चौहान वंश

चौहान वंश

chauhan-vansh

सांभर या अजमेर के चौहान वंश

सांभर (शाकंभरी) के चौहानों ने अजमेर पर शासन किया, जो उत्तर भारत के प्रमुख राजपूत राजवंशों में से एक थे।

चौहानों की उत्पत्ति से संबंधित मत
चौहान वंश की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न विद्वानों और अभिलेखों में अलग-अलग मत मिलते हैं। नैणसी, कर्नल टॉड और सूर्यमल मिश्रण ने चौहानों की उत्पत्ति को अग्निकुण्ड सिद्धांत से जोड़ा है।
विजौलिया शिलालेख में चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है, जबकि टॉड और स्मिथ ने उन्हें विदेशी मूल का माना है।
  • डॉ. भंडारकर ने चौहानों की उत्पत्ति ‘खज्र’ जाति से मानी है।
  • सुंधा माता अभिलेख में इन्हें महर्षि वशिष्ठ की संतान बताया गया है।
  • हम्मीर महाकाव्य, हम्मीर रासो और डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा चौहानों को सूर्यवंशी बताते हैं, जबकि भाटों और चारणों द्वारा इन्हें अग्निवंशी माना गया है।
  • इतिहासकार दशरथ शर्मा, विजौलिया शिलालेख के आधार पर, चौहानों के ब्राह्मण मूल की पुष्टि करते हैं।
  • सेवाड़ी लेख में चौहानों को इन्द्रवंशीय बताया गया है।
  • कायम खाँ रासो और चन्द्रवती अभिलेख भी चौहानों को ब्राह्मणवंशी मानते हैं, जिसकी पुष्टि गोपीनाथ शर्मा ने भी की है।
आसोपा के अनुसार, सांभर झील के आसपास निवास करने के कारण उनका नाम संभवतः 'चहमान' पड़ा।
सुंधा माता अभिलेख (जालौर) में चौहानों की उत्पत्ति महर्षि वशिष्ठ की आँख से बताई गई है।
हांसी शिलालेख और आबू के अचलेश्वर मंदिर (1320 ई.) के लेख में चौहानों को चन्द्रवंशी बताया गया है।
प्रबंध चिंतामणि (मेरूतुंग) में चौहान वंश को वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न बताया गया है।

चौहान वंश प्रारंभिक दौर में गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत भी रहे।
उनकी प्रमुख कुलदेवियाँ-
  • शाकम्भरी माता (सीकर),
  • जीण माता (सीकर),
  • आशापुरा माता (जालौर)
  • तथा कुलदेवता हर्षनाथ जी (सीकर) माने जाते हैं।
चौहान वंश का मूल पुरुष चहमान नामक व्यक्ति को माना जाता है।

चौहानों के मूल स्थान

1. सपादलक्ष/सांभर
सपादलक्ष के इर्द गिर्द के क्षेत्र में रहते थे। प्रारम्भिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी।
जांगलप्रदेश की राजधानी भी अहिच्छत्रपुर रही है। चौहानों का सम्बन्ध सपादलक्ष से रहा है।
इनकी राजधानी सांभर से ज्यादा दूर नहीं रही होगी। अहिच्छत्रपुर व पूर्णतल्ल इनके मुख्य नगरों में से थे।
प्रारम्भ में ये नागौर में रहे इसके बाद पूर्णतल्ल में रहे। किसी समय इस भूभाग में नागों की प्रबलता थी इसलिए चौहानों की आदि भूमि को अन्नत गोचर भी कहते हैं।
अपनी प्राकृतिक उपज शमी, करीर, पीलू के कारण ये प्रदेश जांगल नाम से भी प्रसिद्ध था।
परम्परा से यहाँ की जनसंख्या सवा लाख थी। इस कारण इसे सवा लाख या सपादलक्ष भी कहते हैं। सांभर के चौहान शासक संभरीश कहलाये।
राजधानी- शाकम्बरी (सांभर) बाद में राजधानी अजमेर बन गई। इस मत का वर्णन जयानक ने पृथ्वीराज विजय में किया है।

नोट
कवि जयानक- ये कश्मीर में प्रसिद्ध कवि, इन्होंने पुष्कर में रहकर 'पृथ्वीराज विजय' की रचना की।

2. अनन्त प्रदेश (सीकर)
हर्षनाथ अभिलेख (973 ई.) के अनुसार चौहानों का मूल स्थान

3. पुष्कर अजमेर
हम्मीर महाकाव्य (नयनचन्द्रसूरि) तथा सुर्जन चरित्र (चन्द्रशेखर) के अनुसार चौहानों का मूल स्थान।
गोपीनाथ शर्मा ने चौहानों मूल स्थान जांगल प्रदेश व सांभर/सपादलक्ष माना।
दशरथ शर्मा ने चौहानों का मूल स्थान चित्तौड़ बताया।

सांभर के चौहान

वासुदेव चौहान
इसने सांभर में चौहान वंश की स्थापना की। वासुदेव चौहानों का संस्थापक/आदिपुरुष / मूलपुरुष कहलाता है।
  • इसने 551 ई. में चौहान वंश की स्थापना की।
  • बिजौलिया शिलालेख (1170 ई. भीलवाड़ा) के अनुसार सांभर के चौहानों का मूल पुरुष वासुदेव था।
  • लेख के अनुसार सांभर झील का निर्माता वासुदेव था।

नोट
बिजौलिया शिलालेख में चौहान व राजपूतों का लेख है, दुर्लभ राज के पुत्र गुवक ने सीकर में हर्षनाथ मंदिर बनवाया था। हर्षनाथ चौहानों के इष्ट देव हैं। (हर्षनाथ के मंदिर को औरंगजेब ने तोड़ा था)

दुर्लभराज़ प्रथम
ये प्रतिहार नरेश वत्सराज सामंत था।
त्रिकोणीय संघर्ष में दुर्लभ प्रथम ने वत्सराज के साथ बंगाल के धर्मपाल पर अधिकार किया।
दुर्लभराज के समय अजमेर पर प्रथम बार मुसलमानों का आक्रमण हुआ।

गुवक प्रथम
  • ये दुर्लभराज का पुत्र था।
  • दुर्लभराज ने वत्सराज के सहयोग से मध्यप्रदेश के पालों देश तक विजय प्राप्त की थी व गौड़ देश पर अधिकार कर लिया था।
  • गुवक प्रथम नागभट्ट द्वितीय का सामंत था। नागभट्ट द्वितीय ने गुवक को 'वीर' उपाधि दी। गुवक-1 का विवाह नागभट्ट द्वितीय की पुत्री 'जाबाली' से हुआ।
  • चौहान प्रारंभ में गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत थे।
  • गुवक ने हर्षनाथ मंदिर (सीकर) बनवाया।
  • यह हर्षनाथजी चौहानों के कुल देवता हैं।
  • गुवक प्रथम के बाद चंद्रराज द्वितीय व इसके बाद गुवक द्वितीय शासक बना।

गुवक द्वितीय
इसने कन्नौज के शासक भोजराज की बहन कलावति से विवाह किया था।

चन्दन राज
ये गुवक द्वितीय का पुत्र था, इसने दिल्ली के तोमर शासक रूद्रेन/रूद्रपाल को हराया था।
इसकी पत्नी रूद्राणी या आत्मप्रभा यौगिक क्रिया में निपुण थी व शिवभक्त थी।
रुद्राणी रोजाना पुष्कर में शिवजी के सामने एक हजार बीपक जलाती थी।
आत्मप्रभा ने कालसर्प रोग मुक्ति के लिए पुष्कर तट पर शिवलिंग की स्थापना की।

वाक्पतिराज प्रथम
चन्दनराज का पुत्र था। हर्षनाथ अभिलेख में वाक्पति राज की उपाधि 'महाराज' मिलती है।
वाक्पतिराज ने अनेक युद्ध किये। पृथ्वीराज विजय के अनुसार इसने 188 युद्ध किये थे।

सिंहराज
वाक्पतिराज का पुत्र 956 ई. के मिले एक शिलालेख के अनुसार यह विजयपाल प्रतिहार के समकालीन था।
सिंहराज ने अनेक राजाओं को कारागार में बंद कर लिया तब प्रतिहार सम्राट स्वयं उन्हें छुड़वाने के लिए आया था।
सिंहराज ने "परमभट्टारक महाराजाधिराज-परमेश्वर" की उपाधि धारण की, ऐसी उपाधि स्वतंत्र राजा धारण करते थे।
सिंहराज के भाई लक्ष्मण ने 960 ई. नाडोल में चौहान वंश की स्थापना की।
सिंहराज के समय हर्षनाथ मंदिर निर्माण पूर्ण हुआ। यहाँ शिलालेख में प्रारम्भ से सिंहराज तक की वंशावली है।

विग्रहराज द्वितीय
जयानक व चन्द्रशेखर के अनुसार इसने मूलराज चालुक्य को परास्त किया, मूलराज ने काण्ठा किले में शरण ली।

नोट
जब विग्रहराज की सेना शत्रुओं के विरुद्ध चलती थी तब घोड़ों की टापों से उठी धूल से आकाश ढक जाता था। इस कारण लोगों ने इसे खुर-रजोन्धकार को उपाधि दी। इसके समय चौहान सेना नर्मदा व भृगुकच्छ पत्तन तक पहुंची थी।
  • विग्रहराज द्वितीय ने चालुक्य शासक मूलराज प्रथम हराकर भृगुकच्छ (भड़ौच) में कुलदेवी आशापुरा माता मंदिर बनवाया।
  • विग्रहराज द्वितीय प्रतिहारों से अलग होकर स्वतंत्र राज्य स्थापना की।

दुर्लभराज द्वितीय
इसने नाडौल के महेन्द्र चौहान को हराया।
शक्राई अभिलेख में इसकी उपाधि 'महाराजाधिराज' मिलती है।

गोविन्द तृतीय
पृथ्वीराज विजय में इसकी उपाधि 'वैरीघरट्ट' मिलती है।
फरिस्ता ने गोविन्द तृतीय को गजनी के शासक को मारवाड़ में आगे बढ़ने से रोकने वाला कहा है।

वाक्पत्ति राज द्वितीय
ये गोविन्द तृतीय का पुत्र था।
इसने मेवाड़ शासक अम्बाप्रसाद को युद्ध में मार दिया व चित्तौड़ पर अधिकार करने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली।

पृथ्वीराज प्रथम
इसने 1105 ई. में 700 चालुक्यों को मारा जो पुष्कर में ब्राह्मणों को लूटने आये थे। इसकी उपाधि 'परम भ‌ट्टारक-महाराजा-धिराज-परमेश्वर' थी।
यह शिव भक्त था। सोमनाथ मार्ग में यात्रियों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था की थी।

