मेवाड़ का इतिहास
मेवाड़ के महाराणा सूर्यवंशी माने जाते हैं। इसी वंश में भगवान राम, भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का संबंध माना जाता है, जो इसकी प्राचीन गौरवशाली परंपरा दर्शाता है।
नामकरण
कुश वंश के अंतिम राजा सुमित्र तक के नाम पुराणों में मिलते हैं। इसी वंश में आगे चलकर 568 ईस्वी में एक प्रतापी राजा गुहिल हुए। इन्हीं के नाम पर गुहिल वंश की स्थापना मानी जाती है। बाद में गुहिल वंश की एक शाखा सिसोदा गाँव में बस गई, जहाँ से यह वंश सिसोदिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
1. गुहिल राजवंश (565/566 ई. - 1303 ई.)
गुहिलादित्य से लेकर रतनसिंह तक इस वंश का शासन माना जाता है।
गुहिल वंश के शासक ‘रावल’ की उपाधि धारण करते थे।
यह वंश मेवाड़ का प्राचीनतम शासक वंश था और 1303 ईस्वी में खलगढ़/चित्तौड़ दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण तक चला।
2. सिसोदिया राजवंश (1326 ई. - 1948 ई.)
चित्तौड़ पुनर्निर्माण और मेवाड़ की स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना राणा हम्मीर से शुरू होती है।
इस वंश में शासकों ने ‘राणा’ या ‘महाराणा’ की उपाधि धारण की।
राणा हम्मीर से लेकर महाराणा भूपालसिंह तक इस वंश की निरंतरता रही।
यही वंश महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं के लिए प्रसिद्ध है।
राजवंश की प्राचीनता
उदयपुर राजवंश 568 ई. से प्रारम्भ होकर आजादी तक चला लगभग 1350 वर्ष तक शासन करने वाला यह विश्व का सबसे लम्बा चलने वाला राजवंश है।
इतना लम्बा राजवंश विश्व में और कहीं नहीं चला। कन्नोज में जब हर्षवर्धन का शासन था, उस समय मेवाड़ का शासक शिलादित्य था यह उल्लेख सामोली गाँव के शिलालेख (646 ई.) से प्राप्त हुआ है।
राजवंश का गौरव
उदयपुर राजवंश सूर्यवंशियों में सर्वप्रमुख रहा है, भारत के सभी राजपूत राजा मेवाड़ महाराणाओं को शिरोमणी मानकर पूज्य मानते है।
- पूज्य मानने के कई कारण है, जैसे इनकी स्वतंत्रप्रियता, धर्म के प्रति दृढ़ रहना जैसे इनके राजचिह्न में लिखा है 'जो दृढ़ राखै धर्म को, तिहिं राखै करतार' लिखा है।
- प्रबल मुस्लिम शक्ति के आगे अनेक हिन्दू राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली।
- अपनी वंश परम्परा, मान मर्यादा उनके चरणों में अर्पित कर दी, लेकिन एक मेवाड़ राजवंश ही है जिसने अनेक कष्ट व आपत्तियाँ सहकर भी अपने मान, मर्यादा व कुल गौरव को बचाकर रखा।
- इसी कारण सम्पूर्ण भारत के मेवाड़ महाराणाओं को पूज्य मानकर 'हिन्दुआ सूरज' कहते हैं।
सिर्फ हिन्दू शासक ही नहीं मुस्लिम शासकों ने भी मेवाड़ के महाराणाओं की प्रशंसा की है। जिसके कुछ उदाहरण -
- बाबर ने अपनी पुस्तक 'तुजुक ए बाबरी' में लिखा है हिन्दुओं में विजय नगर राज्य के अलावा दूसरा शक्तिशाली राज्य राणा सांगा का है, जो अपनी वीरता व तलवार के दम पर शक्तिशाली हो गया है।
- बाबर लिखता है- "मेरे हिन्दुस्तान में आने से पहले राणा सांगा की शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि सांगा का सामना दिल्ली, गुजरात व मालवा में से कोई भी अकेले नहीं कर सकता था। 200 शहरों में राणा सांगा का झंडा फहरता था।"
- जहाँगीर ने 'तुजुक ए जहाँगीरी' में लिखा है कि- "राणा अमरसिंह हिन्दुस्तान के बड़े सरदार व राजाओं में से एक है। इनके पूर्वजों की श्रेष्ठता सभी राजा स्वीकार करते है ये अनेक लड़ाईयाँ लड़ते रहे लेकिन किसी भी राजा के आगे सर नहीं झुकाया।"
