राजपूतों की उत्पत्ति
राजपूतों ने भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सामान्यतः 7वीं से 12वीं शताब्दी तक का समय राजपूत काल माना जाता है। हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) से लेकर पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल तक यह अवधि राजपूत शक्ति के रूप में जानी जाती है।
करीब पाँच सदियों तक राजपूतों ने लगातार होने वाले मुस्लिम आक्रमणों का सामना किया और धर्म तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। वे युद्धकला में निपुण, वचन के पक्के और विश्वासघात को धर्म-विरोधी मानने वाले योद्धा माने जाते थे।
कर्नल टॉड ने भी राजपूतों के साहस, निष्ठा, आत्मसम्मान, देशभक्ति और अतिथि-सत्कार की विशेष प्रशंसा की है।
अब प्रश्न उठता है- राजपूत कौन थे?
7वीं शताब्दी में इनका नाम प्रमुखता से क्यों उभरा?
ये भारतीय मूल के थे या विदेशी?
यह विषय आज भी विद्वानों के बीच चर्चा का विषय है, और इस पर निरंतर शोध चलता रहता है। अलग-अलग इतिहासकारों के मतों के आधार पर इस विषय को समझने का प्रयास किया जाता है।
राजपूत क्षत्रिय थे
राजपूत शब्द राजपुत्र से बना है। राजपुत्र शब्द प्राचीन समय में राजाओं के राजकुमारों के लिए प्रयुक्त होता था।
उस समय शासक अधिकांश क्षत्रिय होते थे।
राजपुत्र शब्द किसी जाति के प्रयोग न करके केवल क्षत्रिय राजकुमारों के लिए ही प्रयोग होता था।
राजपुत्र शब्द चाणक्य की अर्थशास्त्र बाणभट्ट की हर्षचरित्र, अश्वघोष के ग्रंथ आदि में भी मिलता है।
राजपूत शब्द भारत में मुगलों के आने के बाद आया क्योंकि राजपुत्र बोलने में कठिनाई होती है।
इस आधार पर कह सकते हैं कि राजपूत विदेशी नहीं भारतीय थे। यह प्राचीन समय में जो क्षत्रिय थे उसके वंशज हैं।
जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत क्षत्रियों की सन्तान हैं। वे स्वयं को सुर्यवंशी व चन्द्रवशी मानते हैं।
प्रारम्भ में सुर्यवंशी व चन्द्रवंशी दो शाखाएँ थीं। बाद में तीसरी शाखा यदुवंशी बनी। कुमारपाल चरित्र व वरण रत्नाकर ने राजपूतों को 36 शाखाओं का वर्णन है।
राजपूतों की उत्पत्ति में सर्वप्रथम चर्चा गुर्जर प्रतिहार वंश की हुई क्योंकि यह महान राजपूत वंश रहा है।
इतिहास में भी यह शक्तिशाली रहा है।
प्रतिहार स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहारों को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया है।
हम्मीर महाकाव्य में चौहानों को सूर्यवंशी बताया है। चन्देल स्वयं को चन्द्रमा व ब्राह्मण पुत्री की सन्तान मानते हैं।
चालुक्य हारिती ऋषि के कमण्डल से मानते हैं।
हवेनसांग ने चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय बताया है। महाभारत में द्रोपदी को राजपुत्री कहा है।
आर्यों की सन्तान/क्षत्रिय
- इस सिद्धान्त को मानने वाले गौरीशंकर हीराचन्द ओझा तथा श्री सी.वी. वैद्य हैं।
- इसके अनुसार राजपूत आर्यों/क्षत्रिय की तरह अश्व, अस्त्र-शस्त्र तथा युद्ध को महत्व देते थे।
- इनका शारीरिक गठन भी आर्यों की तरह लम्बा-चौड़ा व गठीला था।
अग्निकुण्ड सिद्धान्त
- इस सिद्धान्त को चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में बतलाया है।
- इसके अनुसार प्राचीन समय में आबू पर्वत पर ऋषियों के यज्ञ में राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हड्डियाँ व मांस डालकर यज्ञ को अपवित्र कर देते थे।
- वशिष्ठ मुनि ने यज्ञ करके चार राजपूत वंशों को अग्निकुण्ड से पैदा किया यथा प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चौहान।
- अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण इन्हें 'अग्निवंशी' कहा जाता है।
- इस सिद्धान्त को अधिकतर इतिहासकार एक जनश्रुति व चारणों द्वारा मनगढ़ंत कहानी मानते हैं।
- अग्निकुण्ड सिद्धान्त का मुहनौत नैणसी, सूर्यमल्ल मिसण ने समर्थन किया। टॉड ने अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया।
नोट
दशरथ शर्मा अनुसार मूल पृथ्वीराज रासो में अग्निकुण्ड कथा उल्लेख नहीं। दशरथ शर्मा ने अनूप संस्कृत बीकानेर की उपलब्ध मूल प्रति का हवाला दिया।
अग्निकुण्ड सिद्धान्त को पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक ने थोड़ा सा परिवर्तित करके पेश किया कि मलेच्छ लोग यज्ञ को अपवित्र करते थे।
ब्रह्मा द्वारा असुरों के वध के लिए विष्णु का अवतार हुआ और वही व्यक्ति चौहान कहलाया।
इसी अग्निकुण्ड सिद्धान्त को हम्मीर रासो के लेखक जोधराज व नैणसी व सिसाणा अभिलेख (बेदला के चौहानों से सम्बन्धित) में भी माना गया है।
अग्निकुण्ड सिद्धान्त की आलोचना
- इतिहास सत्य घटनाओं का वर्णन है। इसमें कल्पनाओं को स्थान नहीं दिया जा सकता है। अग्निकुण्ड में राजवंशों की उत्पत्ति चमकदार तरीके से बताई गयी है। जो विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती।
- अग्निकुण्ड की उत्पत्ति सर्वप्रथम चन्दबरदाई ने की, बाद के विद्वानों ने इसी सिद्धान्त को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। पृथ्वीराज रासो ग्रंथ इतिहास की दृष्टि से पूर्णतया विश्वसनीय नहीं है। जयचन्द्र विद्यालंकार ने पृथ्वीराज रासो की घटनाओं को चटुखानें की गप्प बताया है।
- अधिकतर विद्वान यह मानते हैं कि पृथ्वीराज रासो की रचना 15-16वीं शताब्दी से पहले नहीं हुई है। जबकि इन चारों राजवंशों का इतिहास बहुत पुराना है।
- पृथ्वीराज रासो में वर्णित चारों राजवंशों में केवल परमार ही स्वयं को अग्निवंशी मानते हैं। शेष प्रतिहार, चालुक्य, चौहान अग्निवंशीय नहीं मानते हैं। प्रतिहार चौहान स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। चालुक्य अपने लेखों में स्वयं को चन्द्रवंशी मानते हैं।
- चौहानों से सम्बन्धित अन्य ग्रंथ पृथ्वीराज विजय हम्मीर महाकाव्य में अग्निकुण्ड सिद्धान्त नहीं मिलता इस कारण पृथ्वीराज रासो की ऐतिहासिकता पर संदेह है। इस कारण वशरच शर्मा पृथ्वीराज रासो के लिए लिखते हैं- "अग्निकुण्ड की उत्पत्ति केवल ऐसी कल्पना पर आधारित है जो मध्यकाल में चारण व भाटों की चाटूकारी प्रवृत्ति का प्रमाण है।"
- इस सिद्धान्त के खण्डन में टॉड कहते हैं कि यह शुद्ध यज्ञ संस्कार था, जिसमें 1. विदेशी शक व सिथियन (अनार्य) को संस्कार द्वारा क्षत्रिय राजपूत बनाया गया।
ब्राह्मणों से उत्पत्ति के सिद्धान्त
बिजौलिया शिलालेख के आधार पर इतिहासकार राजपूतों को ब्राह्मणों की संतान बताते हैं, जिसमें चौहानों का नाम विशेष रूप से आता है।
डॉ स्मिथ चंदेल राजपूतों को मध्य भारत की गौड़ जाति से बताते हैं। डॉ भण्डारकर ने चित्तौड़ व अचलेश्वर अभिलेखों के आधार पर गुहिल व सिसोदियों को ब्राह्मणों की संतान बताया है।
डॉ दशरथ शर्मा ने परमारों को ब्राह्मण बताया है।
इनके अनुसार शुंग, सातवाहन, कदम्ब, पल्लव जातियों ने जिस प्रकार अस्त्र उठाए उसी प्रकार ब्राह्मणों ने अस्त्र उठाए।
विकट परिस्थिति में धर्म की रक्षा के लिए ब्राह्मणों ने क्षत्रिय धर्म धारण कर लिया।
पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर को बिजौलिया शिलालेख में ब्राह्मण बताया है।
