉमन्स में मिस्ट्र लॉरेन्स ने उठाया था।
जब जयपुर महाराजा मानसिंह द्वितीय (1922-49 ई.) पर दबाव पड़ा तब उन्होंने आंदोलन की खबर तो ली किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।
- मण्डावा (झुंझुनूं)- के देवीबक्स ने नागरिक अधिकारों की घोषणा की।
- बाघाला की ढाणी में स्वयं पथिक जी आए व लोगों को सम्बोधित किया।
- जयपुर प्रजामण्डल ने भी किसानों की समस्या के लिए प्रयास किया, किन्तु 1947 ई. के बाद स्थायी समाधान हुआ।
बूँदी/बरड़ किसान आंदोलन
बूँदी शासक रघुवीर सिंह के समय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। बूंदी में पुरुषों के साथ महिलाओं से भी बेगार प्रथा ली जाती थी। आंदोलन के नेतृत्वकर्ता नेनूराम शर्मा थे।
1922 ई. में बंदोबस्त के समय किसानों ने बढ़ा हुआ लगान व लाग-बाग देने से इंकार कर दिया। डाबी पंचायत से किसानों ने गिरफ्तारियाँ दी। और यहाँ महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। माणिक्यलाल वर्मा व पथिक जी भी यहाँ आए। बूँदी में गुप्त रुप से बीहड़ में सभाएँ होती थी, पथिक व वर्मा जी सम्बोधित करते थे।
सभाओं की विशेषता थी कि सभा के चारों ओर महिलाएँ रहती थी, अगर पुलिस आ भी जाती तब पुलिस को पहले महिलाओं से जूझना पड़ता था, पुरुष मौके का फायदा उठाकर फरार हो जाते थे। बूँदी किसान आन्दोलन में सर्वाधिक महिलाओं ने भाग लिया।
डाबी हत्याकाण्ड (2 अप्रैल, 1923 ई.) बूँदी
- डाबी में वट के पेड़ के पास 2 अप्रैल, 1923 ई. को सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन की अध्यक्षता नयनूराम ने की। डाबी सम्मेलन के संयोजक देवीलाल गुर्जर थे, सम्मेलन में हरिभाई किंकर, भंवरलाल स्वर्णकार, केसराभल, नानक भील, ग्यारसा भील, गंगाराम गुर्जर, कन्हैयालाल उपस्थित थे। सम्मेलन प्रारम्भ होते ही नानकजी भील ने मंच पर आकर झण्डा गीत गाना शुरु कर दिया, झण्डा गीत गाते समय नानक जी ने कहा, "प्राण भले ही गंवाना पर झण्डा यह न नीचे झुकाना"।
- गीत समाप्त ही नहीं हुआ था उससे पहले चिलम पीते एक व्यक्ति को पुलिस वाले ने धक्का दे दिया. इस कारण भरी चिलम उसके कपड़ों में गिर गयी और वह हड़बड़ाकर उठ गया। आस पास के लोग ये सोचकर उठ गये कि पुलिस कोई कार्रवाई कर रही है और भगदड़ मच गई। पुलिस व जनता के बीच तनाव हो गया। पुलिस अधीक्षक इकराम हुसैन था। थानेदार कल्याण सिंह, हैड कॉन्सटेबल सरदारमल था। इकराम हुसैन ने गोलियाँ चलाई, गोली नानक जी भील व देवीलाल गुर्जर को लगी। नानक जी वहीं शहीद हो गये, नानक जी का शव पुलिस के हाथ न लग जाये इससे पहले लोग नानक जी का शव लेकर जंगल में भाग गये, आठ दिनों तक लोग नानकजी का शव लेकर भटकते रहे।
- नानक जी का एक मित्र देवा बूँदी से चिकित्सक लेकर आया औपचारिकताएँ पूरी की, इसके बाद देवगढ गाँव में नानकजी का दाह संस्कार हुआ।
- उनके दाह संस्कार में वहाँ के लोग इतने नारियल लेकर आए की नानकजी का दाह संस्कार नारियलों से हुआ।
- पुलिस ने पत्थर बाजी का आरोप लगाकर घासीलाल, हरदेव, देवाजी, छोटूलाल आदि को गिरफ्तार किया।
- शासक रघुवीर सिंह ने किसानों से समझौता कर लिया, सभी मुकदमों को हटा दिये।
नानक जी की स्मृति में माणिक्यलाल वर्मा ने 'अर्जी' नामक गीत लिखा जो आंदोलनकारियों का प्रेरणा स्रोत बना।
नानकजी का आज भी बूँदी के लोक गीतों में नाम लिया जाता है। बूँदी में स्थानीय आन्दोलनों का नेतृत्व नित्यानंद ने किया।
नोट
'पछीड़ा' गीत बिजौलिया किसान आन्दोलन में लिखा गया था।
मारवाड़ किसान आंदोलन
मरूधर मित्र हितकारिणी सभा की स्थापना 1915 ई. में हुई।
तौल आंदोलन (1920-21 ई.)
