मारवाड़ का इतिहास

मारवाड़ का इतिहास

यह लेख मारवाड़ के गौरवशाली इतिहास का विस्तृत वर्णन करता है, जिसमें विशेष रूप से जोधपुर के राठौड़ राजवंश के शौर्य और बलिदान पर प्रकाश डाला गया है। इसमें राव सीहा द्वारा राज्य की स्थापना से लेकर राव जोधा द्वारा मेहरानगढ़ दुर्ग के निर्माण और महाराजा जसवंत सिंह व दुर्गादास राठौड़ के संघर्षों की गाथा शामिल है। यह विवरण मारवाड़ की अद्वितीय स्थापत्य कला, सांस्कृतिक विरासत और मुगलों के साथ उनके जटिल संबंधों का विश्लेषण करता है, जो राजस्थान की वीर भूमि को परिभाषित करते हैं।
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मारवाड़ के प्रमुख राजवंश एवं उनके शासनकाल
क्र. राजवंश शासनकाल
1. राव सीहा 1240-1273 ई.
2. राव आस्थान 1273-1291 ई.
3. राव धुहड़ (ध्रुव) 1291-1309 ई.
4. राव रायपाल 1309-1313 ई.
5. राव कनकपाल 1313-1323 ई.
6. राव जालणसी 1323-1328 ई.
7. राव छाड़ा जी 1328-1344 ई.
8. राव तीड़ा जी 1344-1357 ई.
9. राव सलखा 1357-1374 ई.
10. राव मल्लीनाथ
11. राव वीरमदेव 1374-1383 ई.
12. राव चूण्डा जी 1394-1423 ई.
13. राव काना जी 1423 - 1424 ई.
14. राव सत्ता जी 1424 - 1427 ई.
15. राव रिडमल/रणमल्ल 1427 - 1438 ई.
16. राव जोधा 1438 - 1489 ई.
17. राव सातलदेव 1489 - 1492 ई.
18. राव सुजा 1492 - 1515 ई.
19. राव गांगा 1515 - 1532 ई.
20. राव मालदेव 1532 - 1562 ई.
21. राव चन्द्रसेन 1562 - 1581 ई.
22. खालसा घोषित
23. मोटा राजा उदयसिंह 1583 - 1595 ई.
24. शूर सिंह 1595 - 1619 ई.
25. गजसिंह 1619 - 1638 ई.
26. जसवंत सिंह प्रथम 1638 - 1678 ई.
27. अजीतसिंह 1707 - 1724 ई.
28. अभयसिंह 1724 - 1749 ई.
29. रामसिंह 1749 - 1750 ई.
30. बख्त सिंह 1750 - 1752 ई.
31. विजयसिंह 1752 - 1793 ई.
32. महाराजा भीमसिह 1793 - 1803 ई.
33. महाराजा मानसिंह 1803 - 1843 ई.
34. महाराजा तख्त सिंह 1843 - 1873 ई.
35. महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय 1873 - 1895 ई.
36. महाराजा सरदार सिंह 1895 - 1911 ई.
37. महाराजा सुमेर सिंह 1911 - 1918 ई.
38. महाराजा उम्मेद सिंह 1918 - 1947 ई.
39. महाराजा हनुवंत सिंह 1947 - 1949 ई.

राठौड़

राठौड़ नाम की उत्पत्ति
राठौड़ शब्द बोलने में प्रयुक्त होता है, संस्कृत पुस्तक शिलालेख दानपात्र में राष्ट्रकूट शब्द मिलता है।
जहाँ राठौड़ों का शासन था वहाँ राष्ट्रकूट शब्द ही मिला है। 'राष्ट्र‌कुट' से 'रठ्ठऊड़' बना इससे 'राठउड़/राठौड़' बना

राठौड़ और गहड़वालों के संबंध पर संशय
राठौड़ एवं गहड़वाल वंशों को एक ही जाति मानने की धारणा लंबे समय से प्रचलित है, जबकि यह मत ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। इस भ्रम के मूल में मुख्यतः चंद्रबरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो आता है, जिसमें कन्नौज के राजा जयचंद को राठौड़ संबोधित किया गया। वास्तव में जयचंद गहड़वाल वंश से थे, किंतु उस समय के भाटों ने भी अपनी वंशावलियों में उन्हें राठौड़ लिख दिया, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान राठौड़ समुदाय ने स्वयं को गहड़वाल जयचंद का वंशज मानना प्रारंभ कर दिया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ओझा ने प्रारंभ में टॉड के विचारों का अनुसरण करते हुए गहड़वालों को राठौड़ों की शाखा माना था, परंतु आगे हुए गहन शोध से स्पष्ट हुआ कि यह धारणा सही नहीं है। डॉ. हॉर्नली सहित कई विद्वानों ने दोनों वंशों में स्पष्ट भिन्नता प्रस्तुत की। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पृथ्वीराज रासो के अतिरिक्त कोई अन्य ऐतिहासिक स्रोत जयचंद को राठौड़ नहीं बताता, अतः यह मान्यता प्रमाणित नहीं मानी जा सकती।
यदि वास्तव में गहड़वाल और राठौड़ एक ही वंश होते, तो निश्चय ही राठौड़ों के ताम्रपत्रों में इसका उल्लेख मिलता। साथ ही यदि गहड़वाल स्वयं को राठौड़ों का वंशज मानते, तो वे इसकी घोषणा गर्वपूर्वक शिलालेखों में करते, क्योंकि राठौड़ वंश दक्षिण भारत के इतिहास में अत्यंत सशक्त एवं प्रतिष्ठित माना गया है।
कन्नौज में गहड़वालों के शासनकाल में राष्ट्रकूटों की एक शाखा बदायूँ में चंद्र नामक शासक के नेतृत्व में सक्रिय थी। चंद्रदेव नाम समान होने के कारण कुछ इतिहासकारों ने भ्रमवश दोनों को एक ही व्यक्ति मान लिया, जिसने गलत निष्कर्षों को जन्म दिया। राजपूत वंशों में एक ही कुल में विवाह की निषेध परंपरा प्रचलित है, जबकि राठौड़ और गहड़वालों में वैवाहिक संबंध मिलते हैं। यह तथ्य भी उनके अलग-अलग होने का ठोस प्रमाण है।
बांकीदास, नैणसी आदि की ऐतिहासिक रचनाओं में राठौड़ों की शाखाओं का विवरण तो मिलता है, किंतु कहीं भी गहड़वालों का उल्लेख नहीं मिलता। डॉ. देवदत्त भंडारकर द्वारा संकलित ताम्रपत्रों में जयचंद और उनके पूर्वजों को स्पष्ट रूप से गहड़वाल लिखा गया है। वी.ए. स्मिथ के अनुसार कन्नौज का राठौड़ वंश एक कल्पना मात्र है, और वहां गहड़वाल वंश ने शासन किया। जोधपुर के राठौड़ों द्वारा जयचंद को अपने पूर्वज के रूप में मानने की कहानियाँ लोककथाओं में भले प्रचलित हों, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से वे अस्वीकार्य हैं।
डॉ. रामशंकर त्रिपाठी (History of Kannauj) और डॉ. हेमचंद्र राय (Dynasty History of North India) ने भी दोनों वंशों को स्वतंत्र व भिन्न बताया है। इन सभी प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि गहड़वाल एवं राठौड़ एक ही वंश नहीं हैं। गहड़वाल सूर्यवंशी तथा राठौड़ चंद्रवंशी माने जाते हैं, जैसा विभिन्न शिलालेखों एवं दानपत्रों में उल्लिखित है। दोनों वंशों में विवाह संबंध होना भी उनके पृथक होने का सशक्त आधार है।
मारवाड़ के राठौड़ वंश के संस्थापक राव सीहा के स्मारक में भी उन्हें राठौड़ लिखा गया है। बीकानेर के राजा रायसिंह ने भी अपने अभिलेखों में अपने वंश को राठौड़ बताया। मारवाड़ का क्षेत्र प्राचीन काल में आधुनिक जोधपुर, बीकानेर, जालौर, नागौर, बालोतरा, सांचौर और पाली तक फैला हुआ था। सातवीं शताब्दी में यहाँ प्रतिहारों का शासन आरंभ हुआ। प्रतिहारों ने मंडोर, उज्जैन, जालौर और कन्नौज में अपनी शाखाओं की स्थापना की। प्रतिहारों के बाद इस भूभाग में राठौड़ वंश ने सत्ता स्थापित की।
मारवाड़ को प्राचीन ग्रंथों में मरूवार, मरूप्रदेश, मरूस्थल, धन्वक्षेत्र, नवसहस्र तथा जोधाणा जैसे नामों से जाना गया है। इस क्षेत्र की प्रथम राजधानी मंडोर थी, जिसने राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।

मंडोर (जोधपुर)
मंडोर गुर्जर प्रतिहारों की प्रारंभिक राजधानी थी। रावण की पत्नी मंदोदरी का पीहर मंडोर था। मंडोर का प्राचीन नाम माण्डपुर था उत्तर भारत का एकमात्र रावण मंदिर मंडोर में है। मंडोर में होली के दो दिन बाद रावण का मेला भरता है। मंडोर नागाद्री नदी के किनारे बसा था।
जैन ग्रंथों के अनुसार राठौड़ शब्द रहट से बना है। जिसका अर्थ इन्द्र की रीढ़ की हड्डी होता है और इनकी उत्पत्ति पार्लीपुर के राजा यवनाश्व से हुई है। भाटों ने राठौड़ों को 'हरिण्यकश्यप की संतान' बताया है।

नोट
मनगोली गाँव के शिलालेख में राठौड़ों को दैत्य वंशी लिखा है। प्रभासपाटन से मिले यादव राजा भीम के शिलालेख में राठौड़ों को सूर्य व चंद्रवंश से भिन्न तीसरा वंश माना है।
1596 ई. लिखे 'राठौड़ वंश महाकाव्य' में राठौड़ों की उत्पत्ति शिव के शीश में स्थित चन्द्रमा से हुई।
पं. विश्वेश्वर नाम रेऊ भी मारवाड़ राठौड़ों जयचंद गहडवाल वंशज मानता है। प्रभास पाअन से मिले यदुवंशी राजा भीम शिलालेख राठौड़ों यदुवंशी मानता है।

दयालदास के अनुसार राठौड़ों की उत्पत्ति
दयालदास ने राठौड़ों को सूर्यवंशी लिखा है, दयालदास के कथन के अनुसार ब्रह्मा के वंश में सुमित्र का पुत्र विस्वराय हुआ, विस्वराय के पुत्र मल्लराय के कोई संतान नहीं थी, मल्लराय ने पुत्र प्राप्ति के लिए राटेश्वरी देवी की पूजा की। देवी ने स्वप्न में आकर कहा तुम्हारे पुत्र होगा जिसका नाम तुम 'रठवर' रखना मल्लराय की जादमणी रानी चंद्रकला के पुत्र हुआ जिसका नाम 'रठवर' रखा। उसी रठवर के वंशज राठौड़ कहलाये। राठौड़ शुद्ध आर्य जाति है। इनका मूल स्थान दक्षिण में था, वहाँ से गुजरात राजपूताना, मालवा, काठियावाड़, मध्यप्रदेश, गया, बदायूँ आदि क्षेत्रों में आ गये। राठौड़ों को ताम्रपत्रों में चंद्रवंशी लिखा है, जबकि राजपूताना के राठौड़ स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं।
राजस्थान में राठौड़ों की मुख्यतः शाखाएँ जोधपुर (1459 ई.), बीकानेर (1465 ई.) व किशनगढ़ (1609 ई.)।
पृथ्वीराज रासो' में कन्नौज के जयचंद गहड़वाल को चन्द्रबरदाई ने जयचंद राठौड़ लिखा है, इस आधार पर मुहणोत नैणसी ने राठौड़ों को गहड़वालों का वंशज माना है, जबकि गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने माना कि राष्ट्र कटों की एक शाखा बदायूँ में थी, राठौड़ बदायूँ के राठौड़ों वंशज हैं।
कन्नौज के अन्तिम शासक हरिशचन्द्र (जयचंद का पुत्र) के समय 1226 ई. में इल्तुतमिश ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। गहड़वाल परिवार मारवाड़ के पाली क्षेत्र में आकर बस गए। राठौड़ वंश के संस्थापक राव सीहा थे। ऐसा मानते हैं कि ये जयचंद गहड़वाल के पौत्र थे।
राठौड़ शुद्ध आर्य है और इनका मूल स्थान दक्षिण में था। राठौड़ों को ताम्रपत्रों में चन्द्रवंशी लिखा है जबकि राजपूताना के वर्तमान राठौड़ अपने को सूर्यवंशी मानते हैं।

राव सीहा (1240-1273 ई.)

इसे राठौड़ों का आदि पुरुष, मूल पुरुष या संस्थापक कहा जाता है।
नैणसी री ख्यात के अनुसार राव सीहा नैणसी के अनुसार सीहा ने गौत्र हत्या बहुत की थी उसका मन विरक्त हो गया। उसने अपने पुत्र को राजगद्दी सौंपकर 104 राजपूतों के साथ कन्नौज से द्वारिका पैदल ही चल पड़ा। वह गुजरात रुका जहाँ चावड़े व सोलंकी राज करते थे। इनकी राजधानी पाटन (सीकर) थी।
चावड़े व सोलंकियों ने सीहा का स्वागत किया व सिंध के राजा मारू लाखा को पराजित करने में सीहा से सहायता माँगी। सीहा ने वचन दिया कि मैं द्वारिका से लौटकर तुम्हारी सहायता करूंगा। वापस लौटते समय लाखा से युद्ध हुआ व लाखा मारा गया, सीहा जब पाटन वापस पहुँचा तो उसका चावड़ों के यहाँ विवाह हुआ, कन्नौज जाने पर चावड़ी रानी से तीन पुत्रों का जन्म हुआ।
नैणसी एक स्थान पर लिखता है कि राव सीहा की सोलंकिनी रानी से आसनाथ का जन्म हुआ।
कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार सीहा जयचंद गहड़वाल का पौत्र था जो जिसने 1212 ई. के आस पास मारवाड़ के पाली क्षेत्र में प्रवेश किया व 1240 ई. से 1273 ई. तक पाली के छोटे से क्षेत्र पर शासन किया। 1273 ई. में मुस्लिमों से संघर्ष करता हुआ मारा गया। सम्भवतः बलबन के साथ सीहा का संघर्ष हुआ था। इस (सीहा) के बाद 1273 ई. से 1395 ई. तक 11 (ग्यारह) शासक हुए।

नोट
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार- लाखा फुलाणी पर विजय प्राप्त कर जब सीहा कन्नौज जा रहा था तब पाली के बाह्मण जसोदर एक लाख रुपया सीहा को नजर कर बालेचा चौहान सरदार से रक्षा करने की प्रार्थना की, सीहने 10 दिन पाली में रूककर बालेचा चौहान को मारा व पालीवाल ब्राह्मणों का दुःख दूर किया व यहीं पर सीहा का पुत्र आसनाथ का जन्म हुआ।

लाखा झंवर का युद्ध/धौला चौतरा का युद्ध
सीहा का फिरोजशाह द्वितीय/नासिरूदीन महमूद से सीहा का लाखा झंवर का युद्ध/धौला चौतरा का युद्ध हुआ।
सीहा की मृत्यु पाली के नजदीक बीठू गाँव में हुई। पाली के पास देवल के लेख में सीहा की मृत्यु 1273 ई. लिखी है।
लेख अनुसार सोलंकी पत्नी पार्वती सती हुई। इस लेख के अनुसार सीहा कुंवर संत्तराम का पुत्र था। इसी लेख से पता चलता है सीहा का क्षेत्र पाली के आस पास था।

आसनाथ (1273-91 ई.)

नैणसी के अनुसार राव सीहा के स्वर्गवास के बाद चावड़ी रानी अपने तीन पुत्र (आसनाथ, सोनिंग और अज) को लेकर अपने मायके आ गई। समय पाकर बच्चे जवान हुए एक दिन बच्चे चौगान खेल रहे थे, खेलते समय उनकी गेंद एक बुढ़िया के पाँवों में गिरी जो वहाँ कंड़े चुग रही थी। कुंवर ने बुढ़िया से गेंद देने को कहा बुढ़िया ने कहा मेरे "सिर पर वजन है तुम ही ले लो।" तब कुंवर ने बुढ़िया को धक्का दिया कंडे बिखर गये। बुढ़िया ने गुस्से में कहा "हमारे घर पले पोसे हो हमें ही धक्को मार रहे हो, मामा का माल खाकर प्रजा को सताते हो तुम्हारा तो कोई ठौर-ठिकाना नहीं" ताना सुनकर कुंवर घर आये व मातों से देश व पिता के बारे में पूछा, तब माता ने कहा 'तुम नाना के घर रहते हो', कुंवर ने मामा के पास जाकर विदा मांगी। विदा होकर ईडर आया वहाँ से पाली आया, पाली में कन्ह नाम का मेर शासक था, जो प्रजा के साथ अन्याय करता था आसनाथ ने उसे मारकर पाली के 54 गाँवों पर अधिकार कर लिया व साथ ही भद्राजुन व चौरासी पर भी अधिकार कर लिया।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि फिरोजशाह ने मक्का जाते समय पाली को लूटा, स्त्रियों आदि को गिरफ्तार किया। आसनाथ ने उससे युद्ध किया व 140 राजपूतों के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ।
यह कथन काल्पनिक लगता है। क्योंकि 1192 ई. में अजमेर पर मुसलमानों का नही पृथ्वीराज का शासन था।
आसनाथ के समकालीन फिरोज नाम का कोई मुसलमान सुल्तान हो तो वह जलालुद्दीन खिलजी हो सकता है। परन्तु जलालुद्दीन ना तो कभी मक्का गया व ना ही कभी मारवाड़ आया।
वह तो एक बार रणथंभौर दुर्ग जीतने के लिए जरूर आया था, जिसमें उसे असफलता मिली व वापस चला गया। मारवाड़ में सर्वप्रथम सुल्तानों में अलाउद्दीन ही आया था।

राव दूहड़ (1291-1309 ई.)