राजवंश के संबंध में पिछले लेखकों का भ्रम
मेवाड़ के राजवंश की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न लेखकों और इतिहासकारों ने अनेक मत प्रस्तुत किए हैं। इनमें से कई मत तथ्यहीन या भ्रमपूर्ण माने गए हैं। इस विषय में प्रमुख विवादित और प्रमाणिक स्रोतों को नीचे विस्तार से समझा सकते हैं।
1. अबुल फज़ल का मत- इतिहासकारों द्वारा अविश्वसनीय
अबुल फज़ल ने लिखा है कि
“मेवाड़ के शासक ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल के वंशज हैं।”
लेकिन यह कथन पूर्णतः अविश्वसनीय माना गया है, क्योंकि-
- अबुल फज़ल से पहले किसी भी फारसी ग्रंथ,
- भाटों की वंशावलियों,
- जैन साहित्य,
- या प्राचीन शिलालेखों में कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।
इसी कारण इतिहासकारों ने अबुल फज़ल के मत को कल्पनाप्रधान और अप्रामाणिक माना है।
2. कर्नल टॉड का मत
टॉड के अनुसार-
- वल्लभी के राजा शिलादित्य का पुत्र गोह (गुरुदत्त) मेवाड़ का राजा हुआ।
- गोह की माता रानी पुष्पावती थीं।
- 524 ईस्वी में वल्लभी का राज्य नष्ट हो गया और शिलादित्य युद्ध में मारे गए।
- रानी पुष्पावती मेवाड़ आईं और यहीं गुरुदत्त का जन्म हुआ।
नौशेरवां के मत का खंडन
- टॉड द्वारा वर्णित घटनाएँ 531 ई. में नौशेरवां के ईरान का शासक बनने से पहले की हैं।
- इसलिए यह संभव ही नहीं कि मेवाड़ के राजाओं का सम्बन्ध नौशेरवां के वंश से हो।
- इससे अबुल फजल का मत स्वतः गलत साबित होता है।
3. आहड़ शिलालेख और डॉ. भण्डारकर का मत
आहड़ शिलालेख के अध्ययन के आधार पर इतिहासकार भण्डारकर ने कहा-
- गुहिल ब्राह्मण मूल के थे,
- और वे आनंदपुर या वड़नगर के ब्राह्मणों के वंशज थे।
लेकिन यह मत भी पूर्णतः प्रमाणिक नहीं माना गया, क्योंकि-
छठा श्लोक जो उनकी राय को गलत साबित करता है
इसी आहड़ लेख के छठे श्लोक में गुहिल के वंशज नरवाहन का वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है-
नरवाहन "क्षत्रियों का क्षेत्र" अर्थात क्षत्रिय जाति का मूल पुरुष था।
इसका अर्थ है कि गुहिल और उनका वंश ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय थे।
लेकिन डॉ. भण्डारकर ने छठे श्लोक का उल्लेख ही नहीं किया, जबकि यही श्लोक उनके मत को असत्य सिद्ध करता है।
4. जनश्रुति के अनुसार मेवाड़ राजवंश की उत्पत्ति
जनश्रुति के अनुसार-
- मेवाड़ के मूल पुरुष गुरुदत्त को ब्राह्मणों ने पाला था।
- इसलिए प्रारंभिक समय में वे ब्राह्मणों के संरक्षण में पले-बढ़े।
5. नैणसी का मत (मुहणौत नैणसी री ख्यात)
नैणसी अपनी ‘ख्यात’ में लिखते हैं-
- सिसोदिया प्रारम्भ में गुहिलोत कहलाते थे।
- प्रारम्भ में उनका शासन नासिक-त्र्यम्बक के आसपास था।
- वे सूर्य उपासक थे।
- सूर्य इनकी रक्षा करता था और इसी कारण इन्हें पराजित करना कठिन था।
सूर्य से पुत्र प्राप्ति की कथा
इनके पुत्र नहीं होने पर इन्होंने सूर्य देव से प्रार्थना की।
सूर्य ने कहा- “अम्बा देवी की यात्रा बोलो, रानी गर्भवती हो जाएगी।”
रानी गर्भवती हुई पर जब यात्रा निकली, तभी राज्य पर शत्रुओं ने आक्रमण कर राजा को मार दिया।
रानी नागदा (उदयपुर) पहुँची जहाँ उसे पति की मृत्यु का समाचार मिला।
सती होने लगी तो ब्राह्मणों ने कहा- “गर्भवती स्त्री का सती होना धर्म-विरुद्ध है।”
