राजस्थान में जनजाति आन्दोलन

जनजाति आन्दोलन

राजस्थान में आदिवासी (जनजाति) आन्दोलन

राजस्थान में जनजातियों का प्रमुख निवास क्षेत्र दक्षिणी राजस्थान, दक्षिण-पूर्वी भाग, ढूँढाड़ तथा हाड़ौती क्षेत्र का अधिकांश भाग रहा है। यहाँ मुख्य रूप से भील, मीणा, सहरिया, गरासिया और डामोर जैसी जनजातियाँ निवास करती हैं।
राजस्थान की देशी रियासतों में केवल शासक वर्ग ही नहीं, बल्कि जागीरदारों और सेठ-साहूकारों द्वारा भी इन जनजातियों का भारी शोषण किया जाता था। उनसे अनुचित कर वसूली, बेगार प्रथा और भूमि हड़पने जैसी अमानवीय प्रथाएँ प्रचलित थीं।
इसी शोषण के विरुद्ध 1818 ई. से लेकर 19वीं शताब्दी के अन्त तक राजस्थान में लगातार जनजातीय विद्रोह होते रहे। ये आन्दोलन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अत्याचारों के विरोध में उठाए गए संघर्ष थे।
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जनजातियों के नैतिक उत्थान के लिए जन सेवकों द्वारा किए गए प्रयासों को आइये हम जानते हैं-

राजस्थान में आदिवासी समुदाय : ऐतिहासिक परिचय

1. भील
राजपुताना क्षेत्र में भीलों की पहली जनगणना 1901 ई. में कराई गई थी। इस समय अजमेर-मेरवाड़ा सहित विभिन्न रियासतों में भील जनसंख्या 3,28,539 थी।
भील राजस्थान के प्राचीनतम निवासी माने जाते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने आहड़ संस्कृति के विकास में भीलों का योगदान स्वीकार किया है। वहीं कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को ‘वनपुत्र’ की संज्ञा दी है।
सातवीं शताब्दी से राजपूतों का राजपुताना में आगमन प्रारम्भ हुआ। इस दौरान भीलों ने राजपूतों का कड़ा प्रतिरोध किया। परन्तु मध्यकाल के प्रारम्भ तक राजपूत भीलों को मैदानी क्षेत्रों से खदेड़कर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हो गए।
1264 ई. में बूंदी के शासक देवासिंह के पौत्र जैत्रसिंह ने कोटिया भील को पराजित कर कोटा नगर की स्थापना की।
14वीं शताब्दी के प्रारम्भ में रावल वीरसिंह ने भील मुखिया ड्रॅगरिया (या डूंगर) को मारकर डूंगरपुर पर अधिकार किया।
बाँसवाड़ा नगर को पहले बंसिया या बिशना भील ने बसाया था, परन्तु 16वीं शताब्दी में डूंगरपुर के रावल उदयसिंह के पुत्र जगमाल ने इसे भीलों से छीन लिया।
राजपूत-भील संघर्ष की स्थिति 16वीं शताब्दी के अन्त तक बनी रही। लेकिन बाद में जब राजपूत-मुगल संघर्ष प्रारम्भ हुआ, तब भीलों ने राजपूतों का साथ दिया।
हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून, 1576) में भील योद्धा पूँजा अपने साथियों सहित राणा प्रताप की ओर से मुगल सेना के विरुद्ध लड़ा था।
मेवाड़ के राजचिह्न में तीर-कमान धारण किए भील का चित्र अंकित है। इसके अलावा मेवाड़ के महाराणाओं का राजतिलक भी भील सरदार द्वारा किया जाता था।
केवल मेवाड़ ही नहीं, बल्कि डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों में भी राजतिलक का अधिकार भीलों को प्राप्त था।
1818 ई. में राजपूताना की रियासतों द्वारा अंग्रेजों से संधियाँ करने के बाद अंग्रेजों ने भीलों पर कठोर नियंत्रण लागू किया। इस दमनकारी नीति के परिणामस्वरूप राजस्थान में भील विद्रोह प्रारम्भ हो गए।

2. मीणा
मीणा राजस्थान का सबसे बड़ा आदिवासी समूह हैं। राजस्थान में 1901 ई. में मीणाओं की जनसंख्या 4,77,193 थी।
मीणा आदिवासी राजस्थान के लगभग सभी भागों में निवास करते हैं, केवल उत्तरी भाग में इनकी संख्या कम है।
राजस्थान मीणा समुदाय की गृहभूमि है। कर्नल टॉड मीणा जनजाति को राजस्थान की स्थानीय उत्पत्ति का मानते हैं।
मीणा अपनी उत्पत्ति विष्णु के मत्स्य अथवा मीन अवतार से मानते हैं। मत्स्य जनपद मीणा जनजाति का प्रभाव क्षेत्र माना गया है।
भीलों की तरह मीणा आदिवासी समुदाय भी सातवीं से बारहवीं सदी के दौरान राजपूत आक्रमणों का शिकार रहा।
ढूँढाड़ क्षेत्र में मीणा शक्ति का दमन कर कच्छवाहा राजवंश ने अपनी सत्ता स्थापित की थी।
मीणाओं को कच्छवाहा राजवंश के खजाने का रक्षक होने के अलावा कच्छवाहा राजाओं को राजतिलक का अधिकार प्राप्त था।