खेड़ (बालोतरा) का शासक बना। दूहड़ को 'धुर्व भट्ट' भी कहा जाता है। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार दूहड़ 1191 ई. में राजगद्दी पर बैठा व 1228 ई. में चौहानों से लड़ता हुआ मारा गया।
बांकीदास ने भी अपनी ख्यात में दूहड़ को चौहानों से लड़ते हुए मारा जाना लिखा है।
दूहड़ ने अपने समय में कर्नाटक से चक्रेश्वरी माता की मूर्ति लाकर नगाणा (बालोतरा) में लगवाई जो बाद में नागणेची माता के नाम से प्रसिद्ध हुई। चक्रेश्वरी माता राठौड़ों की कुल देवी है। चक्रेश्वरी माता का नाम नागणेची माता नगाणा गाँव में मूर्ति लगाने के कारण हुआ होगा, ऐसा माना जाता है।
मण्डोर के प्रतिहारों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
तरसींगड़ी गाँव (पचपदरा बालोतरा) में राव दूहड़ की देवली (स्मारक) मौजूद है।

राव रायपाल (1309-1313 ई.)

राव दूहड़ का पुत्र था। खेड़ (बालोतरा) पर शासन किया।
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार अकाल के समय इसने लोगों की सहायता करने के कारण रायपाल को 'महिरेलण' (इन्द्र) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इसने परमारों के ठिकाने बाड़मेर के 560 गाँव जीते ये गाँव राजपूत मांगा को दे दिये। इसी मांगा का बेटा चंद हुआ जिसके वंशज रोहड़िया बारहठ कहलाये, 1244 ई. में रायपाल की मृत्यु हुई।

राव कनक पाल (1313-1323 ई.)

इनके समय काक नदी राठौड़ों और भाटियों के बीच सीमा हुआ करती थी।

राव जालण सी (1323-1328 ई.)

इसने सोढ़ा राजपूतों से अमरकोट छीना व सोढ़ों के मुखिया का साफा छीन लिया, उसी दिन से राजपूतों ने साफा बाँधना शुरू किया।

राव छाड़ा जी (1328-1344 ई.)

राव तीड़ा (1344-1357 ई.)

तीड़ा ने महेवा (बालोतरा) को राजधानी बनायी।

राव सलखा (1357-1374 ई.)

ये राव तीड़ा का पुत्र था, नैणसी की ख्यात के अनुसार, राव सलखाँ के पुत्र नहीं था। एक दिन वह शिकार को निकला और बहुत दूर निकल गया, व उसके सैनिक पीछे रह गये, प्यास लगने पर वह इधर उधर भटकने लगा, एक स्थान पर उसने धुआं निकलते हुए देखा, वहाँ पहुँच कर उसने देखा की एक साधु तप कर रहा है, उसने अपना परिचय देकर प्यास बुझाने की याचना की साधु ने कमंडल की ओर इशारा कर के कहा- "इसमें पानी है पी ले और घोड़ों को भी पिला दे।"
सलखाँ ने जल पिया और घोड़ों को भी पिलाया लेकिन कमंडल में जल उतना ही रहा, तब उसे पता चल गया ये कोई पंहुचे हुए संत हैं, तब उसने महाराज से विनय किया कि "मेरे कोई पुत्र नहीं है।"
साधु ने चार सुपारी निकाली व कहा रानियों को खिला देना। सलखा के चार पुत्र हुए और बड़े पुत्र का नाम मल्लीनाथ रखा।

नोट
मल्लीनाथ (लोकदेवता) का जन्म 1358 ई. में महेवा (बालोतरा) में हुआ।
ये सिद्ध पुरुष थे इन्होंने कुण्डा पंथ (निर्गुण निराकार) 1399 ई. में चलाया। इनका बचपन का नाम 'माला' था।
तिलवाड़ा (बालोतरा) में लूणी नदी के किनारे मल्लीनाथ जी का पशुमेला भरता है। जो राजस्थान का प्राचीनतम् पशु मेला है।

राव वीरमदेव (1374-1383 ई.)

मल्लीनाथ जी का छोटा भाई था।

राव चूंडा (1394-1423 ई.)

राठौड़ वंश का वास्तविक संस्थापक राव चूंड़ा को ही माना जाता है। चूंडा को इसकी माता ने कलाउ के आल्हा चारण के संरक्षण में रखा था। मल्लीनाथ जी ने चूड़ा को 'सालौड़ी' की जागीर दी।
चूंडा के समय तुकों ने प्रतिहार शासक इंदा या इंद्रजीत से मंडोर छीन लिया तुर्कों ने गाँवों से घास की दो-दो गाड़ियाँ लाने का हुकम दिया।
इंदा के पास भी घास भिजवाने का आदेश आया। इंदा ने चूड़ा के साथ मिलकर घास की गाड़ियों में हथियार सहित राजपूत छुपा दिये एक गाड़ी को हांकने वाला व एक पीछे चलने वाला हो गया, जब गाड़ियाँ मंडौर गढ़ के पास पहुँची, जब गाड़ियाँ दुर्ग के अंदर जाने लगी तब एक द्वारपाल मुसलमान ने घास के अन्दर कोई गड़बड़ न हो ये देखने के लिए बरछा अन्दर घुसाया बरछा एक राजपूत के जा लगा लेकिन तुरंत उसने कपड़े से पोंछ दिया।
दरबान ने गाड़िया अन्दर जाने दी, गाड़ियों में से छुपे हुए राजपूत बाहर निकले और तुर्कों पर टूट पड़े व चूंड़ा के सहयोग से मंडोर पर अधिकार कर लिया। जब राव माला ने सुना की चूंड़ा ने मंडोर पर अधिकार कर लिया तो उसने ज्योतिषियों से चूंड़ा का अभिषेक करवा दिया व चूंड़ा मंडोर का राव कहलाने लगा।
इंदा राय धवल ने अपनी पुत्री का विवाह चूंड़ा से कर मंडोर उसे दहेज में दे दिया इस सम्बन्ध में एक सोरठा प्रसिद्ध है।
यह इन्दा रो उपकार, कमधज कदे न बीसरे।
चूंडो चंवरी चाड़, दियों मंडोवर दायजे।
इसके बाद चूड़ा ने नागौर के खानजादा को हराकर नागौर पर अधिकार कर लिया व स्थाई रूप से नागौर रहने लगा व बाद में सांभर व डीडवाना पर भी अधिकार किया। पठानों से नागौर लेने के कारण वह राव की उपाधि से प्रसिद्ध हुआ।
चूंडा की पुत्री हंसा बाई का विवाह राणा लाखा के साथ हुआ था। चूंडा की रानी (मोहलाणी) किशोर कंवर के पुत्र कान्हा को चूंड़ा ने अपना उत्तराधिकारी बनाया जबकि ज्येष्ठ पुत्र रणमल था।
रणमल मेवाड़ चला गया। चूंडा की सोनगर रानी चांद कंवर ने चांद बावड़ी (जोधपुर) का निर्माण करवाया था। राव चूंडा को मारवाड़ में सामन्त प्रथा का जनक माना जाता है (सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक जोधा को माना जाता है), चूंडा 1423 ई. में भाटियों के साथ लड़ता हुआ मारा गया।
राठौड़ों की प्रारम्भिक राजधानी मंडोर थी, मंडोर नागाद्री नदी के किनारे था।

नोट
शिलालेख मंडोर नाम 'मांडव्यपुर' मिलता है। मण्डौर में अभयसिंह समय 'तैंतीस करोड़ देवता' देवालय है।
यहाँ 'रावण की चंवरी' स्थित है, क्योंकि धारणा अनुसार मंदोदरी से मण्डौर नाम बना है, मण्डौर में उत्तर भारत का एकमात्र रावण मंदिर है।
चूड़ा ने बड़े पुत्र रणमल को शासक ने बनाकर 'किशोर कंवरी' के प्रभाव के कारण कान्हां को शासक बनाया।

राव कान्हा (1423-24 ई.)

1426 ई. में राणा लाखा के सहयोग से रणमल ने कान्हां को पराजित कर मण्डौर पर अधिकार कर लिया।
कान्हां सांखला भाटियों से लड़ते हुए मारा गया, कुछ इतिहासकारों के अनुसार करणी माता ने मार दिया।

राव सत्ता (1424-27 ई.)

राव रणमल (1426-38 ई.)

कान्हां को उत्तराधिकारी घोषित करने पर राव रणमल नाराज होकर मेवाड़ चला गया, मेवाड़ शासक राणा लाखा ने रणमल को धणला की जागीर प्रदान की। राणमल ने अपनी अपनी बहिन हंसा बाई का विवाह 62 वर्षीय राणा लाखा से किया।
हंसा बाई के बुलाने पर अपने भाणजे मोकल तथा उसके पुत्र कुंभा के समय मेवाड़ के लिए कई सफल लड़ाइयाँ लड़ी।
1437 ई. में राघवदेव सिसोदिया की हत्या करवाने के कारण 1438 ई. में रणमल को मेवाड़ के चूंडा महप्पा, अक्का व भारमली आदि ने षड़यंत्र रचकर चित्तौड़ दुर्ग में मार डाला।
रणमल की पत्नी कोडमदे (जोधा माँ) ने बीकानेर में कोडमदेसर बावड़ी बनवायी। यह पश्चिम राजस्थान की प्राचीनतम बावड़ी है।

राव जोधा (1438-1489 ई.)

जन्म- 1416 ई. हुआ डॉ. ओझा के अनुसार मारवाड़ में "सामंत प्रथा का वास्तविक संस्थापक" जोधा है।
टॉड व ओझा जोधा को प्रथम पराक्रमी राजा मानते हैं।
गोपीनाथ शर्मा के अनुसार मारवाड़ राज्य का वास्तविक संस्थापक जोधा है। चित्तौड़ से भागकर रणमल का पुत्र जोधा मारवाड़ की ओर आया। उस समय जोधा के पास 700 सैनिक थे। चूंड़ा ने जोधा का पीछा किया, कपासन (चित्तौड़) के नजदीक दोनो सेनाओं के बीच झड़प हुई। इसके बाद जोधा मारवाड़ पहुँचा।
चूड़ा पीछा करते हुए आया व मंडोर पर अधिकार कर लिया वीरविनोद के अनुसार चूंड़ा ने अपने पुत्रों मांजा, कुंतल, सुबा, विक्रमादित्य आदि को मंडोर का शासन सौंप कर वापस आ गया।
जोधा बीकानेर के काहूनी गाँव में निवास किया। मंडोर पर महाराणा कुंभा का अधिकार हो गया।

जोधा का मंडोर प्राप्त करने का प्रयास
जोधा ने मंडोर को प्राप्त करने के कई बार प्रयास किये प्रत्येक बार उसे हार का सामना करना पड़ा। एक दिन जोधा मंडोर से भागकर भूख व प्यास से व्याकुल था, तब वह एक जाट के घर रुका, उसकी पत्नी ने थाली भरकर गरम खिचड़ी जोधा के सामने रख दी।
जोधा ने खिचड़ी के बीच में हाथ डाला तो जोधा का हाथ जल गया। तब स्त्री ने कहा- "तू जोधा जैसा ही बुद्धिहीन है।"
तब जोधा ने पूछा कि जोधा बुद्धिहीन कैसे है, तब स्त्री ने कहा "जोधा बुद्धिहीन इसलिए है क्योंकि वो निकट क्षेत्र पर तो अधिकार करता नहीं मंडोर पर आक्रमण करता है जिससे उसके घोड़ें व राजपूत मारे जाते हैं और उसे भागना पड़ता है। तू भी वैसे ही कर रहा है किनारे से तो खाता नहीं है और सीधे बीच में हाथ डाल रहा है" इस घटना से शिक्षा लेकर जोधा ने मंडोर को छोड़कर निकट की भूमि पर अधिकार करने की ठानी यह कहानी जोधपुर राज्य की ख्यात में मिलती है।

जोधा के पास हंसा बाई का संदेश
जोधा की यह स्थिति देखकर एक दिन हंसा बाई ने अपने पौत्र कुंभा को बुलाया व कहा "मेरे चित्तौड़ में विवाह होने के कारण राठौड़ों का नुकसान ही हुआ है। रणमल ने चाचा व मेरा से मोकल का बदला लिया, मुसलमानों को भी हराया मेवाड़ का नाम ऊँचा किया परन्तु अंत में उसकी हत्या की गई, आज उसी का बेटा जोधा मारवाड़ में मारा मारा फिर रहा है." इस पर कुंभा ने कहा "मैं प्रत्यक्ष रूप से तो चूंड़ा के विरूद्ध जोधा की सहायता नहीं कर सकता क्योंकि रणमल ने उसके भाई राघव देव को मरवाया था। आप जोधा से कह दें कि वह मंडोर पर अधिकार कर ले. मैं इस बात से नाराज नहीं होऊंगा।" हंसा बाई ने हासिंया चारण को जोधा के पास भेजा हासिया चारण जोधा से मारवाड़ की थालियों के गाँव भांड़ग और पड़ावे के जंगलों में मिला चारण ने उसे हंसा बाई का संदेश सुनाया यह कहानी वीरविनोद में मिलती है।

जोधा का सेत्रावा के रावत लूणा से घोड़े लेना
चारण का संदेश सुनकर जोधा में कुछ आशा बंधी परन्तु जोधा के पास घोड़े नहीं थे तब वह घोड़े लेने के लिए सेत्रावा के रावत लूणा के पास पहुँचा।
जोधा ने कहा "मेरे पास राजपूत तो हैं लेकिन घोड़े मर गये, आपके पास 500 घोड़े हैं उनमें से 200 मुझे दे दो" तब लूणा ने कहा मैं राणा का आश्रित हूँ, मैं अगर तुम्हारी सहायता करूंगा तो राणा मुझसे जागीर छीन लेगा, तब जोधा लूणा की पत्नी के पास गया जो जोधा की मौसी थी।
जोधा को उदास देखकर मौसी ने कारण पूछा तब जोधा ने कहा "रावत जी ने मुझे घोड़े नहीं दिये," तब भटियाणी (रावत लूणा की पत्नी) ने कहा- "मैं तुझे घोड़े दिलवाऊंगी।"
भटयाणी ने लूणा को कमरे में बंद करके ताला लगा दिया व जोधा के साथ एक दासी भेजकर अस्तबल वालों से कहलवाया कि रावत जी ने हुकम दिया है कि जोधा को सामान सहित घोड़े दे दो। जोधा यहाँ से 140 घोड़े लेकर रवाना हुआ।
कुछ देर बाद भटयाणी ने लूणा को बाहर निकाला तब लूणा रानी व घोड़े के चरवाहों से नाराज हुआ। परन्तु घोड़े लेकर जोधा चला गया। यह कहानी जोधपुर राज्य की ख्यात व मुहणोत नैणसी की ख्यात में भी मिलती है। बांकीदास ने भी रावत लूणा से जोधा को घोड़े मिलने की बात लिखी है।
घोड़े प्राप्त करने के बाद जोधा ने महाराणा की सबसे मजबूत चौकड़ी के थाने पर हमला किया, यहाँ वणवीर भाटी, बीसलदेव, रावल दूदा, महाराणा के राजपूत सरदार मारे गये और उनके घोड़े जोधा के हाथ लगे, उसके बाद जोधा ने कोसाणे को जीता, उसके बाद जोधा ने मंडोर पर आक्रमण किया, यहाँ राणा के कई सैनिक मारे गये और 1453 ई. में जोधा ने मंडोर पर अधिकार कर लिया व इसके बाद जोधा ने सोजत को भी जीत लिया।
राव जोधा ने मण्डोर हडबूजी के आर्शीवाद से प्राप्त किया था। मण्डोर पर अधिकार होने के बाद हडबूजी को बैंगटी गाँव (फलौदी) सौंपा था।