इसलिए वह रुक गई और 15 दिन बाद पुत्र उत्पन्न हुआ।
ब्राह्मण को बालक सौंपने की कथा
प्रसव के 15 दिन बाद रानी ने चिता तैयार करवाई।
रानी की गोद में बालक था।
उसी समय कोटेश्वर महादेव मंदिर में विजयादित्य ब्राह्मण पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहा था।
रानी ने उसे वस्त्र में लिपटा हुआ बालक दे दिया।
ब्राह्मण ने पहले सोचा कि यह धन है, पर बालक रोया तो उसने कहा-
“बालक को स्वीकार करने से मैं पाप का भागी हो जाऊँगा, यह दान मैं नहीं ले सकता।”
इस पर रानी ने वचन दिया-
“इस बालक के वंश के राजा दस पीढ़ियों तक तुम्हारे कुल के आचरण का पालन करेंगे।”
इसके बाद रानी सती हो गई।
इस प्रकार वह बालक (गुहिल वंश का मूल)दस पीढ़ियों तक ब्राह्मण आचरण का पालन करता रहा।
उन्हें आगे चलकर नागर ब्राह्मण कहा गया।
रावल समरसिंह के समय (1274 ई.) चित्तौड़ की प्रशस्ति में बप्पा को विप्र कहा गया है।
| शाखा | स्थापना | संस्थापक |
|---|---|---|
| मेंवाड़ | 566 ई. | गुहिल |
| वागड़ (डूँगरपुर) | 1178 ई. | सामन्तसिंह |
| देवलिया – प्रतापगढ़ | 1473 ई. | सूरजमल |
| बांसवाड़ा | 1518 ई. | जगमाल |
| शाहपुरा | 1613 ई. | सुजानसिंह |
गुहिल वंश
अबुल फजल, व वी.ए. स्मिथ - गुहिलों को विदेशी मानते हैं।
भण्डारकर, जैन ग्रन्थों व आहड़ शिलालेख के अनुसार इन्हें ब्राह्मण बताया है।
मेवाड़ का आदर्श वाक्य- 'जो दृढ़ राखै धर्म ताहि राखै करतार'
औझा व नैणसी ने इन्हें सूर्यवंशी कहा है।
नैणसी व टॉड ने गुहिलों की 24 शाखाएँ बतायी।
एकलिंग महात्मय ग्रंथ (कान्हा व्यास) में गुहिलों को विप्र कहा है जिसका अर्थ ब्राह्मणों में कुल को आनन्द देने वाला बताया है।
गुहिलादित्य
संस्थापक- गुहेदत्त या गुहिलादित्य (565 - 66 ई.)
गुहिल वंश संस्थापक / आदि पुरुष मूल पुरुष अबुल फजल ने मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के नोसेखा आदिल की संतान बताया।
जैन ग्रन्थों के अनुसार गुहिल वल्लभी शासक शिलादित्य का वंश समाप्त हो गया था। केवल रानी पुष्पावती शेष रही। जिसने गुहेदत्त नामक लड़के को जन्म दिया व सती हो गई। गुहादित्य को कमलावती नामक नागर ब्राह्मणी ने पाला। इसी गुहादित्य ने 565-66 ई. में गुहिल वंश की स्थापना की। भीलों से ईडर का राज्य छीना, जिसकी राजधानी नागदा थी।
भोज, महेन्द्र और नाग
गुहदत्त के बाद भोज, महेन्द्र व नाग नामक शासक हुए जिनकी ज्यादा जानकारी नहीं मिलती, ख्यातों में भोज को भोजादित्य, नाग का नागादित्य नाम मिलता है।
मेवाड़ के कथनों के अनुसार नागदा नगर की स्थापना नागादित्य ने की थी। कुछ कथाओं के अनुसार नागदा का नगर का संबंध नागवंशियों के साथ भी बताया जाता है, ऐसा उल्लेख आता है कि राजा जनमेजय ने अपने पिता परीक्षित से बदला लेने के लिए यहाँ 'सर्पसत्र' नामक यज्ञ किया था।
नागादित्य के बाद शिलादित्य (शील) हुआ शिलादित्य के बाद अपराजित, अपराजित के बाद महेन्द्रादित्य हुआ, इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती।
बप्पा रावल (734-756 ई.) मूल नाम काल भोज
बप्पा से सम्बन्धित कथा