अजमेर के चौहान

अजयराज (1113 से 1133 ई.)
इसका शासनकाल 1105 ई. से प्रारंभ हो जाता है। अजयराज शैव धर्म को मानता था। पृथ्वीराज प्रथम का पुत्र, इसके समय चौहान साम्राज्य के विस्तार का दौर प्रारम्भ हुआ।
  • गोपीनाथ शर्मा के अनुसार अजयराज का समय चौहानों का साम्राज्य विस्तार का समय माना जाता है।
  • इसने अवन्ति के राजा नरवर्मा को हराकर उसके सेनापतियों का वध करके श्रीपथ (बयाना) पर अधिकार कर लिया।
  • परमार दण्डनायक सोल्लण को जीवित ही पकड़कर ऊँट पर बांध दिया। अजयराज ने सांभर छोड़कर अजमेर को अपनी राजधानी बनाई।
  • 1113 ईस्वी में अजयमेरू (अजमेर) नगर बसाया। अजयराज ने ताँबे व चाँदी के सिक्के भी चलाये। अजयप्रिय, द्रम्स नाम जिन पर रानी सोमलवती का नाम भी लिखवाया। अजयराज चौहानों का प्रथम शासक है जिसने अपनी मुद्राएँ चलायी।
  • इन चाँदी व ताँबे की मुद्राओं के सामने की ओर लक्ष्मी की मूर्ति है।
  • इसके समय दिगम्बर व श्वेताम्बर विचारधारा के मध्य शास्त्रार्थ हुआ जिसकी अध्यक्षता स्वयं अजयराज ने की थी।
  • अजयराज ने राजगद्दी अर्णोराज को सौंपकर पुष्कर चले गये।
  • अजयराज ने तुर्क शहाबुद्दीन को हराया, मालवा के नरवर्मन को हराया, अहिलपाटन (गुजरात) मूलराज-2 को हराया।
  • अजयराज ने पार्श्वनाथ मंदिर के सुवर्ण कलश का दान किया था।
  • अजयराज ने चक्र की तरह घूम-घूम कर शत्रुदल को हराया इस कारण इसे 'अजयराज चक्री' भी कहते हैं।
  • अजयराज ने श्रीअजयदेव व अजयप्रिय द्रमस नाम सिक्के जिन पर सोमवलवती नाम अंकित। अजयराज पाश्र्वनाथ मंदिर सुवर्ण कलश दान दिया।

अजयमेरू दुर्ग
  • 1113 ई. में अजयराज ने बनवाया।
  • गढ़बीठली पहाड़ी पर होने के कारण गढ़बीठली दुर्ग कहते हैं।
  • मेवाड़ रायमल पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया की पत्नी तारा के नाम पर इस दुर्ग का नाम 'तारागढ़' पड़ा। (तारागढ़ दुर्ग बूँदी में भी है)
  • मालदेव की पत्नी रूठी रानी उमादे यहीं रही थी। यहाँ 'रूठी रानी का महल' है।
  • बिशप हैवर ने इसे "राजस्थान का जिब्राल्टर/पूर्व का जिब्राल्टर" कहा है। इस दुर्ग को "राजपुतानें की कुंजी, सर्वाधिक स्थानीय आक्रमण झेलने वाला दुर्ग, अरावली का अरमान" भी कहा जाता है। (सर्वाधिक विदेशी आक्रमण भटनेर दुर्ग में झेले हैं।)

नोट
हरविलास शारदा ने "अखबार उल-अखयार" में तारागढ़ को राजस्थान का प्रथम गिरी दुर्ग बताया है।
  • तारागढ़ दुर्ग में घोड़े की मजार, मीरानशाह/मीर सैयद हुसैन दरगाह, रूठी रानी महल, पृथ्वीराज स्मारक आदि स्थित हैं।
  • तारागढ़ दुर्ग में घूंघट, पगड़ी, बांदरा, इमली आदि बुर्ज हैं।

अर्णोराज/आनाजी (1133 से 1155 ई.)
इससे सम्बन्धित रेवासा में दो शिलालेख मिले हैं। इनमें इसकी उपाधि महाराजाधिराज-परमेश्वर है। अजमेर में शिव मंदिर का निर्माण करवाया, पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण करवाया, वराह मंदिर का जीर्णोद्धार समरसिंह ने करवाया, इस मूर्ति को जहाँगीर ने पानी में फिंकवा दिया था। अर्णोराज के दरबार में देवबोध व धर्मघोष नामक विद्वान थे।

अर्णोराज की मुख्यतः चार उपलब्धियाँ हैं
  • इसने अजमेर के निकट तुरूष्कों का वध किया।
  • उसने मालवा के राजा नरवर्मन/यशोवर्मा को हराया व मालवा से हाथी छीने।
  • चौहान सेना को सिन्धु व सरस्वती नदी तक ले गया।
  • हरितानक प्रदेश पर भी अर्णोराज ने एक बार अभियान किया था।
  • हरियाणा के समीपवर्ती वारण (वर्तमान बुलंदशहर) क्षेत्र में डोड राजपूतों को हराया। अर्णोराज के दक्षिण पश्चिम दिशा में गुजरात के चालुक्य शासक थे।
  • इस क्षेत्र में अर्णोराज को ज्यादा सफलता नहीं मिली। यहाँ अर्णोराज के समय दो शक्तिशाली शासक थे। प्रथम जयसिंह सिद्धराज व दूसरा कुमारपाल।
  • सिद्धराज ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज से कर दिया।
  • अर्णोराज व कुमारपाल के मध्य दो युद्ध हुये।
  • एक आबू के निकट 1145 ई. में जिसमें किसी को सफलता नहीं मिली दूसरा 1150 ई. में जिसमें अर्णोराज पराजित हुआ।
  • अर्णोराज ने अपनी पुत्री जलना का विवाह कुमारपाल से किया।

आनासागर झील
अर्णोराज के समय यमीनी सुल्तान ने इस पर आक्रमण किया।
तब इसने तुर्कों का उस स्थान पर संहार किया जहाँ आज आनासागर झील है।
यहाँ भारी संख्या में सैनिक मरे, लोगों ने शवों को जला दिया फिर भी शुद्धि नहीं हुई।
अर्णोराज ने इसकी शुद्धि के लिए तालाब बनवाया व इन्दु नवी का जल भरवाया।
बिजौलिया शिलालेख के अनुसार इस झील का निर्माण 1133 ई. से 1137 ई. के मध्य हुआ था।
पृथ्वीराज रासो के अनुसार इस झील का निर्माण 1135-37 ई. के मध्य हुआ था।
वर्तमान में आनासागर झील में लूणी या चन्द्रा नदी गिरती है। आनासागर झील पर जहाँगीर ने शाही बाग/दौलत बाग बनवाया जिसे वर्तमान में 'सुभाष बाग' कहते हैं।
इस बाग में जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम ने 'इत्र' का आविष्कार किया था।
अर्णोराज के दो विवाह हुए, एक मरूदेश की यौधेय राजकुमारी सुधवा से व दूसरा जयसिंह सिद्धराज की पुत्री कांचन देवी से।
कांचनदेवी से सोमेश्वर का जन्म हुआ व सुधवा से जगदेव, विग्रहराज (बीसलदेव) व देवदत्त।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार अर्णोराज के ज्येष्ठ पुत्र जग्गदेव ने अर्णोराज की हत्या कर दी।
सामन्तों ने जग्गदेव को शासक न बनाकर विग्रहराज का पक्ष लिया। जग्गदेव युद्ध में मारा गया।
विग्रहराज चतुर्थ की उपाधि धारण कर राजगद्दी पर बैठा। जग्गदेव को "चौहानों का पितृहन्ता" कहा जाता है।

राजस्थान इतिहास के पितृहंता शासक
पितृहंता पिता
ऊदा महाराणा कुम्भा
मिहिर भोज रामभद्र
राव मालदेव राव गंगा
बख्तसिंह अजीतसिंह
जग्गदेव अर्णोराज

नोट
जग्देव का पुत्र पृथ्वीराज द्वितीय था।
मेवाड़ का पितृहन्ता - ऊदा (कुम्भा की हत्या की), मारवाड़ का पितृहन्ता मालदेव जिसने अपने पिता गंगा की हत्या की।

विग्रहराज चतुर्थ/बीसलदेव (1158 से 1163)
तोमरों से दिल्ली, मुस्लिमों से झांसी व हिसार का क्षेत्र, चालुक्य कुमारपाल से पाली, जालौर व नागौर छीन लिया।
अजमेर को इस समय बारहवीं शताब्दी में भारत की राजधानी होने का गौरव हासिल हुआ।
विग्रहराज का समय चौहानों का स्वर्णकाल माना जाता है।
इसने गजनी शासक खुसरो शाह (1153-60 ई.) को हराया था, नाडोल के कुन्तपाल को हराया व नगर को जला दिया था।
इसने चित्तौड़ के चालुक्य दण्डनायक सज्जन का वध किया और उसकी हाथियों की सेना छीन ली।
चौहानों का तँवरों से भी युद्ध हुआ, चौहान व तँवरों का युद्ध चन्दनराज के समय प्रारम्भ हुआ और इसकी समाप्ति विग्रहराज के समय हुई थी। विग्रहराज ने झाँसी व दिल्ली को अपने क्षेत्र में मिलाया किन्तु राजकीय कार्य तँवरों के ही हाथ में रहने दिया।

उपाधि
कवि बान्धव (जयानक ने दी)।
दिल्ली पर अधिकार करने वाला विग्रहराज चौहानों का प्रथम शासक।
किलहार्ने ने कहा है कि विग्रहराज, कालिदास व भवभूति की होड़ करता है।
विद्वान धर्मघोष के कहने पर विग्रहराज ने एकादशी के दिन पशुवध पर प्रतिबंध लगाया।
विग्रहराज के दरबारी विद्वान व राजकवि सोमदेव थे।
बीसलसागर/बीसलपुर कस्बा टोडारायसिंह (केकड़ी) बीसलदेव ने बसाया।

शिवालिक स्तम्भ लेख
विग्रह राज ने दिल्ली में 9 अप्रैल 1163 ई. में लिखवाया।
यह लेख अनुसार विग्रहराज ने देश में मुसलमानों का सफाया किया व अटक नदी के उस पार तक सीमित किया।
शिलालेख अनुसार मुस्लिम खुशरोशाह को हराया था।
शिवालिक स्तम्भ लेख में विग्रहराज को "विष्णु का अवतार" कहा गया है।