आवल-बावल की संधि/राठौड़ सिसोदिया संधि/मेवाड़ मारवाड़ संधि
यह संधि जोधा व कुम्भा के मध्य 1453 ई. में हुई। इस संधि द्वारा मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ जिसका केन्द्र बिन्दु सोजत (पाली) बनाया गया।
उस समय सीमा निर्धारण इस आधार पर हुआ जहाँ खेजड़ी के पेड़ है वो मारवाड़ है जहाँ आम के पेड़ है वो मेवाड़ है।
जोधा ने अपनी पुत्री शृंगारी देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल से किया। शृंगारी देवी ने चित्तौड़गढ़ में घोसुण्डा बावड़ी बनवायी।

नोट
जोधपुर की स्थापना 12 मई, 1459 ई. वार शनिवार जोधा ने चिड़ियाटूक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ दुर्ग तथा जोधपुर नगर की नींव रखी। जोधपुर के किले को 'चिड़िया टूक दुर्ग' 'गढ़ चिंता मणी', 'मयूरध्वज गढ़' भी कहते हैं।

मेहरानगढ़ दुर्ग/मयूरध्वजगढ़/गढ़चितांमणी 
यह दुर्ग चिड़ियाटूक पहाड़ी पर बना है। स्थापना - 12 मई 1459 ई. में की गई।
राजाराम कड़ेला को इस दुर्ग में जिंदा चिनवा दिया गया जहाँ राजीया भामी को गाढ़ा गया वहाँ नक्कारपोल व खजाने की इमारतें बनी हैं।
राजपूत लोगों का विचार है कि किले में कोई जीवित आदमी गाड़ा जाए तो वह किला बनाने वालों के वंशों का हमेशा अधिकार रहता है।
राजाराम भांभी के सहर्ष दिए गए आत्म त्याग व स्वामिभक्ति के बदले में राज्य की ओर से उन्हें भूमि दी गई जो अब भी उनके अधिकार में है वह स्थान 'राजा बाग' नाम से प्रसिद्ध है।
जयपोल व फतहपोल नामक दरवाजे इसी दुर्ग में है। इस दुर्ग में मानसिंह ने पुस्तक प्रकाश बनाया।
इस दुर्ग में किलकिला, शभ्भुबाण, गजनीखान, कड़कती बिजली, बिच्छुबाण, गजक आदि तोपे हैं। नागणेची माता व चामुण्डा माता का मंदिर इसी दुर्ग में है।
यहाँ तख्तसिंह द्वारा निर्मित सिणगार चौकी (श्रृंगार चौकी) बनी है जहाँ राठौड़ राजाओं का राजतिलक होता था।
मंडोर में जोधा ने जोधेलात्र तालाब का निर्माण किया। जोधा की रानी जश्मा दे ने जोधपुर दुर्ग के पास रानीसर तालाब का निर्माण किया।
जोधा के समय उसके पाँचवें पुत्र बीका ने अपने चाचा कांधल के साथ मिलकर 1465 ई. में रातीघाटी क्षेत्र में 'बीकाजी की टेकड़ी' के नाम से दुर्ग बनाया तथा बीकानेर नगर की स्थापना की।
किद्वन्ती के अनुसार नेरा/नरा जाट ने बीका को सहयोग दिया था इस कारण यह क्षेत्र 'बीकानेर' कहलाया। करणी माता ने भी बीका को आशीर्वाद दिया था इस राज्य में पुंगल, सिरसा, लाडनूँ, भटनेर, भटिण्डा, ऋणी व ददरेवा, नोहर शामिल थे। साहवा में वसुधरा ने कांथल की अष्टधातु की मूर्ति का अनावरण किया।

उदा द्वारा जोधा को अजमेर व सांभर देना
ऐसा उल्लेख मिलता है जब उदा ने अपने पिता कुंभा की हत्या कर दी तब मारवाड़ के सरदारों ने उदा का विरोध किया, तब उदा ने पड़ोसियों से सहायता लेनी चाही तब कहा जाता है कि उदा ने जोधा को अजमेर व सांभर दिये।

जोधा का छापर व द्रोणपुर पर अधिकार
नैणसी के अनुसार- जोधा की पुत्री राजबाई का विवाह द्रोणपुर छापर के अजीतसिंह मोहिल से हुआ अजीतसिंह जब अपने ससुराल मंडोर आया हुआ था।
तब जोधा ने अजीतसिंह की भूमि पर परन्तु यह अजीतसिंह के रहते सम्भव नहीं था तब जोधा ने अजीतसिंह को मारने का विचार बनाया परन्तु जोधा की पत्नी रानी भटयाणी को जोधा के इस कृत्य का पता चल गया उसने इसकी सूचना अजीतसिंह के प्रधानों को दे दी, अजीतसिंह के प्रधान जानते थे कि अजीतसिंह भागना पसन्द नहीं करेगा। तब उन्होंने अजीतसिंह से कहा छापर से सूचना आई है कि यादवों ने राणा बछराज सांगावत पर आक्रमण कर दिया राणा ने आपको सहायता के लिए बुलाया है।
यह सुनते ही अजीतसिंह मंडोर से रवाना हुआ जोधा ने अजीतसिंह का पीछा किया द्रोणपुर के नजदीक गणोड़ा के नजदीक युद्ध हुआ जिसमें अजीतसिंह मारा गया उसी दिन से राठौड़ व मोहिलों में वैमनस्य बंध गया इस घटना के 1 वर्ष बाद जोधा ने सैना इकट्ठी की व मोहिलों पर आक्रमण किया इस बार राणा बछराज मारा गया और जोधा की विजय हुई।
राव जोधा ने द्रोणपुर को अपने पुत्र जोगा को सौंप दिया, जोगा से व्यवस्था नहीं हुई तो जोधा ने अपने दूसरे पुत्र बीका को भेजा।

नोट
  • जोधा ने दिल्ली के सुल्तान महलोल लोदी की एक सेना को परास्त करके प्रतिष्ठा प्राप्त की।
  • गाडण पसाइत जोधा के समकालीन कवि थे। गाडण पसाइत ने गुण जोधायण, राव रिणमल रो रूपक नामक रचनाएँ की थी।
  • जोधा ने सेठ पद्म चंद से प्राप्त धन से पद्म सागर तालाब मेहरानगढ़ दुर्ग में बनवाया।
  • डॉ. ओझा के अनुसार मारवाड़ का प्रथम प्रतापी शासक राव जोधा था।
  • जोधा की पत्नी जसमादे ने जोधपुर दुर्ग के पास रानीसर तालाब बनावाया।

राव सातल (1489-92 ई.)

राव सातल ने 'सातलमेर' (जैसलमेर) नामक कस्बा बसाया व यहाँ एक दुर्ग बनाया। यह सातलमेर पोकरण की राजधानी था।
सातल देव की रानी फूला भटियाणी ने 'फूलेलाव तालाबू (जोधपुर)' का निर्माण किया। दूसरी रानी हरखाबाई की पूजा नागणेची माता के साथ की जाती है। सातल देव के कोई पुत्र नहीं था।

मुसलमानों से युद्ध व सातल देव की मृत्यु
सातल का छोटा भाई वरसिंह मेड़ता रहता था। उसने सांभर को लूटा, इस पर अजमेर का सुबेदार मल्लूखां, सिरिया खां व मीर घुड़ला ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया। तब वरसिंह सहायता के लिए राव सातल के पास आया पीछे-पीछे मुसलमानो ने भी जोधपुर पर आक्रमण कर दिया।
जोधपुर ग्रामीण के पीपाड़ शहर से गणगौर की पूजा कर रही कन्याओं का अपहरण कर लिया तब राव सातल ने वरसिंह, दूदा, सूजा आदि के साथ मिलकर कोसाणे पहुँचकर रात्रि में मुसलमानी सेना पर आक्रमण कर दिया, सातल देव ने मीर घूड़ला खान को मार दिया व कन्याओं को मुक्त करवाया।
इस लड़ाई में मुसलमानों के साथ कुछ खूबसूरत बांदिया थीं। उन्हें उर्दू बेगम कहते थे। मारवाड़ी ख्यातों में इन्हे उड़दा बेगणीया कहा गया है।
इन्हें वरजांग ने कैद कर लिया था बाद में सातल देव के कहने पर इन्हें सर मुंडवा कर वापस छोड़ दिया।
इस युद्ध में सातल देव घायल हो गया था व बाद में मारा गया। इसी विजय के उपलक्ष में जोधपुर में घुड़ला त्यौहार मनाया जाता है। जो चैत्र कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ होता है चैत्र सुदी तृतीया तक चलता है, इसमें छिद्रित मटके में जलता हुआ दीपक रखकर स्त्रियाँ नगर में घूमती है व चैत्र सूदी तृतीया को घड़ा नष्ट कर दिया जाता है।

राव सूजा (1492-1515 ई.)

राव बीका का जोधपुर पर आक्रमण
बीका के पिता जोधा ने बीका को वचन दिया था कि मेरा तख्त, छत्र, राजचिन्ह, ढाल, तलवार आदि तुझे मिलेगी। क्योंकि बीका ने बड़ा पुत्र होते हुए भी जोधपुर का राजा नही बना था।
परन्तु ये चीजें बीका के पास नहीं पहुँची थी, सूजा के राजगद्दी पर बैठने के बाद बीका ने पड़िहार बेला को ये पूजनीय चीजें लाने भेजा लेकिन सूजा ने मना कर दिया।
इस पर बीका ने जोधपुर पर आक्रमण कर दिया और बीका ने जोधपुर को घेर लिया।
सूजा की माता जसमा दे की मध्यस्ता से संधि हुई और बीका पूजनीय चीजें लेकर वापस चला गया। इन पूजनीय चीजों में जोधा की ढाल तलवार, तख्त, चंवर, छत्र, कटार, हरिण्यगर्भ लक्ष्मीनारायण की मूर्ति, 18 हाथ वाली नागणेची माता की मूर्ति, करंड, भंवर ढोल, बैरिशाल नगाड़ा, दलसिंगार घोड़ा, भुजाई की देग आदि थे।

राव गंगा (1515-1532 ई.)

जन्म- 1484 ई.

खानवा युद्ध में सांगा की सहायता
बाबर पाँचवी बार भारत पर आक्रमण करने भारत आया 12000 सेना के साथ कई युद्ध करते हुए पानीपत के मैदान में पहुँचा।
21 अप्रैल, 1526 ई. को पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी से बाबर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहीम लोदी मारा गया और बाबर का दिल्ली पर अधिकार हो गया। इसके बाद बाबर ने आगरा पर अधिकार कर लिया।

नोट
दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद बाबर को सांगा की बढ़ती हुई शक्ति का डर लग रहा था, इधर संग्राम सिंह भी युद्ध की तैयारी कर रहा था।
सांगा के बयाना दुर्ग पर बाबर ने अधिकार कर लिया, यह दुर्ग सांगा ने निजाम खां को दे रखा था, जब बाबर ने यहाँ सेना भेजी तो निजाम खां ने यह दुर्ग बाबर को दे दिया।
इसके बाद बाबर ने धौलपुर व ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।
जब संग्राम सिंह बाबर पर युद्ध करने जा रहा था तो मेड़ता से रायमल व रतनसिंह भी सांगा के साथ थे. इन्हें राव गंगा ने भेजा था, 4000 सेना देकर अपने राजकुमार को भेजा, युद्ध में मेड़ते रायमल व रतनसिंह मारे गये।

मेड़ता से संघर्ष
मालदेव ने 1529 ई. के सोजत युद्ध में सोजत के शासक को पराजित कर सोजत पर अधिकार कर लिया।
1529 ई. में सेवकी के युद्ध में नागौर शासक दौलत खाँ को हराया। दौलत खाँ के पास दरिया जोश हाथी था।
जो भागकर मेड़ता आ गया। मेड़ता के वीरमदेव ने इस हाथी को पकड़ लिया।
मालदेव ने हाथी की माँग की। वीरमदेव ने मना कर दिया। वीरमदेव ने कहा कुंवर (मालदेव) हमारे मेहमान बनकर, भोजन करे तब हाथी दे।
मालदेव ने कहा पहले हाथी दो फिर भोजन करूंगा। वीरमदेव ने कहा ऐसे हठ करते हो तो हाथी नहीं देंगे।
मालदेव ने क्रोध में आकर कहा- मेड़ता भूमि पर मूली बोने की प्रतिज्ञा करता हूँ, और जोधपुर आ गया।"
जब इसका पता गंगा को चला। गंगा ने कहा मेरे मरने के बाद मालदेव तुम्हें दुःख दे सकता है।
वीरमदेव ये हाथी मालदेव को दे दो। तब वीरमदेव ने 2 घोड़े व हाथी मालदेव के पास भिजवाए।
हाथी की घायल होने के कारण मार्ग में ही मृत्यु हो गयी। गंगा ने कहा ठीक है हमारी धरती तक हाथी पहुँच गया इसलिए हमारे पास आ गया परन्तु मालदेव नहीं माना। उसने कहा वक्त आने पर ले लूंगा। इस घटना के कारण जब मालदेव गद्दी पर बैठा तब वीरमदेव पर आक्रमण किया था, और वीरमदेव भागकर शेरशाह के पास चला गया।

सेवकी का युद्ध
1529 ई. राव गंगा वे नागौर के दौलत खाँ के मध्य हुआ।

गंगा की मृत्यु
गंगा स्वभाव से सुशील था वह राज्य वृद्धि के लिए प्रयास नहीं करता था, गंगा के पास मृत्यु के समय जोधपुर व सोजत दो ही परगने थे। गंगा का पुत्र मालदेव गंगा के विपरीत उग्र स्वभाव का था, इस कारण वह मन ही मन पिता से विरोध रखता था।
राव गंगा अफीम का ज्यादा सेवन करता था। एक दिन वह नशे में पिनक में ऊपर की मंजिल के झरोखे में बैठा था मालदेव ने पीछे से आकर उसे उठाकर नीचे फेंक दिया जिससे गंगा की मृत्यु हो गई, उस समय गंगा के पास, तिवरी का स्वामी भांण, पुरोहित मूला, जोगी सुखनाथ थे।
मालदेव ने भांण पर वार किया, फिर मूला पर भी वार किया, जोगी सुखनाथ यहा से भाग गया इससे घट्ना से सम्बन्धित प्रचलित है-
भांण पेला भरड़ियो, पड्यो मूले पर हाथ।
गोखां गंगा गुड़ावियो, भाज गयो सुखनाथ ॥
रेऊ के अनुसार गंगा अफीम के नशे गिरा था। ओझा के अनुसार मालदेव ने गंगा को मारा था। नैणसी के बांकीदास इस बात का जिक्र नहीं करते।
गंगा ने जोधपुर में "गंगलाव तालाब" व "गंगा की बावड़ी" व गंग श्याम मन्दिर बनवाया का निर्माण किया।
गंगा की रानी नानक देवी ने अचलेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया।

राव मालदेव (1532-62 ई.)