नैणसी के अनुसार बप्पा ने हारितऋषि की सेवा की। हारितऋषि ने सेवा से खुश होकर बप्पा को मेवाड़ का राज्य दिया जब हारितऋषि विमान में बैठकर देवलोक जा रहे थे, तब बप्पा को बुलाया बप्पा देरी से पहुँचा, उस समय विमान थोड़ा उपर उठ गया था। ऋषि ने बप्पा रावल का हाथ पकड़ा तो बप्पा दस हाथ बढ़ गया तब ऋषि ने बप्पा को अमर करने के लिए बप्पा के मुँह में पीक थूकना (ताम्बुल) चाहा लेकिन थूक मुँह में न गिरकर पैरों में गिरा, तब हारित ऋषि ने कहा अगर ये तेरे मुंह में गिरता तो तेरा शरीर अमर हो जाता, लेकिन पैर पर गिरा है तो तेरे पैरों के नीचे से मेवाड़ का राज्य कभी भी नहीं जायेगा, तब हारित ऋषि ने एक स्थान बताया कि वहाँ पन्द्रह करोड़ मोहरे दबी हैं जिसे निकाल कर सेना तैयार करना और चित्तौड़ के मौर्य राजा को हरा देना बप्पा ने ऐसा ही किया।
नैणसी इससे सम्बंधित एक कथा और लिखता है कि हारित ने 12 वर्ष तक राठासण (राष्ट्रसेना) देवी की पूजा की और बप्पा ने हारित ऋषि की 12 वर्ष तक सेवा की। जब हारित ऋषि स्वर्ग जा रहे थे तब उन्होंने बप्पा को कुछ देना चाहा तब उन्होनें राठासणु देवी से कहा मैंने तेरी 12 वर्ष तक तपस्या की तूने मेरी कभी सुध नहीं ली तब देवी ने प्रकट होकर कहा वरदान मांगो, तब हारित ने कहा इस लड़के ने मेरी सेवा की इसे यहाँ का राज्य मिलना चाहिए, तब देवी ने कहा भगवान शंकर को खुश करो उनकी सेवा के बिना राज्य नहीं मिल सकता, तब हारित ऋषि ने महादेव का ध्यान किया तो पृथ्वी से स्वतः ही एकलिंग जी का ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ। महादेव प्रकट हुए तब ऋषि ने कहा कि बप्पा को मेवाड़ का राज्य दीजिये। तब महादेव व राठासण ने बप्पा को मेवाड़ का राज्य दिया आगे हारित ऋषि का स्वर्ग जाना व पीक थूकना कहानी वैसे ही है, अंतर सिर्फ इतना है कथा में 15 करोड़ मोहरों के स्थान पर 56 करोड़ मोहूरें दबी हुई बताई हैं।
बप्पा से संबंधित कई दंत कथाएँ प्रचलित हैं बप्पा देवी के सम्मुख बलिदान के समय एक ही झटके में दो भैंसों का सिर काटता था, बप्पा के पास बारह लाख बहत्तर हजार सेना थी, चार बकरे खाता था, पैंतीस हाथ की धोती व सोलह हाथ का दुपट्टा, बत्तीस मण की तलवार थी (नैणसी के अनुसार)। वृद्धावस्था में बप्पा ने खुरासन को जीता वहाँ कई स्त्रियों से विवाह किया। बप्पा के अंतिम संस्कार के समय खुरासन व वहाँ के लोगों के मध्य झगड़ा हुआ।
कबीर की तरह वहाँ सिर्फ फूल ही मिले ऐसी दन्त कथाएँ मिलती है जो कि कल्पित हैं। बप्पा की मृत्यु नागदा में हुई थी, बप्पा की छतरी एकलिंग जी के एक मील की दूरी पर स्थित है इस प्रकार बप्पा से सम्बंधित वास्तविक इतिहास नहीं मिलता, दंत कथाएँ हैं जो विश्वास योग्य नहीं है। बप्पा के संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि इसने मौर्यों से चित्तौड़ दुर्ग छीना व बप्पा प्रतापी व विशाल राज्य का स्वामी था। मेवाड़ में गुहिल वंश का संस्थापक गुहिलादित्य जबकि वास्तविक संस्थापक बप्पारावल को माना जाता है।
ईडर शासक नागादित्य (नागादित्य को 727 ई. में) की भीलों द्वारा हत्या करके ईडर राज्य पुनः छीन लिया। बप्पा की रक्षा भी गुहेदत्त की तरह उसी जाति के (नागर) ब्राह्मण वंशजों ने अपना प्रारम्भिक जीवन ब्राह्मणों की गाय चराने से शुरू किया। इसी दौरान 'हारित ऋषि' की सेवा का अवसर मिला। हारित ऋषि ने बप्पा के लिए अपने ईष्ट देव एकलिंग (गुहिल वंश के कुलदेवता) से मेवाड़ राज्य की मांग प्रार्थना की।
734 ईस्वी / 728 ईस्वी में बप्पा ने मौर्य (मोरी वंश) शासक मानमोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। बप्पा को मेवाड़ राज्य का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है। मेवाड़ का प्रसिद्ध एकलिंग जी का मन्दिर, कैलासपुरी (उदयपुर) में बप्पा रावल ने बनवाया था। एकलिंग जी मेवाड़ वालों के ईष्ट देव है।
