तत्कालीन प्रशासनिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था

तत्कालीन प्रशासनिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था

प्राचीन गणतंत्रीय व्यवस्था

आर्यों के राजस्थान में निवास करने के परिणामस्वरूप यहाँ स्थायी बस्तियों का विकास हुआ। ये बस्तियाँ आगे चलकर जनपदों के रूप में संगठित हो गईं। इन जनपदों में शासन व्यवस्था दो प्रकार की थी-
कुछ जनपदों में राजतंत्रात्मक शासन, जबकि कुछ जनपदों में गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था प्रचलित थी।
गणतंत्रीय व्यवस्था में शासन का संचालन किसी एक राजा के बजाय गण या सभा के माध्यम से किया जाता था। निर्णय सामूहिक रूप से लिए जाते थे और गण के प्रमुख को सामान्यतः गणमुख्य कहा जाता था।
सम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से राजस्थान क्षेत्र में स्थित अनेक गणराज्यों की जानकारी मिलती है। इनमें प्रमुख रूप से-
  • मालव
  • यौधेय
  • अर्जुनायन
  • आभीर
आदि गणराज्य सम्मिलित थे।
गुप्त शासकों ने इन गणराज्यों को पराजित कर अपने साम्राज्य के प्रभाव क्षेत्र में तो ले लिया, परन्तु उन्होंने इनके आन्तरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं किया। गुप्तों की इस अहस्तक्षेप नीति के कारण गणराज्यों की प्राचीन प्रशासनिक व्यवस्था और स्वायत्त स्वरूप बना रहा।
इस प्रकार राजस्थान में प्राचीन काल में गणतंत्रीय परम्परा मजबूत और विकसित अवस्था में विद्यमान थी, जो भारतीय लोकतांत्रिक परम्परा की प्राचीन जड़ों को दर्शाती है।

नोट
गुप्तों के पतन के बाद हूणों के आक्रमण के कारण छठीं शताब्दी में प्राचीन गणतंत्रीय व्यवस्था हमेशा के लिए समाप्त हो गई।
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पूर्व मध्यकाल (7वीं से 12वीं सदी) शासन, समाज व अर्थव्यवस्था

शासन व्यवस्था
इस युग की प्रशासनिक व्यवस्था का चित्रण तत्कालीन शिलालेखों, दानपात्रों व साहित्य आदि से प्राप्त होता है।

राजा
गणतन्त्रों की समाप्ति के बाद स्थापित राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में राजा का सर्वोच्च स्थान था। राजा महाराज, महाराजाधिराज व परमभट्टारक की उपाधियाँ धारण करते थे।
शासन का प्रधान होने के अलावा राजा को प्रजा का धार्मिक, सामाजिक व सैनिक नेता भी माना जाता था। शासकों को प्रभु, वल्लभ, धर्मप्रतिपाल और धर्मपरायण भी कहा गया है।
राजत्व की दैवीय संकल्पना के परिणामतः राजा स्वयं को ईश्वर का अंश घोषित करते थे। नागभट्ट प्रथम व नागभट्ट द्वितीय ने 'नारायण' और भोज प्रथम ने 'आदिवराह' की उपाधियाँ धारण की। गुहिल व चौहान शासकों को 'परमेश्वर' कहा गया है।
राजा से यह आशा की जाती थी कि वह सभी धर्मों व सम्प्रदायों के अनुयायियों के प्रति समान दृष्टि रखें व उनकी समृद्धि हेतु उपाय करें।
राजा निरंकुश होता था परन्तु मंत्रीमण्डल, स्थानीय शासन संस्थाएँ, धर्म, मर्यादाएँ व जनसमूह राजा की स्वछन्दता पर नियन्त्रण रखते थे।

नोट
इस युग के साहित्य में राजा के अनेक कर्तव्य बताये गये हैं- दुष्टों को दण्ड देना, धर्म की रक्षा करना, युद्ध में सेना का नेतृत्व करना, न्याय करना, लोकहित के कार्य करना, सार्वजनिक समारोहों में भाग लेना आदि।

युवराज
राजा के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण पद युवराज या महाराजकुमार का होता था, जो राजा का उत्तराधिकारी होता था।
विशेष समारोह द्वारा किसी एक राजकुमार को युवराज घोषित किया जाता था।

मंत्रीमण्डल
राजा को प्रशासनिक कार्यों में सलाह व सहायता देने हेतु अनेक उच्चाधिकारी होते थे। राजा इनकी नियुक्ति स्वेच्छा से करता था। अधिकांश मंत्री वंशानुगत होते थे।
मंत्री राजा के सलाहकार मात्र होते थे। इनका कोई सामूहिक उत्तरदायित्व नहीं होता था और राजा उनकी सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं था।
प्रधानमंत्री, सन्धिविग्रहिक, अक्षपटलिक, भाण्डारिक, भिषगाधिराज, महाप्रतिहार व महापुरोहित प्रमुख मंत्री होते थे।
प्रधानमंत्री या महामंत्री सभी मंत्रियों में प्रमुख होता था जो अन्य सभी मंत्रियों के कार्यों को देखता था। वह राजा का प्रतिनिधि माना जाता था।
अक्षपटलिक आय-व्यय, अनुदान, भू-लेखों आदि का विवरण रखता था। मेवाड़ के शासक अल्लट के समय एक साथ दो अक्षपटलिक होने का उल्लेख मिलता है।
भाण्डारिक को आगे चलकर भण्डारी कहा जाने लगा था। यह राजकोष व रसद की देख-रेख करता था।

नोट
सन्धिविग्रहिक विदेश मंत्री के समान होता था। राजा के सभी आदेशों और विदेशों से सम्बन्धित पत्रों को तैयार करने की जिम्मेदारी सन्धिविग्रहिक की होती थी।
  • भिषगाधिराज राजकीय चिकित्सक, महापुरोहित राजा के धार्मिक कार्यों का मुख्य पुरोहित और महाप्रतिहार राजदरबार का व्यवस्थापक होता था।

प्रान्तीय प्रशासन
प्रान्त का मुखिया भूचक्रवर्ती कहलाता था, जो राजा, महाराजा, नरेन्द्र आदि विरुदधारी बड़े-बड़े सामन्तों की सहायता से प्रान्त पर नियन्त्रण रखता था।
प्रान्तों को मण्डल नामक इकाइयों में बाँटा जाता था, जिसका प्रधान मण्डलिक होता था। मण्डलों को विषयों में विभाजित किया जाता था। विषय का प्रशासक 'विषयपति' होता था।
विषयों में पथक व खेटक होते थे, जिनका प्रशासक 'तन्त्रपाल' होता था। ग्रामों के समूह के अधिकारी को 'ग्रामपाल' कहा जाता था। ब्राह्मणों को अनुदान में दिये गये गाँव 'अग्रहार' कहलाते थे।

स्थानीय प्रशासन
कस्बों व मण्डियों का प्रशासन चलाने के लिए 'मण्डपिकाएँ' होती थी। विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों में शामिल लोगों का संगठन 'श्रेणी' कहलाता था।

नोट
ग्राम प्रशासन 'पंचकुल' नामक संस्था चलाती थी, जिसमें सामान्यतः गाँव के पाँच वरिष्ठ नागरिक होते थे।
इनमें एक या दो राज्य के प्रतिनिधि होते थे जो कर्णिक (लिपिक) होते थे।
ग्राम संस्थाओं को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होती थी।
स्थानीय विवादों का निपटारा ग्राम-संस्था ही करती थी।

राजस्व व्यवस्था
भूमिकर, आर्थिक दण्ड, शुल्क और अन्य कर राज्य की आय के प्रमुख स्रोत थे।
भूमिकर राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन था, जिसे 'उद्रंग' कहा जाता था। यह 1/10 से 1/6 तक वसूला जाता था।
राज्य की भूमि पर कृषि करने वाले किसानों से 'भोग' नामक भूमिकर लिया जाता था। यह उद्रंग से अधिक होता था।
उद्रंग व भोग उपज के रूप में लिये जाते थे। इन्हें मुद्रा के रूप में वसूलने पर 'हिरण्यक' कहा जाता था। भोग नामक कर उपज, सब्जी, फल, दूध आदि के रूप में लिया जाता था।
मण्डपियाँ और चुंगीघर आयात व निर्यात कर एकत्रित करती थी।
इनके अतिरिक्त अनेक कर होते थे, जिन्हें सामूहिक रूप से आभाव्य (अबवाब) कहा जाता था। कन्धक (कन्धे पर ढोये जाने वाले माल पर), बेणी (बाँस व चारे पर), कोश्म (पिलाई), खल-भिक्षा (सेवाओं के बदले) आदि आभाव्य कर थे।

सैनिक संगठन
सेना राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का आधार थी। महादण्डनायक, दण्डपति, सेनानायक आदि सैनिक अधिकारी थे।
कस्बों व नगर सेना का प्रमुख 'बलाधिकृत 'होता था। घुड़सवारों का प्रधान महश्वपति, गजसेना का प्रधान पीलूपति, पैदल सेना का प्रधान पायकाधिपति और रथ सेना का प्रधान स्कन्दपति कहलाता था।
किलेदार को 'कोट्टपाल' कहा जाता था। आन्तरिक रक्षा व शान्ति व्यवस्था के लिए रक्षा विभाग के समान पुलिस व गुप्तचर व्यवस्था होती थी। दण्डपाशिक, आरक्षिक, दाण्डिक व तलार प्रमुख रक्षा अधिकारी थे।