माता - सिरोही के देवड़ा शासक जगमाल की पुत्री, मालदेव ने अपने
पिता - गंगा के समय खानवा, सोजत व सेवकी के युद्धों में भाग लिया।

मालदेव के उपनाम
  1. मालदेव को 52 युद्ध व 58 परगनों का विजेता कहा जाता है।
  2. हिन्दु बादशाह चारणों ने कहा।
  3. हसमत वाला राजा फारसी इतिहासकार अबुल फजल व निजामुद्दीन ने कहा है।
  4. भारत के शक्तिशाली राजाओं में से एक अबुल फजल के अनुसार
  5. भारत का महान पुरुषार्थी बदायूँनी ने कहा
  • मालदेव का जन्म- 5 दिसम्बर, 1511 ई. में हुआ था और राज्याभिषेक सोजत में 21 मई, 1532 ई. को हुआ था। राज्याभिषेक के समय जोधपुर व सोजत दो ही परगने थे।
  • उसने अपनी विजयों के द्वारा 1533 ई. में फलौदी क्षेत्र पर, 1535 ई. में दौलत खाँ से नागौर, 1538 ई. में डूंगरसिंह से सिवाणा व जालौर तथा 1539 ई. में सिंघल वीरा से भद्राजूण व रायपुर के क्षेत्र छीन लिए।

भद्राजून पर अधिकार (1532 ई.) जालौर
सर्वप्रथम मालदेव ने सीघल स्वामी वीरा को मारकर भद्राजून पर अधिकार किया। भद्राजून की जागीर मालदेव ने पुत्र रत्नसिंह को सौंप दी।

मेड़ता व अजमेर पर अधिकार (1538 ई.)
दरियाजोश हाथी के कारण मालदेव व मेड़ता के वीरमदेव के बीच राव गंगा के समय ही विरोध हो गया था इसलिए मालदेव इसे सजा देना चाहता था, वीरमदेव ने अजमेर पर भी अधिकार कर लिया था।
मालदेव ने वीरमदेव से अजमेर मांगा तो वीरमदेव ने ध्यान नहीं दिया, इस पर मालदेव ने सेना भेजकर वीरमदेव को मेड़ता से निकाल दिया। वीरमदेव अजमेर आया, वीरमदेव को यहाँ से भी भगा दिया, वीरमदेव यहाँ से भाग कर बौंली और चाकसू गया, जब मालदेव ने पीछा किया तो वीरमदेव शेरशाह सूरि के पास चला गया।

नागौर पर अधिकार
1536 ई. में नागौर के दौलत खाँ पर चढाई की दौलत खाँ को मार दिया। मालदेव का सेनापति कूपा था।
यहाँ वीरम मागलियोत को हाकिम नियत किया।

सिवाणा पर अधिकार बालोतरा
1538 ई. में सिवाणा स्वामी राठौड़ डूंगरजी (जैत मालोत) को भगाकर अधिकार कर लिया।
यहाँ का किला मांगलिया देवा को सौंपा।

जालौर पर अधिकार (1539 ई.)
जालौर के स्वामी सिकंदर खां को मालदेव ने कैद कर लिया कैद में रहते हुए सिकंदर खां की मृत्यु हो गई।

मेवाड़ के क्षेत्र पर अधिकार
प्रारम्भ में मालदेव व मेवाड़ शासक उदयसिंह के मध्य अच्छे सम्बन्ध थे। उदयसिंह ने 1540 ई. में 'मावली/माहोली' स्थान पर बनवीर को हराया।
उस समय मालदेव ने उदयसिंह की सहायता के लिए जैता व कूपा के नेतृत्व में सहायता भेजी, इसके बदले महाराणा ने वसन्तराय हाथी व चार लाख फीरोजे मालदेव के पास भेजे।

कुंभलगढ़ पर आक्रमण
खैरवा के ठाकुर अखैराज की पुत्री के विवाह को लेकर मालदेव व उदयसिंह के मध्य विवाद हो गया, झाला सज्जा का पुत्र जैतसिंह किसी कारण उदयपुर छोड़कर जोधपुर आ गया।
मालदेव ने जैतसिंह को खैरवा का ठाकुर बनाया।
जैतसिंह ने अपनी पुत्री स्वरूपदेवी का विवाह मालदेव से कर दिया, एक दिन मालदेव ससुराल खैरवा आया हुआ था।
वहाँ स्वरूपदेवी की छोटी बहिन जो अत्यंत सुंदर थी उससे विवाह करने के लिए मालदेव ने जैतसिंह से आग्रह किया, जब जैतसिंह ने मना किया तो मालदेव ने कहा मैं बलात विवाह कर लूंगा अधिक दबाव बढ़ने के कारण जैतसिंह ने कहा मुझे थोड़ा समय दो, मैं दो माह बाद विवाह कर दूंगा।
मालदेव के जोधपुर आने के बाद जैतसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह महाराणा उदयसिंह से करने का निश्चय किया, महाराणा ने इसे स्वीकार कर लिया।
जैतसिंह अपनी पुत्री को लेकर कुंभलगढ़ के नजदीक गुढ़ा गाँव के लिए रवाना हुआ।
उस समय स्वरूपदेवी भी खैरवा में थी, स्वरूपदेवी ने अपनी बहन को विदा करते समय दहेज में गहने देने चाहे परन्तु जल्दबाजी में गहनों के स्थान पर राठौड़ो की कुल देवी नागणेची माता के मूर्ती वाला डिब्बा दे दिया।
महाराणा उदयसिंह ने कुंभलगढ़ से गुढ़ा पहुँचकर विवाह कर लिया, जब डिब्बा खोला गया तो नागणेची माता की मूर्ति निकली जिसे महाराणा पूजा घर में रखवाया, तभी से साल में दो बार भाद्रपद शुक्ल सप्तमी व माघ शुक्ल सप्तमी को नागणेची माता की पूजा का रिवाज चल पड़ा।
इस पर नाराज होकर मालदेव ने राठौड़ पंचाण तथा राठौड़ बीदा के नेतृत्व में सेना भेजकर कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया जिसमें मालदेव की हार हुई।
मालदेव ने नाराज होकर मेवाड़ के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

पाहेबा साहेबा युद्ध (1541-42 ई.)

कूंपा के नेतृत्व में बीकानेर सेना भेजी, जयसोम लिखित 'कर्मचन्द्रवंशोत् कीर्तनम् काव्यम्' के अनुसार जैतसी ने मंत्री नगराज को सहायता के लिए शेरशाह के पास भेजा था।
वीर विनोद (श्यामलदास) व बाकीदास के अनुसार शेरशाह के पास कल्याणमल गया था।
दयालदास ख्यात के अनुसार कल्याणमल का भाई भीम शेरशाह के पास गया। जयसोम कथन सत्य माना जाता है।
कल्याण मल ने अपना परिवार सिरसा नगर में छोड़ा था।

नोट
6 मार्च, 1542 ई. में मालदेव व उसके सेनापति कूपा ने बीकानेर पर आक्रमण किया।
बीकानेर के शासक राव जैतसिंह, पाहेबा/साहेबा के युद्ध में पराजित हुआ व मारा गया।
जैतसिंह का पुत्र कल्याणमल शेरशाह की शरण में चला गया। युद्ध के बाद मालदेव ने कुंपा को डीडवाना, फतेहपुर व झुंझुनूँ की जागीर दी।

मालदेव व हुमायूँ
बाबर के बाद 1530 ई. में हुमायूँ बादशाह बना। शेरखाँ के साथ 1539 ई. के चौसा युद्ध में पराजित हुआ। यहाँ निजाम भिश्ती ने नदी पार करवाकर उसकी जान बचाई।
1556 ई. में पुनः बादशाह बनने पर भिश्ती को एक दिन का हिन्दुस्तान का बादशाह बनाया तथा चमड़े के सिक्के चलाये।
चौसा इतिहास का ऐसा प्रथम युद्ध है जिसमें अफगानों ने प्रथम बार मुगलों को पराजित किया।
1540 ई. में शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को कन्नौज के युद्ध में अन्तिम रूप से पराजित कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया।
ऐसे समय में मालदेव ने हुमायूँ को सहायता देने की पेशकश की किन्तु हुमायूँ ने स्वीकार नहीं किया। क्योंकि इस समय इसके भाई अश्करी व हिंदाल सहयोग दे रहे थे।
इसी दौर में 1540 ई. में हिंदाल के गुरु की पुत्री हमीदा बानो बेगम का निकाह हुमायूँ के साथ हुआ। 13 महीने बाद जब हुमायूँ को कहीं से सहायता नहीं मिली। 'जोगी तीर्थ' स्थान तक आया किन्तु इस समय परिस्थितियाँ बदल चुकी थी।
शेरशाह सूरी अधिक शक्तिशाली बन गया था। ऐसे में शेरशाह के विरुद्ध मालदेव ने हुमायूँ को सहयोग देने में असमर्थता जताई।

नोट
निजामुद्दीन के अनुसार, "जब हुमायूँ भागकर मालदेव के पास आया तब शमसुद्दीन को मालदेव के पास भेजा और हुमायूँ राज्य की सीमा में ठहर गया।
जब मालदेव की कमजोरी और शेरशाह की शक्ति का पता चला तब मालदेव के पास भी शेरशाह से लड़ने योग्य सेना नहीं थी।
इस समय शेरशाह ने दूत भेजकर हुमायूँ को पकड़ने के लिए कहा. हुमायूँ का दूत शमसुद्दीन मालदेव के मन की बात जानकर वापस आ गया, हुमायूँ का एक अध्यक्ष मालदेव के पास रहता था।
उसने हुमायूँ से कहलवाया आप जल्दी से जल्दी राज्य से बाहर चले जाये।
शमसुद्दीन ने भी हुमायूँ को निकलने के लिए कहा हुमायूँ यहाँ से अमरकोट के शासक राणा वीरशाल के यहाँ चला गया।
जहाँ 15 अक्टूबर, 1542 ई. को अकबर का जन्म हुआ।

गिरी सुमेल का युद्ध (जैतारण तहसील, ब्यावर) 5 जनवरी, 1544 ई.

मेड़ता के बीरमदेव व बीकानेर के कल्याणमल के उकसाने तथा हुमायूँ को शरण देने के प्रयास के कारण शेरशाह ने मालदेव के विरूद्ध सैन्य अभियान किया।
शेरशाह को यह भय था कि राजपूत एकत्र होकर कहीं समस्या पैदा न कर दे, राजपूताने में उस समय मालदेव सबसे शक्तिशाली शासक था।
उसी समय बीकानेर के मंत्री नगराज व मेडता के वीरमदेव शेरशाह के पास सहायता के लिए पहुँचे। फरिस्ता के अनुसार शेरशाह 80000 सेना लेकर आगरा से रवाना हुआ।
सिरसा से रवाना होकर बीकानेर का कल्याणमल भी शेरशाह के साथ मिल गया, शेरशाह मार्ग में सेना की रक्षा का प्रबंध सही करते हुए नागौर अजमेर होते हुए मारवाड़ पहुँचा।
इधर से मालदेव सेना लेकर शेरशाह से युद्ध के लिए पहुँचा, जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार मालदेव के पास 80000 सैनिक, अल्बदायूंनी के अनुसार 50000 सैनिक थे।
नैणसी के अनुसार वीरमदेव शेरशाह को मालदेव के विरूद्ध ले आया मालदेव भी 80000 सैनिक लेकर निकल पड़ा। वहाँ वीरमदेव ने एक तरकीब की।
कुंपा के शिविर में 20000 रुपये भिजवाये व कहा हमें कम्बल मंगवा कर देना और 20000 रुपये जैता के पास भेजा और कहा कि हमें सिरोही की तलवारे मंगवाकर देना, फिर मालदेव से वीरम ने कहलवाया कि जैता और कुंपा शेरशाह से मिल गये और तुम्हें पकड़ कर वो शेरशाह को सौंपेगें इसका सबूत यह है कि आप जैता और कुंपा के शिविर में पैसों के थैले देख लो, ज़ब मालदेव ने जांच पड़ताल की तो यह बात सत्य निकली।
यह जानकर मालदेव ने अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दिया कि कुंपा को शेरशाह की चाल का पता लगने पर मालदेव को समझाने का प्रयास किया जब मालदेव का संदेह नहीं मिटा, तब कुंपा ने कहा "सच्चे राजपूत पर ऐसा कंलक नहीं सुना, मैं राजपूतों पर लगाये इस कंलक को अपने रक्त से धोऊँगा और शेरशाह को अपने थोड़े से सैनिकों के साथ हराऊंगा" मालदेव ने कुंपा की बात पर ध्यान नहीं दिया और पीछे हटने लगा, वीर कुंपा मात्र दस-बारह हजार सैनिकों के साथ शेरशाह पर आक्रमण करने चला रात्रि को मार्ग भूलने के कारण सुबह के समय युद्ध हुआ। राठौड़ सेना का प्रबल आक्रमण होने के कारण शेरशाह को पीछे हटना पड़ा व सेना में घबराहट फैल गई। फरिस्ता के अनुसार जलाल खाँ जलवानी आने के कारण शेरशाह विजयी हुआ और युद्ध समाप्ति के बाद शेरशाह ने कहा "एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता"।
युद्ध के बाद सेना के दो भाग किये एक भाग ख्वासखाँ व ईसाखाँ के नेतृत्व में जोधपुर भेजा व दूसरे भाग को स्वयं के नेतृत्व में अजमेर पहुँचा व अजमेर पर अधिकार कर लिया।
शेरशाह भी जोधपुर की और रवाना हुआ, मालदेव ने जब शेरशाह के आने की सूचना सुनी तो वह सिवाना चला गया।
इसके बाद शेरशाह की कालिंज अभियान में उक्का नामक अस्त्र चलाते समय मृत्यु हो गई, मालदेव ने वापस जोधपुर पर अधिकार कर लिया शेरशाह का जोधपुर पर लगभग एक वर्ष तक अधिकार रहा। शेरशाह ने वीरम को मेड़ता व कल्याणमल को बीकानेर सौंप दिया था।
गिरी सुमेल युद्ध युद्ध का प्रत्यक्षदृष्टा इतिहासकार अब्बास खाँ सरवानी (पुस्तक तारीख-ए-शेरशाही) सरवानी थे। जेता व कुंपा की छतरी गिरी गांव में है।

हरमाड़ा का युद्ध (अजमेर) 24 जनवरी, 1557 ई.
हाजीखाँ शेरशाह का प्रबल सेनापति था।
अकबर के बादशाह बनने पर यह मेवात का अधिकारी था, जब अकबर ने पीर मौहम्मद सरवानी को भेजा तो हाजी खाँ भागकर अजमेर आ गया।
मालदेव ने हाजीखाँ को लूटने के लिए पृथ्वीराज को भेजा, हाजीखां ने महाराणा उदयसिंह व बीकानेर के कल्याणमल से सहायता मांगी, महाराणा 5,000 सेना लेकर रवाना हुआ।
कल्याणमल ने भी ठाकुर अर्जुनसिंह व रावत किशनदास व सेवारा के स्वामी नारणा की अध्यक्षता में हाजी खाँ की सहायता के लिए सेना भेज दी, यह सेना देखकर जोधपुर के सरदारों ने पृथ्वीराज से कहा मालदेव के अच्छे सेनापति शेरशाह के साथ युद्ध में मारे गये और अगर हम भी मारे गये तो मालदेव कमजोर हो जायेगा इसलिए लौट जाना ही सही है। सेना बिना लड़े ही वापस चली गई इधर उदयसिंह ने हाजीखां से सहायता के बदले रंगराय वेश्या की मांग की जो हाजीखां की प्रेमिका थी, हाजीखां ने कहा यह मेरी बेगम है। मैं इसे कैसे दूँ और मना कर दिया सरदारों ने भी महाराणा को ऐसा करने से मना किया परन्तु उदयसिंह नहीं माने और हाजी खां पर चढ़ाई कर दी। इस स्थिती में हाजीखां ने मालदेव से सहायता मांगी मालदेव व महाराणा का झगड़ा पहले से ही था।
मालदेव ने राठौड़ देवीदास, जैतमल आदि के नेतृत्व में हाजीखां की सहायता के लिए सेना भेजी 24 जनवरी, 1557 हरमाड़ा (जयपुर)
उदयसिंह व हाजीखां के मध्य युद्ध हुआ। राव जैतसिंह व वालीशाह शूजा ने महाराणा को युद्ध न करने के लिए समझाया, महाराणा नहीं माने हाजीखाँ ने एक सेना युद्ध में उतारी व स्वयं एक हजार सैनिकों के साथ पहाड़ियों में छुप गया, जब उदयसिंह मैदान में पहुँचा तो पीछे से हाजी खां ने आक्रमण कर दिया एक तीर महाराणा को लगा राव तेजसिंह व वालीशा शूजा मारे गये व महाराणा की हार हुई।

मालदेव का स्थापत्य
जहाँ मेवाड़ में सर्वाधिक किलों का निर्माण कुंभा के समय में हुआ वहीं मारवाड़ में मालदेव के समय हुआ।
मालदेव ने पोकरण, सोजत, व मालकोट (मेड़ता) दुर्गों का निर्माण करवाया। तथा साथ ही एक दर्जन से भी अधिक दुर्गों का जीर्णोद्धार करवाया। जोधपुर के गढ़ के कोट रानीसर का कोट, शहरपनाह बनाया, नागौर के किले का जीर्णोद्धार करवाया, सातलमेर के कोट को नष्ट करके उसके मलबे से 1551 ई. में पोकरण दुर्ग बनवाया।
इस समय आशियाँ के दोहे, आशा बारहठ के गीत, ईशरदास के सोरठे, रत्नसिंह की बेली आदि की रचना हुई। इतिहासकार मुंशी देवी प्रसाद ने 'राव मालदेव चरित' ग्रंथ की रचना की। (बाद में)
इतिहासकार गोपीनाथ के अनुसार यहाँ से आगे राजस्थान में आश्रितों का इतिहास प्रारम्भ होता है।

रूठी रानी
1536 ई. में मालदेव का विवाह जैसलमेर के भाटी शासक राव लूणकरण की पुत्री मानवती ऊमादे से हुआ।
लूणकरण ने मालदेव को किसी कारणवश मारने की योजना बनाई। रानी ने यह सूचना मालदेव तक पहुँचाई, मालदेव अपनी रानी से नाराज हो गये तथा रानी रूठकर अजमेर चली गई एवं जीवनपर्यन्त यही रही। कहते हैं कि जब अजमेर पर शेरशाह का आक्रमण हुआ तब रानी को बुलाने का प्रयास किया।
ईश्वर दास के समझाने पर रानी चलने को तैयार हुई थी कि आशा बारहठ ने रानी को सुनाकर कहा:
मान राखे तो पीव तज,
पीव रखे तज मान ।
दोय जंयव न बन्द ही,
एकण खम्बे ठाण।।
यह सुनकर रानी नहीं गई।
1562 ई. में मालदेव की मृत्यु पर रानी सती हो गई।
रूठी रानी का महल अजमेर में है। रूठी रानी के नाम से केशरीसिंह बारहठ ने ग्रन्थ लिखा है।

नोट
मालदेव के उत्तराधिकारी-
रामसिंह-ये केलवा राजसमंद में रहने लगा। 1564 ई. में रामसिंह ने अकबर की शरण में जाकर सहायता माँगी।
उदयसिंह-इसके पास फलौदी की जागीर थी। उदयसिंह व चन्द्रसेन के मध्य लोहावट (फलौदी) में संघर्ष हुआ।
चन्द्रसेन झालीरानी स्वरूपदे का पुत्र।

राव चन्द्रसेन (1562-81 ई.)