मेवाड़ महाराणों सिंहासनारोहण के समय उन्दरी, गाँव (उदयपुर) भील राजा अपने अंगूठे से राणा का राजतिलक करता था।
नोट
जयपुर राजाओं के राजतिलक मौणा व बीकानेर राजाओं के राजतिलक गोदारा जाट करते थे।
बप्पा का सिक्का
बप्पा के समय का सोने का सिक्का अजमेर से मिला है मेवाड़ के इतिहास में सोने के सिक्के जारी करने वाला बप्पा रावल ही था, एक सिक्के का वजन 115 ग्रेन था (गौरीशंकर औझा अनुसार)।
सोने के सिक्के के सामने की तरफ सिक्के के ऊपरी हिस्से में बिंदियों की एक माला बनी हुई है, माला के नीचे 'श्रीवोप्य' लिखा है, जो बप्पा का संकेत है।
लेख के नीचे बायीं तरफ त्रिशुल है, जो शिव का प्रतीक है, त्रिशूल के दायीं ओर शिवलिंग बना है, जो एकलिंगजी का प्रतीक है, शिवलिंग के दायीं ओर नंदी बैल बैठा है जिसका मुख शिवलिंग की ओर है शिवलिंग और बैल के नीचे पेट के बल लेटा एक पुरुष बप्पारावल माना गया है जो एकलिंगजी का परमभक्त था। सिक्के के पीछे के हिस्से में सूर्य बना है जो बप्पा के सूर्यवंशी होने का प्रतीक है व एक गाय का चित्र है जो बप्पा के प्रसिद्ध गुरु लकुलीश सम्प्रदाय के हारितऋषी की गाय होंगी जिसकी बप्पा ने सेवा की थी। सी.वी. वैद्य ने बप्पा को 'चाल्संयादित्य' या 'चार्ल्स माल्टन' कहा है। ये वास्तविक शासक एकलिंग जी को मानते हैं स्वंय को दीवान मानते है। मेवाड़ राणा युद्ध जाने से पहले एकलिंग जी का आशीर्वाद माँगते हैं जिसे 'आसका माँगना' कहते हैं। एकलिंग जी का मंदिर राजस्थान में पशुपात सम्प्रदाय या लकुलीश सम्प्रदाय का एकमात्र स्थल है। एकलिंग जी का मेला फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को कैलाशपुरी उदयपुर में भरता है।
बप्पा की मृत्यु नागदा में हुई व इसकी छतरी नागदा में है। ओझा के अनुसार इसकी मृत्यु नागदा (उदयपुर) में हुई व टॉड के अनुसार खुरासान में हुई। आहड़ शिलालेख में कालभोज को मुकुमणी के समान बताया है।
बप्पा रावल व कालभोज से सम्बंधित तथ्य
- डॉ. रामप्रसाद के अनुसार बप्पा रावल किसी का नाम नहीं उपाधि है
- बीर विनोद में श्यामल दास के अनुसार बप्पा एक उपाधि है।
- नैणसी व टॉड के अनुसार बप्पा रावल का मूल नाम कालभोज था। हरित ऋषि ने इसे बप्पारावल की उपाधि दी थी।
- रणकपुर प्रशस्ति में बप्पा रावल व कालभोज को अलग-अलग बताया है।
चित्तौड़ में सर्वाधिक तीन साके हुए
| साका सन | आक्रमण | शासक | जौहर |
|---|---|---|---|
| 1. 1303 ई. | अलाउद्दीन | रतनसिंह | पद्मिनी के नेतृत्व में, 1600 रानियाँ। |
| 2. 1534–35 ई. | बहादुरशाह | विक्रमादित्य | कर्मावती के नेतृत्व में 13000 रानियाँ |
| 3. 1567–68 ई. | अकबर | उदयसिंह | फूलकंवर के नेतृत्व में 700 रानियाँ |
खुम्माण प्रथम (बप्पा का पुत्र)
टॉड ने लिखा है खुम्माण प्रथम के समय बगदाद के खलीफा अलमांमू ने आक्रमण किया यह आक्रमण खुमाण प्रथम का नहीं खुमाण द्वितीय का है।
मत्तट, भर्तृपट्ट (भर्तृभट) और सिंह
खुमाण के बाद मत्तट हुआ उसके बाद भर्तृपट्ट, भर्तृपट्ट के बाद उसका पुत्र सिंह मेवाड़ का शासक बना, भर्तृपट्ट का दूसरा पुत्र ईशान भट्ट व उसके वंशज चाकसू (जयपुर ग्रामीण) के आस-पास आकर शासन किया, ऐसा चाकसू में मिली एक प्रशस्ति से ज्ञात हुआ है।
अल्लट या आलु रावल