यहाँ जागृति का कार्य चांदमल सुराणा ने 'तौल आंदोलन' से किया था। मारवाड़ में सौ तौले का सेर होता था। राज्य सरकार ने निर्णय लिया कि ब्रिटिश भारत की तरह जोधपुर राज्य में भी 80 तौले का सेर होगा। लोग ऐसा चाहते नहीं थे। सरकार के निर्णय से जनता में रोष फैल गया। चांदमल सुराणा ने कुछ व्यक्तियों के साथ मिलकर मारवाड़ सेवा संघ की स्थापना की। इस संघ ने जोधपुर में हड़ताल की घोषणा की, हड़ताल सफल रही 80 तौले के सेर का निर्णय बदल दिया, ये जोधपुर की जनता की प्रथम विजय थी।
- सुराणा ने भी आंदोलन द्वारा सेर को 80 तौले का करवाने में सफलता प्राप्त की।
- 1918 ई. में किसानों की समस्या को लेकर सुराणा ने मारवाड़ हितकारिणी सभा की स्थापना की।
- सभा ने जनमत तैयार किया, 1920 ई. में जयनारायण व्यास ने मारवाड़ सेवा संघ की स्थापना की।
- मारवाड़ किसान आंदोलन के सूत्रधार मोतीलाल तेजावत व चलाने वाला जयनारायण व्यास था।
- इस आंदोलन को नेतृत्व देने का काम जयनारायण व्यास ने ही किया था।
- मारवाड़ में मादा पशुओं के निष्कासन के विरूद्ध आंदोलन हुए, बाद में 1922-1924 ई. मादा पशुओं के निष्कासन पर रोक लगा दी।
- यहाँ गंगश्याम मंदिर सभा आयोजित कर आदेश विरोध किया मादा पशुओं का निष्कासन बंद किया, ये जोधपुर की जनता की दूसरी विजय थी।
- मारवाड़ में लगभग 123 प्रकार लाग-बाग थी।
- 1929 ई. में मारवाड राज्य लोक परिषद् की स्थापना की गई।
- 1936 ई. में 119 लाग-बाग खालसा भूमि से समाप्त कर दी गई। किसानों ने इसे जागीर भूमि में भी लागू करने की माँग की।
- 1941 ई. में समिति का गठन कर किसान समस्या की रिपोर्ट तैयार की गई, किसानों ने भी इसी समय मारवाड किसान सभा का गठन कर लिया था। 1941-42 ई. में किसानों ने रामदेवरा व नागौर के मेलों के माध्यम से जन जागृति लाने का प्रयास किया।
- गाँधीजी के हरिजन समाचार पत्र में भी इस समस्या को लिखा गया।
- 1943 ई. में भूमि बंदोबस्त के समय किसानों पर अत्याचार बढ़ा दिए।
डाबड़ा हत्याकांड (13 मार्च, 1947 ई.)