जन्म 30 जुलाई, 1541
उपनाम-
  1. अकबर का विरोध करने वाला राजस्थान का प्रथम शासक।
  2. मारवाड़ में छापामार पद्धति अपनाने वाला मारवाड़ का प्रथम शासक।
  3. प्रताप का अग्रगामी/पथ प्रदर्शक।
  4. इतिहासकार रेऊ ने चन्द्रसेन को मारवाड़ का प्रताप कहा है।
  5. भूला बिसरा राजा/विस्मृतनायक।

नोट
मालदेव ने अपने बड़े पुत्र राम के स्थान पर छोटी रानी के बहकावे में आकर पुत्र चन्द्रसेन को उत्तराधिकारी बना दिया।
मालदेव के चार पुत्र राम, उदयसिंह, चन्द्रसेन व रायमल थे।
मालदेव ने अपने तीसरे पुत्र चन्द्रसेन को उत्तराधिकारी बनाया।
राम केलवा (मेवाड़) चला गया। उससे छोटे उदयसिंह का मालदेव ने फलौदी की जागीर दी थी।

सरदारों की चन्द्रसेन से अप्रसन्नता
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार चन्द्रसेन अपने एक नौकर से अप्रसन्न रहता था वह नौकर राठौड़ जैतमाल के डेरे में चला गया था। चन्द्रसेन ने उसे वहाँ से पकड़वाकर मंगवाया, जैतमाल ने अपने प्रधान से चन्द्रसेन के पास संदेश भेजा कि नौकर का अपराध क्षमा कर उसे प्राणदान देवें, चन्द्रसेन ने प्रधान से कहा, मैं जैतमाल की इच्छानुसार ही करूंगा, प्रधान के जाते ही चन्द्रसेन ने नौकर को मरवा दिया, यह अन्यायपूर्ण कार्य देखकर राठौड़ पृथ्वीराज व अन्य सरदारों ने राम, उदयसिंह व रायमल को बुलावा भेजा।
राम ने केलवे से आकर सोजत में बिगाड़ करना प्रारम्भ किया। रायमल दुनाड़े में लड़ा, उदयसिंह गांगेणे के पास लांगड़ में लूटपाट मचाई चन्द्रसेन ने इनके विरुद्ध सेना भेजी।
राम व रायमल तो भाग गये, उदयसिंह से लोहावट में चन्द्रसेन की लड़ाई हुई। उदयसिंह यहाँ घायल हुआ व घोड़े से गिर गया इन्दा खिंची ने उदयसिंह को यहाँ से सुरक्षित निकाला।
उदयसिंह फलौदी में जाकर युद्ध की तैयारियाँ करने लगा। चन्द्रसेन वहीं सेना लेकर पहुँचा, युद्ध में दोनों तरफ की हानि होती इसलिए चन्द्रसेन सरदारों के कहने पर वापस लौट गया।

अकबर का जोधपुर पर अधिकार
सरदारों के कहने पर राम 1564 ई. में अकबर की शरण में चला गया व शाही सेना ले आया, सेना ने जोधपुर पर घेरा डाला, 17 दिन की घेराबंदी के बाद सरदारों ने बातचीत कर राम को सोजत का परगना दे दिया शाही सेना वापस चली गई।
1565 ई. में फिर शाही सेना जोधपुर आयी 4,00,000 फिरोजे देने की शर्त पर चन्द्रसेन ने शाही सेना से संधि कर ली।
1565 ई. में हसनकुली खाँ नेतृत्व में तीसरी बार शाही सेना जोधपुर आयी, डेढ़ माह के घेरा बंदी के बाद शाही सेना ने राणीसर के कोट पर हमला कर उसे जीत लिया।
चन्द्रसेन गढ़ को छोड़कर भद्राजूण (जालौर) में चला गया। जोधपुर छूटने के बाद चन्द्रसेन की आर्थिक स्थिति खराब हो गई उसे रत्न आभूषण बेचकर अपने व राजपूतों का खर्च चलाना पड़ा।
उसने मालदेव के समय का एक लाख साठ हजार मूल्य में महाराणा उदयसिंह को बेच दिया था।
यह 1615 ई. में मेवाड़ मुगल संधि में महाराणा अमरसिंह ने इसे शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) को दिया था।

नागौर दरबार (1570 ई.)
अकबर ने 1562 ई. में आमेर के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए 1562 ई. में ही अलवर, मेड़ता, नागौर, अजमेर तथा 1564 ई. में जोधपुर व सोजत, 1567 ई. में चित्तौड़ पर, 1569 ई. में रणथम्भौर पर अधिकार कर लिया था।
1570 ई. के नागौर दरबार का आयोजन इसलिए किया गया था ताकि अकबर यह पता कर सके कि कौनसे राजपूत शासक उसके पक्ष में है और कौनसे विपक्ष में है।
यहाँ लम्बे समय तक रुकने के लिए अकाल राहत कार्यों का बहाना लेकर नागौर दुर्ग में 'शुक्र तालाब का निर्माण किया।

नोट
दरबार में निम्न व्यक्ति आये थे-
  1. जैसलमेर से हरराय भाटी
  2. बीकानेर से कल्याणमल व उसका पुत्र रायसिंह
  3. कोटा से दुर्जनशाल हाड़ा
  4. भद्राजूण से चन्द्रसेन
  5. फलौदी से उदयसिंह
राव चन्द्रसेन भी यहाँ उपस्थित हुआ किन्तु अकबर के पक्षपात रवैये के कारण पुनः भद्राजूण चला गया। 1571 ई. में चन्द्रसेन ने भद्राजूण छोड़ दिया।

जोधपुर का प्रशासन रायसिंह को सौंपना
1572 ई. से 1574 ई. के बीच में अकबर ने जोधपुर का प्रशासन कल्याणमल के पुत्र रायसिंह को सौंपा,

चन्द्रसेन पर शाही सेना का आक्रमण
1574 ई. में जब बादशाह अकबर अजमेर में था तब उसे चनद्रसेन के उपद्रव की सुचना मिली, चन्द्रसेन उस समय सिवाणा (बालोतरा) में था। अकबर ने बीकानेर के रायसिंह, शाहकुली खाँ महरम, शिमाल खाँ, केशोदास (मेड़ता जयमल का पुत्र), जगतराम आदि को चन्द्रसेन के विरुद्ध भेजा, शाही सेना के पहुँचते ही चन्द्रसेन सिरियारी पहुँच गया।
शाही सेना ने पीछा कर जब गढ़ को जला दिया तो चन्द्रसेन गोरम के पहाड़ों में चला गया।
शाही सेना के पीछा करने पर चन्द्रसेन को लगा कि बचना मुश्किल है. तब उसने सोजत के कल्ला से मिलकर केशवदास, महेशदास, पृथ्वीराज राठौड़ को अपने साथ मिला लिया।

पोकरण पर भाटियों का अधिकार
चन्द्रसेन का परिवार पोकरण दुर्ग में था।
अक्टूबर, 1575 ई. में जैसलमेर के हरराय भाटी ने सात हजार की सेना लेकर पोकरण दुर्ग को घेर लिया उस समय जैसलमेर का प्रशासन पंचोल आनन्द के पास था।
चार मास घेरा बंदी के बाद हरराय ने चन्द्रसेन से कहलवाया कि एक लाख फदिये में जैसलमेर दुर्ग मुझे दे दो जब जोधपुर तुम्हारे अधिकार में आये तों एक लाख देकर पोकरण वापस ले लेना।
उस समय चन्द्रसेन की आर्थिक स्थिति खराब थी, उसने मांग्लया भोज को पोकरण भेजकर कहलवाया कि दुर्ग हरराय को सौंप दो इस प्रकार 19 जनवरी, 1576 ई. एक लाख फदिये में जैसलमेर दुर्ग भाटियों को दे दिया।

चन्द्रसेन का डूंगरपुर, बाँसवाड़ा की ओर जाना
सिवाना दुर्ग हाथ से चले जाने के बाद चन्द्रसेन पीपलोद की पहाड़ियों में चला गया। फिर काणूजा की पहाड़ियों में चला गया, इसके बाद चन्द्रसेन मंडाड़ वहाँ से सिरोही चला गया, सिरोही डेढ साल रहा, इसके बाद चन्द्रसेन परिवार को यहा छोड़कर डुंगरपुर चला गया।
जब शाही सेना डूंगरपुर पहुंची तब चन्द्रसेन बाँसवाड़ा चला गया, बाँसवाड़ा के रावल प्रतापसिंह ने चन्द्रसेन को तीन-चार गाँव दिये इसके बाद चन्द्रसेन कोटड़ा मेवाड़ पहुँचा यहाँ महाराणा प्रताप से इनकी मुलाकात हुई।
1574 ई. में चन्द्रसेन के विरूद्ध जलाल खाँ को भेजा गया था, 1576 ई. में शाहबाज खाँ को भेजा गया था।
रावल सुखराज, सुजा, देवीसिंह चन्द्रसेन के सहयोगी थे। आर्थिक स्थिति खराब होने के बाद चन्द्रसेन ने सेठ साहूकारों को लूटा था। इस कारण चन्द्रसेन जनता के मध्य अलोकप्रिय थे।
1580 ई. के आस पास चन्द्रसेन अजमेर आ गया यहाँ उपद्रव किया. यहाँ पाइन्दा मौहम्मद खां सैयद कासिम को अकबर ने भेजा, चन्दसेन ने सामना किया लेकिन चन्द्रसेन की हार हुई।

चन्द्रसेन की मृत्यु
चन्द्रसेन बीजापुर से अपना परिवार लाकर सारण की पहाड़ी में रहने लगा इसके बाद वह सिंचियाई के पहाड़ों में रहा, जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार जब चन्द्रसेन सिंचियाई के पहाड़ों में था।
जब दूदोध का राठौड़ वैरसल कुंपावत चन्द्रसेन की सेवा में उपस्थित नहीं हुआ इस पर चन्द्रसेन ने उस पर आक्रमण किया तब वैरसल ने कहा चन्द्रसेन मेरे साथ भोजन करे तो मुझे उन पर विश्वास हो जाए इसके अनुसार चन्द्रसेन वैरसल के यहाँ भोजन करने गया लौटते ही उसकी मृत्यु हो गई इस कारण लोग अनुमान लगाते हैं कि चन्द्रसेन को जहर दे दिया था।

मोटा राजा उदयसिंह (1583-95 ई.)

अकबर ने 1581 से 83 ई. तक जोधपुर को खालसा क्षेत्र में रखा। मोटा राजा की उपाधि अकबर ने दी।
इसे एक हजार की मनसबदारी थी। मोटा राजा उदयसिंह जोधपुर का प्रथम शासक था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार करके वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए।

उदयसिंह के समय चारणों व ब्राह्मणों का जोहर
उदयसिंह ने चारण व ब्राह्मणों को भूमि दान में दी गई थी उसे वापस जब्त कर लिया इसके विरोध में चारणों ने आउवा में जोहर किया।

उदयसिंह की पुत्री का शहजादे सलीम से विवाह
1587 ई. में उदयसिंह की पुत्री मानमती/मानबाई/जगतगुसाई/जोधाबाई का विवाह- सलीम (अकबर का पुत्र) के साथ किया।
खुर्रम (शाहजहां) इसी का पुत्र था। इस विवाह के बाद अकबर ने उदयसिंह को एक हजार का मनसब व जोधपुर का राज्य दिया।
उदयसिंह की यह पुत्री जोधपुर की होने के कारण इसे जोधा बाई भी कहा जाता है।
इसकी मृत्यु 1595 ई. लाहौर में हुई।
मोटा राजा के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में राठौड़ों की नयी रियासत किशनगढ़ बसायी।

शूरसिंह (1595-1619 ई.)

ये अकबर व जहाँगीर के समकालीन थे।
जोधपुर में सूरसागर तालाब बनाया।
1613-15 ई. के मेवाड़ अभियान में शूरसिंह, खुर्रम (शाहजहाँ) के साथ था।
अकबर ने सवाई राजा की उपाधि शूरसिंह को दी थी।

शूरसिंह का खुर्रम के साथ महाराणा के विरुद्ध जाना
शहजादा परवेज, महावत खाँ, अब्दूला खाँ के अभियान असफल होने के बाद बादशाह जहाँगीर ने सोचा जब तक मैं स्वयं नहीं जाऊंगा राणा अमरसिंह अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे।
तब जहाँगीर 8 नवम्बर, 1613 ई. को अजमेर पहुँचा, इस अभियान में जहाँगीर स्वयं लिखता है मेरे इस अभियान के दो अभिप्राय थे प्रथम ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की जियारत करना व दूसरा महाराणा को काबू में करना जो हिन्दुस्तान के मुख्य राजाओं में से है।
बादशाह जहाँगीर स्वयं अजमेर रुका व बारह हजार की सेना देकर शहजादे खुर्रम को महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध भेजा इस समय शूरसिंह भी इनके साथ थे।
इनके दरबारी माधोदास धधवाड़िया ने रामरासो व दसमस्कंध ग्रंथ लिखा।

गजसिंह (1619-38 ई.)

जहाँगीर ने गजसिंह को दक्षिणी अभियान में सफलता हासिल करने के उपलक्ष में 'दल थम्बन' की उपाधि दी थी। 1623 ई. में गजसिंह को खुर्रम के विरुद्ध भेजा गया था (उत्तराधिकारी विद्रोह के कारण)।
गजसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह जहाँगीर के पुत्र परवेज से किया था। इनके दरबारी हेमकवि ने गुण भाष्य ग्रंथ लिखा। अन्य दरबारी केशवदास गाडस ने गजरूपक ग्रंथ लिखा।

जसवंतसिंह को उत्तराधिकारी बनाना
गजसिंह का बड़ा पुत्र अमरसिंह था लेकिन इसने उत्तराधिकारी जसवंत सिंह को बनाया इस विषय में जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है, अनार नाम की किसी नवाब की स्त्री से गजसिंह को प्रेम हो गया एक दिन जब जसवंत सिंह अनारा के महल में था। कुंवर जसवंतसिंह उसके पास गया, उसे देखते ही महाराजा व अनारा खड़े हो गये जसवंत सिंह ने उनके जूते उठाकर आगे रख दिये अनारा ने कहा आप ये क्या कर रहे हो मैं तो महाराज की दासी हूँ, तब जसवंत सिंह ने कहा आप मेरी माता के समान है। इस पर अनारा खुश हुई व महाराजा से जसवंत सिंह को ही उत्तराधिकारी बनाने का वचन लिया। अमरसिंह के स्वभाव के कारण अनारा उससे अप्रसन्न रहती थी व महाराजा से बुराई करती थी इस कारण महाराजा ने भी जसवंत सिंह को उत्तराधिकारी बना दिया। अनारा बेगम ने 'अनारा की बेरी' (जोधपुर) के नाम से बावड़ी का निर्माण किया।

अमरसिंह
यह शाहजहाँ के दरबार में चला गया था शाहजहाँ ने इसे राव की उपाधि दी व नागौर की जागीर दी, अमरसिंह के दो पुत्र रायसिंह व ईश्वर सिंह हुए।

नोट (मतीरे की राड़)
बीकानेर के खिलवा गाँव व नागौर के जोखणियाँ गाँव के मध्य मतीरे को लेकर विवाद हुआ। इस पर 1644 ई. में बीकानेर शासक कर्णसिंह व नागौर की तरफ से अमर सिंह के मध्य झगड़ा (राड़) हुआ था।
1644 ई. में आगरा के किले में शाहजहाँ के साले सलावत खां ने अमरसिंह को "गंवार" कहा, गंवार कहने कारण अमरसिंह ने दरबार में सलावत खां की हत्या कर दी व शाहजहाँ को मारने के लिए दौड़ा। दरबार में हड़कंप मच गया। अमरसिंह अपने घोड़े बादल सहित आगरा के किले से कूदा था, अमरसिंह के साले अर्जुनसिंह ने अमरसिंह को पकड़वा दिया। बाद में शाहजहाँ ने अर्जुनसिंह को भी मरवा दिया।
अमरसिंह ने जिस दरवाजे से प्रवेश किया था उसका नाम बुखारा दरवाजा था। इसका नाम अमरसिंह फाटक कर दिया व हमेशा के लिए बंद कर दिया।
1809 ई. में जॉर्ज स्टील ने इसे खुलवाया। नागौर दुर्ग में अमरसिंह की 16 खम्भों की छतरी स्थित है। ख्यालों में आज भी अमरसिंह के गीत गाए जाते हैं।
1970 में "वीर अमरसिंह राठौड़" नामक फिल्म भी बनी थी जिसका निर्देशक राधाकांत था।
बैसाख कृष्ण तृतीय के दिन धींगा गणगौर महाराणा अमरसिंह के समय में शुरू हुई।

महाराजा जसवंत सिंह (1638-78 ई.)