गोपीनाथ शर्मा ने गुहिलों को नागर जाति के ब्राह्मणों का वंशज बताया है।
महाराणा कुंभा ने रसिकप्रिया में गुहिलों को नागर जाति के ब्राह्मणों की संतान बताया है।
कायम खाँ रासो व चंद्रावती लेख में चौहानों को ब्राह्मणवंशी लिखा है।
'पिंगल सूत्र कृति' में राजपूतों को ब्राह्मणों की संतान बताया है।
राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से मुख्यतः भंडारकर व गोपीनाथ शर्मा मानते हैं।
- मण्डोर के प्रतिहार राजपूत ब्राह्मण हरिश्चन्द्र व मादरा की सन्तान थी।
- आबू के प्रतिहार ब्राह्मण ऋषि वशिष्ठ की सन्तान थी।
- बुंदेलखंड के चंदेल चन्द्रमान व ब्राह्मण गान्धर्व कुमारी की सन्तान थी।
- दक्षिणी भारत के चालुक्य (सोलंकी) हारित ऋषि के कमण्डल से उत्पन्न हुए।
- बिजौलिया शिलालेख में चौहानों को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है।
- राजपूत अग्निवंशीय थे तथा अग्निहोत्री ब्राह्मण होते थे। जब इन ब्राह्मणों को सुरक्षा के लिए हथियार उठाना पड़ा तब ये राजपूत कहलाए।
सूर्य व चन्द्रवंशी सिद्धान्त
चारणों द्वारा लिखे गए साहित्यों में राजपूतों को सूर्यवंशी व चंद्रवंशी कहा गया है।
ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहारों को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है, राम के भाई लक्ष्मण की संतान बताया है।
चंदेल स्वयं को चन्द्रमा की संतान मानते हैं।
चौहानों को हम्मीर महाकाव्य में सूर्यपुत्र कहा गया है।
पृथ्वीराज रासो में सभी 36 राजपूत वंशों को सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी व यदुवंशी बताया है।
हर्षनाथ अभिलेख में चौहानों को सूर्यवंशी कहा गया है।
राजपूत भी सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी सिद्धांतों को मानते हैं।
डॉ दशरथ शर्मा राजपूतों को भारतीय जाति मानते हैं। इन्हें आर्यों की संतान बताया व सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी कहा।
डॉ जी.एन. शर्मा दशरथ शर्मा का समर्थन करते हैं।
इन्हीं तथ्यों के आधार पर जगदीश गहलोत कहते हैं, राजपूत न विदेशी थे और न ही अनार्य थे। ये सूर्य व चन्द्रवंशी क्षत्रियों की संतान थे।
श्री जगदीश गहलोत व दशरथ शर्मा इस सिद्धान्त को मानते हैं।
विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
राजपूतों की उत्पत्ति का विदेशी मत कनिंघम क्रुक व स्मिथ मानते हैं। कनिंघम राजपूतों को यू-ची जाति का वंशज मानता है।
राजपूतों का सम्बन्ध कुषाण जाति से बताया जाता है। इसका आधार कनिंघम ने 'ब्रोच गुर्जर' नामक एक ताम्र पत्र माना जाता है जो 978 ई. का है।
क्रुक महोदय शक, कुषाण, पल्लव व हूणों से राजपूतों की उत्पत्ति बताता है। इनका कहना है गुर्जर जाति हूणों से सम्बन्धित थी।
इस जाति व अन्य विदेशी जातियों ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और इन्हीं सब जातियों से राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
इतिहासकार डॉ. आर. जी. भण्डारकर का कहना है कि गुर्जर विदेशी थे। ये खिंजर जाति से सम्बन्धित थे।
खिजर हूणों के साथ भारत आये राजपूत इन्हीं विदेशी गुर्जरों की सन्तान हैं।
आगे चलकर भण्डारकर ने प्रतिहार, चालुक्य, परमार, चौहानों को भी गुर्जर सिद्ध करने का प्रयास किया।
अपने कथन की प्रमाणिकता के लिए इन्होंने पुराणों का सहारा लिया। इनका कहना है कि पुराणों में हैहय (राजपूत) जाति का उल्लेख विदेशी शक व यवन जाति के साथ हुआ है।