नोट
बूंदी में हाड़ा राजपूतों ने मीणों को पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित की थी। बूंदी का नाम बून्दा मीणा के नाम पर पड़ा था।

3. गरासिया
गरासिया आदिवासी मुख्यतः उदयपुर, सिरोही एवं जोधपुर रियासतों में निवास करते थे। वर्तमान में उदयपुर, सिरोही और पाली जिलों में निवास करते हैं।
जनसंख्या के आधार पर गरासिया जनजाति राजस्थान में तीसरा बड़ा आदिवासी समूह हैं। 1901 ई. में इनकी जनसंख्या 12,297 थी।
'गरासिया 'शब्द का संस्कृत में अर्थ लगाया जाये तो 'पहाड़ों में रहने वाले लोग' होता हैं।
कविराज श्यामलदास के अनुसार अरावली के पश्चिमोत्तर में जो भील निवास करते हैं, उन्हें गरासिया कहा जाता है।

4. सहरिया
सहरिया प्राचीनतम जंगलवासी जनजाति है। इनकी उत्पत्ति भीलों से मानी जाती है। कर्नल टॉड ने भी उन्हें भील परिवार का सदस्य माना है।
राजस्थान में यह जनजाति भूतपूर्व कोटा रियासत में निवास करती थी एवं वर्तमान में यह जनजाति बाराँ जिले की शाहबाद एवं किशनगंज तहसीलों में निवास करती हैं।
कोटा राज्य की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 1911 ई. में इनकी जनसंख्या 13,795 थी।
यह आदिवासी समूह अत्यधिक शान्तिपूर्ण रहा हैं, इसलिए राजस्थान के इतिहास में अधिक महत्व नहीं रखता।

5. मेर
वर्तमान में मेर नामक कोई जनजाति अनुसूचित जनजाति के अन्तर्गत नहीं है। मेर जनजाति वर्तमान में रावत नाम से जानी जाती है।
ब्रिटिश काल में मेर लोग अजमेर, मेवाड़ और मारवाड़ क्षेत्रों में निवास करते थे। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार गुहिलों के पूर्व मेवाड़ क्षेत्र मेर अथवा मेड़ लोगों द्वारा आबाद था, इसलिए इस क्षेत्र का नाम मेवाड़ पड़ा।
1901 ई. में मेरों की जनसंख्या (मेरात व रावत सहित) 66,268 थी।
मेर हमेशा राजपूत, तुर्क, मुगल एवं मराठा शासकों के लिए समस्या बने रहें। अंग्रेजों ने उन पर प्रशासनिक नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया जिसके विरुद्ध उन्होंने विद्रोह कर दिये।

6. मेव
मेव मुख्य रूप से राजस्थान के अलवर और भरतपुर जिलों में केन्द्रित हैं। किसी समय यह क्षेत्र मीनावाटी नाम से जाना जाता था, जो बाद में मेवात हो गया।
मेवों और मीणों में अनेक समानताएँ मिलती हैं। परन्तु मेव मीणों से एक अर्थ में पूरी तरह भिन्न है, वह है धर्म। मेव इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं किन्तु साथ ही साथ वे हिन्दू परम्पराओं को भी मानते हैं।
मध्यकाल में मेवों ने केन्द्रीय सत्ताओं का विरोध किया।

नोट
1901 ई. में राजस्थान में मेव लोगों की जनसंख्या 1,68,598 थी।
1932 ई. और 1933 ई. में क्रमशः अलवर और भरतपुर के मेवों ने ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध विद्रोह किए।

उन्नीसवीं सदी के आदिवासी प्रतिरोध

1. मेर विद्रोह (1818-1821 ई.)
राजस्थान में स्थानीय सामन्तवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मध्य अपवित्र गठबन्धन का प्रतिरोध सर्वप्रथम मेर एवं भील आदिवासियों ने किया।

प्रमुख कारण
मेरों द्वारा आबाद क्षेत्रों के भू-भाग मेवाड़, मारवाड़ और अजमेर के अन्तर्गत थे, किन्तु मेरों पर इनका राजनीतिक व प्रशासनिक नियन्त्रण नहीं था।
आदिवासियों द्वारा आबाद क्षेत्र विद्रोहियों के लिए सुरक्षित शरण स्थल होते थे।
अंग्रेज मेरों पर राजस्व थोपना चाहते थे। इस प्रकार मेरों को अंग्रेजी राजनीतिक सत्ता व नियन्त्रण में लाने के प्रयासों के परिणामस्वरूप मेरों ने विद्रोह किया।

1818 ई. में अजमेर के अंग्रेज सुपरिन्टेन्डेन्ट एफ. विल्डर ने झाक एवं अन्य गाँवों जो मेरवाड़ा क्षेत्र के केन्द्र थे, के साथ समझौता किया जिसके अनुसार मेरों ने लूट-पाट न करने की सहमति प्रदान की।
मार्च, 1819 ई. में विल्डर ने किसी साधारण घटना को मेरों द्वारा उपर्युक्त समझौते को तोड़ना सिद्ध करते हुए मेरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया। इसी प्रकार कर्नल टॉड ने मेवाड़ राज्य की ओर से मेरों के विरुद्ध इसी तरह के उपाय अपनाएँ।
प्रतिक्रियास्वरूप मेरों ने 1820 ई. के आरम्भ से ही जगह-जगह विद्रोह कर दिया तथा नवम्बर, 1820 ई. में झाक नामक स्थान पर पुलिस चौकी को जला दिया तथा कई सिपाहियों को मार दिया।
बढ़ते हुए मेर विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेना की तीन बटालियनों और मेवाड़ एवं मारवाड़ की संयुक्त सेनाओं ने मेरों पर आक्रमण कर जनवरी, 1821 ई. तक मेर विद्रोह का दमन कर दिया।