न्याय व्यवस्था
राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, जो पण्डितों व न्यायमर्मज्ञों की सहायता से विवादों का निपटारा करता था।
सामान्यतः जुर्माना, कारावास और अंग-विच्छेदन का दण्ड दिया जाता था।
गाँवों में पंचकुल स्थानीय स्तर के विवादों पर निर्णय करती थी, जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता दी जाती थी।

आर्थिक गतिविधियाँ
इस युग में अधिकांश जनता का जीविकोपार्जन का आधार कृषि और पशुपालन था।
ब्राह्मण अध्ययन व अध्यापन, लेखन व राजकीय सेवा से तथा वैश्य व्यापार व वाणिज्य और कृषि से अपनी आजीविका चलाते थे। स्थानीय व विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार होता था।
शुद्र वर्ण की अनेक जातियाँ दस्तकारी व कृषि कार्यों द्वारा अपना भरण-पोषण करती थी। कृषक वर्ग सहित सभी वर्गों की आर्थिक स्थिति संतोषजनक थी।

सामाजिक संरचना
इस युग में रचित साहित्य में चार वर्षों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र का वर्णन मिलता है, परन्तु वर्ण व्यवस्था कठोर नहीं थी और न ही स्पष्ट रूप से विभाजित।
समाज में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था जो मुख्यतः अध्यापन, पुरोहित, राजकीय सेवा और कुछ व्यापार के कार्यों में संलग्न थे।
ब्राह्मणों में भी गौत्र व स्थान के आधार पर कुछ आन्तरिक विभेद मौजूद थे। पंचगोड़, पुष्करणा व श्रीमाली ब्राह्मणों को श्रेष्ठ माना जाता था। भीनमाल के ब्राह्मण विद्योन्नति के लिए प्रसिद्ध थे।
क्षत्रिय वर्ण का सामाजिक दृष्टि से दूसरा स्थान था। इन्हें इस युग में राजपूत कहा जाने लगा था। ये प्राचीन क्षत्रिय थे, परन्तु अनेक विदेशी जातियाँ भी भारत में बसने के बाद क्षत्रिय कहलाने लगी थी। देश की रक्षा करना, युद्ध करना, वर्ण व आश्रम व्यवस्था की रक्षा करना इनका कर्त्तव्य माना जाता था।
वैश्य वर्ण के अनेक लोगों ने राजकीय सेवा में भी प्रसिद्धि प्राप्त की। वैश्य आर्थिक रूप से समृद्ध होते थे।
कृषि कार्य करने और विभिन्न दस्तकारियों में विशेषज्ञता अर्जित करने के कारण प्राचीन काल की अपेक्षा शुद्र वर्ण का सामाजिक स्तर इस युग में कुछ ऊँचा उठा था।

नोट
स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। पुत्री जन्म पर दुःख मनाया जाता था।
शासक व समृद्ध वर्ग में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन था। सती प्रथा का भी रिवाज था। विधवाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था।

मध्यकालीन राजस्थान (13वीं से 18वीं सदी तक) शासन, समाज व आर्थिक गतिविधियाँ

राजा
राज्य की सभी शक्तियाँ राजा में निहित थी। वह समस्त सैनिक, राजनीतिक, न्यायिक व प्रशासनिक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु था।
मंत्रियों, राजदूतों व अन्य उच्चाधिकारियों की नियुक्ति, उनके कार्यों का निरीक्षण, उन्हें जागीरें व पदोन्नति देना आदि राजा के अधिकार थे।
सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश स्वयं राजा होता था। जनता को रक्षा, पालन व धर्म का पालन करना वह अपना परम कर्त्तव्य समझता था।
मुगल प्रभुसत्ता स्वीकार करने के बाद राजपूत राज्यों में मुगल प्रशासन का प्रभाव स्थापित होने लगा था, परन्तु राजपूत राज्य आन्तरिक प्रशासन में स्वतंत्र होते थे।
बीकानेर महाराजा रायसिंह व मारवाड़ के सुरसिंह के समय प्रधानमंत्री गोविन्द दास भाटी सहित कई राजपूत राज्यों के शासकों ने मुगल शासन पद्धति के अनुरूप अपने राज्यों के प्रशासन को पुनः संगठित किया।
शासक महाराजा, महाराजाधिराज, परमेश्वर राजराजेश्वर, नृपति, नृपेन्द्र आदि विरुद धारण करते थे। जनता राजा को भगवान का अंश और ईश्वर का प्रतिनिधि मानती थी।
मेवाड़ के राणा जिनका समस्त राजपूत वंशों में उच्च व सम्मानीय स्थान था, एकलिंगजी को अपना आराध्य देव मानते थे और स्वयं को उनका दीवान कहते थे।

नोट
दरबार लगाना, विशेष अवसरों पर सवारी निकालना, शिकार का आयोजन करना, नक्कारे का प्रयोग करना, उपाधियाँ देना, आज्ञा की मुहर का प्रयोग, मृत्यु-दण्ड व अंग-भंग की सजा देना और तुलादान करना आदि राजा के विशेषाधिकार थे।

युवराज
राजा सामान्यतः अपने ज्येष्ठ पुत्र को युवराज घोषित करता था। कहीं-कहीं 'युवराज पदाभिषेक' भी सम्पन्न किया जाता था।
युवराज राज-काज में राजा की सहायता कर अनुभव प्राप्त करता था क्योंकि युवराज भावी शासक समझा जाता था।
बीकानेर राज्य के आदेश पत्रों में महाराजा के नाम के साथ-साथ महाराजकुमार (युवराज) के नाम का भी उल्लेख किया जाता था।

सामंत
राजा व युवराज के अतिरिक्त एक बड़ा अधिकारी वर्ग होता था, जिसे सामूहिक रूप से सामंत वर्ग की संज्ञा दी जाती थी।
सामंत सामान्यतः राजा की वंश-परम्परा से सम्बन्धित होते थे।
सामन्त राज्य की रीढ़ के समान होते थे।
उन्हें उनकी सेवाओं के बदले बड़ी-बड़ी जागीरें व पदवियाँ दी जाती थी।
सामंत अपनी जागीर के प्रशासन में अर्द्ध स्वतंत्र स्थिति का उपभोग करते थे।

मंत्रिमण्डल
शासन सम्बन्धी कार्यों में राजा को सलाह देने के लिए अनेक मंत्री होते थे, जो विभिन्न विभागों के प्रधान थे।
कुछ मन्त्री वंशानुगत होते थे, तो कुछ की नियुक्तियाँ नवीन होती थी।

प्रधान
यह राज्य का सबसे बड़ा मंत्री था, जो सभी विभागों की देखभाल करता था। राजा की अनुपस्थिति में प्रधान ही शासन चलाता था।
विभिन्न राज्यों में प्रधान को अलग-अलग पदनाम से जाना जाता था, जैसे मेवाड़ में भांगड़, जयपुर में मुसाहिब, कोटा में फौजदार, बीकानेर व बूँदी में दीवान आदि।

नोट
मेवाड़ में सलूम्बर के रावत को प्रधान का पद वंशानुगत प्राप्त था।
जोधपुर में यह पद आउवा ठाकुर को दिया जाता था, विजयसिंह के समय से आसोप ठाकुर को और बाद में मानसिंह के समय से पोकरण के ठाकुर को यह पद वंशानुगत रूप से दिया गया।

दीवान
यह मुख्यतः वित्त व राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियंत्रण रखता था।
जिन राज्यों में प्रधान का पद नहीं था, वहाँ यह ही सर्वोच्च मंत्री था।
राजा विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति दीवान की सलाह पर करता था।

मुसाहिब
कुछ राज्यों में मुसाहिब का पद होता था, जो प्रधान के समान था।
बीकानेर में इसे 'मुख्यार' कहा जाता था।
यह पद वस्तुतः सम्मान हेतु दिया जाता था।
यह राजा का मुख्य सलाहकार होता था।

बख्शी
बख्शी सेना विभाग का अध्यक्ष होता था।
कुछ राज्यों में इसे फौज बख्शी भी कहा जाता था।
सेना का वेतन, रसद, अनुशासन, प्रशिक्षण, नियुक्तियाँ आदि उसके प्रमुख कार्य थे।
नायब बख्शी, खबरनवीस, किलेदार आदि उसके अधीन होते थे।

खानसामान
यह दीवान के अधीन होता था।
निर्माण कार्य, राजमहल की आवश्यकताओं की पूर्ति क्रय व संग्रह और सभी कारखाने उसके नियन्त्रण में होते थे।
मेवाड़ में इसे 'पाकाध्यक्ष' कहते थे।

कोतवाल
प्रमुख नगरों व बड़े कस्बों में कोतवाल नियुक्त किये जाते थे।
जनसुरक्षा व शांति व्यवस्था बनाये रखना कोतवाल का काम था।

शिकदार
कुछ राज्यों में शिकदार का पद भी था।
अलग-अलग राज्यों में इसके कार्यों में अन्तर था।
जोधपुर में शिकदार कोतवाल के समान था।

खजांची
राजकीय कोष का प्रभारी खजांची होता था।
मेवाड़ में इसे कोषपति कहा जाता था।
यह राजकीय जमा व खर्च का ब्यौरा भी रखता था।