हरिकेली नाटक
इस नाटक की रचना विग्रहराज चतुर्थ ने संस्कृत भाषा में की थी।
'हरिकेली' नाटक में किरात के भेष में भगवान शिव व अर्जुन के मध्य संवाद है।
'हरिकेली' नाटक की कुछ पंक्तियाँ 'ढाई दिन के झोंपड़े' में लिखी है व इसकी कुछ पंक्तियाँ ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) के राजा राममोहन राय स्मारक पर लिखी हैं।
राजा राममोहन राय की मृत्यु ब्रिस्टल इंग्लैण्ड में हुई थी।

संस्कृत पाठशाला
परमार भोज की धारा नगरी की तर्ज पर संस्कृत पाठशाला बनवाई तथा उसमें 'हरिकेलि' नाटक को उत्कीर्ण करवाया।
मौहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक ने इस पाठशाला को तोड़कर एक मस्जिद में बदल दिया।
ये राजस्थान की प्रथम मस्जिद है इसे 'ढाई दिन का झोंपड़ा' भी कहा जाता है, इस मस्जिद की डिजाइन अबू बकर ने तैयार की थी।
जॉन मार्शल के अनुसार ये मस्जिद ढाई दिन में बनकर तैयार हुई थी, इसलिए इसे ढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है।
पर्सी ब्राउन के अनुसार यहाँ पंजाब शाह पीर का ढाई दिन का उर्स लगता है इसलिए इसे ढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है।
टॉड ने ढाई दिन के झौंपड़े को हिन्दू शिल्पकला का सबसे प्राचीनतम व परिष्कृत नमूना कहा था।
टॉड ने इस झौंपड़े के लिए कहा था मैनें इतनी प्राचीनतम व सुरक्षित इमारत और कहीं नहीं देखी।
ढाई दिन का झोंपड़ा राजस्थान की प्रथम मस्जिद है, इसमें 16 खम्भे हैं।

नोट
भारत की प्रथम मस्जिद 629 ई. को चेरामन पेरुमल जुमा मस्जिद (केरल के कोढुंगलूर तालुक के मेथला गाँव में) यह भारत की प्रथम जुमा मस्जिद है।
इस जुमा मस्जिद का निर्माण मौहम्मद साहब के जीवनकाल में ही हुआ था।
जब अरब के मुसलमानों का व्यापार भारत के दक्षिणी तट पर हुआ। तब यहाँ धर्मप्रचारकों ने कई मस्जिदें बनवाई।
उत्तरी भारत की प्रथम मस्जिद 'कुवैत-उल- इस्लाम' है जिसे कुतुबद्दीन ऐबक ने बनवाया।
ढाई सीढ़ी की मस्जिद (भोपाल मध्यप्रदेश) में है। ये भोपाल की प्रथम व एशिया की सबसे छोटी मस्जिद है।

विग्रहराज के समय के नाटक
  • ललित विग्रहराज - सोमदेव ने लिखा इसमें इन्द्रपुरी की राजकुमारी देसलदेवी व विग्रहराज के मध्य प्रेम संबंधों का वर्णन है।
  • बीसलदेव रासो - ये नरपति नाल्ह ने लिखा था।

बीसलदेव रासो के चार खण्ड हैं
  1. प्रथम खण्ड - इसमें मालवा के परमार भोज की पुत्री राजमति व बीसलदेव के मध्य विवाह का वर्णन है।
  2. द्वितीय खण्ड - बीसलदेव का राजमति से नाराज होकर उड़ीसा जाने का जिक्र है। बीसलदेव रासो में उड़ीसा विजय का भी जिक्र मिलता है।
  3. तृतीय खण्ड - इसमें राजमति के विरह का वर्णन है।
  4. चतुर्थ खण्ड - भोज द्वारा अपनी पुत्री को वापस ले जाना व बीसलदेव को वहाँ से चित्तौड़ जाने का वर्णन है।
  5. विग्रहराज की मृत्यु छोटी अवस्था में हो गई।
इनके दो पुत्रों का उल्लेख आता है एक अमरगांगेय जो इसके बाद शासक बना दूसरा नागार्जुन जिसने पृथ्वीराज तृतीय के समय विद्रोह किया था।
अमर गांगेय अपने चचेरे भाई जगदेव के पुत्र पृथ्वीराज द्वितीय से लड़ते हुए मारा गया।
पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु होने के बाद इसकी कोई संतान नहीं होने के कारण मंत्रियों ने गुजरात की राजकुमारी कांचन देवी के पुत्र सोमेश्वर को अजमेर की गद्दी पर बैठा दिया।

सोमेश्वर (1169-77 ई.)
सोमेश्वर ने 'प्रतापलंकेश्वर' की उपाधि धारण की।
सोमेश्वर ने कोंकण शासक मल्लिकार्जुन परास्त करके प्रसिद्धी हासिल की।
इसने अपने पिता अर्णोराज की मूर्ति बनवाकर नवीन मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया।
सोमेश्वर का विवाह दिल्ली के अनंगपाल तोमर की पुत्री कर्पूरी देवी से हुआ जिनसे हरिराज व पृथ्वीराज नामक दो पुत्र हुए।
पृथ्वीराज का जन्म 1166 ई. में हुआ था। अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था इस कारण इसने पृथ्वीराज को दिल्ली का उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
1177 ई. में अनंगपाल की मृत्यु हो गयी। पृथ्वीराज दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
जब पृथ्वीराज दिल्ली के सिंहासन पर बैठा उस समय उनकी उम्र मात्र 11 वर्ष थी।

पृथ्वीराज (तृतीय) चौहान (1177-1192 ई.)
  • पिता- सोमेश्वर
  • माता- कर्पूरी देवी
  • जन्म - 1166 ई., अन्हिलपाटन (गुजरात)

उपनाम
  1. रायपिथौरा (युद्ध में पीठ न दिखाने वाला)
  2. दलपंगुल (विश्व विजेता) (दलथंभन उपाधि जोधपुर के गजसिंह की है।)
  3. हिन्दू सम्राट
  • पृथ्वीराज जब शासक बना तब उनकी उम्र 11 वर्ष थी तब राजकार्य माता कर्पूरी देवी ने संभाला।
  • इनके प्रारम्भिक सहयोगी मुख्यमंत्री कदम्बवास/कैलास केम्बवास था।
  • केम्बवास अहीरावती जागीर का दाहिमा राजपूत था व विद्वान भी था।
  • इसने जिनपति सूरि के शास्त्रार्थ की अध्यक्षता की थी। पृथ्वीराज का सेनापति भुवनमल था जो कर्पूरी देवी का रिश्तेदार था।
  • भुवनमल ने पृथ्वीराज की वैसे ही रक्षा की जैसे कि गरुड़ ने राम व लक्ष्मण की मेघनाद के नागपाश से की थी।
  • भुवनमल ने नागों का दमन किया था।

नागार्जुनों का दमन
  • नागार्जुन विग्रहराज का पुत्र था। यह स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था।
  • नागार्जुन के साथ चाचा अमर गांगेय भी था।
  • नागार्जुन अपनी सेना लेकर गुड़गाँव पहुँच गया व गुड़गाँव पर अधिकार कर लिया।
  • नागार्जुन के सेनापति देवभट्ट ने कुछ देर तक पृथ्वीराज का मुकाबला किया लेकिन वह मारा गया।
  • नागार्जुन के परिवार को बंदी बना लिया गया।
  • नागार्जुन युद्धस्थल से भाग गया इसके बाद उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। गुड़गाँव पर पुनः पृथ्वीराज का अधिकार हो गया।
  • 1178 ई. में गुड़गाँव के नजदीक युद्ध हुआ था।
  • पृथ्वीराज का चाचा अपरगांगेय व उनका भाई नागार्जुन का दमन किया नागार्जुन भाग गया। नागार्जुन के सेनापति देवभट्ट ने मुकाबला किया व मारा गया।

भण्डानकों का दमन (1182 ई.)
भण्डानक सतलज प्रदेश से आई हुई एक जाति थी, इस जाति का उल्लेख स्कन्धपुराण में भी मिलता है।
भण्डानकों को पूर्व में विग्रहराज चतुर्थ ने भी हराया था।
ये जाति गुड़गाँव व हिसार के आस-पास थी तथा आगे बढ़कर मथुरा, अलवर व भरतपुर तक आ गई थी।
पृथ्वीराज ने भण्डानकों की शक्ति का पूर्णतः दमन कर दिया।
इसका उल्लेख समकालीन इतिहासकार जिनपति सूरि ने भी किया है व 'जिनपालोपाध्यायादि' रचित बृहद् गुर्वावलि में भी भण्डानकों का पृथ्वीराज द्वारा पराजित होने का उल्लेख मिलता है।

पृथ्वीराज की दिग्विजय नीति
महोबा विजय/तुमुल विजय व दिग्विजय का प्रथम सौपान - 1182 ई.
भण्डानकों के दमन के बाद पृथ्वीराज के क्षेत्र की सीमा परमार्दी देव चन्देल से मिल गई।
एक बार पृथ्वीराज समेता से दिल्ली की ओर आ रहा था। पृथ्वीराज के घायल सैनिकों को परमार्दी देव ने मरवा दिया।
इस कारण पृथ्वीराज ने परमार्दी देव से बदला लेने की सोची उस समय महोबा की राजनैतिक स्थिति सही नहीं थीं।
परमार्दी देव के वीर सेनापति आल्हा व ऊदल किसी कारण परमादर्दी से नाराज होकर कन्नौज शासक जयचन्द गहड़वाल की शरण में चले गये थे।
इस कारण महोबा की सैन्य शक्ति कमजोर थी। पृथ्वीराज बड़ी सेना के साथ सिरस्वा पहुँचा।
सिरस्वा, सिन्धु की सहायक नदी पहूजा के निकट था।
  • पृथ्वीराज की सेना ने नारायणा में अपना डेरा डाल दिया और चन्देल राजा के क्षेत्र में पहुँच गया।
  • परमार्दी देव घबरा गया।
  • उसने आल्हा व ऊदल को निमंत्रण भेजा, आल्हा व ऊदल अपनी माता के कहने पर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए वापस आ गये।
  • परमार्दी देव ने अपने सामंत मलखान की सहायता से पृथ्वीराज से कुछ समय के लिए संघर्ष किया फिर आल्हा व ऊदल भी आ गए।
  • चन्देल व चौहानों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। परमार्दी देव की सहायता के लिये कन्नौज के जयचन्द गहड़वाल ने भी अपनी सेना भेजी इस युद्ध को 'तुमुल का युद्ध' कहते हैं।
  • चन्देल व गहड़वालों की संयुक्त सेना हार गई।
  • पृथ्वीराज की इस विजय ने पृथ्वीराज को महान् विजेता की श्रेणी में खड़ा कर दिया।
परमार्दी देव को गिरफ्तार करके पृथ्वीराज के समक्ष पेश किया गया। पृथ्वीराज ने चन्देल शासक को माफ कर दिया।
पृथ्वीराज ने महोबा का सामंत पन्जुनराय को बनाया। तुमुल के युद्ध में आल्हा व ऊदल बड़ी वीरता के साथ लड़े थे। इनके लिये जगनिक ने कहा था-