अल्लट का नाम ख्यातों में आलू रावल भी मिलता है। आहड़ के जैन मंदिर में मिले एक शिलालेख के अनुसार अल्लट ने अपनी गदा से कन्नौज के रघुवंशी प्रतिहार शासक देवपाल को मार दिया था।
अल्लट का विवाह हुण राजकुमारी हरिया देवी से हुआ। अल्लट के समय मेवाड़ में नौकरशाही प्रथा की शुरूआत हुई व अल्लट ने अपनी राजधानी नागदा से आहड़ बनायी।
नरवादन- (अल्लट का पुत्र)
अम्बा प्रसाद- जयानक के 'पृथ्वीराज विजय' के अनुसार सांभर के चौहान शासक वाक्मतिराज द्वितीया ने आहड़ के राजा अम्बा प्रसाद का मुँह अपनी तलवार से चीरकर यमराज के पास पहुँचाया।
रणसिंह या कर्णसिंह- इसके समय गुहिल दो शाखाओं में बंट गई-
- रावल शाखा- रणसिंह के पुत्र खेमसिंह ने रावल शाखा की शुरूआत की।
- राणा शाखा- रणसिंह का पुत्र राहप ने 'राणा शाखा' की शुरूआत की राहप सिसोदा जाकर बस गया, सिसोदा ठिकाणे के होने के कारण इन्हें 'सिसोदिया' कहा गया।
खेमसिंह रावल शाखा की शुरूआत कर मेवाड़ का शासक बना।
सामंत सिंह (खेमसिंह का पुत्र)
इसका विवाह अजमेर के पृथ्वीराज द्वितीय की बहन पृथाबाई के साथ हुआ। सामतसिंह तराइन द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में लड़ता हुआ मारा गया।
पृथाबाई की कथा
ऐसा उल्लेख आता है कि दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज तृतीय की बहिन पृथाबाई के साथ समरसिंह का विवाह हुआ था। इसकी जानकारी पृथ्वीराज रासो में मिलती है व राजप्रशस्ति महाकाव्य में भी इसकी जानकारी मिलती है लेकिन पृथ्वीराज की बहिन का विवाह समरसिंह के साथ होना सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि पृथ्वीराज की मृत्यु 1192 ई. में हुई जबकि समरसिंह 1302 ई. तक जीवित था। अगर ऐसा हुआ है तो पृथ्वीराज द्वितीया की बहिन का विवाह मेवाड़ के रावल सामंत सिंह से हुआ होगा। डूंगरपुर की ख्यात में भी पृथाबाई का संबंध सामंतसिंह से बताया है।
जैत्रसिंह (1213 ई. से 1252 ई.)
इसके समय 1222 ई. से 29 ई. के मध्य इल्तुतमिश का आक्रमण हुआ जिसने नागदा को तहस-नहस कर दिया। तब जैत्रसिंह ने चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाई। दिल्ली शासक नसीरूद्दीन महमूद के प्रतिनिधि के रूप में नागौर इख्तेदार बलबन ने भी 1253 ई. में चित्तौड़ को जीतने का असफल प्रयास किया था।
दशरथ शर्मा के अनुसार जैत्रसिंह का समय मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल व मेवाड़ में नवशक्ति के संचार का समय माना जाता है। भूताला का युद्ध- जयसिंह सूरि व हम्मीर मर्दन के अनुसार इल्तुतमिश व जैत्रसिंह के मध्य 1228 ई. में युद्ध हुआ जिसमें जैत्रसिंह विजय हुआ। इस युद्ध में जैत्रसिंह का सेनापति बालक व मदन थे।
तेजसिंह (1252 ई. से 1273 ई.)
इसके समय 1261 ई. में प्रथम चित्रित ग्रन्थ 'श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी' लिखा गया। ग्रन्थ ताड़पत्र पर लिखा गया था, यह ग्रंथ कमलचंद्र ने लिखा था, वर्तमान में ये पाटन में सुरक्षित है।
मेवाड़ चित्रशैली राजस्थान की सबसे प्राचीन चित्रशैली है। मेवाड़ चित्रशैली की शुरूआत तेजसिंह के समय हुई थी। तेजसिंह के समय दिल्ली सुल्तान नासिरूदीन था। 1252-54 ई. में लगभग तेजसिंह का बलबन के साथ युद्ध हुआ जिसमें तेजसिंह विजय हुआ। तेजसिंह की रानी जयत्तलदेवी जो समरसिंह की माता थी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया।
समर सिंह (1273 से 1302 ई.)