अन्य प्रमुख अधिकारी
मुगल काल में राजपूत शासक मुगल दरबार में अपने प्रतिनिधि रखते थे, जो वकील कहलाता था।
जोधपुर राज्य में 'मीरमुंशी' का काम कूटनीतिक पत्र-व्यवहार की देख-रेख करना था। किले का अधिकारी किलेदार होता था। 'ड्योढीदार' राजमहल का सुरक्षा अधिकारी था।
दरोगा-ए-डाक चौकी (डाक प्रबन्धक), दरोगा-ए-सायर (दान वसूलने वाला), मुशरिफ (वित्त विभाग का सचिव), वाकयानवीस (सूचना व गुप्तचर विभाग का प्रमुख) आदि अन्य महत्त्वपूर्ण पद थे।

परगने का प्रशासन
सभी राज्यों को परगनों में बाँटा गया था। परगनों की संख्या व सीमा में परिवर्तन होता रहता था।
हाकिम परगने का सर्वोच्च अधिकारी होता था, जो राजा द्वारा नियुक्त किया जाता था। जयपुर व कोटा में इसे क्रमशः फौजदार व हवालगिर कहा जाता था।
परगने का दूसरा उच्च अधिकारी फौजदार होता था, जो पुलिस व सेना का अध्यक्ष होता था।
बड़े परगनों में हाकिम की सहायता के लिए 'ओहदेदार' भी नियुक्त किया जाता था।
परगनें में अमीन, कानूनगो, कारकून, वाकयानवीस, चौकीनवीस, पोतदार, शिकदार, खजांची आदि कर्मचारी भी होते थे, जो हाकिम के अधीन कार्य करते थे।

नगर प्रशासन
नगर का मुख्य पदाधिकारी कोतवाल होता था। राजधानी के अतिरिक्त बड़े-बड़े कस्बों में भी कोतवाल नियुक्त किये जाते थे, उसका प्रमुख दायित्व नगर में शान्ति व व्यवस्था बनाये रखना था।

ग्राम प्रशासन एवं पंचायत व्यवस्था
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होता था। ग्राम स्तर पर प्रशासन का संचालन ग्राम पंचायत करती थी। ग्राम पंचायत को 'पंचकुल' भी कहा जाता था। इसमें सामान्यतः पाँच सदस्य होते थे।
ग्राम प्रशासन का मुखिया पटवारी कहलाता था। गाँव में प्रशासनिक स्तर पर स्थायी रूप में स्थानीय अधिकारी चौधरी या पटेल होता था।
कनवारी (खेत का रक्षक), दफेदार (भूमि का लेखा-जोखा रखने वाला), तलवाटी (उपज तौलने वाला), शहना या साहणे (प्रबन्धक) व चौकीदार पटवारी के सहायक होते थे।
ग्राम पंचायत गाँव के स्थानीय विवादों पर निर्णय तथा स्थानीय सुविधाओं जैसे मन्दिर, तालाब, शिक्षा आदि का प्रबन्धन भी करती थी।
जाति पंचायतों का भी अस्तित्व था, जो जाति सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करती थी।
ग्राम पंचायत और जाति पंचायत के अतिरिक्त संघ व गोष्ठी नामक स्थानीय संस्थाएँ भी मौजूद थीं, जो क्रमशः धार्मिक व व्यवसाय से सम्बन्धित थी।

राजस्व व्यवस्था

राज्य की आय का सबसे प्रमुख स्त्रोत भूमि-कर था। सभी राज्यों में भूमि-कर व्यवस्था एक समान नहीं थीं।
राज्य की भूमि स्वामित्व व प्रशासन के आधार पर निम्न भागों में विभक्त थी- खालसा, हवाला, जागीर, भीम व सासण।
खालसा भूमि का प्रबन्ध प्रत्यक्ष रूप से सरकार के नियन्त्रण में था। हवाला भूमि की देख-रेख हवालदार करता था।
जागीर भूमि पर जागीरदार का अधिकार होता था।
भोम भूमि भोमियों के अधिकार में थी। सासण भूमि की उपज का भाग पुण्यार्थ मन्दिरों, ब्राह्मणों, चारणों आदि के उपभोग के लिए दिया जाता था।
मारवाड़ में दो प्रकार के काश्तकार होते थे- बापीदार (भूमि का वास्तविक स्वामी) और गैर-बापीदार (शिकमी काश्तकार)। मेवाड़ राज्य में किसान भूमि का मालिक माना जाता था।

नोट
भू-राजस्व निर्धारण व वसूली की विभिन्न प्रणालियाँ प्रचलित थी- लाटा, कुंता, कांकड़ कुंता, हलगत प्रणाली, मुकाता, डोरी, घुघरी, बीज घुघरी, भींत की भाछ आदि।

फसल तैयार हो जाने के बाद कर निर्धारण की पद्धति लाटा या बँटाई कहलाती थी। एकत्रित अनाज को तोलकर या रस्सी से नापकर बाँटना कुँता होती थी, यह विधि सर्वाधिक प्रचलित थी।
खेत में खड़ी फसल की उपज का अनुमान लगाकर राज्य का हिस्सा निर्धारण 'कांकड़ कुंता' कहलाती थी। एक हल से जोती गई भूमि के हिसाब से कर लेने की प्रणाली 'हलगत' कहलाती थी।
खेत पर एकमुश्त कर निर्धारण 'मुकाता' तथा डोरी से भूमि नापकर कर वसूली 'डोरी या जब्ती' विधि कहलाती थी। बीकानेर राज्य में 'भींत की भाछ' पद्धत्ति से भी कर लिया जाता था।
मारवाड़ व बीकानेर में प्रति बीघा कर वसूली 'बीघोड़ी' के नाम से जानी जाती थी। प्रति कुआँ या प्रति खेत पैदावार के हिसाब से राजस्व वसूली 'घुघरी' और बोये गये बीज के आधार पर कर निर्धारण 'बीज घुघरी' कहलाता था।
भूमि सम्बन्धी विवरण खसरा या 'तजकीरा' कहलाता था। भूमि-कर सामान्यतः 1/6 से 1/4 भाग तक लिया जाता था।
राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा राज्य में झाला जालिम सिंह ने 1807 ई. में भूमि बन्दोबस्त करवाया तथा राज्य की समस्त भूमि को नपवाया।
भूमि-कर के अतिरिक्त चूँगी (राहदारी, दाण, मापा, बारूता), गृहकर, घासमरी (चराई), खेड़ खर्च या फौज खर्च (बीकानेर में रूखवाली भाछ, मेवाड़ में गनीम बराड़, मारवाड़ में सवार खर्च या फौज बल), नोता, विवाह, त्योहार, जकात (सायर) आदि प्रमुख कर थे।
जर्माना, अर्थदण्ड, टकसाल, नजराना, पेशकश, भेंट, कारखाना, वन, खान, नमक व आयात-निर्यात से भी राज्य को आय होती थी।

न्याय व्यवस्था

न्याय व दण्ड व्यवस्था का आधार प्राचीन धर्म-शास्त्र थे। परम्पराएँ, रीति-रिवाज तथा देशाचार को भी मान्यता दी जाती थी।
दण्ड व्यवस्था कठोर थी। मृत्यु दण्ड दिया जाता था। इसके अतिरिक्त शिरेच्छेदन, अंग-भंग, देशनिर्वासन, कारागार, जुर्माना आदि दण्ड दिये जाते थे। मारवाड़ में कारावास को 'भाकसी' कहते थे।
ग्राम स्तर पर न्याय-अधिकारी चौधरी या पटेल हुआ करता था। इसके अतिरिक्त ग्राम और जाति पंचायतों द्वारा भी न्याय का कार्य सम्पन्न होता था।
ग्राम स्तर से ऊपर परगनों में न्याय का कार्य हाकिम (आमिल या हवालगिर) किया करता था। हाकिम को दीवानी व फौजदारी सम्बन्धी सभी मामलों को सुनने का अधिकार था।
हाकिम के निर्णय के विरुद्ध दीवान के पास अपील की जा सकती थी। दीवान दीवानी व फौजदारी दोनों प्रकार के मामलों की निपटाता था। मेवाड़ में दण्डपति और जयपुर में आमिल न्याय कार्य करते थे।
अपील की अन्तिम अदालत स्वयं राजा होता था। राजा के पास सीधे भी अपील की जा सकती थी। राजा न्यायविदों की सहायता से न्याय करता था। जयपुर राज्य में राजा की अदालत को 'न्याय सभा' की संज्ञा दी गई थी।
मुसलमान प्रजा को न्याय उनकी शरीअत के अनुसार मिलता था। राजधानियों व बड़े नगरों में काजी नियुक्त किये जाते थे जिनके द्वारा मुसलमानों को न्याय प्राप्त होता था।
राजधानी व छोटे बड़े नगरों में नियुक्त कोतवाल भी न्यायाधीश का काम करते थे।

सैनिक व्यवस्था

राज्य की सेना मुख्यतः सामन्तों के सहयोग व निष्ठा पर निर्भर थी। आवश्यकता पड़ने पर सामन्त सैनिकों के साथ शासक की सेवा में उपस्थित होते थे।
राजा के पास अंगरक्षकों के रूप में एक छोटी सैनिक टुकड़ी के अतिरिक्त कोई निजी स्थायी सेना नहीं हुआ करती थी।
पैदल, घुडसवार, हाथी व रथ सेना के परम्परागत विभाजन थे। मुगल प्रभाव के बाद सेना में तोपें व बन्दूकची भी शामिल किये जाने लगे थे।
रथों का प्रयोग धीरे-धीरे समाप्त होने लगा और घुडसवार सेना के प्रमुख अंग बन गये। मुगलों की भाँति बारुद, तोपों, बन्दूकें, छोटी तलवारों व हल्की ढालों जैसे अस्त्र-शस्त्र का राजपूत प्रयोग करने लगे थे।