अतः हैहय विदेशी हुये। भण्डारकर कहते हैं भारतीयों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के कारण हूण क्षत्रिय कहलाये।
भण्डारकर के राजपूतों को विदेशी गुर्जरों के वंशज मानने में निम्न कठिनाइयाँ आती है-
- भारत में गुर्जर बाहर से आये इसके प्रमाण नहीं मिलते।
- गुर्जर खिजर जाति के थे इसका उल्लेख नहीं मिलता।
- गुर्जर व खिजर जाति में भिन्नता है। खिजर जाति स्थायी रूप से रहने वाली थी। जबकि गुर्जर जाति भ्रमणशील थी।
- हैहय जाति को पुराणों में चन्द्रवंशी आर्य बताया है।
- राजपूतों की 36 शाखाओं में कहीं भी हूणों का उल्लेख नहीं है। हूणों को कहीं भी क्षत्रिय नहीं बताया गया है।
- अगर हूणों के साथ भारत आये होते तो स्त्रोतों में हूण व गुर्जरों का साथ में उल्लेख मिलता लेकिन कहीं भी इनका एक साथ उल्लेख नहीं मिलता। बाणभट्ट के हर्षचरित्र में हूण व गुर्जरों का उल्लेख अलग-अलग है। महाभारत में हूणों का उल्लेख है गुर्जरों का नहीं है।
- उपरोक्त तथ्यों के आधार पर राजपूत विदेशी गुर्जरों की सन्तान सिद्ध नहीं होते। लेकिन डॉ. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जरों की सन्तान सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। वह कहते हैं गुर्जर विदेशी थे राजपूत भी विदेशी थे।
- V. A. स्मिथ के अनुसार विदेशी हूणों को राजपूतों में परिवर्तित किया गया था।
- कनिंघम राजपूतों की उत्पत्ति कुषाणों से मानता है। टॉड राजपूतों को शक व सिथियन जाति से मानता है।
राजपूत विदेशी थे, इस धारणा की आलोचना
- टॉड कुछ प्रथाओं के मिलने से राजपूतों को विदेशी बताता है।
- प्रथाएँ मिलने से रक्त सम्बन्ध हो यह जरूरी नहीं क्योंकि प्रथाओं का विकास स्वतंत्र रूप से भी हो सकता है।
- इसके अतिरिक्त राजपूतों की कुछ प्रथाएँ ही शिथियन जाति से मिलती है जबकि वैदिक आर्यों से राजपूतों की अधिकतर प्रथाएँ मिलती है।
- प्रथाओं के मिलने के आधार पर हम राजपूतों को विदेशी नहीं कह सकते।
मिश्रित मूल का सिद्धान्त
- डी. पी. चट्टोपाध्याय सर्वाधिक मान्य मत के समर्थक डी. पी. चट्टोपाध्याय के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बंध में कुछ भी कहना कठिन है।
- लेकिन फिर भी राजपूतों की उत्पत्ति वैदिककालीन क्षत्रियों से मानना सर्वाधिक संगत है।
| वंश | संस्थापक | राजधानी क्रमशः |
|---|---|---|
| चौहान | वासुदेव | अहिच्छत्रपुर, सांभर, अजमेर |
| राठौड़ (जोधपुर) | राव सीहा | मण्डोर, जोधपुर |
| राठौड़ (बीकानेर) | राव बीका | कोडमदेसर, बीकानेर |
| गुहिल | गुहादित्य | नागदा, आहड़, चित्तौड़ |
| कच्छवाह | दुल्हेराय/तेजकरण | दौसा, रामगढ, आमेर, जयपुर |
| भाटी | भट्टी | भटनेर, तनोट, लौद्रवा, जैसलमेर |
| पांड्य वंश | नेडुनजेरियन उदान | मदुरई |
| शुंग | पुष्यमित्र शुंग | पाटलिपुत्र |
| सातवाहन वंश | शिमुक | प्रतिष्ठान |
| गुप्त वंश | श्री गुप्त | वैशाली, कन्नौज, पाटलिपुत्र |
| पल्लव वंश | सिंह वर्मा | कांचीपुरम् |
| राष्ट्र कुट वंश | दन्तिवर्मन | मान्यखेत |
| परमार वंश | उपेन्द्र | धार (म.प्र.) |
अकबर (1556-1605 ई.) के समकालीन राजपुताना शासक
सिरोही (ASB)
- A अखेराज
- S सुरताण
- B बेरिसाल
आमेर (BBM)
- B भारमल
- B भगवंतदास
- M मानसिंह
मारवाड़ (MCU)
- M मालदेव
- C चन्द्रसेन
- U उदयसिंह
मेवाड़ (UPA)
- U उदयसिंह
- P प्रताप
- A अमरसिंह
बीकानेर (KR)
- K कल्याणमल
- R रायसिंह
जैसलमेर (H)
- H हरराम
बूँदी (S.B.)
- S सुर्जन हाड़ा
- B भोज
जहाँगीर (1605-1627 ई.) के समकालीन
आमेर (M.B.J.)
- M मानसिंह
- B भावसिंह
- J मिर्जा जयसिंह
मारवाड़ (S.G.)