"बारह बरस कुक्कर जिए, तेरह बरस सियार
बरस अठारह क्षत्रिय जिए, बाकी जीवन धिक्कार"

नागौर विजय (1184 ई.)
पृथ्वीराज के समय गुजरात का चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय था।
ये बड़ा ही शक्तिशाली था इसने मुहम्मद गोरी को भी हराया था, व पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर की हत्या की थी।
इसका ध्यान दिल्ली की ओर था। भीमदेव नागौर पर अधिकार करने के लिए रवाना हुआ।
इधर पृथ्वीराज भी हाथी पर सवार होकर नागौर की ओर रवाना हुआ।
  • नागौर किले पर पृथ्वीराज का अधिकार था।
  • इस पर भीमदेव के पुत्र जगदेव ने अधिकार कर लिया। नागौर किले के बाहर पृथ्वीराज व जगदेव के मध्य युद्ध हुआ।
  • जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने हथियार डाल दिये। जगदेव के सेनापति मुकुट राय ने पृथ्वीराज से सन्धि वार्ता की चौहान व चालुक्य के मध्य संधि हो गई।
  • नागौर किला वापस पृथ्वीराज के अधिकार में आ गया।
  • चौहानों की इस संधि से लंबे समय से चला आ रहा चौहान-चालुक्य संघर्ष समाप्त हो गया।
  • पृथ्वीराज चाहता तो जगदेव की हत्या करके अपने पिता सोमेश्वर की हत्या का बदला ले सकता था लेकिन पृथ्वीराज ने ऐसा नहीं किया व मैत्री संबंधों की एक नींव रखी।
  • पृथ्वीराज व भीमदेव द्वितीय के मध्य विवाद का कारण पृथ्वीराज रासो में आबू की परमार राजकुमारी इच्छिनी को बताया है।
भीमदेव इच्छिनी से विवाह करना चाहता था लेकिन पृथ्वीराज ने इच्छिनी से विवाह कर लिया।
रासो में इनके युद्ध का एक कारण ये भी बताया है कि पृथ्वीराज के चाचा कान्हड़देव ने भीमदेव के चाचा सारंगदेव के सात पुत्रों को मार दिया था इस कारण भीमदेव ने नागौर पर आक्रमण कर सोमेश्वर की हत्या कर दी थी।
अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिये पृथ्वीराज ने नागौर पर आक्रमण किया था, ये कारण सत्य नहीं माना जाता क्योंकि सोमेश्वर अपनी मौत मरा था व भीमदेव की मृत्यु 1241 ई. में हुई थी।
इन दोनों के मध्य विवाद का कारण दोनों की आपस में सीमाएँ मिलना था।

चौहान-गहड़वाल संघर्ष व दिग्विजय नीति का तृतीय सोपान
पृथ्वीराज व कन्नौज शासक जयचंद गहड़वाल के मध्य विवाद का कारण दोनों की सीमाएँ मिलना, दोनों का शक्तिशाली होना था, व जयचन्द गहड़वाल भी दिल्ली पर अधिकार करना चाहता था। पृथ्वीराज के नागों, भण्डानकों व चन्देलों के दमन से जयचंद ईर्ष्या रखने लगा। पृथ्वीराज रासो में जयचंद गहड़वाल के मध्य विवाद का कारण संयोगिता बताया है।

संयोगिता व इसकी ऐतिहासिकता
संयोगिता कन्नौज के राजा जयचंद गहड़वाल की पुत्री थी।
यह अत्यंत सुन्दर व विदुषी राजकुमारी थी।
इसने पृथ्वीराज के कई किस्से सुने थे। इसे पृथ्वीराज देवलोक से आया हुआ देवता लगता था।
एक बार दिल्ली से पन्नाराय नामक चित्रकार कन्नौज आया जिसने पृथ्वीराज का चित्र संयोगिता को दिखाया, संयोगिता पृथ्वीराज से प्रेम करने लगी।
जयचन्द गहड़वाल ने राजसूय यज्ञ का आयोजन करवाया व संयोगिता का स्वयंवर रखा।
जयचंद गहड़वाल ने पृथ्वीराज को स्वयंवर में निमंत्रण नहीं भेजा व पृथ्वीराज की छवि धूमिल करने के लिए पृथ्वीराज की एक आदमकद मूर्ति द्वार के ऊपर लगवाई व हाथ में भाला पकड़वाया तथा जयचन्द ने द्वारपाल की उपाधि से विभूषित किया।
उधर पृथ्वीराज को स्वयंवर की सभी जानकारियाँ मिल रही थी। जब राजकुमारी स्वयंवर में आई तब उसे पृथ्वीराज दिखाई नहीं दिया।
राजकुमारी ने वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के डाल दी। पृथ्वीराज भी स्वयंवर में भेष बदलकर पहुँच गया।
माला डालने के बाद संयोगिता जब मूर्ति के चरण छूने लगी तो पृथ्वीराज ने संयोगिता के पास जाकर कहा तुम्हारा स्थान चरणों में नहीं, हमारे हृदय में है।
पृथ्वीराज घोड़े पर बैठकर संयोगिता के साथ रवाना हुए।
इधर जयचंद ने सैनिकों को आदेश दिया कि पृथ्वीराज कन्नौज से बाहर नहीं जाना चाहिए, युद्ध हुआ और कई सैनिक मारे गये। पृथ्वीराज, संयोगिता को अजमेर ले आये।
दशरथ शर्मा ने इस कहानी को प्रेम प्रधान व सत्य बताया है।
चन्द्रशेखर व अबुल फजल ने भी इस कथा को सत्य माना है।
डॉ. ओझा व डॉ. त्रिपाठी इस कहानी को काल्पनिक बताते हैं कि ये किसी भाट की कल्पना है।
डॉ. त्रिपाठी कहते हैं कि पृथ्वीराज के समय राजसूय यज्ञ व स्वयंवर की प्रथा लुप्त हो गई थी।
सुर्जन चरित में संयोगिता का नाम कांतिमति मिलता है।

शहाबुद्दीन मौहम्मद गोरी व पृथ्वीराज चौहान
मौहम्मद गोरी तुर्कों के शंसबानी वंश का था।
गोरी प्रारम्भ में गजनी के अधीन थे।
खुरासन विजय के बाद में शहाबुद्दीन की उपाधि मुइजुद्दीन हो गई।
मोहम्मद गोरी ने गोमल दर्रे से भारत पर आक्रमण किया, इसका पहला आक्रमण 1175 ई. में मुल्तान के करमाथी जाति के सियाओं के विरुद्ध था।
1178 ई. में गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया।
गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय ने काशहद मैदान में गोरी को हरा दिया, ये भारत में गोरी की पहली पराजय थी।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)
गोरी ने 1188 ई. में भटिण्डा पर अधिकार कर लिया।
भटिण्डा पर पृथ्वीराज अपना अधिकार जताता था।
यही युद्ध का तात्कालिक कारण बना।
इसमें पृथ्वीराज के साथ दिल्ली से गोविन्द राय था व पृथ्वीराज का सेनापति खाण्डेराव था।
गोविन्दराय ने गोरी पर आक्रमण किया।
गोरी घायल हुआ, गोरी के एक खिलजी अधिकारी की जान बचाई।
इस युद्ध में पृथ्वीराज की विजय हुई।

तराइन का द्वितीय (1192 ई.)
गोरी 1,20,000 की सेना लेकर चला। लाहौर से क्विाम उल मुल्क नामक दूत भेजा।
गोरी ने दूसरा दूत रूग्नूदीन हमजा को भेजा।
पृथ्वीराज रवाना हुआ, लेकिन पृथ्वीराज का सेनापति उदयराज समय पर रवाना नहीं हो सका।
पृथ्वीराज के मंत्री सोमेश्वर व प्रतापसिंह गोरी से मिल गये।
इस युद्ध में पृथ्वीराज के साथ जालौर से समरसिंह, दिल्ली से गोविन्दराय, मेवाड़ से सामन्त सिंह थे।
इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई। फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज के पास 3 लाख सेना थी।
गोरी के साथ गजनी से 4 प्रसिद्ध सेनापति खारबक, खर्मेल, इलाह व मुकल्बा थे।
गोविन्दराय इस युद्ध में मारा गया। पृथ्वीराज को सिरसा के नजदीक पकड़ लिया।

पृथ्वीराज की मृत्यु से सम्बंधित विचारधाराएँ
पृथ्वीराज रासो में चन्दबरदाई लिखता है कि गोरी पृथ्वीराज को गजनी ले गया व उसकी आँखें फुड़वा दी।
तब मैंने पृथ्वीराज रासो ग्रन्थ कल्हण को देकर गजनी पहुँचा और गोरी से कहा हमारे राजा आँख न होने पर भी शब्दभेदी बाण चला सकते हैं।
तब गोरी ने दरबार लगाया। वहाँ मैंने एक दोहे के माध्यम से पृथ्वीराज से गोरी की हत्या करवा दी।

"चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट परमार,
ता पर बैठ्यो सुल्तान चूक मति चौहान"

हम्मीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज को कैद करके अंत में मरवा दिया।
पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अजमेर के महल में रखा उसके सामने मौहम्मद गोरी दरबार लगाता था।
पृथ्वीराज ने अपने मंत्री प्रतापसिंह से धनुष मंगवाकर गोरी को मारना चाहा।
गोरी ने पृथ्वीराज को गड्ढे में फिंकवा दिया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
अबुल फजल लिखता है कि पृथ्वीराज को गोरी, गजनी ले गया वहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
मिनहाज के अनुसार पृथ्वीराज की हत्या यहीं कर दी गई थी।
हसन निजामी के अनुसार पृथ्वीराज ने गोरी की अधीनता स्वीकार कर ली थी और कुछ समय तक अजमेर में शासन किया। इस मत की पुष्टि संस्कृत के एक ग्रन्थ 'किसलविधिविद्धवमसा' में भी मिलती है।
पृथ्वीराज के कुछ सिक्कों में 'श्रीमौहम्मदसाम' लिखा होना इस बात की पुष्टि करता है लेकिन पृथ्वीराज ने गोरी को मारने का षड्यंत्र किया तब उसे मृत्युदंड दे दिया।
इसके बाद गोरी ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर का शासक बनाया।
  • पृथ्वीराज की छतरी गजनी तथा स्मारक अजमेर में है।
  • पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज व गोरी के मध्य 21 बार युद्ध हुआ।
  • हम्मीर काव्य के अनुसार 7 बार। सुर्जन चरित्र के अनुसार 21 बार युद्ध हुआ था। पृथ्वीराज प्रबंध में आठ बार हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का जिक्र है।
  • प्रबंध कोश में बीस बार गौरी को पृथ्वीराज द्वारा कैद से मुक्त करना बताया है। चिन्तामणि में 23 बार गौरी का हारना लिखा है।
  • पृथ्वीराज के दरबार में जयानक, विद्यापति, वागीश्वर, जनार्दन, विश्वरूप आदि विद्वान थे।
  • दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज को सुयोग्य व रहस्यमयी शासक कहा है।
  • पृथ्वीराज ने दिल्ली में रायपिथौरागढ़ का निर्माण करवाया।
  • अजमेर में कला व साहित्य विभाग की स्थापना की जिसका अध्यक्ष - पद्मनाभ को बनाया।