नोट
तोपखाने का प्रमुख दरोगा-ए-तोपखाना, पैदल का पैदलपति, गजसेना का गजपति, अश्वसेना का अश्वपति कहलाता था।

बीकानेर, जैसलमेर व जोधपुर राज्यों में ऊँट-सवारों के भी दस्ते थे। ऊँटों की सेना का प्रबन्ध शुतुरखाना विभाग किया करता था।

आर्थिक गतिविधियाँ

कृषि
अधिकांश जनता के जीवन-निर्वाह का आधार कृषि थी। भूमि का स्वामी राजा था, इसीलिए उसे भूमिपति भी कहते थे।
स्वामित्व के आधार पर भूमि को अनेक भागों में बाँटा जाता था- खालसा, जागीर, सासण (शासन), भोम और चार्णीट (चरणोत)। चार्णोट गाँव के निकट स्थित चारागाह भूमि को कहते थे।
स्वरूप व स्थिति के आधार पर भी भूमि को अलग-अलग नामों से जानते थे- एक चमड़े के पात्र से खींची जाने वाली भूमि कोशवाहक, तालाब की भूमि 'तलाई' नदी के किनारे वाली भूमि 'कच्छ', कुएँ या गड्ढे के पास वाली भूमि डोमडू और गाँव के पास वाली भूमि गोरमी कहलाती थी।
17वीं-18वीं सदी में क्षमता की दृष्टि से भूमि विभिन्न वर्गों में विभक्त थी- सिंचाई की सुविधा वाली भूमि पीवल, दलदल भूमि 'गलत' हाँस जोती जाने वाली हकत-बहत, चारागाह भूमि बाड़, पहाड़ी भूमि मगरो, काली उपजाऊ भूमि माल, बागों व सब्जियों के लिए प्रयुक्त भूमि बाड़ी आदि।
खेती के लिए हल, कुदाल, फावड़ा आदि का प्रयोग किया जाता था। हल को बैल खींचते थे, कहीं-कहीं ऊँटों से भी हल खींचे जाते थे।
सिंचाई के साधन बहुत कम थे। कुओं, बाड़ियों, तालाबों, नहरों व नदियों से सिंचाई की जाती थी। कुओं व बाड़ियों से रहट, चड़स व ढीकली प्रणालियों से पानी निकालकर सिंचाई की जाती थी।

उद्योग-धन्धे
वस्त्र उद्योग मध्यकालीन राजस्थान का सबसे बड़ा उद्योग था। मलमल जैसे महीन व श्रेष्ठ कपड़े की बुनाई का कार्य कोटा में होता था। कोटा की चूंदड़ी व कसूमल प्रसिद्ध थी। कैथून व माँगरोल करघा उद्योग के केन्द्र थे।
बूंदी में डोरियाँ व अंगोछों की बुनाई, बगरू व सांगानेर की छपाई, बारों चूँदड़ी-बंधाई के लिए जयपुर व जोधपुर भी जाने जाते थे।
कोटा में कपड़े पर सोना, चाँदी व रेशमी बेल-बूटों की कारीगरी होती थी। आकोला, उदयपुर, चित्तौड़, आहड़, भरतपुर, पाली आदि में कपड़ों की रंगाई व छपाई अच्छी होती थी।
बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर व जयपुर के शेखावाटी क्षेत्र में ऊनी उद्योग उन्नत था। बीकानेर व जैसलमेर की ऊनी कम्बलें व दरिया, ओसियों की ऊनी कम्बलें, जयपुर व मालपुरा की ऊनी टोपियाँ व शाल प्रसिद्ध थे। ऊँट व बकरी के बालों से बोरों व जाजिमों की बुनाई की जाती थी।
बीकानेर के बीदासर में सन व मूंज के रस्से तथा जोधपुर व जैसलमेर में लम्प व मूंज घास और कोड़ला नामक पेड़ के रेशों से रस्सी बनती थी, जिसका प्रयोग खाट बुनने में किया जाता था।
उदयपुर, भीलवाड़ा, शाहपुरा व मुंडवा (जोधपुर) में लकड़ी के खिलौने बनते थे। लकड़ी पर दानेदार रंगाई का काम जहाजपुर व सवाईमाधोपुर में होता था।
लकड़ी पर खुदाई का काम डूंगरपुर व बाँसवाड़ा में, अलंकृत सन्दूकों का निर्माण करौली में तथा बैलगाडियों व नावों का निर्माण कोटा में होता था।
पीतल के बर्तनों पर नक्काशी और हीरे-जवाहरात व रत्नों की जड़ाई का कार्य जयपुर में सर्वाधिक होता था। जयपुर में लाल रंग की मीनाकारी तथा जोधपुर में पटवे के काम वाले आभूषण बड़े आकर्षक बनते थे।
कोटा, जोधपुर, मेड़ता, गागरीन आदि स्थानों पर तोपें डालने का कार्य किया जाता था। बूंदी में कटार, उस्तरे, चाकू और तलवार बनाने के उद्योग थे। सिरोही की तलवारें प्रसिद्ध थीं।
हाथी दाँत से कोटा में छोटे-छोटे श्रृंगार बक्सों, भरतपुर में चंवर व पंखों की डांडियों तथा जोधपुर व पाली में चूड़ियों का निर्माण बड़े स्तर पर होता था।
जयपुर, उदयपुर और जोधपुर राज्यों में चमड़ा उद्योग विकसित था। इन स्थानों पर बनी जूतियाँ आज भी प्रसिद्ध हैं। जोधपुर में चमड़े की सन्दूकों का भी निर्माण होता था।
गुलाब का इत्र और गुलाब जल कोटा और कोठारिया में तथा खस का इत्र सवाईमाधोपुर में बनता था।
सवाई-माधोपुर, सांगानेर व धोसुंडी में कागज बनते थे। अलवर में लाख का उत्पादन होता था। कोटा की आतिशबाजी व उदयपुर का साबुन निर्माण उद्योग प्रसिद्ध था।
प्रतापगढ़ में काँच पर नक्काशी, जालौर व जैसलमेर में घोड़े की काठियाँ और मालपुरा में बन्दूक की खोलियों बनती थीं।

नोट
कचर रेवासर (जयपुर), लूणकरणसर, तालछापर (बीकानेर), और कानोद (जैसलमेर) में निम्न कोटि का नमक बनता था। साँभर, डीडवाना, फलौदी, पचपदरा (बालोतरा) और नावां में बढ़िया किस्म के नमक का उत्पादन होता था।

व्यापार-वाणिज्य
देश के उत्तरी-पश्चिमी, उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिणी भारत के व्यापारिक मार्ग राजस्थान से होकर निकलते थे।
मारवाड़ में पाली, नागौर व भीनमाल, मेवाड़ में भीलवाड़ा, जयपुर में मालपुरा, सीकर व चिड़ावा, बीकानेर में चेरू, नोहर व राजगढ़ और कोटा में अन्ता, बारां व माँगरोल प्रमुख व्यापारिक मंडियों थी।

नोट
पुष्कर, परबतसर, राजनगर व नागौर में पशुओं के मेले लगते थे। विशिष्ट वस्तुओं के लिए बड़े बाजार होते थे। स्थानीय मण्डियाँ भी होती थीं तथा साप्ताहिक हाट भी लगते थे।
  • ऊन के लिए जैसलमेर व बीकानेर, रूई के लिए कोटा, अफीम के लिए प्रतापगढ़ और जंगली लकड़ियों के लिए दक्षिणी-पश्चिम राजस्थान प्रसिद्ध थे।
  • पाली व्यापारिक केन्द्र के रूप में सम्पूर्ण उत्तर भारत में प्रसिद्ध था। चीन, यूरोप व अफ्रीका सहित देश के विभिन्न भागों से यहाँ माल आता था। अफीम का यहाँ से विदेशों में निर्यात होता था।
  • राजगढ़ में दिल्ली, हाड़ौती, मालवा और मुल्तान से विभिन्न व्यापारिक वस्तुएँ आकर बिकती थीं।

व्यापारिक मार्ग
दिल्ली से गुजरात की तरफ जाने वाला मार्ग अलवर, आमेर, अजमेर, पाली, सिरोही होकर जाता था।
अजमेर से अहमदाबाद जाने का दूसरा मार्ग मांडलगढ़ व चित्तौड़ होकर था। दिल्ली से सिन्धु नदी और काबुल तक जाने वाला मार्ग बीकानेर से निकलता था।
विलियम फिंच ने आगरा से चित्तौड़ होते हुए अहमदाबाद जाने के मार्ग का उल्लेख किया है।
बाबर ने धौलपुर व ग्वालियर होकर मालवा जाने वाले मार्ग का वर्णन किया है। मालवा के लिए दूसरा मार्ग चित्तौड़ होकर निकलता था।

मुद्रा व्यवस्था
प्रारंभिक मध्यकालीन लेखों में द्रुम, द्रमार्थ, द्रभाष्ट, विंशक, अर्द्धविंशक और रूपक आदि सिक्कों के प्रचलन का विवरण मिलता है।
पन्द्रहवीं सदी में सोने, चाँदी व ताँबे के टक्का का उल्लेख मिलता है।
राणा कुम्भा के समय चौकोर और गोल आकार के स्वर्ण सिक्के चलते थे। कुम्भा ने ताँबे के सिक्के भी चलाए, जिनके एक तरफ 'कुम्भकर्ण' तथा दूसरी ओर 'कुम्भमेरू' या 'श्री एकलिंग जी' अंकित होता था।
मध्यकाल में मुस्लिम शासकों से सम्पर्क के बाद राजस्थान में फिरोजी, आलमशाही, शालमशाही, नौरंगशाही, अकबरी आदि सिक्कों का प्रचलन हुआ। ये सिक्के चाँदी के बने होते थे। ताँबे के पैसे फदिया, ढीन्गला व ढब्बूशाही आदि नामों से जाने जाते थे।