मेरों पर अधिक अच्छा नियन्त्रण रखने का प्रयास : मेरवाड़ा बटालियन का गठन (1822 ई.)
मेरवाड़ा क्षेत्र तीन भागों में बँटा हुआ था- अजमेर (अंग्रेज), मेवाड़ एवं मारवाड़। अतः अंग्रेजों द्वारा सम्पूर्ण क्षेत्र को एक ब्रिटिश अधिकारी के नियन्त्रण में रखने का निर्णय लिया गया।
अंग्रजों की नीति फूट डालो और राज करो की थी इसी नीति के तहत अंग्रेजों ने मेरो के विद्रोह को मेरो द्वारा कुचलने की योजना बनाई।
इस अधिकारी के नियन्त्रण में 70 सैनिक प्रति कम्पनी के हिसाब से 8 कम्पनियों की एक बटालियन मेरों में से ही भर्ती कर 1822 में मेरवाड़ा बटालियन का निर्माण किया गया, जिसका मुख्यालय ब्यावर (अजमेर) में बनाया।

नोट
शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना 1834 ई. में की गई थी।

2. भील विद्रोह (1818-1860 ई.)
प्रमुख कारण
  • अंग्रेजी शासन से पूर्व भील निर्बाध जंगल अधिकारों का उपयोग करते थे, अब उन पर कई प्रतिबंध लगा दिए।
  • भीलों पर राजस्व थोपने व पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने के प्रयासों ने भीलों में अशान्ति उत्पन्न कर दी।
  • भील अपनी पाल के समीप ही गाँवों से 'रखवाली' (चौकीदारी कर) तथा अपने क्षेत्रों से गुजरने वाले माल व यात्रियों से 'बोलाई' (सुरक्षा कर) वसूल करते थे। उनसे ये अधिकार छीन लिए गए।
1818 ई. के अन्त तक उदयपुर राज्य के भीलों ने यह चेतावनी देते हुए अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी कि यदि सरकार उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करेगी तो वे विद्रोह कर देंगे।
1820 ई. के आरम्भ में अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी भीलों का दमन करने में असफल रही। परन्तु ब्रिटिश व राज्य की संयुक्त सेनाओं ने दिसम्बर, 1823 तक भील विद्रोह को दबाने में सफलता प्राप्त की।
डूंगरपुर व बाँसवाड़ा राज्यों के भीलों ने भी अल्प अशान्ति उत्पन्न की तथा 1825 ई. में आदिवासी विद्रोह की कुछ घटनाएँ हुईं।
12 मई, 1825 ई. को डूंगरपुर राज्य के लीम्बराबारू के भीलों ने अंग्रेजों के साथ एक समझौता किया। इसी प्रकार का समझौता डूंगरपुर राज्य की सिमूरवास, देवल एवं नन्दू पालों के भीलों ने भी किया।
जनवरी, 1826 ई. में गरासिया भील मुखिया दौलतसिंह व गोविन्दरा ने अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के खिलाफ विद्रोह कर पुलिस थानों पर आक्रमण कर दिये तथा सैकड़ों सिपाहियों को मार दिया।
लम्बी बातचीत के बाद 1828 ई. में दौलतसिंह के आत्मसमर्पण के पश्चात् ही यह विद्रोह समाप्त हुआ। भीलों को बोलाई कर का अधिकार दे दिया गया। दौलतसिंह को बबूलवाड़ा गाँव और जावास की भील जागीर प्रदान की गई।
1836 ई. में बाँसवाड़ा राज्य में भील उपद्रव हुए जिन्हें अंग्रेजी सेना की सहायता से बाँसवाड़ा के महारावल ने तुरन्त नियंत्रित कर लिया था।

जोधपुर लीजियन का गठन (1836)
संगठित शक्ति द्वारा भीलों का दमन करने के लिए 1836 ई. में 'जोधपुर लीजियन' नामक सेना का गठन किया गया।
जोधपुर लीजियन का मुख्यालय अजमेर था जिसे जनवरी, 1837 ई. में सिरोही राज्य के बड़गाँव नामक स्थान पर स्थानान्तरित कर दिया गया।
मार्च, 1842 ई. में जोधपुर लीजियन का मुख्यालय सिरोही राज्य में ही बड़गाँव से एरिनपुरा (पाली) स्थानान्तरित कर दिया गया था।

मेवाड़ भील कोर का गठन (1841 ई.)
भीलों पर नियन्त्रण रखने का दूसरा व प्रमुख प्रयास 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर की स्थापना था।
मेवाड़ भील कोर का मुख्यालय उदयपुर राज्य में खेरवाड़ा रखा गया।

नोट
भारत में भीलों की प्रथम सेना 1825 ई. में बम्बई प्रान्त में स्थापित हुई, जिसे 'खानदेश भील कोर्पस' नाम से जाना गया।