नोट
गोरी ने इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) को जीतकर कुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ छोड़ दिया। इधर अजमेर में हरिराज ने गोविन्दराज को हटाकर चौहानों को स्वतंत्र करने का प्रयास किया लेकिन हरिराज ऐबक से हार गया।
1194 ई. में अजमेर को ऐबक ने प्रत्यक्ष रूप से अपने अधिकार में ले लिया।
इस अवसर पर ऐबक ने दो मस्जिदें बनवाई
  1. कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद। ये दिल्ली की प्रथम मस्जिद है।
  2. अजमेर में संस्कृत पाठशाला को तोड़कर 1196 ई. में अढ़ाई दिन के झौंपडे का निर्माण प्रारम्भ करवाया जो 1200 ई. में पूर्ण हुआ।
1194 ई. में गौरी ने चंदावर के युद्ध में यमुना नदी के किनारे कन्नौज व बनारस के गहड़वाल शासक जयचंद गहड़वाल को हराया। तराईन के युद्ध में जयचंद गहड़वाल तटस्थ था।
1194 ई. में गौरी वापस चला गया व अपना गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को छोड़ गया। मौहम्मद गौरी की मृत्यु 1206 ई. में सिंधु नदी के किनारे दमयक नामक स्थान पर हुई।
चन्दबरदाई इसका श्रेय पृथ्वीराज को देता है जो तर्कसंगत नहीं है। कुछ इतिहासकार इसका श्रेय खोखर विद्रोहियों को देते हैं। मौहम्मद गोरी को गजनी में दफनाया गया।

ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती
  • ये मौहम्मद गौरी के साथ पृथ्वीराज चौहान के समय भारत आए थे। जन्म - 1143 सजरी (फारस) ईरान। वफात (मृत्यु) - 1235 अजमेर
  • ये भारत में चिश्ती सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। इन्हे गरीब नवाज व सुल्तान अलहिन्द (हिन्दुस्तान का आध्यात्मिक गुरु) कहा जाता है सुल्तान अलहिन्द की उपाधि गौरी ने दी।
  • अजमेर दरगाह गुम्बद ग्यासुद्दीन ने बनवाया। दरगाह की शुरूआत इल्तुतमिश ने की व पूर्ण हुमायूँ के समय में हुई। यहाँ बड़ी देग 1567 ई. में अकबर ने व छोटी देग 1613 ई. में जहाँगीर ने दी। ये स्थान शिया मुसलमानों के लिए पवित्र स्थान है।
यहाँ 1-6 रज्जब को मेला भरता है जिसका उद्घाटन भीलवाड़ा का गोरी परिवार करता है।

चिश्ती सम्प्रदाय की शब्दावली
  • गुरु को पीर
  • शिष्य को मुरीद
  • उत्तराधिकारी को वली
  • जहाँ चिश्ती सम्प्रदाय के लोग बैठते हैं- खानखाह
  • उपदेश स्थल - जमीदखान
  • तीर्थ यात्री - जायरीन
  • तीर्थ यात्रा - जियारत

नोट
हजरत शेख उस्मानी हारूनी के शिष्य ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती थे।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के शिष्य कुतुबद्दीन बख्तियार काकी थे।
बख्तियार काकी के शिष्य बाबा फरीद थे। बाबा फरीद के शिष्य निजामुद्दीन औलिया (इन्होंने कहा था दिल्ली दूर है) निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो थे।

रणथम्भौर के चौहान

तराईन के द्वितीय युद्ध के बाद में भारत की राजनीति में परिवर्तन आया। फिर भी चौहानों की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी।
इसके बाद भी एक शताब्दी तक चौहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, नाडोल, चन्द्रावती और आबू में शासन कर रही थी। इन्होंने सुल्तानों का संघर्ष किया। इन शाखाओं में रणथम्भौर व जालौर की शाखा प्रमुख है।
रणथम्भौर के चौहान वंश का संस्थापक पृथ्वीराज तृतीय का पुत्र गोविन्द था।
गोविन्दराज के बाद रणथम्भौर का शासक वल्लनदेव बना। इसका संघर्ष 1226 ई. में इल्तुतमिश से हुआ।
वल्लनदेव के बाद प्रहलाद व वीरनारायण रणथम्भौर के शासक बने। वीर नारायण का भी इल्तुतमिश से संघर्ष हुआ, सुल्तान ने दिल्ली में इसकी हत्या करवा दी।
वीरनारायण के बाद में शासक बागभट्ट बना। बागभट्ट के समय रजिया सुल्तान ने मलिक कुतुबद्दीन व हसन गोरी के नेतृत्व में रणथम्भौर पर अभियान किया।
बागभट्ट के बाद उसका पुत्र जयसिंह/जैत्रसिंह/जयसिम्हा शासक बना। जयसिम्हा ने अपने शासन काल में ही अपने पुत्र हम्मीर देव को रणथम्भौर का शासक बना दिया।

हम्मीर देव चौहान (1282-1301 ई.)

हम्मीर देव जैत्रसिंह का तीसरा पुत्र था इसकी माता का नाम हीरा देवी था। दिग्विजय के अन्तर्गत वे भी राज्य सम्मिलित थे जिनसे कर लिया जाता था या धनराशि लेकर मुक्त कर दिया था।
  • हम्मीर ने सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को हराया। हम्मीर ने मांडलगढ़ से कर वसूला था।
  • यहाँ से दक्षिण की ओर बढ़कर परमार शासक भोज को हराया। इसके बाद चित्तौड़, आबू, काठियावाड़, पुष्कर, चंपा होते हुए स्वदेश लौटा।
  • त्रिभुवन गिरी के शासक ने अधीनता स्वीकार की।
  • हम्मीर ने पण्डित विश्वरूप की देखरेख में कोटियजन यज्ञ का आयोजन किया जिससे हम्मीर की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। रणथम्भौर के राज्य में शिवपुर जिला (ग्वालियर) बलबन (कोटा राज्य) शाकम्भरी आदि राज्य सम्मिलित हो गये थे।
  • हम्मीर ने मेवाड़ के शासक समरसिंह को भी हरा दिया था। आबू के शासक प्रतापसिंह को हराया था।
  • हम्मीर के दरबार में विजयादित्य नामक कवि था। हम्मीर के गुरु का नाम राघवदेव था।
  • हम्मीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध किये जिनमें से 16 में विजयी रहा।
रणथम्भौर का अंतिम व प्रतापी शासक हम्मीर देव इतिहास में अपने हठ व शरणागत रक्षा के लिए जाना जाता है।
हम्मीर देव के बारे में कहा गया है -

"सिंह सवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलत इकबार,
त्रिया तेल, हम्मीर हठ चढ़े न दूजी बार।"

हम्मीर से सम्बन्धित जानकारी के ग्रंथ
हम्मीर महाकाव्य (नयनचंद्र सूरि) व प्रबंध कोष, हम्मीर के समय के ग्रन्थ है।
  • अमीर खुसरो:- ये हम्मीर के विरुद्ध आये अलाउद्दीन के साथ था।
  • हम्मीर हठ व सुरजन चरित्र, चन्द्रशेखर के ग्रन्थ है।
  • हम्मीर रासो:- सारंगधर/जोधराज ने लिखा था।
  • हम्मीरायण - भाडऊ व्यास ने लिखा था।
  • हम्मीर मद मर्दन - जयसिंह सूरि ने लिखा था।
  • हम्मीर बंधन - अमृत कैलाश ने लिखा था।

हम्मीर व जलालुद्दीन खिलजी

हम्मीर जब राजग‌द्दी पर बैठा तब दिल्ली सुल्तान बलबन था।
जलालुद्दीन खिलजी ने हम्मीर की बढ़ती हुई शक्ति को समाप्त करने के लिए 1290 ई. में रणथम्भौर दुर्ग की कुंजी झाइन (श्रीपद) दुर्ग पर आक्रमण किया।
झाइन दुर्ग की रक्षा गुरदास सैनी जो चौहान सेना का नेतृत्व कर रहा था, रक्षा करते हुए मारा गया।
झाइन दुर्ग पर जलालुद्दीन ने अधिकार कर लिया इसके बाद वह रणथम्भौर की ओर बढ़ा।
गढ़ को जीतने के लिए मजनिक (पत्थर फेंकने का हथियार), सेवात, गरगछ आदि की व्यवस्था की परन्तु दुर्ग को फतह नहीं कर पाया और वापस लौट गया।
1292 ई. में जलालुद्दीन ने दुर्ग पर वापस आक्रमण किया इस बार भी दुर्ग को नहीं जीत पाया।
दुर्ग का घेरा उठाते समय सेनापति अहमद चप ने जलालुद्दीन से पूछा वापस क्यों जा रहे हो तब जलालुद्दीन ने कहा- "ऐसे दस दुर्गों को मैं, मुसलमान के एक बाल के बराबर भी महत्त्व नहीं देता"

अलाउद्दीन का हम्मीर पर आक्रमण का कारण
  • अलाउद्दीन की साम्राज्य विस्तार नीति
  • हम्मीर का कर न देना
  • जलालुद्दीन को हम्मीर द्वारा दो बार हराना
  • रणथम्भौर के दुर्ग का दिल्ली के नजदीक होना
  • हम्मीर द्वारा मंगोल मौहम्मद शाह को शरण देना।

हम्मीर महाकाव्य के अनुसार अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण
अलाउद्दीन की सेना गुजरात से सोमनाथ मन्दिर को लूटकर वापस आ रही थी, तब जालौर के नजदीक धन के बँटवारे को लेकर विवाद हुआ एक तरफ उलूग खाँ, नुसरत खाँ दूसरी तरफ मंगोल सैनिक मौहम्मद शाह, कामरू, बारक सोमनाथ थे।
उलूग खाँ ने गुजरात से लूट के धन में से 1/5 भाग माँगा जिसे मंगोल मौहम्मद शाह ने देने में आना-कानी की। मौहम्मद शाह भागकर हम्मीर की शरण में आ गया।
अलाउद्दीन ने जब मौहम्मद शाह की माँग की तो हम्मीर ने मना कर दिया।