सामाजिक व्यवस्था एवं परिवर्तन

समाज में सर्वाधिक सम्मानित स्थान ब्राह्मणों का था। अध्ययन-अध्यापन, पुरोहिती, आराधना आदि इस वर्ग के प्रमुख कार्य थे। कुछ ब्राह्मण खेती तथा व्यापार के द्वारा भी निर्वाह करते थे। ब्राह्मण कभी-कभी राज्य सेवा और योद्धा का काम भी करते थे।
दूसरा स्थान शासक वर्ग का था, जो इस युग में राजपूत कहलाते थे। शासन-प्रशासन, राज्य सेवा, सैनिक कार्य इस वर्ग का प्रमुख कार्य था। राजपूतों के एक ही वंश में भी अनेक शाखाएँ व प्रशाखाएँ होती थी।
वैश्य वर्ण में भी अनेक जातियाँ व उपजातियाँ विद्यमान थीं। इनका मुख्य व्यवसाय व्यापार-वाणिज्य, कृषि और लेन देन था। विशेष प्रतिभा होने से शासकीय कार्यों में भी इनका विशेष योगदान रहा है। ओसवाल जाति के वैश्य इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय हैं।
मध्ययुगीन राजस्थानी समाज में चारण जाति का भी विशेष स्थान था। युद्ध में भाग लेने, और शक्ति की उपासना में यह जाति राजपूतों के निकट थी। पठन-पाठन व साहित्यिक रचनाओं के विचार में उनकी साम्यता ब्राह्मणों से की जा सकती हैं।
लेखन व प्रशासन सम्बन्धी मामलों में दक्ष होने के कारण कायस्थ जाति का भी सम्मानित स्थान था। भटनागर, पंचोली व माथुर कायस्थ अधिक प्रसिद्ध थे। गाँवों और कस्बों में विभिन्न जातियाँ अपने-अपने समुदाय बनाकर रहती थीं और एक-दूसरे को सहयोग देती रहती थीं। हिन्दू मुस्लिम सम्बन्ध भी इस युग में सौहार्दपूर्ण था।
मध्यकालीन समाज में स्त्रियों का जीवन अनेक कुप्रथाओं के कारण संतोषजनक नहीं था। उन्हें आर्थिक व राजनीतिक अधिकार नहीं थे।
बहुपत्नी विवाह, सतीप्रथा, दहेज प्रथा आदि कुप्रथाएँ अत्यधिक मात्रा में प्रचलित थीं। विधवाओं का जीवन कष्टमय होता था।
चौपड़, शतरंज, गजीफा आदि विशिष्ट वर्ग के खेल थे। कुश्ती, पट्टेबाजी, शिकार खेलना, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि शौर्य प्रदर्शन के खेलों का आयोजन राज्य द्वारा किया जाता था।
मुगलों से सम्पर्क के परिणामस्वरूप पतंगबाजी, कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई आदि आमोद-प्रमोद के साधन भी राजस्थान में प्रचलित हो गये थे।
नाचना, गाना, वाद्य यन्त्रों का बजाना, झूलना आदि भी मनोरंजन के माध्यम थे। भांड व नटों के खेल भी आमोद के साधन थे।
त्योहारों में गणगौर, तीज, होली, दीपावली, नवरात्रा, दशहरा तथा कई धार्मिक पर्वों को धूमधाम से मनाया जाता था।
विशेष त्योहारों पर अन्य धर्म से सम्बन्धित व्यक्ति भी उपस्थित होते थे, जो मध्यकालीन सामाजिक सद्भाव और समन्वय का द्योतक है।

राजस्थान में सामंत प्रथा

राजस्थान में सामंतवाद की स्थापना आंशिक रूप से 7वीं-8वीं शताब्दी में राजपूत राज्यों की स्थापना के साथ हो चुकी थी, परन्तु 15वीं सदी के बाद सामंत प्रथा ने राजनीतिक और सामाजिक रूप से विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया था।
सामंत सामान्यतः राजा के वंश से सम्बन्धित भाई-बन्धु थे, और वे सभी अपने को राज्य का समान भागीदार समझते थे। उनकी दृष्टि में राजा अपने कुल का प्रधान था। वे स्वयं को राजा के अधीन नहीं, बल्कि उसका सहयोगी समझते थे।
कर्नल टॉड ने राजस्थान की सामंति प्रणाली की तुलना मध्ययुगीन यूरोपीय सामंति पद्धति से की है। अधिकांश इतिहासकार टॉड के मत से सहमत नहीं हैं, उनके अनुसार राजस्थानी सामंत प्रथा में नेता के रूप में एक राजा था और उसके वंशज या अन्य उसके साथी व सहयोगी थे जबकि यूरोप में राजा स्वामी था और सामंत उसके आश्रित, जिनकी कोई स्वतंत्र स्थिति नहीं थी।
राजा इन सामन्तों के सहयोग से ही राज्य की स्थापना व विस्तार करने में सक्षम रहे थे। राजा अपने सामन्तों को भाईजी और काकाजी आदि आदरसूचक शब्दों से सम्बोधित करते थे। इसी प्रकार सामंत राजा को 'बाप जी' कहते थे।

सामन्तों के अधिकार एवं कर्त्तव्य

सामंत आवश्यकता के समय राजा को सैनिक सहायता देते थे। राजा सेना के लिए सामन्तों पर निर्भर होता था।
कालांतर में 'रेख' के आधार पर सामन्तों की सैनिक सेवा का निर्धारण होने लगा था। सामन्तों की जागीर की वार्षिक उपज का अनुमान 'रेख' कहलाता था।
जागीरदार या सामंत को सैनिक सेवा के अतिरिक्त हुकमनामा (उत्तराधिकार शुल्क), राज्याभिषेक के अवसर पर शासक को नजराना, शासक व युवराज की प्रथम शादी पर भेंट, न्योता (राजकुमारी के विवाह पर), पेशकशी, तलवार बंधाई आदि के रूप में राजा को विभिन्न कर देने होते थे।
मारवाड़ में 'भरतु रेख 'वह रकम थी जो प‌ट्टा रेख (जागीरदार की वार्षिक आय) के आधार पर राज्य के खजाने में जमा करनी पड़‌ती थी। अजीतसिंह के समय 'तागीरात' भी सामंतों से वसूला जाने लगा था।
अपनी जागीर क्षेत्र में शांति व व्यवस्था बनाये रखना, कर वसूल करना, न्याय करना आदि सामंत के प्रशासनिक दायित्य थे। उसे मृत्यु दण्ड देने, अन्य सामन्तों से सम्बन्ध स्थापित करने, सिक्के ढालने आदि के अधिकार नहीं थे।
होली, दीपावली, दशहरा, रक्षाबन्धन, अक्षयतृतीया और राजा के जन्म-दिवस पर आयोजित दरबार में सभी सामन्तों को उपस्थित होना पड़ता था। राजा इन्हीं सामन्तों में से विभिन्न मन्त्रियों की नियुक्ति करता था तथा राज्य से सम्बन्धित नीतियों में सलाह लेता था।

प्रमुख राज्यों में सामन्तों की श्रेणियाँ

मुगलों से सम्पर्क के परिणामस्वरूप सामन्त व्यवस्था में परिवर्तन हुआ तथा लगभग सभी रियासतों में सामन्तों की श्रेणियाँ स्पष्ट तौर पर बना दी गई। वस्तुतः प्रारम्भ से ही सामन्तों में अन्तर था।
श्रेणियों के आधार पर ही सामन्तों का दरबार में सम्मान, स्थिति, बैठने का स्थान, पेशकश, ताजीम (राजा द्वारा स्वागत) आदि निश्चित होते थे।

मारवाड़
मारवाड़ में सामन्तों की चार श्रेणियाँ थीं- राजवी, सरदार, मुत्सद्दी और गनायत। राजा के छोटे भाई व निकट सम्बन्धी 'राजवी 'कहलाते थे। सरदारों की भी चार उपश्रेणियाँ थीं, जिनमें सिरायत प्रथम थे। सिरायत सरदार दायीं मिसल (रणमल के वंशज) और बायीं मिसल (जोधा के वंशज) में विभाजित थे।
राज्य प्रशासन में कार्य करने के एवज में प्राप्त जागीर के अधिकारी मुत्सद्दी सामंत थे। गनायत राठौड़ों का राज्य स्थापित होने से पहले से ही मारवाड़ के किसी क्षेत्र के स्वामी थे, जिन्होंने राजा की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

नोट
मारवाड़ में नये राजा का राजतिलक करने का अधिकार बगड़ी के जैतावत ठाकुर को था। वह अपने अंगूठे को तलवार से चीरकर रक्त से टीका करता था।