1844 ई. में बाँसवाड़ा राज्य में छुटपुट भील विद्रोह हुए। इस विद्रोह को 1846 ई. के कुँवार जिवे बसावो के नेतृत्व में गुजरात के भील विद्रोह से बढ़ावा मिला था। 1850 ई. तक बाँसवाड़ा राज्य ने अंग्रेजी सेना की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया।
दिसम्बर, 1855 ई. में उदयपुर राज्य के कालीबास के भील विद्रोही हो गए। महाराणा ने मेहता सवाई सिंह को नवम्बर, 1856 ई. में सेना सहित भीलों के दमन के लिए भेजा, जिसने आक्रामक कार्यवाही द्वारा भीलों को शान्त कर दिया।
1857 ई. के दौरान भी भील विद्रोहों की सम्भावना थी, किन्तु इस तथाकथित राष्ट्रीय क्रान्ति से भील अनभिज्ञ रहे तथा भीलों, मेरों, गरासियों व मीणों की पलटनें अंग्रेजों के प्रति स्वामीभक्त रहीं।

3. मीणा विद्रोह (1851-1860 ई.)
नई व्यवस्था के प्रति अपना रोष प्रकट करने के लिए 1851 ई. में उदयपुर राज्य के जहाजपुर परगने के मीणों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
महाराणा मेवाड़ ने 1851 ई. में मेहता रघुनाथ सिंह को जहाजपुर का नया हाकिम नियुक्त किया। वह प्रशासनिक सुधारों के नाम पर जनता से धन वसूल कर रहा था, प्रतिक्रियास्वरूप बहुसंख्यक मीणा समुदाय ने उपद्रव का रास्ता अख्तियार किया।
विद्रोही मीणों ने न केवल राजस्व अधिकारियों व महाजनों को लूटा बल्कि समीप स्थित अजमेर-मेरवाड़ा के अंग्रेज प्रान्त पर भी धावे मारे।
महाराणा ने विद्रोह के दमन के लिए मेहता अजीतसिंह को नया हाकिम नियुक्त किया। उसके साथ शाहपुरा, बनेड़ा, बिजौलिया, भैसरोड़, जहाजपुर एवं माँडलगढ़ के जागीरदारों की सेनाएँ और भीम पल्टन व एक लिंक पल्टन के सिपाही दो तोपों सहित शामिल थे। परन्तु इस संयुक्त अभियान को विशेष सफलता नहीं मिली।
दिसम्बर, 1854 ई. में राजपूताना के ए.जी.जी., मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेन्ट व हाड़ौती का पॉलिटिकल एजेन्ट संयुक्त रूप से सेना सहित जहाजपुर पहुँचे तथा एक महीने तक जहाजपुर और ईटोदा में रुके रहे।
जनवरी, 1855 ई. के अन्त तक मीणा इस सेना के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए बाध्य हो गये थे।
भविष्य में मीणों का सामना करने के लिए फरवरी, 1855 में देवली में एक सैनिक छावनी स्थापित की गई।
1855 ई. में देवली छावनी को नवगठित अनियमित सेना का मुख्यालय बनाया गया, जो 1857 ई. से 1860 ई. के दौरान 42वीं देवली रेजीमेन्ट या मीणा बटालियन के नाम से जानी जाती रही।
1921 में 42वीं देवली रेजीमेन्ट व 43वीं एरिमपुरा रेजीमेन्ट को समाप्त कर उनके स्थान पर 'मीणा कोर्पस' की स्थापना की गई।
जनवरी, 1860 ई. में जहाजपुर के मीणों ने पुनः विद्रोह किया। महाराणा ने चन्द्रसिंह के नेतृत्व में जहाजपुर की ओर सेना भेजी।
उसने भारी संख्या में मीणों को बन्दी बनाया तथा छः लोगों को तोप से उड़ा दिया। इस प्रकार जहाजपुर का मीणा विद्रोह अन्तिम रूप से नियन्त्रित हो गया।

नोट
जहाजपुर, शाहपुरा जिले में स्थित है।

4. भील विद्रोह (1861-1900 ई.)
भीलों की विद्रोहात्मक गतिविधियाँ (1861-1875)
बारापाल का भील विद्रोह (1881-1882)
1861 ई. में उदयपुर के समीप खैरवाड़ा क्षेत्र के भीलों ने उपद्रव किया। 1863 ई. में कोटड़ा के भीलों ने विद्रोह किया। इन विद्रोहों की जिम्मेदारी मेवाड़ भील कोर के कमांडिंग ने उदयपुर राज्य की भीलों के प्रति नीति को बताया।
1864 ई. में करवड़, परसाद, नठारा एवं इनके समीप की पालों के भील चोरी व डकैती करने लगे। मेवाड़ भील कोर के कमान्डिंग अधिकारी ने इस सम्बन्ध में मगरा जिले के नवनियुक्त हाकिम मेहता रघुनाथसिंह के विरुद्ध शिकायत की, हाकिम को स्थानान्तरित कर भील विद्रोह को शान्त किया गया।
1867 ई. में खैरवाड़ा व डूंगरपुर के मध्य देवलपाल के भीलों ने विद्रोह किया जिसे मेवाड़ भील कोर ने कुचल दिया।
1868 ई. में बाँसवाड़ा राज्य व अंग्रेजों के मध्य एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार अंग्रेजों को भीलों को कुचलने की निरंकुश शक्तियाँ प्राप्त हो गईं।
1872-73 ई. में सोदलपुर के भील मुखिया दल्ला ने बराड़ (भीलों द्वारा राज्य को सत्ता के प्रतीक के रूप में दिया जाने वाला कर) मुद्दे पर बाँसवाड़ा के महारावल के विरुद्ध बगावत कर दी। उसने एक भील सेना गठित की जिसमें 8000 भीलों को भर्ती किया गया था।
ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट की सलाह पर महारावल ने दल्ला की शर्तों पर समझौता कर इस विद्रोह को शान्त किया।
जून, 1875 ई. में भूरीखेड़ा के भील मुखिया देवा व ओंकारमा रावत ने विद्रोह किया। दिसम्बर, 1875 ई. में भूरीखेड़ा एवं पीपलखूँट गाँवों के भीलों में आपसी झगड़ा हो गया, जिससे भील विद्रोह स्वतः ही समाप्त हो गया।