जसवंत सिंह का जन्म 1626 ई. में बुरहानपुर में हुआ था। जब इनके पिता की मृत्यु हुई तब वे बूँदी विवाह करने के लिए गए हुए थे। वहाँ से बादशाह से उन्हें अपने हाथ से टीका, जड़ाऊ, जमहार, चार हजार जात, चार हजार सवार का मनसब, राजा का खिताब दिया।
राज्याभिषेक के समय जसवंत सिंह की उम्र 12 वर्ष थी। अतः बादशाह ने आसोपा ठाकुर राजसिंह (कूपावत) को एक हजार जात और चार हजार सौ सवार का मनसब देकर जोधपुर का मंत्री बनाया।
1639 ई. में बादशाह ने जसवंत सिंह को 1000 जात 1000 सवार वृद्धि कर दी।
ये शाहजहाँ व औरंगजैब के समकालीन थे। शाहजहाँ के समय इन्हें 1645 ई. में आगरा का प्रबंधक नियुक्त किया गया तथा 1648 ई. को कांधार अभियान में भेजा गया
मुगल उत्तराधिकार युद्धों में जसवंतसिंह की भूमिका शाहजहाँ के चार पुत्र दारा, सूजा, औरंगजेब व मुराद थे। दारा संत प्रवृति का व धर्म सहिष्णु था उसे दिल्ली व पंजाब का क्षेत्र दिया गया।

नोट
दारा ने 50 उपनिषदों का श्री-ए-अकबर के नाम से संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था। अथर्ववेद का भी संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया गया था।
सूजा, को बंगाल का क्षेत्र दिया गया, औरंगजेब को दक्षिणी भारत व मुराद के पास गुजरात था।
1657 ई. में शाहजहाँ के मरने की झूठी खबर फैली तब सूजा व मुराद ने अपने-अपने क्षेत्र में स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। औरंगजेब ने चतुराई से सूजा व मुराद के साथ साम्राज्य विभाजन संधि कर ली।

बहादुरपुर का युद्ध (फरवरी, 1658 ई.) दारा v/s सूजा
शाही (दारा) सेना का नेतृत्व मिर्जा राजा जयसिंह व सूलेमान शिकोह कर रहे थे सूजा पराजित होकर बंगाल की तरफ भाग गया।

धरमत (उज्जैन) का युद्ध (अप्रैल, 1658 ई.)
दारा v/s औरंगजेब व मुराद की संयुक्त शाही सेना का नेतृत्व जसवंत सिंह व कासिम खाँ कर रहे थे।
इस युद्ध में जसवंतसिंह की पराजय हुई तथा वह भागकर जोधपुर आ गया। कहते हैं कि बूँदी की रानी (हाडी रानी) कर्मवती ने किले के द्वार नहीं खोले थे किन्तु इनमें सत्यता कम है।

सामूगढ़ (आगरा) का युद्ध मई, 1658 ई.
दारा v/s औरंगजेब, मुराद शाही सेना का नेतृत्व स्वयं दारा ने किया किन्तु पराजित होकर लाहौर की तरफ भाग गया। औरंगजेब ने आगरा व दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
31 जुलाई 1658 को दिल्ली में अपना अस्थायी राज्याभिषेक करवाया तथा 'आलमवीर' की उपाधि धार न की।
औरंगजेब का पूरा नाम- अबुल मुजफ्फर मुहीमद्दीन "अब्दुल मुज़फ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब बहादुर आलमगीर बादशाह जसवंत सिंह व औरंगजेब के मध्य सुलह हुई तथा जसवंत सिंह को माफ कर पुनः मनसबदार बना दिया।

खंजवा (U.P.) का युद्ध (जनवरी, 1659)
यह युद्ध से पूर्व औरंगजेब ने मुराद को बंदी बनाकर मथुरा किले में भेज दिया था। युद्ध की पूर्व रात्री पर जसवंत सिंह ने औरंगजेब के खेमें को लूटा तथा जोधपुर आकर लाहौर से दारा को आमंत्रित किया।
खाजुवा के इस युद्ध में औरंगजेब ने अपने भाई सूजा को पराजित कर दिया सूजा कामरून भाग गया जहाँ आदिवासियों ने उनकी हत्या कर दी।

दौराई/देवराई (अजमेर) का युद्ध (14 मार्च, 1659 ई.)
जसवंत सिंह द्वारा दारा को आमंत्रित तो किया गया किन्तु इसी बीच मिर्जा राजा जयसिंह ने जसंवतसिंह व औरंगजेब के मध्य सुलह करवा दी।
दारा अजमेर में आकर दोर-ई नामक स्थान पर औरंगजेब के हाथों पराजित हुआ।
अजमेर दुर्ग में भी शरण ली किन्तु यहाँ से भी दारा को भागना पड़ा। सीमान्त क्षेत्र में बंदी बनाकर दारा को कांकणबाड़ी दुर्ग (अलवर) में बंदी बनाकर रखा गया, बाद में उसकी हत्या कर दी गई।
15 मई, 1659 ई. को दिल्ली में प्रवेशः कर पुनः राज्याभिषेक उत्सव मनाया। शाहजहाँ को आगरा किले के मुस्मम बुर्ज में बंदी बनाकर रखा 1666 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
1659-62 ई. तक जसवंतसिंह गुजरात का सूबेदार रहे। 1662 ई. में दक्षिण भारत में मुअज्जम शाईस्ता खां के साथ जसवंत सिंह को शिवाजी के विरूद्ध भेजा।
अप्रैल 1663 को पुना दुर्ग में साहिस्ता खाँ पर शिवाजी का रात्रि आक्रमण प्रसिद्ध है।
1667 ई. में एक बार पुनः जसवंत सिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शिवाजी व औरंगजेब के मध्य सुलह (समझौता) हो गया। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की उपाधि दी।
इस अभियान में जसवंत सिंह का प्रमुख दरबारी कवि नैणसी व उसके भाई सुन्दरदास साथ में थे। किसी बात को लेकर जसवंत सिंह ने दोनों भाइयों की हत्या करवा दी।
1673-78 ई. तक जसवंत सिंह को काबुल क्षेत्र में नियुक्त किया गया जहाँ नवम्बर, 1678 ई. में जामरूद नामक स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। जसवंत सिंह ने काबुल क्षेत्र से अनार के पौधे लाकर जोधपुर में लगाया था आज भी जोधपुर के अनार प्रसिद्ध हैं।

जान सागर
रानी अतिरंगदे ने बनवाया था इसे शेखावत जी का तालाब भी कहते हैं। राई का बाग व कल्याण सागर तालाब दूसरी रानी जसवंत दे द्वारा रातानाड़ा क्षेत्र में बनवाए गए।
जसवंत सिंह ने 'भाषा भूषणम्' नामक ग्रंथ की रचना की। जसवंत सिंह को शाहजहाँ ने 'महाराजा' की उपाधि दी थी।

नोट
मुगल काल में सर्वाधिक सात हजार की मनसब पाने वाले राजपूत शासक-
  1. आमेर का मानसिंह।
  2. महाराजा जसवंत सिंह।
  3. आमेर का मिर्जा राजा जयसिंह।
जसवंत सिंह के मरते ही औरंगजेब ने कहा था कि 'आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया' जिसका अर्थ है आज मेरा धर्म विरोधी मारा गया।

जसवंत सिंह के दरबारी
  1. दलपत- मिश्र जसवन्त विलास
  2. नरहरिदास- अवतार चरित्र, रामचरित्र कथा।
  3. मुहणोत री नैणसी- नैणसी का जन्म 1610 ई में जोधपुर में ओसवाल परिवार में हुआ। 1658 ई. में नैणसी जसवंत सिंह के दिवान बने।

नैणसी की रचना
मुहणोत नैणसी री ख्यात- एकमात्र ख्यात जो चारणों ने नहीं लिखी। इस ख्यात की भाषा डिंगल हैं। ख्यात में कहीं भी 'ह' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ हैं।
ख्यात में प्रत्येक गाँव की जनसंख्या का वर्णन है। इस कारण नैणसी को राजस्थान जनगणना का अग्रज कहा जाता है। नैणसी ने राजपूतों की 36 शाखाएँ बताई हैं। नैणसी री ख्यात का हिन्दी अनुवाद रामनारायण दुग्गड़ ने किया।
नैणसी री ख्यात का संपादन श्री बद्रीप्रसाद साकरिया तथा नारायणसिंह भाटी ने किया।
मारवाड़ रा परगना री विगत- इसे मारवाड़ का गजेटियर कहा जाता है। मुंशी देवीप्रसाद ने नैणसी को 'राजपूताने का अबुल फजल' कहा है।

दुर्गादास
जन्म सालावास (जोधपुर ग्रामीण) में 1638 ई. जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण के पुत्र दुर्गादास ने खेत में ऊँट चराते राईका की हत्या कर दी।
जसवंत सिंह ने उसकी निडरता से खुश होकर कहा था "दुर्गादास सच्चा राजपूत है। कभी आवश्यकता पड़ी तो यही डगमगाते मारवाड़ की रक्षा करेगा।" दुर्गादास को मारवाड़ का उद्धारक, अणबिन्दया मोती व टॉड ने दुर्गादास को राठौड़ों को युलीसेस कहा।
दुर्गादास ने न केवल अजीतसिंह को मारवाड दिलाने में सहयोग दिया बल्कि अकबर के साथ मैत्री को भी पूर्ण किया।
जीवन के अन्तिम समय में अजीतसिंह ने उसे जोधपुर से निकाल दिया दुर्गादास मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय के यहाँ आ गए, अमरसिंह ने दुर्गादास को विजयपुर की जागीर व रामपुरा का हाकीम नियुक्त किया। 1718 ई. में दुर्गादास उज्जैन चले गए, दुर्गादास की छतरी क्षिप्रा उज्जैन में है।
1667 ई. में राजकीय धन के गबन का आरोप लगाकर नैणसी और उनके भाई सुन्दरदास को बन्दी बना लिया गया।
बन्दी अवस्था में जब नैणसी का औरंगाबाद से मारवाड़ लाया जा रहा था, तो फुलसरी (महाराष्ट्र) ग्राम में 1670 ई. में नैणसी ने आत्महत्या कर ली।

नोट
जसवंत सिंह की रचनाएँ-
  1. भाषा भूषण
  2. अपरोक्ष सिद्धान्तसार
  3. प्रबोध चन्द्रोदय
  4. आनंद विलास
  5. गीता महात्मय

जसवंत सिंह के निर्माण कार्य
  1. जानसागर- जसवन्तसिंह की रानी अतिरंदे ने जोधपुर में जानसागर तालाब बनवाया जिसे शेखावतजी का तालाब भी कहते हैं।
  2. कल्याण सागर- कल्याण सागर तालाब का निर्माण रानी जसवन्तदे ने जोधपुर में करवाया था इसे 'रतनाड़ा' भी कहा जाता है।
  3. राई का बाग- जोधपुर में स्थित 'राई का बाग' का निर्माण जसवन्तदे ने 1663 ई. में करवाया था।
  4. जसवन्तपुरा- महाराजा जसवन्तसिंह ने औरंगाबाद के समीप जसवन्तपुरा कस्बा बसाया था। यहाँ जसवन्तसागर तालाब बनवाया।
  5. महाराजा जसवन्तसिंह ने काबुल से अनार के बीज लाकर जोधपुर के कागा के बाग में लगवाये थे। माना जाता है कि इसीलिए जोधपुर के अनार अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध हैं।

अजीतसिंह (1678-1724 ई.)

अजीतसिंह को बादशाह निर्माता व डॉ. ओझा ने अजीत सिंह को कान का कच्चा कहा औरंगजेब जसवंतसिंह से नाराज रहता था। औरंगजब ने जसवंतसिंह को जामरूद (अफगानिस्तान) में नियुक्त कर दिया, जसवंतसिंह की मृत्यु की सूचना मिलते ही औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा कर दिया व ताहिर खां को जोधपुर का फौजदार नियुक्त कर दिया, और दक्षिण से राव अमरसिंह के पौत्र इन्द्रसिंह को जोधपुर की जागीर देने के लिये बुलाया।

जसवन्तसिंह के पुत्रों का जन्म
जोधपुर के राठौड़ सरदार जसवन्तसिंह की दोनों रानियों को लेकर जामरूद से रवाना हुए व लाहौर पहुँचे, वहाँ 19 फरवरी, 1679 ई. कुछ समय के अन्तराल से रानियों के अजीतसिंह व दलथंभन नाम के दो पुत्र हुए।
औरंगजेब ने जसवंतसिंह के पुत्रों को दिल्ली बुलवा लिया। औरंगजेब ने जोधपुर की जागीर अमरसिंह के पौत्र इन्द्रसिंह को दे दी व इन्द्रसिंह को राजा की उपाधि दी।

जसवंतसिंह के पुत्रों का दिल्ली से निकलना
जोधपुर के राठौड़ सरदार दिल्ली में किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की हवेली में ठहरे हुए थे। वहाँ से दुर्गादास राठौड़, चांपावत सोनिंग आदि अजीतसिंह को लेकर जोधपुर की ओर रवाना हुए।
टॉड के अनुसार राठौड़ों ने मिठाई के टोकरे में रखकर अजीतसिंह को दिल्ली से बाहर निकाला। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार दलथंभन की रास्ते में ही मृत्यु हो गयी। उधर जोधपुर में इन्द्रसिंह व्यवस्था नहीं बना पाया औरंगजेब ने इसे वापस बुला लिया।
अजीतसिंह को लेकर जब मारवाड़ पहुँचे तो जोधपुर पर औरंगजेब का कब्जा था। तब दुर्गादास अजीतसिंह को मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के पास लेकर गया, राजसिंह ने इन्हें शरण दी व अजीतसिंह को बारह गाँव सहित केलवे गाँव का पट्टा दिया। इस कारण औरंगजेब महाराणा राजसिंह से नाराज हो गया था।
1680 ई. में शहजादा अकबर मारवाड़ आया, अकबर को ये आदेश मिला था कि वह नाडौल पर अधिकार करे कुंभलगढ़ पर आक्रमण करे, अकबर को राजपूतों ने परेशान किया। राजपूतों ने अकबर को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया, अकबर से कहा कि बादशाह औरंगजेब राजपूतों को नाराज कर अपने साम्राज्य का पतन कर रहा है, इसलिए तुम बादशाह बनकर अपने पूर्वजों की तरह राज्य को मजबूत बनाओ।"
अकबर राजपूतों से मिल गया व बादशाह बनने के बाद अजीतसिंह को जोधपुर राज्य देने का वचन दिया। इसके बाद 1681 ई. में अजमेर में बादशाह, औरंगजेब पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
1681 ई. में अकबर ने अपने आप को बादशाह घोषित कर दिया। शहाबुद्दीन ने औरंगजेब को शहजादे के विद्रोह की सूचना दी। औरंगजेब ने तैयारियाँ शुरू कर दी, अकबर की सेना जब कुड़की के नजदीक पहुँची तो अकबर के सैनिक औरंगजेब की ओर मिलने लग गए, औरंगजेब ने अकबर के मुख्य सेनापति तहव्वर खां के पास यह संदेश पहुँचाया कि अगर वह अकबर का साथ छोड़ देगा और बादशाह के पास चला आयेगा तो उसका अपराध माफ कर दिया जायेगा वरना उसकी स्त्रियों को सबके सामने अपमानित किया जायेगा। उसके बच्चों को गुलामों की तरह बेचा जायेगा, यह धमकी सुनकर तहव्वर खाँ सोते हुए अकबर को छोड़कर औरंगजेब के पास चला आया यहाँ शाही नौकरों ने तहव्वर खाँ को मार दिया।
राजपूतों व शहजादे अकबर को अलग करने के लिये औरंगजेब ने एक चाल चली उसने एक जाली पत्र अकबर के नाम लिखा और कहा "तुम राजपूतों को धोखा देकर मेरे सामने ले आये यह अच्छा काम किया, अब तुम ऐसा करो राजपूतों को हरावल सेना में रखो और प्रातःकाल हम उन पर आक्रमण कर देंगे।"
यह पत्र औरंगजेब ने किसी प्रकार दुर्गादास तक पहुँचा दिया, दुर्गादास को संदेह हुआ, दुर्गादास रात्रिकाल में ही अकबर को छोड़कर मारवाड़ की ओर रवाना हुआ। शहजादे अकबर का धीरे-धीरे सबने साथ छोड़ दिया अब शहजादे अकबर के पास 350 सैनिक रहे, और अकबर के पास भागने के अलावा कोई उपाय नहीं रहा, अकबर दो दिन तक भागता रहा इस बीच राठौड़ों को औरंगजेब के छल का पता लग गया। दुर्गादास ने शहजादे अकबर को अपनी शरण में ले लिया। शहजादा मुअज्जम अकबर का पीछा कर रहा था।
दुर्गादास दक्षिण में भी शहजादे अकबर के साथ रहा, अब दुर्गादास वापस मारवाड़ आ रहा था शहजादे अकबर ने अपने परिवार की जिम्मेदारी दुर्गादास पर छोड़ी। शहजादा अकबर फारस की ओर चला गया।
जब अजीतसिंह की उम्र आठ वर्ष हो गयी, तब 1743 ई. में राठौड़ सरदार इकट्ठा हुए। सिरोही के पालड़ी गाँव में नागणेची माता की पूजा की, सरदारों ने नजरें उतारी, इसके बाद अजीतसिंह कुछ दिनों तक छप्पन की पहाडियों में रहे वहाँ महाराणा जयसिंह ने उन्हें आश्रय दिया।