मेवाड़
मेवाड़ राज्य में अमरसिंह द्वितीय के समय सामंत प्रथा को व्यवस्थित किया गया तथा जागीर बदलने की परम्परा को समाप्त कर दिया गया।
मेवाड़ में सामन्तों को सोलह, बत्तीस और गोल की तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। यह व्यवस्था 'अमरशाही रेख 'कहलाती थी।
प्रथम श्रेणी के सोलह सामन्तों में बनेड़ा, शाहपुरा, सलूम्बर व बेदला के ठाकुरों का विशेष स्थान था। इन सोलह सामन्तों (उमराव) को ताजीम, बाहंपसाव, हाथ का कुरब आदि सम्मान का अधिकार था।
सलूम्बर का ठाकुर महाराणा की अनुपस्थिति में प्रशासन चलाता था। राजमहल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उसी की थी। वह वंशानुगत रूप से राज्य का प्रधान होता था तथा नए महाराणा का सिंहासनारोहण भी सलूम्बर के ठाकुर की सहमति से होता था।

नोट
महाराणा के राज्याभिषेक के अवसर पर ऊन्दरी गाँव का भील गामेती अपने अंगूठे को चीर कर रक्त से महाराणा का राजतिलक करता था।

बीकानेर
बीकानेर राज्य में महाराजा रायसिंह ने सामंती व्यवस्था में परिवर्तन किये। उसने बीकानेर में सर्वप्रथम प‌ट्टा प्रणाली आरम्भ की, जिसके द्वारा सामन्तों की सेवाओं, दायित्वों व अधिकारों को निश्चित कर उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया।
बीकानेर में सामंत मुख्यतः तीन वर्गों में विभाजित थे- प्रथम, राव बीका के वंशज, द्वितीय, बीका के भाई व चाचा के वंशज और तृतीय, स्थानीय व परदेशी अधीनस्थ सामन्त।

जयपुर
जयपुर में प्राथमिक रूप से सामन्तों का विभाजन बारह कोटड़ी पर आधारित था। जयपुर राज्य में सामंत मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित थे- ताजीमी और खास चौकी।

कोटा
कोटा राज्य में सेवा के अनुसार सामन्तों के पद का निर्धारण होता था। कोटा के जागीरदार दो श्रेणियों में विभाजित थे- देशथी (देश में ही रहकर सेवा करने वाले) और हजूरथी (दरबार के साथ मुगल सेवा में रहने वाले)।

नोट
कोटा नरेश के निकट कुटुम्बी राजवी और अन्य सरदार 'अमीर-उमराव' कहलाते थे।

राजस्थान की सामंत व्यवस्था में 'ग्रासियों' और 'भोमियों' का भी विशेष स्थान था। ग्रासिया ठाकुर वे भूमिपति थे जिनको राज्य की निश्चित सैनिक सेवा करने के उपलक्ष्य में शासक की ओर से पट्टे या सनद द्वारा भूमि प्रदान की गई थी।
भोमिया जागीरदार वे थे जिन्हें सीमांत क्षेत्र की सुरक्षा या गाँव की सुरक्षा या राज्य की सेवा में बलिदान के बदले भूमि प्रदान की गई थी। इनका भूमि पर वंशानुगत अधिकार होता था।

शब्दावलियाँ

प्रशासनिक शब्दावली
  • अङ्गस‌ट्टा- यह जयपुर राज्य का भूमि सम्बन्धी रिकार्ड है। इनमें जयपुर राज्य के परगनों में जितने मौजे थे उनकी भूमि, पैदावार आदि का विवरण मिलता है।
  • अर्जदाश्त- एक प्रकार का लिखित पत्र जो एक अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी को भेजता था।
  • किलेदार- किले का रक्षक अधिकारी 'किलेदार' कहलाता था।
  • कोतवाल- राजधानियों अथवा बड़े नगरों या कस्बों में कोतवाल नियुक्त किया जाता था। कोतवाल नगर का प्रशासनिक अधिकारी होता था।
  • खजांची- राजकीय खजाने का अधिकारी जो जमा व खर्च का ब्यौरा रखता था। मेवाड़ में इसे कोषपति कहा जाता था।
  • खतूत महाराजगान व अहलकारान- इसके द्वारा देशी शासक मराठों, पिण्डारियों, मुगल दरबार एवं पड़ोसी राज्यों के साथ शासन सम्बन्धी पत्र-व्यवहार हुआ करता था।
  • खरीता- एक राजा का दूसरे राजा के साथ पत्र व्यवहार खरीता कहलाता था।
  • खानसामा- खानसामा वस्तुओं के निर्माण, क्रय, राजकीय विभागों के सामान की खरीद और संग्रह से सम्बन्धित कार्य किया करता था। राजदरबार तथा राजमहल सम्बन्धी सभी व्यक्तियों व कार्यों से उसका सम्पर्क रहता था।
  • छटूंद- मेवाड़ राज्य में जागीरदार अपनी आय का 1/6 भाग शासक को देता था, जो छटूंद कहलाता था।
  • ड्योढ़ीदार- महल की सुरक्षा, देखरेख व निरीक्षण करने वाला अधिकारी। राजा से मिलने वाले व्यक्तियों पर यह नजर रखता था तथा उन्हें राजा से मिलाने की व्यवस्था भी यही करता था।
  • तफेदार- यह कर्मचारी राज्य द्वारा गाँवों से वसूले जाने वाले राजस्व का हिसाब रखता था।
  • तोजी- ये खुले पत्र हैं जिन्हें इकट्ठा करके नत्थियों व बण्डलों का रूप दिया गया है।
  • दीवान- राजपूत रियासतों में प्रशासनिक तन्त्र के प्रमुख को 'दीवान' कहा जाता था, जो मुख्य रूप से वित्त व राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियन्त्रण रखता था।
  • देश दीवान- राजा की अनुपस्थिति में जब राज्य-शासन की बागड़ौर दीवान के हाथों में रहती थी तब उसे 'देश दीवान' कहा जाता था।
  • निशान- बादशाह के परिवार के किसी सदस्य द्वारा मनसबदार को अपनी मोहर के साथ जो आदेश जारी किए गए, वे 'निशान' कहलाए।
  • परवाना- महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ को जो आदेश जारी किया जाता था वह 'परवाना' कहलाता था।
  • ताजीम- मेवाड़ के प्रथम वेणी के सामन्तों के दरबार में उपस्थित होने पर महाराणा खड़ा होकर उनका स्वागत करता था, इस प्रक्रिया को 'ताजीम' कहते थे।
  • फरमान- फरमान मुगल बादशाह द्वारा जारी शाही आदेश होते थे।
  • बख्शी- मुगल प्रशासन में सेना का अध्यक्ष।
  • मन्सुर- यह एक प्रकार का शाही आदेश होता था जो कि बादशाह की मौजूदगी में शाहजादे द्वारा जारी किया जाता था। उत्तराधिकार युद्ध (1658 ई.) के समय औरंगजेब ने अपने हस्ताक्षरित शाही आदेश जारी किए जो मन्सूर कहलाए।
  • महकमा पुण्यार्थ- यह विभाग राज्य के मन्दिरों, गरीबों, अनाथों, विधवाओं आदि को राजकीय अनुदान देता था। उदयपुर राज्य में इसे दानाध्यक्ष, कोटा में हाकिम पुण्य और जयपुर में हाकिम खैरात कहा जाता था।
  • मापा- मेवाड़ राज्य में एक गाँव से दूसरे गाँव में माल लाने-ले जाने पर लगने वाला कर।
  • मीर मुंशी- मारवाड़ राज्य में यह पड़ोसी राज्य के साथ कूटनीतिक पत्र-व्यवहार करने वाला अधिकारी था।
  • मुत्सद्दी- राजस्थान की रियासतों में प्रशासन का संचालन करने वाले अधिकारी मुत्सद्दी कहलाते थे। यह प्रशासनिक अधिकारियों का एक वर्ग था।
  • मुसाहिब- जयपुर रियासत के प्रधानमंत्री को मुसाहिब कहते थे।
  • याददाश्त- यह पट्टे की एक किस्म होती थी, जिसमें राजा द्वारा जागीरदार को जागीर स्वीकृत की जाती थी। जागीरदार की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी को इसके द्वारा पुनः स्मरण कराया जाता था।
  • रुक्का- राज्य के अधिकारियों के मध्य पत्र व्यवहार।
  • वकील रिपोर्ट- मनसबदार, जागीरदार या अन्य सरदार द्वारा मुगल दरबार में नियुक्त अपना प्रतिनिधि वकील कहलाता था। वे अपने स्वामी से सम्बन्धित खबरों का संकलन कर भेजते थे, जिन्हें 'वकील रिपोर्ट' कहा जाता था।
  • वाक्या- इसके तहत बादशाह या राजा की व्यक्तिगत एवं राजकार्य सम्बन्धी गतिविधियाँ तथा राजपरिवार के सदस्यों की सामाजिक रस्म, व्यवहार, शिष्टाचार आदि का वर्णन दर्ज किया जाता था।
  • सनद- एक स्वीकृति पत्र, जिसके तहत मुगल सम्राट अपने अधीनस्थ राजा को जागीर प्रदान करते थे।
  • सावर दरोगा- यह परगने में चुंगीकर वसूलने वाला अधिकारी था, जिसकी नियुक्ति राज्य द्वारा की जाती थी। इसकी सहायता के लिए 'अमीन' होता था।
  • साहणे- यह भू-राजस्व में राज्य का भाग निश्चित करने वाला अधिकारी होता था।
  • हस्बुल हुक्म- शाही परिवार के किसी सदस्य अथवा सरदार द्वारा प्रेषित आदेश जिसमें किसी व्यक्ति को कोई स्वीकृति दी जाती थी तथा जिसमें बादशाह की सहमति होती थी।
  • हाकिम- परगने का मुख्य अधिकारी। जयपुर में इसे 'फौजदार' और कोटा में 'हवालगिर' कहा जाता था।