उदयपुर राज्य के भीलों का विद्रोह (1881-1882 ई.)
1881-1882 ई. में उदयपुर राज्य के भील अंग्रेजों व राज्य के विरुद्ध उठ खड़े हुए। यह 19वीं सदी का सबसे भयानक भील विद्रोह सिद्ध हुआ। इस समय मेवाड़ पर महाराणा सज्जनसिंह (1874-1884) का शासन था।
परम्परागत अधिकारों पर रोक, अत्यधिक करारोपण, मावड़ी (स्थानीय शराब) निकालने पर प्रतिबन्ध, भूमि बन्दोबस्त, अवैध धन ऊगाही, डाकन प्रथा पर प्रतिबंध (1853), रिखबदेव (ऋषभदेव) मन्दिर का सीधा नियन्त्रण (1877) तथा जनगणना (1881) का कार्य प्रारम्भ इत्यादि इस विद्रोह के प्रमुख कारण थे।
25 मार्च, 1881 ई. को बारापाल के थानेदार सुन्दरलाल ने पड़ौना गाँव के दो गामेतियों रूपा व कुबेरा को साक्ष्य हेतु बुलाया।
बुलावे का पालन न करने पर थानेदार पुलिस दल सहित पड़ौना पहुँचा, जिससे भील उत्तेजित हो गए।
26 मार्च को बारापाल, टीडि एवं पड़ौना के भीलों ने बारापाल की पुलिस चौकी व थाने पर आक्रमण कर थानेदार सहित सभी सिपाहियों को मार दिया।
26 मार्च की रात में राज्य की सेनाएँ मामा अमानसिंह (राज्य का प्रतिनिधि) एवं लोनारगन (अंग्रेज प्रतिनिधि) के नेतृत्व में बारापाल पहुँची। इनके साथ महाराणा का निजी सचिव श्यामलदास भी था।
30 मार्च को भीलों व सेना के मध्य वास्तविक युद्ध आरम्भ हो गया। चार दिन तक निरन्तर संघर्ष के उपरान्त सेनाएँ सघन जंगल, पहाड़ी एवं संकरी घाटियों में कठिनाइयों के कारण भीलों के दमन में असफल रहीं।
निराश सेना ने सुरक्षात्मक स्थिति लेकर रिखबदेव में डेरा डाला। यहाँ लगभग 8000 भीलों ने इन्हें घेर लिया। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बीलखपाल का नीमा, पीपली का खेमा एवं सगातरी का जोयता थे।
महाराणा के निजी सचिव श्यामलदास ने रिखबदेव मन्दिर के पुजारी खेमराज भंडारी के माध्यम से भील नेताओं से वार्ता आरम्भ की।
10 अप्रैल, 1881 ई. को भीलों ने अपनी माँगें प्रस्तुत कीं, जिनके आधार पर 25 अप्रैल, 1881 ई. को भीलों के साथ एक समझौता हो गया। भीलों को अनेक रियायतें प्राप्त हुईं।
राज्य के अधिकारी आधा बराड़ कर (प्रतीकात्मक कर) छोड़ने, बोलाई कर का अधिकार, भीलों को जनगणना कार्यों से कष्ट न पहुँचाने एवं भीलों को माफी देने पर सहमत हो गए। भीलों ने राज्य के नियमों के पालन करने का वचन देते हुए विद्रोहात्मक गतिविधियों में संलग्न न होने की स्वीकृति दी।