हम्मीर हठ के अनुसार अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण
अलाउद्दीन की मराठा बेगम चिमना व मौहम्मद शाह के मध्य प्रेम-संबंध बताया।

हिन्दुबाट घाटी का युद्ध
जब मंगोल मौहम्मद शाह को लौटाने से हम्मीर ने मना किया तब 1299 ई. में अलाउद्दीन ने उलुग खाँ, अलप खाँ, वजीर नुसरत खाँ के नेतृत्व में बड़ी सेना भेजी।
सेना ने बनास नदी के पास पड़ाव डाला और यहाँ लूटपाट शुरु कर दी।
हम्मीर ने कोटियज्ञ समाप्त कर मुनिव्रत धारण कर रखा था।
हम्मीर ने भीमसिंह व धर्मसिंह को भेजा, चौहान सेना ने बनास के किनारे शत्रुओं से मुकाबला किया, हम्मीर की विजय हुई।
वापस लौटते समय धर्मसिंह की सेना आगे चल रही थी व भीमसिंह की टुकड़ी पीछे चल रही थी।
खिलजी की एक सेना अलप खाँ के नेतृत्व में पहाड़ियों में छिपी हुई थी उस सेना ने भीमसिंह पर आक्रमण किया, हिन्दुवाट घाटी में युद्ध हुआ और भीमसिंह मारा गया। उलुग खाँ वापस दिल्ली लौट गया।

रणथम्भौर में हम्मीर की राजनीतिक अव्यवस्था

जब भीमसिंह की मृत्यु का समाचार हम्मीर को मिला तब हम्मीर ने इसका जिम्मेवार धर्मसिंह को ठहराया और धर्मसिंह को अंधा करवा दिया और इस पद पर धर्मसिंह के भाई भोज को नियुक्त किया।
भोज इस अव्यवस्था को सम्भाल नहीं पाया क्योंकि तुर्कों के आक्रमण के कारण फसलें नष्ट हो चुकी थी तब हम्मीर ने भोज को अपमानित कर इस पद से हटा दिया।
भोज अपने भाई पृथ्वीसिंह के साथ अलाउद्दीन के दरबार में चला गया, अलाउद्दीन ने उसे जगरा की जागीर दी।
हम्मीर ने पुनः धर्मसिंह को सेनापति बना दिया। इसके हृदय में भी हम्मीर से बदला लेने की भावना थी।
इसने जनता पर कई कर लगा दिये और जबरदस्ती धन इकट्ठा किया इससे जनता में असंतोष फैल गया।
हम्मीर के पास भी धर्मसिंह की राय मानने के अलावा कोई उपचार नहीं था।
हम्मीर ने धर्मसिंह की सम्मति से दण्डनायक के पद पर रतिपाल को नियुक्त किया जो अयोग्य था।
उलुग खाँ के अभियान के बाद ये जो किए गये परिवर्तन आगे चलकर रणथम्भौर के लिए हानिकारक सिद्ध हुए।

अलाउद्दीन का द्वितीय असफल आक्रमण
भोज ने दिल्ली में जाकर हम्मीर के विरुद्ध अलाउद्दीन को उकसाया, सुल्तान ने हम्मीर पर आक्रमण के लिए बड़ी सेना भेजी।
हम्मीर ने अपने भाई वीरम, सेनाध्यक्ष रतिपाल, जाजदेव, रणमल्ल, मंगोल नेता मौहम्मद शाह, तिचर, वैचर आदि को खिलजी की सेना से मुकाबले के लिए भेजा, हिन्दुबाट घाटी में युद्ध हुआ, तुर्क सेना परास्त हुई।
नयनचन्द्र सूरि के अनुसार यहाँ खिलजी के सैनिक अपनी स्त्रियों को छोड़कर भाग गये।
हम्मीर ने उन महिलाओं से गाँव में मट्ठा विकवाया।

उलुग खाँ का आक्रमण व नुसरत खाँ का मारा जाना
अलाउद्दीन ने इस बार बड़ी सेना उलुग खाँ व नुसरत खाँ के नेतृत्व में भेजी, इन्होंने जाहिन दुर्ग को जीत लिया।
जाहिन में सफलता इसलिए मिली कि इन्होंने सन्धि वार्ता का बहाना बनाया, सन्धि में शर्त रखी कि हम्मीर 4 लाख मोहरें 4 हाथी व अपनी पुत्री अलाउद्दीन को सौंपे व चारों मंगोल विद्रोहियों को दिल्ली भेजें।
हम्मीर ने शर्तों को ठुकरा दिया और कहा- "मैं सुल्तान को अपनी तलवार से उतने घाव जरूर दे सकता हूँ जितनी उसने मोहरों की माँग की है।"
तुर्की सेना ने सुरंगें बनाना प्रारम्भ कर दिया, रणथम्भौर की इस घेराबंदी में नुसरत खाँ मारा गया। तुर्क सेना पीछे हटकर जाहिन दुर्ग तक चली गई।

अलाउद्दीन का आगमन व दुर्ग का पतन
नुसरत खाँ की मृत्यु के बाद अलाउद्दीन स्वयं आया।
रणथम्भौर की घेराबंदी की। रणथम्भौर के पश्चिमी मोर्चे को तोड़ने के लिये बोरों में रेत भरकर खाईयों को भरा गया। जगह-जगह सुरंगें खोदी गई।
राजपूत सेना ने दीवार से तेल से भीगे कपड़ों में आग लगाकर उन पर फेंकना शुरू किया।
घेराबंदी लम्बे समय तक चली। वर्षा-ऋतु आ गई अलाउद्दीन को दिल्ली और अवध में विद्रोह की सूचना मिली, दुर्ग के अन्दर भी खाने-पीने की समस्या आ गई।
सन्धि-वार्ताएँ चलीं, हम्मीर का सेनापति रतिपाल सन्धि करने के लिए गया, अलाउद्दीन ने इसे दुर्ग जीतकर रतिपाल को सौंपने का लालच दिया, रतिपाल ने रणमल्ल को भी अपनी ओर मिला लिया। रतिपाल ने दुर्ग के एक भाग से सैनिक हटा लिए, जहाँ से तुर्क सेना रस्सों व सीढ़ियों से दुर्ग में प्रवेश कर गये। हम्मीर ने संघर्ष किया व वीरगति को प्राप्त हुआ।

रणथम्भौर व राजस्थान का प्रथम साका पूर्ण

अमीर खुसरो के अनुसार दुर्ग में सोने के एक दाने के बदले में अनाज का एक दाना नसीब नहीं था।
हम्मीर के नेतृत्व में केसरिया, हम्मीर की पत्नी रंगदेवी व पुत्री देवल के नेतृत्व में पदमला तालाब में जल जौहर हुआ।
11 जुलाई 1301 ई. को राजस्थान व रणथम्भौर दुर्ग का प्रथम साका पूर्ण हुआ। दुर्ग पर तुर्कों का अधिकार हो गया।
अलाउद्दीन ने रणथम्भौर दुर्ग उलुग खाँ को सौंपा। अलाउद्दीन की विजय के बाद अमीर खुसरो ने कहा था "आज कुफ्र (धर्म विरोधी) का गढ़, इस्लाम का घर हो गया।"
जसवन्त सिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था "आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया।"
दुर्ग विजय के बाद अलाउद्दीन घायल मौहम्मद शाह के पास पहुँचा व पूछा मैं तुम्हारे घाव सही कर दूँ तो तुम मेरे साथ क्या व्यवहार करोगे, मौहम्मद शाह ने कहा मैं दो काम करूँगा एक तो रणथम्भौर की गद्दी पर हम्मीर के पुत्र को बिठाऊँगा, दूसरा तुम्हारा कत्ल करूँगा।
अलाउद्दीन ने मौहम्मद शाह को हाथी से कुचलवा दिया। अलाउद्दीन ने मोहम्मद शाह की प्रशंसा भी की और उसका अंतिम संस्कार भी करवाया।
हम्मीर की मृत्यु के बाद रणथम्भौर की चौहान शाखा समाप्त हो गई, दुर्ग पर तुर्कों का अधिकार हो गया।
दशरथ शर्मा ने कहा है यदि हम्मीर में कुछ दोष थे, तो इसमें वीरोचित्त युद्ध वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा तथा मंगोल शरणार्थियों की रक्षा के सामने नगण्य हो जाते हैं।
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर ने अपना सिर भगवान शंकर को अर्पित कर दिया।
भारत का प्रथम साका - 712 ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध शासक दाहिर पर आक्रमण किया। ब्राह्मण राजा दाहिर वीर गति को प्राप्त हुआ व दाहिर की पत्नी रानीबाई ने जौहर किया।

जालौर के चौहान

जालौर एक सुदृढ़ दुर्ग है यहाँ से गुजरात व मालवा का रास्ता जाता है।
दिल्ली के शासकों को दक्षिणी भारत में जाने के लिये जालौर दुर्ग जीतना आवश्यक हो जाता है इसी कारण यहाँ के शासक व तुर्कों में संघर्ष हुआ।
प्रारम्भ में ये दुर्ग परमारों के अधीन था।
जालौर दुर्ग कनकाचल व सुवर्णगिरी पहाड़ी पर है इसका निर्माण नागभट्ट प्रथम ने करवाया था। सिवाना दुर्ग (बालोतरा) को, जालौर दुर्ग की कुंजी कहते हैं इसका निर्माण 954 ई. में परमार वीर नारायण ने करवाया था। जालौर के चौहानों की कुलदेवी आशापुरा माता है।

कीर्तिपाल
जालौर के चौहान वंश का संस्थापक। ये नाडोल शाखा के अल्ख का पुत्र था। इसने 1181 ई. में जालौर को प्रतिहारों से छीनकर स्वतंत्र शासक बन गया।
प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर व दुर्ग का नाम सुवर्णगिरी मिलता है, सुवर्णगिरी से सोनगढ़ बन गया और इसी पहाड़ी पर रहने के कारण यहाँ के चौहान सोनगरा चौहान कहलाए।
नैणसी ने कीर्तिपाल को "कीतु एक महान् राजा कहा है।"
मकराना शिलालेख में कीर्तिपाल को शैव धर्म का संरक्षक बताया व कीर्तिपाल जालौर में जांगलेश्वर महादेव मंदिर बनवाया।
सुण्डा पर्वत शिलालेख में कीर्तिपाल को 'राजेश्वर' कहा गया है।