इस समय अलाउद्दीन खिलजी का 1298 ई. में गुजरात पर आक्रमण हुआ था। कुम्भलगढ़ प्रशस्ती में इसे 'शत्रुओं की शक्ति का अपहर्ता' कहा। चिरवा अभिलेख में समरसिंह को शत्रुओं का संहार करने में सिंह के समान अत्यन्त शूर चन्द्रिका के समान कीर्ति वाला, अपने हितोचित कर्म करने वाला बताया है।
समरसिंह के समय रत्नप्रभा सूरि व पाश्र्व चन्द जैन विद्वान थे व भावचन्द वेदशर्मा व शुभचन्द हिन्दू विद्वान थे। जिनप्रभा सूरि के तीर्थकल्प के अनुसार 1299 ई. में उलूग खाँ के नेतृत्व में जब अलाउद्दीन की सेना गुजरात जा रही थी तब समरसिंह ने युद्ध कर लिया। समरसिंह के दो पुत्र थे, रतनसिंह व कुम्भकरण रतनसिंह चित्तौड़ का शासक बना व कुम्भकरण ने नेपाल जाकर गुहिल वंश की नींव रखी।
रतनसिंह (1302 ई. 1303 ई.)
रतनसिंह रावल शाखा का अंतिम शासक था। इनके समय में दिल्ली पर क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार था। अलाउद्दीन खिलजी अत्यन्त ही महत्वाकांक्षी शासक था, जिसमें साम्राज्य विस्तार की असीम लालसा थी। खिलजी ने मेवाड़ पर 1303 ई. में आक्रमण किया। पूर्ण अवलोकन के बाद हमें इस आक्रमण के निम्न कारणों का ज्ञान होता है:-
अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी आकांक्षाएँ।
चित्तौड़ का स्थान विशेष अर्थात् गुजरात तथा मालवा के मार्ग में पड़ना, जो कि आक्रमण का एक प्रभावी कारण है।
चित्तौड़ का व्यापारिक और सामरिक महत्त्व का होना।
चित्तौड़ दुर्ग का अनेक विशेषताओं से युक्त एवं अभेद्य होना।
रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा। (पदद्मावत ग्रंथ के अनुसार)
नोट
अमीर खुसरो अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक अभियान के साथ थे। जिसने "खजाइन फतूह/तारिख-ए-अलाई" नामक पुस्तक लिखी।
चित्तौड़ का प्रथम साका 1303 ई.
चित्तौड़गढ़ प्राप्ति की आकांक्षा से अलाउद्दीन ने 28 जनवरी, 1303 ई. को दिल्ली से चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया।
सुल्तान खिलजी ने गम्भीरी व बेड़च नदियों के बीच में शिविर लगाकर घेराबंदी की। लगभग 8 माह तक यह घेरा चला था। इस घटनाक्रम में सीसोदे के सामन्त लक्ष्मणसिंह ने किले की रक्षार्थ अपने 7 पुत्रों सहित अपने प्राणों का बलिदान दिया।
रतनसिंह को बन्दी बनाये जाना नाभिनन्द जीर्णोद्धार से भी सिद्ध होता है। राजपूतों ने लम्बे घेरे के पश्चात् अन्तिम युद्ध के लिए केसरिया करने का निर्णय लिया तथा केसरिया बाना पहनकर किले के द्वार खोल दिये तथा पद्मिनी सहित 1600 रानियों ने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु जौहर किया, इस प्रकार चित्तौड़गढ़ का प्रथम शाका पूर्ण हुआ। चित्तौड़ विजय के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का शासक खिज्र खाँ को बनाया। उसने चित्तौड़ में गम्भीरी नदी के तट पर एक पुल का निर्माण करवाया व मंदिरों का ध्वस्त कर मस्जिद बनवाई।
नोट
16 वीं सदी में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा हिन्दी में लिखित पदद्मावत ग्रन्थ में पद्मिनी प्रकरण का वर्णन खुसरो द्वारा लिखित खजाइन-उल-फुतुह से लिया गया है। खुसरो खिलजी के आक्रमण के समय साथ था।
पद्मावत ग्रंथ