अकबर के पुत्र-पुत्रियों को बादशाह को सौंपना
शहजादे अकबर 1681 ई. में दक्षिण में जाने से पूर्व अपने पुत्र सुल्तान बुलंद अख्तर और पुत्री सुफि‌यानिस्सा बेगम को दुर्गादास के पास छोड़कर गया था।
औरंगजेब ने अपने पौत्र व अपनी पौत्री को प्राप्त करने का कार्य सुजात खाँ को सौंपा। दुर्गादास ने इन दोनों को गिरधर जोशी के संरक्षण में रखा था। इन्हें इस्लाम धर्म की शिक्षा भी दी जाती थी। दुर्गादास ने कहा "औरंगजेब मेरे घर की रक्षा का वचन, आने-जाने की सुविधा का वचन दे तो मैं उसके पौत्र व पौत्री को सौंप दूँगा।" बादशाह ने शर्त स्वीकार कर ली। औरंगजेब के दरबार में शहजादी सफीयतन्निसा के साथ ईसरदास गया था।
दरबार में औरंगजेब ने कहा शहजादी के लिये इस्लाम धर्म की शिक्षा के लिये कोई शिक्षिका नियुक्त की जाये, इस पर शहजादी ने कहा दुर्गादास ने मेरी इस्लाम की शिक्षा के लिये अजमेर से एक मुसलमान शिक्षिका को नियुक्त किया था मुझे कुरान कंठस्थ है। औरंगजेब इस बात से खुश हुआ व दुर्गादास के पीछे के सभी अपराध माफ कर दिए।
इधर दुर्गादास व अजीतसिंह भी भटकते भटकते परेशान हो गये, बादशाह ने अजीतसिंह को मनसबदारी दी, जालौर, सांचौर व सिवाणा की जागीर दी बदले में शहजादा बुलंद अख्तर बादशाह औरंगजेब को सौंप दिया। औरंगजेब ने दुर्गादास को 3000 का मनसबदार बनाया। बादशाह ने दुर्गादास को पाटण (गुजरात) का फौजदार नियुक्त किया।

अजीतसिंह का जोधपुर पर अधिकार
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होते ही अजीतसिंह ने जोधपुर पर आक्रमण किया व जोधपुर के फौजदार जाफर कुल्ली को भगा दिया व अपने पैतृक राज्य पर वापस अधिकार कर लिया।

दुर्गादास को मारवाड़ से निकालना
वीरता, स्वामिभक्ति, युद्धकौशल के कारण अजीतसिंह से ज्यादा दुर्गादास की प्रतिष्ठा हो गई।
तब अन्य लोगों के बहकावे में आकर अजीतसिंह ने दुर्गादास को मारवाड़ से निकाल दिया।
दुर्गादास मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय के यहाँ आ गये। महाराणा ने इन्हें विजयपुर की जागीर दी।

इन्द्रकँवरी का विवाह
अजीतसिंह की पुत्री इन्द्रकँवरी की डोली 1715 ई. में बादशाह फर्रूखसियर के लिये दिल्ली भेजी गई।
इनके साथ भंडारी खींवसी सपरिवार गया।
बादशाह फर्रुखसियर का विवाह इन्द्रकँवरी से हुआ। ये अंतिम मुगल-राजपूत विवाह माना जाता है।

अजीतसिंह को बादशाह ने 'राजेश्वर' की उपाधि दी
महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर में फतेहमहल व दौलतखाने का राजमहल बनवाया।
जोधपुर में मूलनायक जी का मंदिर बनवाया। घनश्याम जी का मंदिर राव गंगा ने बनवाया था।
जब जोधपुर पर मुगलों का अधिकार हुआ तब मुगलों ने इसे तोड़कर मस्जिद में बदल दिया था। अजीतसिंह ने इसे पुनः मंदिर में बदल दिया था।
अजीतसिंह भाषा का अच्छा विद्वान था इसने गुणसागर, दुर्गापाठ, निर्वाणदूहा आदि ग्रन्थ लिखे। अजीतसिंह ने 'अजीतविलास' नामक सौ दोहों का सकंलन लिखा।
अजीतसिंह ने 'अजीतसिंह रा गीत' व 'अजीतसिंह री कविता' नामक ग्रन्थ लिखे। अजीतसिंह को ओझा ने कान का कच्चा कहा है।
भट्ट जगजीवन ने 'अभयोदय' ग्रन्थ लिखा। वीरभाण ने 'राजरूपक' ग्रन्थ लिखा। माधोराम ने 'शाल भक्ति प्रकाश' ग्रन्थ लिखा। अजीतसिंह को 'बिहारी सतसई' प्रिय थी। कवि सुरति मिश्र ने बिहारी सतसई पर 'अमर चन्द्रिका' नामक टीका लिखी। अजीतसिंह को कान का कच्चा भी कहा जाता है क्योंकि इसने साधारण सी शिकायतों पर कई अच्छे कर्मचारियों व सेवकों के साथ बुरा व्यवहार किया था।

नोट
अजीत सिंह की रचनाएँ-
  • गुणसागर
  • दुर्गापाठ भाग
  • निर्वाण दूहा
  • अजीतसिंह रा दूहा
  • अजीत सिंह रा गीत
  • अजीत सिंह री कविता
  • दूहा श्री ठाकुरा रा

अजीतसिंह की मृत्यु
कुँवर अभयसिंह जब दिल्ली में था तब महाराजा जयसिंह व अन्य मुगल सरदारों ने उसे समझाया कि फर्रूखसियर को मरवाने में अजीतसिंह का हाथ था। इस कारण बादशाह अजीतसिंह से नाराज है। यदि तुम मारवाड़ को बचाना चाहते हो तो अजीतसिंह को मरवा दो। तब अभयसिंह ने छोटे भाई बख्तसिंह से 1724 ई. में जनाने में सोते हुए अजीतसिंह को मरवा दिया।
कामवरखाँ, अजीतसिंह की मृत्यु का कारण दूसरा बताता है इसके अनुसार अजीतसिंह का अपनी पुत्रवधु बख्तसिंह की पत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध थे इस कारण बख्तसिंह ने उसकी हत्या कर दी।
ये तथ्य कहाँ तक सत्य है कह नहीं सकते क्योंकि अन्य कोई इतिहासकार इसका जिक्र नहीं करता।

महाराजा अभयसिंह (1724-49 ई.)
अभयसिंह का जन्म 1702 ई. में जालौर में हुआ। अजीतसिंह की मृत्यु के बाद जोधपुर की राजगद्दी पर बैठा। बादशाह ने इसे 7000 की मनसबदारी दी।
अभयसिंह ने बख्तसिंह को 'राजाधिराज' की उपाधि व नागौर का ठिकाना दिया। अभयसिंह ने 1734 के हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया था।

अहमदाबाद का युद्ध
अभयसिंह व सरबुलंद खां के मध्य हुआ, इस युद्ध का प्रत्यक्ष वर्णन राजरूपक ग्रंथ में वीरभान ने किया है।

खेजड़ली की घटना (28 अगस्त, 1730 ई., जोधपुर)
गिरधरदास भण्डारी खेजड़ली गाँव में लकड़ियाँ काट रहा था। रामो बिश्नोई की पत्नी अमृतादेवी के नेतृत्व में 363 (69 स्त्री व 294 पुरुष) लोगों ने वृक्ष रक्षा बलिदान दिया।
इनकी याद में भाद्रपद शुक्ल दशमी को खेजड़ली में मेला भरता है।

नोट
खेजड़ी वृक्ष की पूजा आश्विन शुक्ल दशमी को व खेजड़ली दिवस 12 सितम्बर को मनाया जाता है।

अभयसिंह ने जोधपुर के चाँदपोल के बाहर 'अभयसागर' नामक तालाब बनाना प्रारम्भ किया जो उनके जीवन में पूर्ण नहीं हो सका। मण्डौर में महाराजा अजीतसिंह का स्मारक बनाना प्रारम्भ किया वह भी पूर्ण नहीं हो सका। अभयसिंह ने चारवां नामक जगह पर बाग बनवाया। सीतारामजी का मन्दिर बनवाया। जोधपुर के दुर्ग का पक्का परकोटा बनवाया। चाकेलाव कुआँ बनवाया।
अभयसिंह के दरबारी करणीदान ने 'सूरजप्रकाश' ग्रन्थ लिखा। इसमें रामचन्द्र व पुंजराज व उनसे चलने वाली तेरह शाखाओं का वर्णन है। जयचंद से लेकर अजीतसिंह तक संक्षिप्त विवरण व अभयसिंह व सरबुलन्द खां की लड़ाई का विवरण है। करणीदान ने सरबुलन्द खाँ के साथ लड़ाई का विवरण छन्दों में काव्य रूप से लिखकर 'विरद शृंगार' नामक ग्रन्थ लिखा व अजीतसिंह को सुनाया। महाराजा ने खुश होकर लाखपसाव में आलावास गाँव व कविराजा की उपाधि दी। करणीदान के सम्मान में उसे हाथी पर बैठाकर स्वयं घोड़े पर बैठकर मण्डौर से घर तक छोड़ने के लिये गये।
अवैसी के दरबारी पृथ्वीराज ने अभयविलास ग्रंथ लिखा व जगजीवन राम ने अभयोदय ग्रंथ लिखा।
अभयसिंह ने हुरड़ा सम्मेलन में भाग लिया था।

रामसिंह (1749-50 ई.)

इसका जन्म 1730 ई. में हुआ। अभयसिंह की मृत्यु के बाद 1749 ई. में राजगद्दी पर बैठा।

बख्तसिंह का जोधपुर पर अधिकार
बख्तसिंह ने गजसिंह के साथ मिलकर जोधपुर पर आक्रमण किया। दुर्ग में सुजानसिंह भाटी, पोकरण के देवीसिंह ने दुर्ग बख्तसिंह को सौंप दिया। किले में गजसिंह ने बख्तसिंह को राजगद्दी पर बैठाया। गजसिंह वापस अपनी रियासत बीकानेर चले गए। महाराजा रामसिंह का व्यक्तित्व सही नहीं होने के कारण मात्र दो वर्ष तक ही शासन कर पाए और जोधपुर का सिंहासन इनके हाथ से निकल गया।

बख्तसिंह (बड़ा) (1750-52 ई.)

अभयसिंह (छोटा) के भाई व नागौर शासक बख्तसिंह ने अभयसिंह के पुत्र रामसिंह को पराजित कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया। इसका जन्म 1706 ई. में हुआ था।
1752 ई. में ही सोनौली गाँव में बख्तसिंह की मृत्यु हो गयी। बख्तसिंह का शासन लगभग एक वर्ष तक ही रहा। इन्होंने आनन्दघन का मन्दिर बनवाया था।

विजय सिंह (1752-93 ई.)

बख्तसिंह का पुत्र रामसिंह ने इसके विरुद्ध जयप्पा सिधिंया के सहयोग से 1754 ई. में जोधपुर के आधे राज्य को प्राप्त करने में सफलता हासिल की। 1772 ई. में रामसिंह की मृत्युपरान्त विजयसिंह ने पुनः पूरे मारवाड़ राज्य पर अधिकार कर लिया।

रामसिंह की नागौर घेराबंदी
विजयसिंह नागौर दुर्ग में था तब रामसिंह व जयप्पा ने वहाँ पहुँचकर ताऊसर (नागौर) में अपना शिविर लगाया।
1754 ई. में नागौर को घेर लिया और 50000 सेना के साथ जयप्पा के पुत्र जनकू ने जोधपुर पर आक्रमण किया।
जनकू ने अपना शिविर अभयसागर के पास लगाया। उस समय जोधपुर दुर्ग हरसोलाव के ठाकुर चांपावत सूरतसिंह व शोभावत गोयन्ददास खीची के नियंत्रण में था।
विजयसिंह के सहयोगी खोखर केसर खाँ एवं गहलोत सरदार एक दिन उपयुक्त समय देखकर जयप्पा को मार दिया और ये दोनों भी मारे गये।
1766 ई. में जोधपुर में 'रेख बाब' नामक कर लगना शुरु हुआ, 1766 ई. में ही विजयसिंह नाथद्वारा गए और वैष्णव धर्म स्वीकार किया व जोधपुर में शराब व माँस की बिक्री पर रोक लगाई।
विजयसिंह ने भरतपुर के जाट शासक जवाहर सिंह से पुष्कर में मुलाकात की व 1767 ई. में जवाहर सिंह व विजयसिंह पुष्कर में पगड़ी बदलकर भाई बने व जाट राजपूत एकत्रित होकर 'मरहटों व नजीब खाँ (रुहेला) को दबाने की प्रतिज्ञा की।
दिल्ली में मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया तब राजपूताने के कई राजाओं ने टकसालें बनवाई व सिक्कें चलाए। महाराजा विजयसिंह ने 1781 ई. में शाहआलम द्वितीय के समय जोधपुर में टकसाल खोली व 1858 ई. में शाहआलम नाम से सोना-चाँदी व ताँबे के सिक्के चलाए। विजयसिंह के समय बने सिक्के 'विजयशाही' कहलाए इन सिक्कों पर शाहआलम द्वितीय का नाम था।

गुलाबराय को मरवाना
महाराजा की पासवान रानी गुलाबराय का प्रभाव अधिक था, गुलाब राय के कहने पर विजय सिंह ने पशु वध व शराब बिक्री पर रोक लगाई इस कारण सभी सरदार उससे नाराज थे।
गुलाबराय, मानसिंह के पक्ष में थी व सरदार, भीमसिंह को राजा बनाना चाहते थे। पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह व रास का ठाकुर जवानसिंह ने गुलाबराय को झूठा आश्वासन देकर दुर्ग से चलने के लिए तैयार किया जैसे ही वह पालकी में बैठकर चलने लगे सरदारों ने गुलाबराय को मार दिया इस कार्य में पाली का ठाकुर रूपावत सरदारसिंह मुख्य था।

नोट
गुलाबराय ने 'गुलाबसागर' तालाब, जालौर के गढ़ के महल, सोजत का कोट, व 'कुंजबिहारी' का मन्दिर बनवाया था।
'वीरविनोद' के लेखक श्यामलदास ने गुलाबराय को 'मारवाड़ की नूरजहाँ' कहा है।
विजयसिंह के समय बिशनसिंह बारहठ नामक कवि ने 'विजयविलास' नामक ग्रन्थ लिखा।
विजयसिंह ने नाथों से निपटने हेतू नागों व दादू पंथियों की सेना तैयार की

भीमसिंह (1793-1803 ई.)

महाराजा भीमसिंह का जन्म 1766 ई. में हुआ। भीमसिंह ने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया था।
भीमसिंह के समय हरिवंश भट्ट ने 'भीमप्रबंध' नामक संस्कृत में ग्रन्थ लिखा। इनके समय रामकर्ण ने 'अलंकारसमुच्चय' नामक पुस्तक लिखी।
मेवाड़ की कृष्णा कुमारी का रिश्ता भीमसिंह से हुआ था।

मानसिंह (1803-43 ई.)