यहाँ का नेतृत्व मथुरादास माथुर ने किया। 13 मार्च, 1947 ई. को डाबड़ा (डीडवाना, कुचामन) में मथुरादास माथुर के द्वारा मारवाड़ लोक परिषद् व मारवाड़ किसान सभा के संयुक्त सम्मेलन का आयोजन किया गया, इसमें जयनारायण के साथ उसके सहयोगी राधाकृष्ण तात भी थे।
मथुरादास माथुर ने अपने भाषण में कहा कि-
“आधी शताब्दी तक राजनैतिक जीवन में रहते हुए जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो सबसे अधिक झकझोरने वाली घटना डाबड़ा ही लगती है।”
सरकार ने किसानों पर गोलियाँ चलाई, जिसमें पन्नाराम चौधरी, रामाराम चौधरी, रूगाराम चौधरी व चुन्नीलाल शर्मा आदि सहित 12 किसान मारे गए। समस्या का समाधान 1947 ई. के बाद हुआ। यहाँ नेता मोतीलाल चौधरी के घर ठहरे मोतीलाल के परिवार को मार दिया।
चण्डावल घटना - सोजत (पाली)
सोजत (पाली) में 28 मार्च, 1942 ई. में घटना हुई।
मारवाड़ लोक परिषद् के कार्यकत्ताओं द्वारा जैतारण व सोजत पाली के किसानों को जागरूक करने के लिए जाट किसान सुधारक सभाओं का गठन किया गया।
मांगीलाल के नेतृत्व में चण्डावल में सम्मेलन हुआ।
जोधपुर किसान आंदोलन ने भी मारवाड़ लोक परिषद् का समर्थन नहीं किया था।
अलवर किसान आंदोलन (14 मई, 1925 ई.)
अलवर महाराजा जयसिंह ने 1921 ई. में उच्च कर लगा रखे थे। अलवर में राजपूत व मेव किसान थे। जो सूअर पालन व इजारा पद्धति से पीड़ित थे।
अलवर में 80% भूमि खालसा व 20% जागीर के रूप में थी। भू-स्वामित्व किसानों का था, जिन्हें विश्वेदार कहा जाता था। यहाँ इजारा पद्धति चलती थी। इजारा पद्धति में ऊँची बोली लगाने वाले को निश्चित समयावधि के लिए भूमि दी जाती थी।
1921 ई. में यहाँ जंगली सुअरों को अनाज खिलाकर गेंदो में पाला जाता था। ये सूअर किसानों की खड़ी फसलों को नुकसान पहुँचाते थे। इन्हें मारने की पाबंदी थी। यहाँ का शासक जयसिंह था।
1922 ई. में भूमि बंदोबस्त लागू हुआ। 1923 ई. में भू राजस्व की बढ़ी हुई नई दरें लागू की गई। किसानों ने लाग-बाग, बेगार व सुअरों की परेशानी के कारण 1923 ई. में आंदोलन कर दिया। अलवर का एकमात्र आन्दोलन है जो खालसा में चला।
नीमूचाणा हत्याकांड (14 मई, 1925 ई.) - कोटपूतली-बहरोड़
यहाँ राजपूत किसानों ने विरोध किया। 1925 ई. में राजपूतों ने अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा में भाग लिया व नीमूचणा आन्दोलन को माधवसिंह व गोविन्द सिंह ने "पुकार" पत्रिका के माध्यम से उठाया। 14 मई, 1925 ई. को नीमूचाणा (कोटपूतली-बहरोड़) में हो रही किसान सभा पर अलवर शासक जयसिंह ने गोलियाँ चलवाई, जिसमें अनेक निर्दोष बच्चों व स्त्रियों की जानें गई।
गाँधी ने इसे जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड से भयंकर बताकर Dyerism double distilled की संज्ञा दी है। दिल्ली समाचार रियासती ने इसे 'दूसरा जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड' बताया। रामनारायण चौधरी ने 'नीमूचाणा हत्याकाण्ड' कहा। नीमूचाणा में खलनायक गोपालदास व यहाँ गोलियाँ छाजूसिंह ने चलाई व छाजूसिंह को 'राजस्थान का जनरल डायर' कहा जाता है। नीमूचाणा में महिलाओं का नेतृत्व रघुनाथ की पुत्री सीतादेवी ने किया।
मेव आन्दोलन (1932-33 ई.)