5. गोविन्द गिरि के नेतृत्व में भील आन्दोलन
भगत आन्दोलन/पंथ आन्दोलन
गोविन्द गिरि का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 ई. में डूंगरपुर के बेड़सा (बंसिया) ग्राम में एक बन्जारे परिवार में हुआ था।
गोविन्द गिरि पर आर्य समाज व स्वामी दयानन्द सरस्वती का प्रभाव माना जाता है।
वह कोटा-बूंदी अखाड़े के साधु राजगिरि का शिष्य बना।
गोविन्द गिरि ने सिरोही में 1883 ई. में सम्प सभा (प्रेम सभा) की स्थापना की। सम्प सभा राजस्थानी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ बंधु मित्र होता है। बेड़सा गाँव में धूनी स्थापित कर एवं निशान (ध्वज) लगाकर आसपास के भीलों को सामाजिक व आध्यात्मिक शिक्षा देना आरम्भ कर दिया। सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 ई. में मानगढ़ में हुआ था।
गोविन्द गिरि ने अपने उपदेशों में समाज एवं धर्म सुधार कार्यों को प्राथमिकता दी। अपने सुधार कार्यों के कारण गोविन्द गिरि बाँसवाड़ा, डूंगरपुर एवं सीमावर्ती गुजरात के भील क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया।
गोविन्द गिरि की लोकप्रियता के कारण डूंगरपुर राज्य के अधिकारी व जमींदार चिंतित होने लगे। अन्ततः 1908 ई. में गोविन्द गिरि को बेड़सा गाँव छोडने के लिए बाध्य कर दिया गया।
1908 ई. में गोविन्द गिरि ने डूंगरपुर राज्य का बेड़सा गाँव तथा दक्षिणी राजस्थान के भील भू-भाग छोड़ दिए।
1908 ई. से 1911 ई. तक गोविन्द गिरि ने बम्बई प्रान्त के ईडर एवं सूँथ राज्यों (गुजरात) के भीलों में अपना कार्य जारी रखा। इस दौरान गोविन्द गिरि ने उकरेली और सूरपुर गाँवों में हाली के रूप में भी काम किया था।
1911 ई. के प्रारम्भ में गोविन्द गिरि डूंगरपुर स्थित अपने मूल स्थान बेड़सा वापस आ गया तथा धूनी स्थापित कर 'भगत पंथ' प्रारम्भ किया। उसने प्रत्येक गाँव में अपनी धूनी स्थापित कर इनकी सुरक्षा के लिए कोतवाल नियुक्त किए।
गोविन्द गिरि का प्रभाव दक्षिणी राजस्थान व गुजरात के भील क्षेत्रों में फैल गया तथा ईडर, सूँथ, बाँसवाड़ा एवं डूंगरपुर राज्यों के अलावा गुजरात के पंचमहल व खेड़ा जिले के भील गोविन्द गिरि के केन्द्र बेड़सा आने लगे।
अप्रैल, 1913 ई. में डूंगरपुर पुलिस ने गोविन्द गिरि को गिरफ्तार कर लिया तथा डूंगरपुर राज्य के बाहर रहने की शर्त पर मुक्त कर दिया। पूँजा धीरजी ने अपने साथियों के साथ मिलकर सिपाहीं गुल मोहम्मद को मार दिया।
गोविन्द गिरि ईडर होता हुआ अक्टूबर, 1913 ई. में बाँसवाड़ा व सूँथ राज्यों की सीमा पर स्थित मानगढ़ की पहाड़ी (वर्तमान बाँसवाड़ा जिले में स्थित) पर पहुँचा।
गोविन्द गिरि ने भीलों को पहाड़ी पर एकत्रित होने के लिए सन्देशवाहक भेजे। धीरे-धीरे भारी संख्या में भील पहाड़ी पर आने लगे जो अपने साथ राशन-पानी व हथियार भी ला रहे थे।
भीलों की गतिविधियों से चिंतित इंडर, सूँथ, डूंगरपुर एवं बाँसवाड़ा राज्यों ने अंग्रेज अधिकारियों से भीलों के दमन का आग्रह किया।
मेजर हेमिल्टन के नेतृत्व में 6 से 10 नवम्बर, 1913 ई. में मेवाड़ भील कोर की दो कम्पनियों, 104 वेलेजली रायफल्स की एक कम्पनी व सातवीं राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी ने मानगढ़ की पहाड़ी को घेर लिया।
गोविन्द गिरि ने 12 नवम्बर को एक माँग पत्र के साथ अपने प्रतिनिधियों को वार्ता करने अधिकारियों के पास भेजा तथा माँगें माने जाने तक तितर-बितर होने से मना कर दिया।
गोविन्दगिरी के शिष्य पूंजाधीरजी को सर्वप्रथम गिरफ्तार किया गया।
गोविन्द गिरि को गिरफ्तार कर अहमदाबाद जेल भेज दिया गया। उन्हें मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई, परन्तु सात वर्ष बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
रिहाई के बाद गोविन्द गिरि सरकारी निगरानी में अहमदाबाद सम्भाग के पंचमहल जिले के झालोद गाँव में रहने लगे।
गोविन्द गिरि ने अपना अन्तिम समय गुजरात राज्य के कम्बोई नामक स्थान पर व्यतीत किया। यहीं पर उनका अन्तिम संस्कार (1931 ई.) हुआ।
वागड़ के भील आदिवासियों की यह शहादत व्यर्थ नहीं गई, बल्कि मानगढ़ की दुखान्त घटना के पश्चात् गोविन्द गिरि की अधिकांश माँगों को आदिवासी क्षेत्रों में आंशिक तौर पर लागू कर दिया गया।
जलियाँवाला बाग से भी वीभत्स इस हत्याकाण्ड की राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षा हुई। किसी भी तथाकथित सभ्य समाज की संस्था ने न तो इस हत्याकाण्ड की आलोचना की एवं न ही इस शहादत को सराहा।

6. मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में आदिवासी आन्दोलन (एकी आन्दोलन)
भोमठ क्षेत्र:- भीलों के निवास क्षेत्र को भोमठ कहा जाता है।
बिजौलिया किसान आन्दोलन ने भीलों व गरासियों में पुनः जागृति उत्पन्न की।
मई, 1917 ई. में उन्होंने अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए मेवाड़ महाराणा को पत्र लिखा। महाराणा ने नवम्बर, 1918 ई. में उन्हें कुछ रियायतें दी लेकिन भील इन रियायतों से सन्तुष्ट नहीं हुए तथा उनमें असंतोष बना रहा।
ऐसी स्थिति में मोतीलाल तेजावत ने भीलों का नेतृत्व किया। वह उदयपुर राज्य के झाड़ोल ठिकाने के कोल्यारी गाँव का निवासी ओसवाल बनिया था (जन्म 1887 ई.)।
मोतीलाल तेजावत को आदिवासियों का मसीहा व बावजी कहा जाता है।
मोतीलाल तेजावत ने आदिवासियों को सामन्ती शोषण से राहत दिलाने एवं उनमें सामाजिक व राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने के लिए 1921 ई. में वैशाख पूर्णिमा को चित्तौड़ जिले के मातृकुण्डिया से 'एकी आन्दोलन' शुरू किया।
एकी आन्दोलन के प्रसार के लिए तेजावत ने 1921 ई. में ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को बदराना गाँव में हरिहर मन्दिर में एक सभा का आयोजन किया। उपस्थित लोगों ने अनुचित कर व बेगार नहीं देने का निर्णय लिया।
सर्वप्रथम झाड़ोल ठिकाने के भीलों ने बेगार व कर देना बन्द कर दिया।
झाड़ोल तेजावत की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था।
तेजावत के नेतृत्व में सात-आठ हजार किसान व आदिवासी पिछोला झील की पाल पर एकत्रित हुए।
तेजावत ने महाराणा के समक्ष 21 सूत्री माँग पत्र प्रस्तुत किया जिसे 'मेवाड़ पुकार' नाम दिया गया।
मोतीलाल तेजावत ने "ना हाकिम न हुक्म" का नारा दिया।
महाराणा ने कई माँगों को स्वीकार कर लिया परन्तु उन्हें राज्य के कर्मचारियों ने कार्यरूप में परिणित नहीं होने दिया। जुलाई, 1921 ई. में मादड़ीपट्टा के भीलों व जवास क्षेत्र के भीलों ने कर देने से मना कर दिया गया।
तेजावत ने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए घर-घर जाकर लोगों में चेतना जागृत की। उसने भीलों में प्रचलित कुरीतियों मद्यपान, गौ-वध, कन्या विक्रय आदि के विरुद्ध अभियान चलाया।
तेजावत की सलाह पर भोमट क्षेत्र के समस्त भीलों ने जागीरदारों को कर देना बन्द कर दिया।
10 अगस्त, 1921 ई. को झाड़ोल ठाकुर ने भीलों को भड़काने के आरोप में तेजावत को गिरफ्तार कर लिया परन्तु भीलों के संगठित विरोध के कारण उसे छोड़ दिया गया।
दिसम्बर, 1921 ई. तक यह आन्दोलन ईडर, सिरोही आदि क्षेत्रों में भी फैल गया।
31 दिसम्बर, 1921 ई. को महाराणा मेवाड़ ने एक आदेश जारी कर भोमट क्षेत्र में 50 से अधिक भीलों के एकत्र होने पर रोक लगा दी तथा तेजावत की गिरफ्तारी पर ₹500 का ईनाम घोषित किया।
जनवरी, 1922 ई. में तेजावत ने सिरोही राज्य में प्रवेश किया जहाँ भारी संख्या में भील व गरासिया आदिवासी रहते थे। यहाँ उसने समाज सुधार के साथ-साथ आर्थिक संघर्ष भी शुरू किया।
मार्च, 1922 ई. में मोतीलाल तेजावत ने गुजरात के ईडर राज्य में प्रवेश कियाः। जब मोतीलाल तेजावत अपने 2000 अनुयायियों के साथ पाल छितरिया नामक स्थान पर रुका हुआ था तो 7 मार्च, 1922 ई. को मेजर सर्टन की कमाण्ड वाली मेवाड़ भील कोर ने उन्हें घेर लिया, उन पर गोलियाँ चलाई गई, जिसमें 1200 लोग मारे गए। इसे दूसरा जलियांवालाबाग हत्याकाण्ड की संज्ञा दी गई।
5-6 मई, 1922 ई. को ए.जी.जी. के सचिव मेजर प्रिचार्ड के नेतृत्व में राजकीय सेना व मेवाड़ भील कोर की टुकड़ी ने रौहिड़ा तहसील के बालौलिया और भूला गाँवों पर आक्रमण कर दिया जिसमें 50 लोग मारे गए।
राजस्थान सेवा संघ ने इन घटनाओं की जाँच हेतु रामनारायण चौधरी और सत्यभक्त को नियुक्त किया था।
1922-23 ई. में तेजावत् ने सिरोही में एकी आन्दोलन चलाया। इस समय राष्ट्रीय नेता मदनमोहन मालवीय का पुत्र रमाकान्त मालवीय सिरोही राज्य का दीवान था।
23 मई, 1922 ई. को सिरोही राज्य ने भीलों की अधिकांश माँगों को स्वीकार कर राज्य में भील आन्दोलन को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की।
जून, 1922 ई. में भोमट के जागीरदारों ने भी भीलों को अनेक रियायतें देकर आन्दोलन को क्षीण कर दिया था।
3 जून, 1929 ई. को गुजरात राज्य की पुलिस ने खेड़बह्म नामक गाँव से तेजावत को गिरफ्तार कर लिया।
मोतीलाल तेजावत की गिरफ्तारी के साथ ही उदयपुर व सिरोही राज्य में भी यह आदिवासी आन्दोलन समाप्त हो गया।