समरसिंह
कीर्तिपाल के पुत्र समरसिंह ने जालौर दुर्ग को सुदृढ़ किया यहाँ शस्त्रागार व कई मन्दिर बनवाए।
समरसिंह ने अपनी पुत्र लीलादेवी का विवाह गुजरात शासक भीमदेव द्वितीय से किया व गुजरात से मधुर सम्बन्ध स्थापित किए।
इसके समय में दिल्ली में मौहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक शासन कर रहा था।

उदयसिंह (1205-57 ई.)
समरसिंह के पुत्र उदयसिंह इसने जालौर का विस्तार किया।
मण्डौर व नाडोल को उदयसिंह ने अपने अधिकार में कर लिया व ताज-उल-मासिर के अनुसार 1228 ई. में इल्तुतमिश को भी चुनौती दी।
गुजरात के लवणप्रसाद को भी परास्त किया और इसने गौडवाड़ व मेवाड़ के भी कुछ भाग पर अधिकार किया।
उस समय उदयसिंह उत्तर भारत में महान् व शक्ति सम्पन्न शासक था।

चाचिगदेव (1257-1282 ई.)
उदयसिंह का पुत्र ये नासिरुद्दीन व बलबन के समकालीन था। लेकिन इसके समय दिल्ली से कोई आक्रमण नहीं हुआ।

सामन्तसिंह (1282-1305 ई.)
चाचिगदेव का पुत्र। सामन्तसिंह ने बाघेला राजा सारंगदेव की सहायता से 1291 ई. में जलालुद्दीन खिलजी की सेना से मुकाबला किया था।

कान्हड़देव चौहान (1305-1311 ई.)
कान्हड़देव की जानकारी से सम्बन्धित ग्रंथ व अलाउद्दीन के जालौर पर आक्रमण के कारण :-

1. कान्हड़दे प्रबन्ध
ये पद्मनाभ ने लिखा था। इसमें कान्हड़ देव की शासन व्यवस्था व अलाउद्दीन के साथ युद्ध के बारे में वर्णन है।
कान्हड़दे प्रबन्ध के अनुसार 1298 ई. में खिलजी की सेना ने गुजरात जाने के लिये कान्हड़देव से रास्ता मांगा।
कान्हड़देव ने कहा "सेना ब्राह्मणों की विरोधी है, गायों की हत्या करती है, स्त्रियों व लोगों को बन्दी बनाती है मैं इन्हें रास्ता नहीं दूँगा।" खिलजी की सेना मेवाड़ के रास्ते से गुजरात चली गई। वापस आ रही सेना पर कान्हड़देव ने आक्रमण कर दिया।

2. वीरमदे सोनगरा री बात
ये भी पद्मनाभ ने ही लिखा था।

3. नैणसी री ख्यात
ये नैणसी ने लिखी थी। इसमें वीरमदेव व फिरोजा के मध्य प्रेम-सम्बन्धों का वर्णन है।
नैणसी के अनुसार अलाउद्दीन व कान्हड़देव के मध्य सन्धि हुई, सन्धि के बाद कान्हड़देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को अलाउद्दीन के दरबार में भेजा वहाँ अलाउद्दीन की शहजादी फिरोजा वीरमदेव से प्रेम करने लगी।
फिरोजा ने वीरमदेव से विवाह के लिए हठ किया। लेकिन वीरमदेव ने शहजादी के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया।
अपने धर्म व मर्यादा के खिलाफ बताकर एक दिन रात्रि में चुपके से दिल्ली से जालौर आ गया इस कारण अलाउद्दीन ने जालौर पर आक्रमण किया।

4. तारीख-ए-फरिश्ता
इस ग्रन्थ की रचना सोलहवीं शताब्दी में फारसी भाषा में फरिश्ता ने की थी।
इस ग्रन्थ में दक्षिण भारत की घटनाओं का वर्णन है व कुछ उत्तर भारत की घटनाओं का भी जिक्र मिलता है।
फरिश्ता के अनुसार 1305 ई. में अलाउद्दीन ने एन-उल-मुल्क-मुलतानी को कान्हड़देव के विरुद्ध भेजा।
इनके मध्य सन्धि हो गई। कान्हड़देव खिलजी के दरबार में चला गया।
एक दिन अलाउद्दीन ने दरबार में कहा "हिन्दुस्तान में एक भी राजा ऐसा नहीं, जो मुझे चुनौती दे सके।" कान्हड़देव दरबार में अलाउद्दीन को चुनौती देकर वापस आ गया।

5. कान्हड़देव व अलाउद्दीन
कान्हड़देव व अलाउद्दीन के मध्य युद्ध का कारण दोनों का साम्राज्यवादी होना, अलाउद्दीन की धार्मिक कट्टरता व 1298 ई. में अलाउद्दीन की सेना गुजरात जा रही थी जाते समय कान्हड़देव ने रास्ता नहीं दिया व वापस आ रही सेना पर 'जैता व देवड़ा' के नेतृत्व में कान्हड़देव ने आक्रमण कर दिया व शिवलिंग के टुकड़े छीन लिए।
अलाउद्दीन के सेनापति नुसरत खाँ व उलुग खाँ यहाँ से भाग गये।

अलाउद्दीन का आगमन व सिवाणा का साका (बालोतरा)
सिवाणा दुर्ग जालौर दुर्ग की कुंजी है।
सिवाणा दुर्ग सीतलदेव के नेतृत्व में था।
2 जुलाई 1308 ई को अलाउद्दीन के सेनापति कमालुद्दीन ने दुर्ग को घेर लिया।
सीतलदेव के सेनापति भावला को अपनी ओर मिला लिया। भावला ने दुर्ग में स्थित 'मामादेव कुण्ड' में गौ रक्त मिला दिया।
सीतलदेव के नेतृत्व में केसरिया व मैणादे के नेतृत्व में जौहर हुआ।
1308 ई. में सिवाणा दुर्ग का साका पूर्ण हुआ।
अलाउद्दीन ने ये दुर्ग कमालुद्दीन को सौंप दिया व इसका नाम खैराबाद कर दिया।

जालौर दुर्ग का साका
सिवाणा विजय के बाद खिलजी की सेना ने मारवाड़ को उजाड़ा।
उस समय भीनमाल चौहानकालीन विद्या का केन्द्र था।
जिसे दूसरी ब्रह्मपुरी नगरी कहा जाता था। खिलजी की सेना ने इसे जला दिया।
जालौर दुर्ग पर जब आक्रमण किया उस समय खिलजी का सेनापति मालिक नाईब था।
कान्हड़दे के सेनापति दहिया बीका ने कान्हड़ देव के साथ विश्वासघात किया व दुर्ग की गुप्त सुरंग का रास्ता बता दिया। दहिया बीका को इसकी पत्नी ने मार दिया।
कान्हड़देव के नेतृत्व में केसरिया, जैतल दे के नेतृत्व में जौहर हुआ।
1311 ई. में जालौर दुर्ग का साका पूर्ण हुआ। जालौर का नाम अलाउद्दीन ने जलालाबाद कर दिया।
अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग में एक मस्जिद बनवाई जिस पर तोप रखवाई इस मस्जिद का नाम तोप मस्जिद कर दिया ये राजस्थान की दूसरी मस्जिद है।
कान्हड़देव के परिवार में एकमात्र सदस्य कान्हड़देव का भाई मालदेव बचा इसने आत्मसमर्पण कर दिया।
अलाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग खिज्रखां के स्थान पर मालदेव सोनगरों को सौंप दिया जिसे बाद में हम्मीर ने मालदेव के पुत्र जैसा/वीरा से छीन लिया था। अलाऊ‌द्दीन ने जालौर का नाम 'जलालाबाद' किया।

अन्य चौहान शाखाएँ

chauhan-vansh

नाडौल (पाली) के चौहान

लक्ष्मण
नाडौल के चौहान वंश का संस्थापक वाक्यतिराज का पुत्र लक्ष्मण था जिसने 960 ई. में चावड़ों को पराजित कर नाडौल पर अधिकार किया।

अहिल
माना जाता है कि महमूद गजनवी के 1025 ई. में सोमनाथ पर आक्रमण के समय अहिल ने तुर्क सेना का सामना किया था।

पृथ्वीपाल
इसने गुजरात के चालुक्य शासक कर्ण को पराजित किया।

असराज
नाडौल के चौहान शासक असराज ने गुजरात के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

अल्हण
इसके पुत्र कीर्तिपाल ने जालौर में अपना राज्य स्थापित किया।

केल्हण
यह 1178 ई. में मूलराज द्वितीय के सामन्त के रूप में मोहम्मद गोरी के विरुद्ध लड़ा था।
1205 ई. में नाडौल के चौहान राज्य पर जालौर के चौहानों ने अधिकार कर लिया।

सिरोही के देवड़ा चौहान

राव लुम्बा (1311-1321 ई.)
सिरोही के चौहान राज्य का संस्थापक लुम्बा जालौर की देवड़ा शाखा का चौहान था, इसलिये सिरोही के चौहान 'देवड़ा चौहान' कहलाये।
उसने आबू और चन्द्रावती को परमारों से छीनकर चन्द्रावती की राजधानी बनाया।

शिवभान (शिभान)
शिभान ने 1405 ई. में शिवपुरी नगर की स्थापना की तथा इसे राजधानी बनाया।

सहसमल
शिभान के पुत्र सहसमल ने 1425 ई. में सिरोही बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।
इसके समय राणा कुम्भा ने आबू, बसन्तगढ़ तथा सिरोही के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया था।
विजय के उपलक्ष्य में राणा कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग और उसमें कुम्भश्याम मन्दिर का निर्माण करवाया था।

लाखा (1451-1483 ई.)
इसने सिरोही के खोये हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया।

जगमाल (1483-1523)
मेवाड़ के राणा रायमल की पुत्री आनन्दाबाई जो जगमाल की पत्नी थी, के साथ मनमुटाव के परिणामतः इसने रायमल के पुत्र पृथ्वीराज को धोखे से मरवा दिया था।

अखैराज देवड़ा
यह 'उड़ना अखैराज' के नाम से भी जाना जाता है, इसने खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से भाग लिया था।

सुरताण देवड़ा
सुरताण देवड़ा ने लम्बे संघर्ष के बाद 1575 ई. में मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।

वैरीसाल
इसने कालिन्दी नामक स्थान पर मारवाड़ के अजीतसिंह को शरण दी थी।
सिरोही के शासक शिवसिंह ने 11 सितम्बर, 1823 ई. को अंग्रेजों से सन्धि कर अधीनता स्वीकार कर ली थी।
सिरोही राज्य का अन्तिम शासक अभयसिंह था।