1932 ई. में मौहम्मद अली यासीन खाँ के नेतृत्व में मेवों ने भी आंदोलन कर दिया था। ये लाग-बाग बेगार के साथ-साथ सूअर प्रताड़ना का भी विरोध कर रहे थे।
आंदोलन साम्प्रदायिक हो गया। 1933 ई. में सरकार ने इनकी शर्तों को मानकर इस साम्प्रदायिक आंदोलन को समाप्त कर दिया। अलवर व भरतपुर के मेव किसान आंदोलन साम्प्रदायिक थे।
1932 ई. में मोहम्मद हादी ने 'अंजूमन खादिम उल इस्लाम' नामक संस्था की स्थापना की।
जिसे गुड़गाँव के चौधरी यासिन खाँ ने सम्भाला था। जनवरी, 1933 ई. में अंग्रेजी सेना अलवर राज्य में घुस गई और मेव आन्दोलन को दबाने का प्रयास किया।
अंग्रेजों ने महाराजा जयसिंह को यूरोप भेज दिया तथा इस आन्दोलन की जाँच करने के लिए अजीजुद्दीन बिलग्रामी के नेतृत्व में एक जाँच समिति का गठन किया गया। 1934 ई. में मेवों ने विद्रोह को समाप्त कर दिया।
हरिनारायण शर्मा
- ये अलवर में जन जागृति के प्रवक्ता माने जाते हैं।
- इन्होंने अस्पृश्यता निवारण संघ, आदिवासी संघ की स्थापना की।
- इन्होंने अपने घर का मंदिर अछूतों के लिए खोल दिया था।
बीकानेर किसान आन्दोलन
बीकानेर किसान आन्दोलन के दो प्रमुख कारण थे-
- गंगनहर क्षेत्र का आन्दोलन
- जागीरी किसानों का आन्दोलन
- बीकानेर में जन जागृति का कार्य कन्हैयालाल ढूंढ व इनके शिष्य गोपाल दास ने किया।
- इन्होंने 1907 ई. में चूरू में सर्व हितकारणी सभा की स्थापना की। इस संस्था में चूरू में बालिकाओं की शिक्षा के लिए पुत्री पाठशाला व कबीर पाठशाला अछुतों की शिक्षा के लिए प्रारम्भ की।
- 26 जनवरी, 1930 ई. को चंदवल बहड़ व गोपालदास ने चूरू धर्मस्तुप पर झंड़ा फहराया।
- 1929 ई. में बीकानेर में किसान आन्दोलन शुरू हुआ। इस समय बीकानेर के शासक महाराजा गंगासिंह थे।
- बीकानेर में आन्दोलन का मुख्य कारण आबियाना कर था। कर लिया जाता था परन्तु पानी पूरा नहीं दिया जाता था। महाराजा गंगासिंह के द्वारा सतलज नदी से पानी लाकर 1927 ई. में गंगनहर का निर्माण करवाया गया।
- बीकानेर प्रजा परिषद् ने किसानों को एकत्रित किया, किसान रायसिंहनगर में 1946 ई. में एक सभा का आयोजन किया। बीरबल सिंह झण्डा लेकर आगे बढ़ रहा था। पुलिस की गोलियों से बीरबल सिंह मारा गया। 1948 में लोक मण्डल की स्थापना हुई इसके बाद किसानों की समस्या का समाधान हुआ।
- 1937 ई. में जागीरी क्षेत्र का पहला आन्दोलन उदासर गाँव में हुआ। उदासर में इस आन्दोल का नेतृत्व जगजीवन चौधरी ने किया।
- किसानों ने जीवन चौधरी के माध्यम से महाराजा से मिलने का प्रयास किया लेकिन वे असफल रहे।
- महाराजा ने किसानों पर दमनकारी नीति अपनाई और किसानों को बीकानेर राज्य प्रजामण्डल से निष्कासित कर दिया गया। बीकानेर में आन्दोलन उदासर से प्रारम्भ हुए।
दूधवाखारा आन्दोलन - चूरू
1946 ई. में ठाकुर सूरजमल सिंह ने किसानों को जोत से बेदखल कर दिया था।