मानसिंह का जन्म 1783 ई. में हुआ। जब मानसिंह जालौर में था तब जोधपुर की सेना ने जालौर को घेर लिया, मानसिंह ने जालौर दुर्ग छोड़ने का निर्णय लिया, जालौर दुर्ग के अन्दर 'जलन्धरनाथ' का एक मन्दिर था वहाँ का पुजारी आयस देवनाथ था।
आयस देवनाथ ने मानसिंह से कहा "कि मुझे जलन्धरनाथ की आज्ञा हुई है कि आप कार्तिक सुदी 6 तक अगर दुर्ग न छोड़े तो जोधपुर राज्य भी आपके अधिकार में आ जायेगा।" तब मानसिंह ने कहा "अगर ऐसा हुआ तो मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरे राज्य में आपकी आज्ञा चलेगी" महाराजा ने कार्तिक सुर्दा 6 तक गढ़ खाली नहीं किया इसी बीच कार्तिक सुदी 4 को महाराजा भीमसिंह की मृत्यु हो गई।
सभी सरदारों ने मिलकर मानसिंह को राजा बना दिया। 1804 ई. में मानसिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे और पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
मानसिंह के समय जसवन्त राव होल्कर डीग की लड़ाई में अंग्रेजों से हारकर जयपुर के हरमाड़ा गाँव में आया था। मानसिंह के साथ भाई-चारा हो गया, होल्कर मालवा की ओर चला गया।

आयस देवनाथ को बुलाकर गुरु बनाना
जालौर घेरे के समय देव आयसनाथ ने जो घोषणा की थी वह सत्य हुई। मानसिंह ने सोड़ सरूप को भेजकर आयस देवनाथ को बुलवाया, महाराजा स्वयं अगवानी करने के लिए गये और आयस देवनाथ को अपना गुरु बनाया।
गुलाब सागर के ऊपर मन्दिर बनवाकर वहाँ सेवा का कार्य सूरतनाथ को सौंपा। राजकार्य में देव आयसनाथ की सलाह प्रमुख मानी जाने लगी।

महामन्दिर का निर्माण - जोधपुर
नाथ सम्प्रदाय के लिये मानसिंह ने महामन्दिर का निर्माण राजा बनते ही प्रारम्भ कर दिया था।
1805 ई. में पूर्ण होने पर देव आयसनाथ को इसका प्रमुख बना दिया। महामन्दिर नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर है।

कृष्णाकुमारी को लेकर गिंगोली का युद्ध 1807 ई. (परबतसर डीडवाना कुचामन)
भूतपूर्व महाराजा भीमसिंह के साथ उदयपुर के महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णाकुमारी का रिश्ता तय हुआ था लेकिन 1803 ई. में भीमसिंह की मृत्यु हो गई तब महाराणा ने अपनी पुत्री की सगाई जयपुर के जगतसिंह से कर दी।
पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने मानसिंह से कहा कि कृष्णाकुमारी का रिश्ता भीमसिंह से हुआ। अब जयपुर हो रहा है ये ठीक नहीं है। इधर महाराणा भीमसिंह ने जयपुर के लिए टीका रवाना कर दिया।
जब ये समाचार मानसिंह को मिला तो वह 1806 ई. में मेड़ता पहुँचा व सेना इक‌ट्ठी की जसवन्तराय होल्कर को भी निमन्त्रण भेजा। महाराजा ने टीका जयपुर नहीं पहुँचने दिया।
टीका शाहपुरा होते हुए वापस उदयपुर पहुँच गया। ये समाचार जब जयपुर के जगतसिंह के पास पहुँचा तो वह भी सेना लेकर रवाना हो गया। इसी बीच अमीर खाँ पिण्डारी (टोंक) महाराणा भीमसिंह के पास पहुँचा और कहा "या तो आप कृष्णाकुमारी का विवाह मानसिंह के साथ करें या उसे मरवा दें वरना मैं आपके मेवाड़ को बरबाद कर दूँगा।"
मेवाड़ की दशा उस समय कमजोर थी लाचार होकर महाराणा को इस ओर ध्यान देना पड़ा।
महाराणा ने जवानदास (महाराणा अरिसिंह द्वितीय का पासवान पुत्र) को राजकुमारी को मारने के लिए भेजा लेकिन जवानदास ये कार्य नहीं कर पाया।
जब सारी घटना का कृष्णाकुमारी को पता चला तो उसने प्रसन्नता से जहर पी लिया। 1810 ई. में कृष्णाकुमारी की मृत्यु हो गई।
कृष्णाकुमारी से सम्बन्धित इस विवाद का मूल कारण महाराजा मानसिंह की अविवेक्ता का परिणाम है।
सगाई की हुई कन्या का भावी वर यदि पूर्व में मारा जाये तो वह कन्या कुँआरी ही मानी जाती है, उस कन्या का विवाह उसका पिता अपनी इच्छानुसार कहीं भी कर सकता है।
यह शास्त्रोक्त और व्यावहारिक नियम है ऐसी स्थिति में मानसिंह का ये हठ उचित नहीं कहा जा सकता।

अमीर खाँ द्वारा आयस देवनाथ को मरवाना
अमीर खाँ जोधपुर आया। जोधपुर में देव आयसनाथ की ही चलती थी. मानसिंह उन्हीं के कहने पर कार्य करता था जिससे सरदार भी उससे नाराज थे। शेखावत जी के तालाब पर अमीर खाँ का डेरा था तब अखैचंद व ज्ञानमल ने कहलाया कि अगर आप देव आयसनाथ को मार दें तो हम आपको खर्च देंगे।
अमीर खाँ के कुछ आदमियों ने जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया देव आयसनाथ व इन्द्रराज को मार दिया।
देव आयसनाथ की मृत्यु पर महाराजा दुखी हुए और बाहर आना-जाना तथा राजकार्य भी छोड़ दिया।

ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि
महाराजा ने 6 जनवरी, 1818 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली जिसकी कुछ शर्तें निम्न थी:-
एक के मित्र व शत्रु दोनों के मित्र व शत्रु होंगे।
अंग्रेज सरकार जोधपुर राज्य की रक्षा की जिम्मेदारी लेती है।
मानसिंह व उसके उत्तराधिकारी दूसरे राज्यों के राजाओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
जोधपुर राज्य की तरफ से सिंधिया को दिया जाने वाला खिराज (चौथ) अब अंग्रेजों को दिया जायेगा।
आवश्यकता होने पर जोधपुर को पंद्रह हजार सवार अंग्रेजों को देने होंगे।
1819 में महाराजा मानसिंह के समय कर्नल जेम्स टॉड भी जोधपुर आया था।

उदयमन्दिर की स्थापना- जोधपुर
देवनाथ की मृत्यु के बाद महामन्दिर का अधिकार देवनाथ के भाई भीमनाथ ने ले लिया। देवनाथ का पुत्र लाडूनाथ को भीमनाथ परेशान करता था।
लाडूनाथ ने मानसिंह से इस विषय पर चर्चा की तो मानसिंह ने महामंदिर की तरह उदयमन्दिर का निर्माण करवाया व भीमनाथ को इसका प्रमुख बनाया और लाडूनाथ को महामन्दिर का प्रमुख बनाया।
1831 ई. में लार्ड विलियम बेंटिक अजमेर आया सभी राजपूत नरेश वहाँ उपस्थित हुए लेकिन महाराजा मानसिंह वहाँ नहीं गये।

एरिनपुरा में छावनी की स्थापना (1835 ई.)
सिरोही, गौंड़वाड़ और जालौर क्षेत्र में चोरियाँ बढ़ गई थी। तब छावनी बनाना आवश्यक हो गया। तब सिरोही के एरिनपुरा में अंग्रेज सरकार की तरफ से सेना रखी गई।
यहाँ रखी जाने वाली सेना के अफसर मेजर डाउनिंग ने अपनी जन्मभूमि 'एरन' के नाम पर इसका नाम 'एरिनपुरा' रखा। यहाँ पर 'जोधपुर लीजन' के सैनिक रखे गये।

अंग्रेजों द्वारा नाथों को गिरफ्तार करना और महाराजा का संन्यासी बनना
1842 ई. के आस-पास जोधपुर में नाथों का प्रभाव अधिक बढ़ गया। नाथ जबरदस्ती लोगों को चेला बनाने लगे, इनके भोजन आदि की व्यवस्था राज्य की ओर से होती थी।
राज्य खर्च बढ़ने से प्रजा पर अतिरिक्त कर बढ़ गया। अंग्रेजों ने कुछ नाथों को गिरफ्तार करके अजमेर भेज दिया नाथों की गिरफ्तारी पर महाराज को दुःख हुआ, राजकार्य में भाग लेना छोड़ दिया, गेरूआ वस्त्र धारण करके स्वयं भी साधु की तरह रहने लगे इस कारण मानसिंह को संन्यासी राजा भी कहा जाता है और वे मेड़तिया दरवाजे के बाहर बावड़ी के निकट रहने लगे।

मानसिंह के समय का साहित्य
मानसिंह ने 'कृष्ण-विलास' नामक ग्रन्थ लिखा व 'मानपद्य संग्रह' नामक दूसरा काव्य ग्रन्थ लिखा। इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाने का श्रेय बीकानेर के रामगोपाल मेहता को है।
मानसिंह ने नाथों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे नाथ चरित्र, नाथ जी की वाणी, नाथ कीर्तन, नाथ महिमा, नाथ पुराण, नाथ संहिता आदि। मानसिंह ने बिहारी सतसई पर टीका भी लिखी।
मानसिंह ने न्याय साहित्य व संगीत की जानकारी के लिए चौरासी पदार्थ नामावली की रचना की।

कवि बांकीदास
ये मानसिंह के दरबार में थे। इनका जन्म भाण्डियावास, पचपदरा (बालोतरा) में हुआ। इनकी प्रसिद्ध रचना 'बांकीदास री ख्यात' है।
डींगल भाषा का सर्वप्रथम प्रयोग बांकीदास ने 'कुकवि बतिसी' रचना में की। "आयो अंग्रेज मुल्क रे ऊपर" की रचना बांकीदास ने की थी।
गुरु आयसदेव नाथ ने इनके शासक बनने की भविष्यवाणी की थी। मानसिंह ने जोधपुर में नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख केन्द्र 'महामन्दिर' का निर्माण करवाया था।
कृष्णा कुमारी के विवाद को लेकर आमेर के साथ संघर्ष किया।
चार्ल्स मैटकॉफ नामक अंग्रेज अधिकारी के कहने पर 6 जनवरी 1818 ई. को जोधपुर ने सहायक संधि स्वीकार कर ली थी। अर्थात अंग्रेजी झण्डे की शरण ले ली थी।
मानसिंह पुस्तक प्रकाश पुस्तकालय-मेहरानगढ़ दुर्ग में जिसका निर्माण मानसिंह ने करवाया था।

तख्तसिंह (1843-73 ई.)

1857 ई. की क्रांति के समय मारवाड़ का शासक तख्तसिंह ही था। तख्तसिंह के राज्याभिषेक में पॉलिटिकल एजेंट लुडलो आया था। तख्तसिंह ने जोधपुर में श्रृंगार चौकी बनवाई, यहाँ जोधपुर राजाओं का राजतिलक होता था, राजतिलक बगड़ी गांव के जेतावत करते थे। बिजोलाई महल बनवाया था।
तख्तसिंह ने मेयों कॉलेज की स्थापना के लिये 1 लाख रुपये चंदा दिया था। इसके शासन काल में मारवाड़ में प्रथम छापाखाना व स्कूल खोली गई।
तख्तसिंह ने मारवाड़ में कन्यावध व जीवित समाधि पर रोक लगाई।
जोधपुर दुर्ग में चामुण्डा माता मन्दिर बनवाया।
1870 ई. में तख्तसिंह ब्रिटिश सरकार के साथ 'नमक संधि की'।

जसवन्त सिंह द्वितीय (1873-95 ई.)

इसके समय स्वामी दयानंद सरस्वती जी जोधपुर आये थे। जसवन्त सिंह का भाई प्रतापसिंह, जोधपुर राज्य का प्रधानमंत्री था। प्रतापसिंह ने ही स्वामी दयानंद सरस्वती जी को जोधपुर बुलाया था।
जसवन्त सिंह ने लंदन में हुए विक्टोरिया के 50 वर्ष के शासन में गोल्डन जुबली समारोह में प्रतापसिंह को भेजा था। जसवन्त सिंह ने बिलाड़ा के पास जसवन्त सागर बाँध भी बनवाया था।
1884 ई. जोधपुर नगरपालिका स्थापना की।
यशवंत यशोभूषण ग्रंथ बारहठ मुरारीदान ने लिखा।

नोट
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 1824 ई. में टंकारा, शिवपुर गाँव गुजरात में हुआ था। इनके बचपन का नाम मूलशंकर था। इन्होंने 1845 ई. में 21 वर्ष की आयु में घर त्याग दिया था।
1860 ई. में मथुरा के बृजानंद से ज्ञान प्राप्त किया। 1874 ई. में 'सत्यार्थ प्रकाश' ग्रन्थ की रचना की। सत्यार्थ प्रकाश की भाषा हिन्दी है।
10 अप्रैल, 1875 ई. में इन्होंने मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। 1877 ई. में लाहौर में आर्य समाज की स्थापना की।
राजस्थान में आर्य समाज की स्थापना 1881 ई. अजमेर में हुई। राजस्थान में आर्य समाज का मुख्य केंद्र अजमेर में है।
आर्य समाज को सैनिक हिन्दुत्व कहा जाता है। सरस्वती जी ने वेदों की ओर लौटो नारा दिया था।
स्वराज्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ही किया था। इन्हें दयानन्द सरस्वती नाम पूर्णानन्द महाराज ने दिया था।
सरस्वती जी ने इसाईकरण के विरूद्ध 'शुद्धि आन्दोलन' चलाया। शुद्धि आन्दोलन का उद्घाटन जोबनेर (जयपुर ग्रामीण) से लेखराम आर्य ने किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी व राजस्थान
सरस्वती जी राजस्थान में सर्वप्रथम करौली शासक मदनपाल के यहाँ आये थे।
सरस्वती जी दूसरी बार राजस्थान में मेवाड़ शासक सज्जनसिंह के यहाँ आये थे। यहाँ इन्होंने 1883 ई. में 'परोपकारिणी सभा' की स्थापना की जिसका अध्यक्ष सज्जनसिंह को बनाया। उदयपुर में सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का कुछ भाग भी लिखा था।
सरस्वती जी तीसरी बार जोधपुर शासक जसवन्त सिंह के यहाँ आये थे। यहाँ नन्हीं जान वेश्या ने उन्हें जहर दे दिया। वे जोधपुर से आबू लाये गये फिर अजमेर, सरस्वती जी की मृत्यु अजमेर में हुई थी।

सरदार सिंह (1895-11 ई.)

इन्होंने जोधपुर में जसवन्त थड़ा का निर्माण करवाया। इसे एक थम्बिया महल/राजस्थान का ताजमहल भी कहते हैं।
इनका समय जोधपुर पोलो घर कहलाता था।
इन्होंने 1900 ई. चीन बक्सर युद्ध अंग्रेजों की सहायता हेतु सेना भेजी। इस कारण मारवाड़ के झण्डे ने 'चाइना 1900' लिखा है।
1895 ई. में वायसराय लॉर्ड एल्गिन जोधपुर आये तब सरदार सिंह ने जसवंत जनाना अस्पताल व एल्गिन राजपूत स्कूल बनवायी।
जोधपुर में घंटाघर बनवाया।

सुमेर सिंह (1911-18 ई.)

1911 ई. के जॉर्ज पंचम के राज्यरोहरण में गये व 1911 ई. में दिल्ली दरबार में भाग लिया। प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों की सहायता की।
इनकी मृत्यु इन्फ्लूएजा रोग से हुई।

उम्मेद सिंह (1918-1947 ई.)

इसे 'मारवाड़ का निर्माता या मारवाड़ का कर्णधार' कहते हैं। इन्होंने पाली में जवाई नदी पर जवाई बाँध का निर्माण करवाया। इन्होंने जोधपुर में 'छितर पैलेस उम्मेद भवन' बनवाया था। 1929-39 ई. के मध्य अकाल राहत कार्य के तहत।
1933 ई. में मारवाड़ राज्य का नाम जोधपुर कर दिया गया।
1927 ई. जोधपुर इम्पीरियल बैंक शाखा खुली।
1932 ई. जोधपुर बिडम अस्पताल निर्माण करवाया। इसे वर्तमान 'महात्मा गाँधी अस्पताल' कहते हैं।

हनुमन्त सिंह (1947-1952 ई.)

आजादी व एकीकरण के समय जोधपुर का शासक था। इन्होंने 1952 ई. में जयनारायण व्यास को हराया था। हनुमन्त सिंह की मृत्यु हवाई यात्रा में पत्नी जुबैदा के साथ हो गई थी। जुबैदा के ऊपर फिल्म बनी जिसमें नायक मनोज वाजपेयी व नायिका करिश्मा थी। हनुमन्त सिंह की पत्नी कृष्णाकुमारी की मृत्यु 2018 में हुई थी। ये अन्तिम राजमाता थी।

नोट
टोड ने कहा था- "मुगल बादशाह अपनी विजयों का आदि राठौड़ों की एक लाख तलवारों का एहसानमंद है।"
ओझा ने कहा था- "मालदेव शकी स्वभाव के कारण शेरशाह को नहीं हरा सका, मालदेव में राजनीतिक योग्यता की कमी न होती तो भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना कर सकता था।"

किशनगढ़ के राठौड़

किशनगढ़ राजस्थान में राठौड़ों की तीसरी रियासत थी।

किशनसिंह (1609-1615 ई.)
जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ राज्य की स्थापना की।

सावन्तसिंह (1706-1748 ई.)
राजसिंह के पुत्र सावन्तसिंह ने इश्कचमन, मनोरथ मंजरी, नागर समुच्चय, रसिक रत्नावली, विहार चन्द्रिका सहित 70 ग्रन्थों की रचना की थी।
सावन्तसिंह का समय किशनगढ़ चित्रकला का चरमोत्कर्ष माना जाता है। इस शैली का प्रसिद्ध चित्रकार निहालचन्द (मोरध्वज) था जिसने 'बणी-ठणी' चित्र बनाया।
जर्मन विद्वान एरिक डिक्सन ने 'बणी-ठणी' को भारत की मोनालिसा कहा है।
भक्त नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध सावन्तसिंह कृष्णभक्ति में राज-पाट अपने पुत्र सरदारसिंह को सौंपकर वृन्दावन चले गये।

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Kartik Budholiya

Kartik Budholiya

Education, GK & Spiritual Content Creator

Kartik Budholiya is an education content creator with a background in Biological Sciences (B.Sc. & M.Sc.), a former UPSC aspirant, and a learner of the Bhagavad Gita. He creates educational content that blends spiritual understanding, general knowledge, and clear explanations for students and self-learners across different platforms.