हाड़ौती के चौहान


1. बूंदी का हाड़ा चौहान वंश

देवासिंह हाड़ा
बूंदी के हाड़ा वंश का संस्थापक देवासिंह (राव देवा) प्रारम्भ में मेवाड़ के अधीन बम्बावदे का ठिकानेदार था। उसने बूँदीघाटी के अधिपति जैता मोणा को पराजित कर 1241 ई. में बूँदी में अपनी राजधानी स्थापित की।

समरसिंह
समरसिंह के पुत्र जैत्रसिंह ने 1264 ई. में कौटिया भील को पराजित कर कोटा नगर की स्थापना की तथा कोटा के किले का निर्माण करवाया।

बरसिंह
जैत्रसिंह के पुत्र राव बरसिंह ने 1354 ई. में बूँदी के तारागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया था।

हम्मीर
राव हम्मीर के समय मेवाड़ के राणा लाखा ने बूँदी को जीतने की कोशिश की, जिसमें असफल रहने पर राणा ने मिट्टी का नकली दुर्ग बनवाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी।

राव बैरीसाल
यह मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम द्वारा 1458 ई. में बूँदी पर आक्रमण के समय मारा गया था।

राव सुर्जन (1554-1585 ई.)
अकबर द्वारा 1569 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण के समय मेवाड़ की अधीनता में रणथम्भौर पर राव सुर्जन का अधिकार था।
राव सुर्जन ने थोड़े विरोध के बाद सन्धि कर मुगल अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने उसे 'रावराजा' की उपाधि और पाँच हजार का मनसब प्रदान किया।
राव सुर्जन ने द्वारकापुरी में रणछोड़जी का मन्दिर बनवाया था।
राव सुर्जन के दरबारी कवि चन्द्रशेखर ने 'सुर्जन चरित्र' और 'हम्मीर हठ' नामक ग्रन्थों की रचना की।

राव रतन (1607-1631 ई.)
राव रतन को बादशाह जहाँगीर ने 'सरबुलन्दराय' और 'रामराज' की उपाधियाँ प्रदान की थी।

राव शत्रुशाल (1631-1658 ई.)
यह सामूगढ़ (1658 ई.) के युद्ध में दारा की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था।

राव अनिरुद्ध (1681-1695 ई.)
राव अनिरुद्ध के भाई राव देवा ने 1683 ई. में बूँदी की प्रसिद्ध चौरासी खम्भों की छतरी का निर्माण करवाया था।
यह राव शत्रुशाल की छतरी है।

महाराव बुद्धसिंह (1695-1730 ई.)
मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम ने इसे 'महारावराणा' की उपाधि प्रदान की थी।
बुद्धसिंह के समय कोटा के भीमसिंह ने कुछ समय के लिए बूँदी पर अधिकार कर लिया था। इसी समय बादशाह फर्रुखसियर ने बूँदी का नाम 'फर्रुखाबाद' किया था।

महाराव विष्णुसिंह
विष्णुसिंह ने 10 फरवरी, 1818 को अंग्रेजों से सन्धि कर ली थी।

महाराव रामसिंह (1831-1889)
रामसिंह के शासन काल में ही कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने 'वंशभास्कर' की रचना की थी।
बूंदी का अन्तिम शासक महाराव बहादुरसिंह था।

2. कोटा का हाड़ा वंश
1631 ई. में शाहजहाँ ने बूँदी नरेश रत्नसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा देकर बूँदी से स्वतंत्र कर दिया।
कोटा बूँदी रियासत की एक उपशाखा थी। कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्रण में था। इसी कारण 'कोटा' नाम पड़ा।
1264 ई. में बूँदी राजा समरसिंह के पुत्र राव जैतसी ने चंबल नदी के पूर्वी किनारे पर कोटिया भील को मारकर अपना राज जमाया।

माधोसिंह (1631-1648 ई.)
माधोसिंह बूँदी के राव रतन का पुत्र था, जिसे राव रतन ने 1624 ई. में कोटा की जागीर प्रदान की थी।
1631 ई. में राव रतन की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ ने माधोसिंह को पृथक् रूप से कोटा का शासक स्वीकार कर लिया।
इसने 1631 ई. में खानेजहाँ लोदी व 1635 ई. जुझारसिंह बुन्देला का विद्रोह दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शाहजहाँ ने माधोसिंह को 'बाद रफ्तार' नामक घोड़ा उपहार में दिया।

मुकुन्दसिंह (1648-1658 ई.)
यह 1658 ई. में धरमत के युद्ध में शाही सेना की ओर से औरंगजेब के विरुद्ध लड़ता हुआ बीरगति को प्राप्त हुआ था।
मुकुन्दसिंह ने अपनी पासवान रानी 'अबली मीणी' के लिए कोटा में अबली मीणी का महल बनवाया।

राव जगतसिंह (1658-1683 ई.)
औरंगजेब के साथ दक्षिण अभियान में मारा गया।

किशोरसिंह (1684-1696 ई.)
किशोरसिंह ने कोटा के किशोर सागर तालाब का निर्माण करवाया व चाँदखेड़ी (झालावाड़) में जैन मन्दिर बनवाया।

रामसिंह (1696-1707 ई.)
औरंगजेब के पुत्रों के मध्य हुए उत्तराधिकारी संघर्ष में रामसिंह आजम की ओर से लड़ते हुए जाजऊ के युद्ध में मारा गया था।
इसने रामपुरा बाजार, रामपुरा दरवाजा, रामगंज, संवठा तालाब, शहरपनाह, सूरजपोल का निर्माण करवाया।

भीमसिंह (1707-1720ई.)
भीमसिंह ने खाँचियों से गागरोण छीन लिया तथा कुछ समय के लिए बूँदी पर भी अधिकार कर लिया था।
भीमसिंह ने कृष्ण भक्ति के प्रभाव में अपना नाम 'कृष्णदास' तथा कोटा का नाम 'नन्दग्राम' कर दिया था।
बाराँ में साँवरियाजी के मन्दिर का निर्माण महाराव भीमसिंह ने ही करवाया था।
फर्रुखसियर ने 5000 की मनसबदारी दी व महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने 'महाराव' की उपाधि दी।
सैय्यद बन्धुओं के पक्ष में निजाम से लड़ता हुआ करुवाई के युद्ध (1720 ई.) में मारा गया।
भीमसिंह ने भीमगढ़ का किला, भीमविलास, बृजनाथ जी मन्दिर व आशापुरा जी का मन्दिर बनवाया।

राव अर्जुनसिंह (1720-23 ई.)
इसके समय मुगल बादशाह मोहम्मद शाह था।

राव दुर्जनशाल (1723-56 ई.)
इसने अपनी सिसोदिया रानी ब्रज कंवर के लिए 1740 ई. में किशोर सागर तालाब में जगमंदिर महल का निर्माण करवाया।

अजीतसिंह (1756-57 ई.)

शत्रुशाल (1756-1764)
इनके समय कोटा के फौजदार झाला जालिमसिंह (1758-1824 ई.) ने 1761 ई. में भटवाड़ा के युद्ध में जयपुर नरेश माधोसिंह की सेना को पराजित किया था।
भटवाड़ा की विजय के बाद कोटा राज्य के प्रशासन में झाला जालिमसिंह का प्रभाव बढ़ता गया और अन्ततः वह ही कोटा राज्य का वास्तविक प्रशासक बन गया।

नोट-
झाला जालिम सिंह कोटा राज्य का दीवान था, जालिम सिंह को कोटा राज्य का राठौड़ कहा जाता है।
झालरापाटन शहर का नाम जालिमसिंह के नाम पर रखा गया।
1779 ई. में झालरापाटन की स्थापना जालिमसिंह ने की।
मेवाड़ के महाराणा ने जालिमसिंह को 'राजराणा' की उपाधि दी थी।

गुमानसिंह (1764-70)

उम्मेदसिंह (1770-1819)
इनके समय कोटा के दीवान व प्रशासक झाला जालिम सिंह थे।
26 दिसम्बर, 1817 को अंग्रेजों से सन्धि कर अधीनता स्वीकार कर ली। संधि के तहत् उम्मेदसिंह व उसके वंशज कोटा के शासक रहेंगे। जालिम सिंह ने अंग्रेजों से गुप्त संधि करके कोटा राज्य के प्रशासनिक अधिकार स्वयं एवं अपने वंशजों के नाम करवा लिये।

किशोरसिंह द्वितीय (1819-1827 ई.)
1821 ई. में माँगरोल के युद्ध में फौजदार झाला जालिमसिंह ने कर्नल टॉड के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना की सहायता से किशोरसिंह द्वितीय माँगरोल (बारा) युद्ध में पराजित किया था।
किशोरसिंह ने श्रीनाथ जी के जाकर कोटा को श्रीनाथ जी को समर्पित कर दिया। महाराणा भीमसिंह द्वितीय की मध्यस्थता से 1822 ई. में किशोरसिंह को पुनः कोटा मिला।

राव रामसिंह द्वितीय (1828-1865 ई.)
इसके समय अंग्रेजों ने 1837 ई. में कोटा के 17 परगने जालिम सिंह के पुत्र मदनसिंह को सौंपकर झालावाड़ नयी रियासत बनाई, अंग्रेजों ने 1838 ई. में झालावाड़ को मान्यता दी।
1857 ई. की क्रान्ति के समय ये कोटा का शासक था।

राव शत्रुशाल द्वितीय (1865-88 ई.)
इसके समय फैज अली खाँ कोटा का प्रशासक था।
इसे अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था। इसे 'कोटा का दूसरा झाला जालिमसिंह' कहते हैं।

उम्मेदसिंह द्वितीय (1888-1940 ई.)
कोटा राज्य से अलग करके 17 परगने झालावाड़ भी मिलाये थे। इसके समय 15 परगने पुनः कोटा में मिला लिये।
इसके शासन काल में वायसराय लार्ड कर्जन कोटा आया। वह कोटा आने वाला प्रथम वायसराय था।

राव भीमसिंह द्वितीय (1940-48 ई.)
कोटा का अंतिम शासक

3. झालावाड़ का हाड़ा वंश
कोटा राज्य द्वारा 1818 ई. की सन्धि के बाद झाला जालिम सिंह ही कोटा का वास्तविक प्रशासक बन गया था।
उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र माधोसिंह 1824 ई. में कोटा राज्य का फौजदार नियुक्त हुआ।
1833 ई. में माधोसिंह का पुत्र मदनसिंह झाला कोटा राज्य का फौजदार बना।

मदनसिंह झाला
कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय और मदनसिंह के मध्य मतभेदों के कारण महाराव ने कोटा राज्य का एक-तिहाई भाग 1837 ई. में मदनसिंह को दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप झालावाड़ राज्य की स्थापना हुई।
1838 ई. में अंग्रेज सरकार ने भी झालावाड़ राज्य को मान्यता दे दी। इस प्रकार झालावाड़ राजस्थान की नवीनतम रियासत थी।

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