नोट
सूरजमल सिंह शेखावत बीकानेर सरकार में सचिव था। जो दूधवाखारा ठिकाने का जागीरदार था।
दूधवाखारा बीकानेर रियासत में आता था वर्तमान में दूधवाखारा चूरू में है। यहाँ नेतृत्व रघुवरदयाल, मघाराम, हनुमानसिंह आर्य (हनुमान सिंह बीकानेर पुलिस में थे) ने किया।
दूधवाखारा में महिलाओं का नेतृत्व खेतू बाई ने किया।
बीकानेर षड्यंत्र
महाराजा गंगासिह गोलमेज सम्मेलन में गये हुए थे पीछे से चंदनमल बहड़ व उनके कुछ साथियों ने राज्यों द्वारा किये जा रहें जुल्मों का एक ज्ञापन तैयार किया, उस पर लोगों के हस्ताक्षर करवाकर, 'बीकानेर दिग्दर्शन' पत्रिका में छपवाया व बीकानेर में चल रहे गोलमेज व अन्य स्थानों पर भिजवाये।
गंगासिंह बीमारी का बहाना कर स्टीमर से बीकानेर आये। महाराजा व उनके दीवान सर मनुभाई महता की देखरेख में सत्यनारायण सर्राफ के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा लगाया।
13 जनवरी, 1932 ई. को दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ के दोरान स्वामी गोपालदास, बदरीप्रसाद, प्यारेलाल भी गिरफ्तार किये गये। जज बृजकिशोर की अदालत में मुकदमा चलाया गया। चंदनमल व सत्यनारायण की ओर से वकील रघुवर दयाल गोयल व मुक्ता प्रसाद ने पेरवी की।
अदालत ने अभियुक्तों को तीन माह से सात वर्ष की सजाये दी। इस मामले को बीकानेर षड्यंत्र के केस के नाम से जाना जाता है। महाराजा गंगासिंह की सामाचार पत्रों में आलोचनाएँ की।
विरुद्ध खबरे छपवायी, चंदनमल पर झूठा केस लगाकर गिरफ्तार किया गया, इसे बीकानेर षड्यंत्र केस कहा जाता है। बीकानेर किसान आन्दोलनों का नेतृत्व कुम्भाराम आर्य ने भी किया था।
कांगड काण्ड रतनगढ़ (चूरू)
1946 ई. में बीकानेर में हुआ, कांगड़ वर्तमान में रतनगढ़ (चूरू) में है।
ठाकुर गोप सिंह ने किसानों पर अत्याचार किए जिसकी बीकानेर प्रजा परिषद् द्वारा निंदा की गई।
कांगड कांड बीकानेर किसान आन्दोलन की अन्तिम घटना है।
जैसलमेर में किसान आंदोलन
जैसलमेर के महारावल शालिवाहन द्वितीय के समय लानी कर को लेकर व्यापारी वर्ग ने 1896 ई. में आंदोलन चलाया।
जैसलमेर ने रघुनाथ महता की अध्यक्षता में माहेश्वरी युवक मण्डल की स्थापना की।
टोंक में आंदोलन
टोंक में प्रथम जन आंदोलन 1920-21 ई. में प्रारम्भ हुआ। टोंक का दिवान मोतीलाल था।
इसने अनाज खरीदने का ठेका रतलाम के व्यापारियों को दिया, अनाज के भाव बढ़ गये। नवाब ने मस्जिदों में अजान पर प्रतिबंध लगा दिया व अब्दुल समद नामक के कर्मचारी को जेल से रिहा किया। इस पर रिश्वतखोरी का आरोप था।
टोंक में आंदोलन भड़क गया। 1921 ई. में जनता ने जामा मस्जिद के बाहर नवाब को घेर लिया। जनता की माँग थी अनाज को बाहर निकासी के लिए रोका जाए व अनाज सस्ते भाव में उपलब्ध करवाये व दिवान मोतीलाल को बर्खास्त किया जाये। नवाब ने आंदोलन दबाने अंग्रेज सैनिक बुलाये। 1930 ई. में नवाब इब्राहिम खाँ की मृत्यु हो गई।