राजस्व शब्दावली
  • इजारेदारी- भू-राजस्व की प्रथा, जिसमें राज्य और किसानों के मध्य सीधा सम्पर्क नहीं था। इस प्रथा के अन्तर्गत राज्य द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए, एक निश्चित रकम के बदले लगान वसूली का अधिकार किसी व्यक्ति को प्रदान कर दिया जाता था। इस प्रथा को ठेकेदारी या मुकातेदारी प्रथा भी कहते हैं।
  • ईनाम- राज्य की सेवा के बदले दी जाने वाली लगान मुक्त भूमि। ईनाम भूमि का धारक 'ईनामदार' कहलाता था। उत्तराधिकारी के अभाव में यह भूमि राज्य द्वारा अधिग्रहीत कर ली जाती थी। ईनामदार के पास इसे बेचने का अधिकार नहीं होता था। (दान, पुरस्कार, राजस्वमुक्त या कम राजस्व पर धारित भूमि ईनाम कहलाती थी - सतीश चन्द्र)
  • कांकड़- चारागाह भूमि 'कांकड़' कहलाती थी।
  • कांकड़ कृत (कनकृत)- भू-राजस्व निर्धारण की इस प्रक्रिया में कुल उपज के ढेर या खेत में खड़ी फसल का अनुमान लगाकर लगान निश्चित किया जाता था।
  • कृता- भू-राजस्व निर्धारण की इस प्रक्रिया में खेत में खड़ी फसल का पैदावार की दृष्टि से अनुमान लगाकर राज्य का भाग नकद या वस्तु (जांस) के रूप में निश्चित कर लिया जाता था।
  • खालसा या खालिसा भूमि- राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्रण वाली भूमि जिसका राजस्व सीधे शाही कोष में जमा होता था।
  • खूंटा- अधिकारियों के पशुओं की चराई के लिए देय कर।
  • गलत ह्रास- पानी से भरी भूमि।
  • गेवली- गाँव में ही स्थायी रूप से निवासित कृषक।
  • गैर-बापीदार कृषक- गैर-बापीदार कृषक को भूमि पर किसी प्रकार का मालिकाना हक प्राप्त नहीं होता था वह मात्र शिकमी काश्तकार (वह किसान जो दूसरे किसान से खेत लेकर जोतता है) होता था।
  • ग्रासिये - वे जागीरदार जो सैनिक सेवा के बदले में शासक द्वारा भूमि को उपज का, जो 'ग्रास' कहलाती थी, उपभोग करते थे।
  • घरुहाला- उच्च जातियों के व्यक्तियों तथा राज्य के अधिकारियों का ऐसा वर्ग, जिन्हें कृषि में रियायतें दी जाती थीं।
  • घुघरी- जब प्रति कुआँ अथवा खेत के पैदावार की मात्रा निश्चित कर राजस्व वसूल किया जाता था, उसे 'घुघरी' कहते थे।
  • चरनोता भूमि- पशुओं के लिए चारा उगाने के लिए छोड़ी गई भूमि। ऐसी भूमि ग्राम पंचायत के नियन्त्रण में होती थी। गाँव के सभी पशु सार्वजनिक रूप से इस भूमि पर चरते थे।
  • चाकरी- जागीरदारों द्वारा राज्य को दी जाने वाली सेवा।
  • चाही भूमि- वह भूमि जिसमें कुओं, तालाबों, नहरों, नदियों आदि साधनों द्वारा सिंचाई संभव थी।
  • जब्ती- नकदी फसलों पर प्रति बीघा की दर से राजस्व का निर्धारण तथा वसूली जब्ती कहलाती थी।
  • जागीर भूमि- सामन्तों व अन्य अधिकारियों को उनको सेवा के वेतन के रूप में दी जाने वाली भूमि जागीर कहलाती थी, इसे प्राप्त करने वाला जागीरदार कहलाता था।
  • डुमबा- मारवाड़ राज्य द्वारा स्वीकृत प्रथा जो मुख्य रूप से पाली व देसूरी जिलों में पाई जाती थी। इस प्रथा में दरबार या जागीरदार द्वारा एक ग्राम प्रदान किया जाता था, जहाँ लोगों को बसाया जाता था एवं भूमि को कृषि योग्य बनाया जाता था। इस भूमि के स्वामी को स्थायी रूप से निश्चित कर देना होता था।
  • डोरी- डोरी से नापे गए बीघे का हिस्सा निर्धारित करके माल गुजारी वसूल की जाती थी। जयपुर में डोरी की जगह बाँस का उपयोग किया जाता था।
  • डोली- पुण्यार्थ दी जाने वाली भूमि जो जागीरदार द्वारा दी जाती थी। यह सभी प्रकार के करों एवं मूल्यांकनों से मुक्त थी। मूल उत्तराधिकारी के अभाव में इस भूमि पर पुनः दानदाता का अधिकार हो जाता था।
  • तलाई भूमि- तालाब के पेटे की भूमि जिसमें बिना सिंचाई फसल पैदा होती थी, 'तलाई' कहलाती थी।
  • दाण- राज्य के बाहर से बिक्री के लिए आने वाले पशुओं पर जो कर (चुंगी) लगाया जाता था, 'दाण' कहलाता था।
  • नानकर- नानकर का तात्पर्य 'रोटी के लिए कार्य करना' था। इन लोगों से न कोई लाग ली जाती थी न ही किसी प्रकार की सेवा। मात्र उत्तराधिकार शुल्क लिया जाता था।
  • नाली- यह तिल पर लगने वाला कर था।
  • पाही- किसी दूसरे गाँव से आकर खेती करने वाला कृषक।
  • बंजर भूमि - वह भूमि जिस पर खेती नहीं की जाती थी।
  • पसातिया- वह भूमि जो दरबार या जागीरदार द्वारा राज्य सेवा करने वाले व्यक्ति को वेतन के रूप में दी जाती थी। यह सभी लगानों से मुक्त होती थी। सेवा की समाप्ति पर इस भूमि पर पुनः राज्य का अधिकार हो जाता था।
  • पीवल भूमि- तालाबों या कुओं द्वारा सिंचित भूमि।
  • बंटाई- फसल के कई बराबर अनुपात या भाग करने के बाद उसके आधार पर राज्य का भाग निर्धारित करने की पद्धति 'बंटाई' कहलाती थी।
  • बापीदार कृषक- अपनी भूमि का मालिकाना हक रखने वाला किसान जिसके पास स्वामित्व का पट्टा होता था। उस भूमि से सम्बन्धित सभी अधिकार किसान को प्राप्त होते थे परन्तु वह राज्य के नियमों के पालन के लिए पाबन्द होता था।
  • बारानी भूमि- वह भूमि जिस पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। यह पूर्णतः वर्षा पर निर्भर होती थी।
  • बीघोड़ी- राजस्व का निर्धारण प्रति बीघा भूमि की उर्वरा एवं पैदावार के आधार पर किया जाता था, जिसे 'बीघोड़ी' कहा जाता था।
  • बीड़- नदी-नाले के समीप वाली भूमि 'बीड़' कहलाती है।
  • बेगार प्रथा- राज्य, जागीरदार, सामन्त या किसी भी अधिकारी द्वारा बिना भुगतान के जब किसी व्यक्ति से उसकी मर्जी से या जबरदस्ती काम लिया जाता था, इसे 'बेगार' कहा जाता था।
  • बोलाई- मेवाड़ के भील क्षेत्रों से गुजरने वाले रास्ते में लूट से बचने के लिए भीलों या अन्य जनजातियों को 'बोलाई' कर दिया जाता था।
  • भेज या नकदी- भू-राजस्व के निर्धारण की इस पद्धति में राजस्व की वसूली नकदी में की जाती थी। पूर्वी राजस्थान में इसे 'भेज' कहा जाता था। यह मुख्य रूप से वाणिज्यिक फसलों पर लागू की जाती थी।
  • भोम- भोमियों को कुछ भूमि मामूली लगान पर उनकी चौकीदारी की सेवाओं तथा मार्गों की सुरक्षा के कार्य करने के एवज में दी जाती थी जिसे 'भोम' कहा जाता था। ये भोमिये अधिकांशतः भील या मीणा होते थे।
  • भोमिये- राज्य की रक्षा करने या राजकीय सेवाओं के लिए अपना बलिदान करने वाले राजपूत 'भोमिये' कहलाते थे। ऐसे लोगों को राज्य की ओर से भूमि दी जाती थी जिस पर उन्हें नाममात्र का कर देना पड़ता था। इन भोमियों को बेदखल नहीं किया जा सकता था।
  • मगरा- पहाड़ी क्षेत्र की जमीन।
  • मलबा- मारवाड़ में राजस्व के अतिरिक्त किसानों से 'मलबा' नामक कर वसूल किया जाता था। मलबा कर से फसल की रक्षा सम्बन्धी व्यय की पूर्ति की जाती थी। इस आय से उन लोगों को मजदूरी भी दी जाती थी, जिन्होंने बंटाई की प्रक्रिया में सहयोग दिया था।
  • माल- काली उपजाऊ भूमि।
  • मकाता- राज्य द्वारा एकमुश्त राजस्व निश्चित कर दिया जाता था कि प्रत्येक खेत पर नकदी या जिन्स (अनाज) के रूप में कितना कर देना है। इसे 'मुकाता' कहा जाता था।
  • मुश्तरका- मारवाड़ राज्य में कुछ गाँव ऐसे थे, जिनकी आय जागीरदार और राज्य में बँटी हुई थी। ऐसी भूमि को 'मुश्तरका' कहा जाता था।
  • रियायती- गाँव के ऐसे मूल कृषक, जिन्हें विशेषाधिकार प्राप्त थे, 'रियायती' कहलाते थे।
  • रेख- रेख वह मापदण्ड था, जिसके आधार पर शासक जागीरदारों से राजकीय माँगें-उत्तराधिकार शुल्क, सैनिक सेवा, न्यौता शुल्क इत्यादि वसूल करते थे।
  • रेज- किसी जागीरदार की मृत्यु होने पर उसके उत्तराधिकारी को राजा द्वारा निर्धारित शर्तें स्वीकार करनी होती थी तथा उत्तराधिकार के एवज में एक निश्चित राशि राजा को भेंट करनी पड़ती थी, जिसे 'रेज' कहा जाता था।
  • रैयती- ऐसे कृषक जिन्हें विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था।
  • लठारा- राजस्व निर्धारण की लाटा पद्धति के अन्तर्गत जागीरदार फसल की कूत करने के लिए जिन लोगों को भेजता था, उन्हें 'लटारा' कहा जाता था।
  • लाटा- भू राजस्व वसूली की बंटाई पद्धति को 'लाटा' भी कहा जाता था। इसके अन्तर्गत तैयार उपज (जिन्स) का बँटवारा किया जाता था (रास बटाई)।
  • सांसण- दरबार या शासक की अनुमति से जागीरदार द्वारा विद्वानों, कवियों, ब्राह्मणों, चारण भाटों को दी गई भूमि 'सांसण' कहलाती थी, यह लगान मुक्त होती थी।
  • सिराणा- अधिकारियों के खान-पान के लिए गाँव वालों से वसूला जाने वाला कर 'सिराणा' कहलाता था।
  • सोरिणा- वस्तु विशेष पर प्रति मन के ऊपर सेरों के हिसाब से लिया जाने वाला कर 'सोरिणा' कहलाता था।
  • हकत-वकत- जोती जाने वाली भूमि।
  • हल प्रणाली- राजस्थान में कहीं-कहीं भू-राजस्व वसूलने के लिए हल प्रणाली प्रचलित थी। इसमें एक हल से जोती गई भूमि पर कर का निर्धारण किया जाता था। माना जाता था कि एक हल से 50 से 60 बीघा तक भूमि जोती जा सकती थी।
  • हुकमनामा- किसी जागीरदार की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी से लिए जाने वाला उत्तराधिकार शुल्क 'हुकमनामा' कहा जाता था।
  • हुजवार- अधिकारियों के सेवकों के खान-पान हेतु वसूला जाने वाला कर।