- S सूरसिंह
- G गजसिंह
मेवाड़ (A.K.)
- A अमरसिंह
- K कर्णसिंह
बीकानेर (R.D.)
- R रायसिंह
- D दलपत सिंह
बूँदी (R.)
- R राव रतन
किशनगढ़
- किशनसिंह-1609 (मोटा राजा उदयसिंह का पुत्र)
शाहजहाँ (1627-1658 ई.) के समकालीन
आमेर (J)
- J मिर्जा जयसिंह
मारवाड़ (G.J.)
- G गजसिंह
- J जसवंत सिंह
मेवाड़ (J.R.)
- J जगत सिंह-1
- R राजसिंह
बीकानेर (K)
- K कल्याणमल
बूँदी (R.S.)
- R रतनसिंह
- S शत्रुशाल
कोटा (M.M.)
- M माधोसिंह
- M मुकन्द सिंह
(माधोसिंह के द्वारा कोटा पृथक रियासत)
औरंगजेब (1658-1707 ई.)
आमेर (J.R.B.J.)
- J जयसिंह, R रामसिंह
- B बिशन सिंह
- J (जयसिंह, सवाई)
मारवाड़ (J.A.)
- J जसवंत सिंह
- A अजीत सिंह
मेवाड़ (R.J.A.)
- R राजसिंह
- J जयसिंह
- A अमरसिंह-II
बीकानेर (K.A.)
- K कल्याणमल
- A अनूप सिंह
बूँदी (B.A.B.)
- B भाव सिंह
- A अनिरुद्ध
- B बुद्ध सिंह
कोटा (J.P.K.R.)
- J जगत सिंह
- P प्रेम सिंह
- K किशोरसिंह
- R रामसिंह
महत्वपूर्ण तथ्य
- जनश्रुति के अनुसार आबू पर्वत पर यज्ञ कुण्ड से चालुक्य, प्रतिहार, चौहान एवं परमार वंश की उत्पत्ति मानी जाती है।
- पृथ्वीराज रासो के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई।
- राजपूतों के कच्छवाह वंश ने जयपुर रियासत पर शासन किया।
- इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रियों से होना बताया है।
- चन्दबरदाई ने राजपूतों के वंश के बारे में अग्निकुल वंश सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
- 'ब्रोचगुर्जर' नामक एक ताम्रपत्र के आधार पर राजपूतों को यू-ची जाति का वंशज मानते हुए इनका संबंध कुषाण जाति से कनिंघम ने जोड़ा है।
- राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का मत सर्वप्रथम कर्नल टॉड द्वारा प्रतिपादित किया गया।
- पृथ्वीराज रासो राजपूतों की उत्पत्ति को 'अग्निकुंड' से सम्बन्धित बताता है।
- राजस्थान का भाटी शासक, यादव राजवंश से संबंधित है।
- टोंक मुस्लिम रियासत का संस्थापक अमीर खाँ पिंडारी था।
- 16वीं-17वीं शताब्दी में राजस्थान में नील का कारोबार अत्यन्त विकसित था और नील हमारी सांस्कृतिक विरासत रही है और इस विरासत का गवाह बयाना (भरतपुर) रहा है।
- राजपूताना के बयाना क्षेत्र पर बरीक वंश ने शासन किया था।
- बाँसवाड़ा शहर के भील शासक को पराजित करने के बाद जगमाल सिंह ने स्वयं महारावल का ताज पहना था।
- 'कवि वृष' की उपाधि राजा मुंज को दी गई थी।
- सन् 1177 में सामंत सिंह के द्वारा कीर्तिपाल चौहान के हाथों पराजित होने के बाद डूंगरपुर राज्य की स्थापना की गई थी।
- चीनी यात्री हवेनसांग ने भीनमाल की यात्रा की थी।
- भरतपुर, करौली और धौलपुर क्षेत्र शूरसेन प्राचीन नाम से जाना जाता था।
- राजस्थान के उत्तरी भाग में 'यौधेय' नामक गणतंत्रीय कबीले का शासन रहा।
- अर्जुनायन जाति के प्रभाव क्षेत्र में सम्मिलित प्रान्त अलवर-भरतपुर प्रांत है।
- मत्स्य महाजनपद राजस्थान में स्थित था।
- महाभारत के अनुसार, मत्स्य महाजनपद में पांडवों ने अज्ञातवास के समय जीवनयापन किया था।
- मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर थी। विराटनगर को बैराठ (कोटपूतली-बहरोड़) के नाम से जाना जाता था। चीनी यात्री हवेनसांग ने बैराठ को पारयात्र नाम दिया।

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