भरतपुर में आंदोलन
हिन्दी साहित्य समिति
1912 ई. में भरतपुर में जन जागृती का कार्य इस समिति ने किया। इस संस्था की स्थापना जगन्ननाथ दास व गंगाप्रसाद आदि प्रमुख लोगों ने की।
इस संस्था ने भरतपुर में बड़ा पुस्तकालय बनाया। दिल्ली से 'वैभव' नामक समाचार पत्र में भरतपुर राज्य के विरूद्ध खबरें छापी।
राजा कृष्ण सिंह ने लोगों को गिरफ्तार करवाया। भरतपुर में शुद्धि आंदोलन चला। इसमें ठाकुर देशराज रेवती आदि लोगों ने भाग लिया।
1937 ई. में भरतपुर में कांग्रेस मण्डल की स्थापना हुई, यह संस्था जगन्ननाथ कंकड़, गोकुल वर्मा, फकीरचंद आदि ने की।
भरतपुर में राष्ट्रीय वीणा नामक पुस्तक प्रकाशित हुई सरकार ने इसे जब्त कर लिया।
भोजी नम्बरदार का सम्बन्ध भरतपुर से है। 23 नवम्बर, 1931 को लगान की नई दरों का विरोध करने के कारण कौसिंल कार्यालय के सामने अनेक किसानों के साथ गिरफ्तार हुए थे।
स्टेट कौंसिल ने बढ़ी हुई दरों को पाँच वर्षों तक स्थगित कर दिया। जिससे आन्दोलन समाप्त हो गया।
करौली में आंदोलन
करौली में कुंवर मदनसिंह ने 1927 ई. में आंदोलन चलाया। ये आंदोलन बेगार प्रथा समाप्त करने, सुअरों को मारने के विरूद्ध में चलाया।
धौलपुर में आंदोलन
धौलपुर में यमुना प्रसाद वर्मा और ज्वाला प्रसाद जिल्लासु ने जन जागृति का कार्य किया।
इन्होंने 1910 ई. में आचार सुधारिणी सभा की स्थापना करके समाज सेवा का कार्य किया।
ज्वाला प्रसाद जी जिज्ञासु ने भी सक्रिय भाग लिया। जिज्ञासु, विष्णुस्वरूप, जौहरी लाल आदि को गिरफ्तार कर लिया गया।
राजस्थान में किसान आन्दोलन - एक परिचय
1. बिजौलिया किसान आन्दोलन-मेवाड़ (1897-1941 ई.)
अवधि: 1897-1941 ई.
प्रथम चरण: 1897-1915 ई.
द्वितीय चरण: 1915-1922 ई.
तृतीय चरण: 1923-1941 ई.
नेतृत्वकर्ता: साधु सीताराम दास, विजयसिंह पथिक, माणिक्यलाल वर्मा, जमनालाल बजाज, हरिभाऊ उपाध्याय
आन्दोलन के दौरान बने संगठन:
किसान पंच बोर्ड-1916
बिजौलिया किसान पंचायत- 1917
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: राजस्थान सेवा संघ
विशेष विवरण:
देश का प्रथम किसान आन्दोलन
गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' (कानपुर से प्रकाशित), 'राजस्थान केसरी' (वर्धा से प्रकाशित), 'नवीन राजस्थान' (अजमेर से प्रकाशित) समाचार पत्रों ने आन्दोलन को चर्चित बनाया।
2. बेगूँ किसान आन्दोलन-मेवाड़ (1921-1925 ई.)
अवधि: 1921-1925 ई.
नेतृत्वकर्ता: रामनारायण चौधरी, माणिक्यलाल वर्मा, विजयसिंह पथिक
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: राजस्थान सेवा संघ
विशेष विवरण: 13 जुलाई, 1923 को गोविन्दपुरा में किसान सभा पर गोली चलाने से रूपाजी और कृपाजी शहीद।
3. बरड़ किसान आन्दोलन-बूँदी (1922-1927 ई.)
अवधि: 1922-1927 ई.