लाग-बाग शब्दावली
  • अंग-लाग- प्रत्येक किसान परिवार के प्रत्येक सदस्य से जो पाँच वर्ष से ज्यादा आयु का होता था, एक रुपया लिया जाता था, जिसे अंग लाग कहा जाता था।
  • ऊडी लाग- इसके अन्तर्गत जागीरदार किसान से एक मन पर दस सेर अनाज लेते थे तथा इसे अपनी काश्त के लिए बीज के रूप में काम में लेता था, जबकि काश्तकार बीज अपने बोहरों से खरीदता था।
  • कबूतरों का धान- जागीरदार द्वारा कबूतरों के लिए पाँच से दस सेर धान (चावल) लिया जाता था।
  • कांसा परोसा- किसानों से उनके घर पर शादी एवं नुकता (मृत्यु-भोज) के समय जागीरदार एवं पटेलों द्वारा वसूल की जाने वाली लाग।
  • कुँवरजी की घोड़ा लाग- कुँवर के बड़े होने पर घोड़े की सवारी करना सिखाया जाता था। तब घोड़ा खरीदने के लिए प्रति घर से एक रुपया कर लिया जाता था।
  • कोटड़ी खर्च लाग- ठिकाने की कोटड़ी के खर्च के लिए प्रत्येक परिवार से एक से छः रुपया तक वार्षिक कर लिया जाता था।
  • खर-गड़ी- सार्वजनिक निर्माण या दुर्गों के भीतर निर्माण के लिए गाँवों से बेगार में गधे मंगवाये जाते थे, परन्तु बाद में गधों के बदले 'खर-गड़ी' लाग ली जाने लगी।
  • खरच भोग- भू-राजस्व की वसूली में व्यय होने वाले खर्च की पूर्ति के लिए ली जाने वाली लाग।
  • खीचड़ी- जागीरदार द्वारा अपने प्रत्येक गाँव से उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार ली जाने वाली लाग।
  • गंगाजी की लाग- स्वर्गीय जागीरदार की भस्मी को गंगाजी में डालने पर नए जागीरदार द्वारा प्रति काश्तकार एक से दो रुपया लिया जाता था।
  • गर्ज लाग- यदि जागीरदार अपने पट्टे के गाँव में जाता था तब गाँव वाले रुपये इकट्ठे कर जागीरदार को भेंट देते थे।
  • गाँव खरच लाग- गाँव के मार्गों की मरम्मत, तालाब की मरम्मत या अन्य किसी विकास कार्य के लिए प्रति वर्ष लिया जाने वाला कर। खालसा क्षेत्र में पटेल एवं पटवार और गैर-खालसा (जागीरी) क्षेत्र में जागीरदार या उनके कामदार द्वारा यह कर लिया जाता था।
  • घासमरी- खालसा की पड़त भूमि पर पशु चराने के लिए राज्य द्वारा लिया जाने वाला कर।
  • चैवरी लाग- किसानों के पुत्र या पुत्री के विवाह पर एक से पच्चीस रुपए 'चैवरी लाग' नाम से लिये जाते थे।
  • बीला लाग- जागीरदार अपने ठिकाने की सीमा में से निकलने वाली गाड़ी से छः पाई प्रति गाड़ी लाग लेता था।
  • चूड़ा लाग- जब भी ठकुरानी नया चूड़ा पहनती थी तब काश्तकारों से यह लाग ली जाती थी।
  • तोल लाग- यह लाग जागीरदार द्वारा हासिल वसूल कर लेने के बाद अधिभार के रूप में दो से दस सेर अनाज लिया जाता था।
  • दूध लाग- ठिकाने के लिए ग्रामीणों से प्रतिदिन प्रति व्यक्ति एक सेर दूध, बारी-बारी प्रत्येक घर से मंगाया जाता था।
  • धुवों या झूपी लाग- एक प्रकार का गृह-कर जो प्रति घर एक से पाँच रुपए वार्षिक होता था।
  • नजराना- यह लाग प्रतिवर्ष किसानों से पटेल एवं जागीरदार वसूल करते थे। जागीरदार राजा को एवं पटेल तहसीलदार को नजराना देता था जिसकी रकम किसानों से वसूल की जाती थी।
  • न्योता लाग- यह लाग जागीरदार, पटेल एवं चौधरी अपने लड़के-लड़की की शादी के अवसर पर किसानों से वसूल करते थे।
  • पंडित की पाग- शिक्षा के नाम पर जागीरदारों द्वारा वसूल किया जाने वाला कर।
  • पान चराई- खालसा भूमि में किसानों के पशुओं को पत्ते चरने देने के लिए लिया जाने वाला कर।
  • पोस्टकार्ड लाग- ठिकाने के डाक खर्च के लिए दो से छः रुपए तक ली जाने वाली लाग।
  • फलावट लाग- यह लाग हासिल को आँकने के लिए ली जाती थी, जो प्रतिमन पर पाँच सेर ली जाती थी।
  • फाड्या लाग- जागीरदार द्वारा हासिल का हिस्सा देने हेतु लाए गए कपड़ों के लिए एक से डेढ़ मन धान लाग के रूप में लिया जाता था।
  • बकरा लाग- प्रत्येक काश्तकार से जागीरदार एक बकरा स्वयं के खाने के लिए लेता था। कुछ जागीरदार बकरे के बदले प्रति परिवार से दो रुपया वार्षिक लेता था।
  • माचा लाग- प्रतिवर्ष काश्तकार को अपने व्यय से ठिकाने को एक माचा देना पड़ता था।
  • मालया-मिलणो- जागीरदार द्वारा व्यापारियों व किसानों से ली जाने वाली भेंट 'मालया-मिलणो' कहलाती थी।
  • माहेरा की लाग- किसान के पुत्र के विवाह पर वर के ननिहाल के लोग माहेरा (मायरा) लाते थे, तब जागीरदार उनसे माहेरा लाग का एक रुपया लेता था।
  • राली लाग- काश्तकार प्रतिवर्ष अपने कपड़ों में से एक गद्दा या राली बनाकर देता था जो जागीरदार या उसके कर्मचारियों के काम आती थी।
  • लाग-बाग- भू-राजस्व के अतिरिक्त कृषकों से कई अन्य प्रकार के कर वसूल किए जाते थे, उन्हें लाग-बाग कहा जाता था। ये दो प्रकार के थे नियमित और अनियमित।
  • हाथी के पूले- हाथी के घास के लिए कर।
  • राहदारी- राज्य क्षेत्र से गुजरने वाले माल पर लगी चुंगी को 'राहदारी' कहा जाता था।
  • सायर- जयपुर राज्य में सीमा-शुल्क, आयात-निर्यात तथा चुंगी का सामूहिक नाम 'सायर' था।

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