नोट
मणिलाल कोठारी के प्रयासों और राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने का वचन देने पर 1936 ई. में तेजावत को रिहा कर दिया गया।
मोतीलाल तेजावत ने 1936 ई. में उदयपुर में 'बनवासी सेवा संघ' की स्थापना की थी। 1963 ई. में तेजावत की मृत्यु हो गई।

7. मीणा आन्दोलन
भारत सरकार ने 1924 ई. में 'क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट' (आपराधिक जनजाति अधिनियम) पारित किया।
जयपुर राज्य ने भी 'जरायमपेशा कानून' बनाकर मीणाओं पर लगा दिया। इस कानून के अनुसार 12 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को प्रतिदिन पुलिस थाने में उपस्थिति देनी पड़ती थी।
1924 ई. के कानून का विरोध करने और मीणों में जागृति उत्पन्न करने तथा उनमें प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के लिए छोटूराम झरवाल, महादेवराम, पबड़ी तथा जवाहरराम मीणा ने 'मीणा जाति सुधार समिति' की स्थापना की।
1933 ई. में जयपुर में 'मीणा क्षेत्रीय महासभा' गठित हुई जिसने जयपुर रियासत से जरायमपेशा कानून समाप्त करने की माँग की।
1944 ई. में जैन मुनि मगनसागर जी ने 'मीनपुराण' लिखकर मीणा जाति को उसके प्राचीन गौरव से अवगत कराया।
7 अप्रैल, 1944 ई. को नीमकाथाना में मगनसागरजी की अध्यक्षता में एक मीणा सम्मेलन हुआ, जिसमें 'जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति' की स्थापना हुई। बंशीधर शर्मा को इसका अध्यक्ष बनाया गया।
1945 ई. में मीणा सुधार समिति का श्रीमाधोपुर में सम्मेलन हुआ जिसमें 'जरायमपेशा कानून' के विरोध में व्यापक आन्दोलन का निर्णय लिया गया।
ठक्कर बप्पा एवं मीणा सुधार समिति के प्रयासों से 4 मई, 1946 ई. को जयपुर राज्य ने गैर-अपराधी मीणों को 'जरायमपेशा कानून' से मुक्त कर दिया।
28 अक्टूबर, 1946 ई. को बागावास (जयपुर ग्रामीण) में मीणाओं का महासम्मेलन हुआ, जिसमें मीणाओं ने स्वेच्छा से 'चौकीदारी' के काम से त्यागपत्र दे दिया। इस दिन मीणाओं ने मुक्ति दिवस मनाया।
1952 ई. में हीरालाल शास्त्री और टीकाराम पालीवाल के प्रयत्नों से मीणों पर लगे सभी प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • माधोसिंह व गोविन्द सिंह का संबंध अलवर किसान आंदोलन से था।
  • राजस्थान में भीलों के लिये गोविंद गुरू द्वारा गठित सामाजिक धार्मिक संगठन सम्प सभा था।
  • बिजौलिया किसान आंदोलन से संबंधित द्वितीय जाँच आयोग के सदस्य रमाकान्त मालवीय, ठाकुर राजसिंह, मेहता तख्तसिंह थे।
  • 'एकी आन्दोलन' का प्रमुख उद्देश्य किसानों को भारी लगान और अन्यायपूर्ण बेगार से मुक्त करवाना था।
  • किशोरी देवी के नेतृत्व में शेखावाटी किसान आन्दोलन में महिलाओं ने भाग लिया।
  • बेंगू किसान आन्दोलन का नेतृत्त्व रामनारायण चौधरी ने किया था।
  • 1920 के दशक में मेवाड़ में भील आंदोलन का नेतृत्त्व मोतीलाल तेजावत ने किया।
  • एकी आंदोलन के नेता मोतीलाल तेजावत थे जो 1920 में वर्तमान राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमा क्षेत्रों में आंदोलनरत थे।
  • गोविन्द गुरु का मुख्य शिष्य पूँजा धीरजी था।
  • प्रसिद्ध भगत आन्दोलन का नेतृत्व गोविंदगिरी, गोबपालिया और पुँजा धीरजी ने किया गया था।
  • मेवाड़ भील कॉर्प 1841 ई. में स्थापित की गई।
  • भगत आंदोलन गोविंद गिरी से संबंधित है।
  • 'मेवाड़ पुकार' 21 सूत्री माँगपत्र का संबंध मोतीलाल तेजावत से था।
  • बिजौलिया ठिकाने का संस्थापक अशोक परमार था।
  • विजयसिंह पथिक ने बिजौलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व किया।
  • मीणाओं ने रियासत में जरायम पेशा अधिनियम के विरुद्ध आंदोलन किया।
  • राजस्थान का प्रथम किसान आंदोलन बिजौलिया था।
  • राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र ने कृषक आंदोलन प्रारम्भ करने में पहल की।
  • वर्तमान राजस्थान के किसान बिजौलिया किसान आंदोलन से मुख्य रूप से प्रभावित हुए।
  • राजस्थान के जलियाँवाला बाग के नाम से प्रसिद्ध स्थल मानगढ़ धाम बाँसवाड़ा जिले में स्थित है।
  • 17 जुलाई, 1946 को बीकानेर राज्य में 'बीरबल दिवस' मनाया गया।

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