नेतृत्वकर्ता: नयनूराम शर्मा, हरिभाई किंकर, रामनारायण चौधरी
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: राजस्थान सेवा संघ
विशेष विवरण: 2 अप्रैल, 1923 को डाबी में किसान सभा पर गोली चलाने से नानक भील शहीद।
4. अलवर किसान आन्दोलन-अलवर (1924-1925 ई.)
अवधि: 1924-1925 ई.
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
विशेष विवरण: 14 मई, 1925 को 'नीमूचाणा हत्याकाण्ड'।
5. भरतपुर किसान आन्दोलन-भरतपुर (1931 ई.)
अवधि: 1931 ई.
नेतृत्वकर्ता: लम्बरदार भोज
विशेष विवरण: लम्बरदारों ने किसानों का नेतृत्व किया।
6. मारवाड़ किसान आन्दोलन-जोधपुर रियासत (1922-1948 ई.)
अवधि: 1922-1948 ई.
नेतृत्वकर्ता: जयनारायण व्यास, आनन्दराज सुराणा, भंवरलाल सर्राफ
आन्दोलन के दौरान बने संगठन:
मारवाड़ सेवा संघ-1920
मारवाड़ हितकारिणी सभा-1923
राजभक्त देश हितकारिणी सभा-1924
मारवाड़ लोक परिषद-1938
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: मारवाड़ सेवा संघ, मारवाड़ हितकारिणी सभा, मारवाड़ लोक परिषद
विशेष विवरण:
28 मार्च, 1942 को चण्ड़ावल में किसान सभा पर फायरिंग।
13 मार्च, 1947 को डाबड़ा में किसान सभा पर हमला, 12 लोग मारे गये।
जयनारायण व्यास ने 'तरुण राजस्थान' समाचार-पत्र द्वारा किसानों की समस्याओं को चर्चित बनाया।
7. जयपुर राज्य में किसान आन्दोलन
(i) सीकर ठिकाने में किसान आन्दोलन (1922-1935 ई.)
अवधि: 1922-1935 ई.
नेतृत्वकर्ता: रामनारायण चौधरी, ठाकुर देशराज
आन्दोलन के दौरान बने संगठन: राजस्थान क्षेत्रीय जाट महासभा-1931
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: राजस्थान सेवा संघ
विशेष विवरण: केन्द्रीय असेम्बली और ब्रिटिश लोकसभा में इस आन्दोलन की चर्चा हुई।
(ii) शेखावाटी क्षेत्र में (1924-1947 ई.)
अवधि: 1924-1947 ई.
नेतृत्वकर्ता: चौ. नेतराम सिंह
आन्दोलन के दौरान बने संगठन: किसान संघर्ष समिति-1925
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: अखिल भारतीय जाट महासभा, राजस्थान क्षेत्रीय जाट महासभा, जयपुर प्रजामण्डल
8. बीकानेर राज्य में किसान आन्दोलन
(i) गंगनहर क्षेत्र का किसान आन्दोलन
अवधि: 1929 ई.
आन्दोलन के दौरान बने संगठन: जमींदार एसोसिएशन-1929
विशेष विवरण: यह आन्दोलन संवैधानिक व शान्तिपूर्ण रूप से हुआ था।
(ii) जागीर क्षेत्र में किसान आन्दोलन-महाजन व उदरासर ठिकाना
अवधि: 1924-1939 ई.
नेतृत्वकर्ता: जीवन चौधरी
(iii) दूधवाखारा किसान आन्दोलन-दूधवाखारा (चूरू)
अवधि: 1944-1948 ई.
नेतृत्वकर्ता: चौधरी हनुमानसिंह, मघाराम वैद्य
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: बीकानेर राज्य प्रजा परिषद्
(iv) प्रजापरिषद् के नेतृत्व में किसान आन्दोलन-रायसिंहनगर (अनूपगढ़)
अवधि: 1946-1948 ई.
नेतृत्वकर्ता: कुम्भाराम आर्य, मघाराम वैद्य
सहयोग एवं समर्थन देने वाले संगठन: बीकानेर राज्य प्रजा परिषद्
विशेष विवरण: 1 जुलाई, 1946 को रायसिंह नगर में किसानों के जुलूस पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई, बीरबल सिंह शहीद।

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