मलिक मुहम्मद जायसी ने दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी के समय 1540 ई. में अवधी भाषा पद्मावत नामक हिन्दी काव्य ग्रन्थ की रचना की, जो कि एक कालजयी रचना के रूप में प्रसिद्ध है। सिंहलद्वीप (श्रीलंका) में गंधर्वसेन नामक एक राजा था। उसकी रानी चंपावती से पद्मिनी या पदमावती नामक अत्यन्त सुन्दर पुत्री का जन्म हुआ। उसके पास एक हीरामन नाम का एक तोता था। एक दिन वह पिंजरे से उड़ गया और एक शिकारी ने उसे पकड़ कर किसी ब्राह्मण को बेच दिया। उस समय चित्तौड़ का राजा चित्रसेन का पुत्र रतनसिंह राज्य करता था, जिसको वह तोता ब्राह्मण ने एक लाख रूपये में बेच दिया। रतनसिंह की रानी ने एक बार श्रृंगार किया और अपने रूप के घमंड में आकर तोते से पूछा, क्या मेरी जितनी सुंदरी संसार में कोई है? इस बात पर तोते ने उपहास उड़ाते हुए कहा कहा कि जिस सरोवर में हंस नहीं आया, वहां बगुला भी हंस कहलाता है। फिर तोते के मुख से पद्मिनी का सौन्दर्य वर्णन सुनने पर राजा रतनसिंह पद्मिनी के रूप पर इस प्रकार मोहित हो गया कि उसके लिए योगी बनकर सिंहल को चला गया। अनेक राजकुमार भी चेले बनकर उसके साथ गये और उसने तोते को भी अपने साथ रख लिया। अनेक संकटों का सामना करता हुआ प्रेममुग्ध राजा सिंहल में पहुंचा। तोते ने पद्मावती के पास जाकर अपने पकड़े जाने तथा राजा रतनसिंह के यहाँ बिकने की सारी कहानी बताते हुए, चित्तौड़ के राजवंश के बड़े महत्व एवं राजा रतनसिंह के रूप की बहुत प्रशंसा करते हुए कहा कि तुम्हारे लिए सब प्रकार से योग्य वर रतनसिंह है और तुम्हारे प्रेम में योगी होकर वह यहाँ आ पहुँचा है। रूप आदि का वर्णन सुनने से पद्मिनी भी उस पर मोहित हो गई। वसंत पंचमी के दिन विश्वेश्वर की पूजा के लिये वह अपनी सखियों सहित शिवमंदिर में गई, जहाँ उसने योगी का भेष धारण किये हुए रतनसिंह को देखा। इस प्रकार दोनों में प्रेम हो गया। पद्मिनी ने उसी को अपना पति मान लिया। एक दिन रतनसिंह सेंध लगाकर किले में पहुँच गया और वहाँ पकड़ा जाने पर उसे सूली पर चढ़ाने की आज्ञा मिली, परन्तु जब राजा गंधर्वसेन को सारा हाल मालूम हुआ, तब पद्मिनी का विवाह रतनसिंह के साथ कर दिया। रतनसिंह विवाह के पश्चात् कुछ समय तक वहीं रहा। उधर चित्तौड़ की पटरानी नागमति पति रतनसिंह के वियोग में व्याकुल हो रही थी। उसने एक पक्षी के माध्यम से अपना विरह संदेश रतनसिंह के पास पहुँचाया, जिसमें उसने अपनी वेदना का वर्णन किया था।
रानी नागमति की दशा समझ रतनसिंह रानी पद्मिनी को लेकर चित्तौड़ की ओर रवाना हुआ। मार्ग में उसे समुद्री तूफानों तथा अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा, इन सभी से निपटते हुए वह अपनी राजधानी लौटा। राजधानी में अब रतनसिंह अपनी दोनों रानियों के साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था, तभी एक दुर्काल के रूप में विद्वान ब्राह्मण राघव चेतन की घटना घटित हुई। राघव चेतन न केवल एक अत्यन्त ही विद्वान ब्राह्मण था अपितु वह जादू टोने में भी अत्यन्त प्रवीण था। किंतु राजा को उसकी इस कला का ज्ञान नहीं था।
जब राजा को उसके तंत्र-मंत्र में सिद्धहस्त जादूगर होने का प्रमाण मिला, तब रतनसिंह बहुत क्रोधित हुए और राघव चेतन को देश निकाले का आदेश दे दिया। रानी पद्मिनी को रतनसिंह का यह आदेश अच्छा नहीं लगा, उसने इस आदेश को एक ब्राह्मण की विद्वता का अपमान समझा। इस अपमान की किसी हद तक भरपाई हेतु रानी पद्मिनी ने राघव चेतन को दक्षिणास्वरूप कुछ देना उचित समझा। इसी प्रयोजनार्थ रानी पद्मिनी ने राघव चेतन को अपने महल के नीचे बुलवाया और झरोखे से अपने हाथ का एक कंगन निकाल कर उसकी झोली में डाल दिया। पद्मिनी के रूप सौन्दर्य की चमक में राघव चेतन ऐसा विमुग्ध हुआ कि मूच्छित होकर गिर पड़ा।
चेतना वापस लौटते ही राघव पंडित दिल्ली पहुंचा और वहाँ पहुँचकर उसने सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समक्ष पद्मिनी के अलौकिक सौन्दर्य का ऐसा प्रभावी गुणगान किया कि अलाउद्दीन भी रानी पद्मिनी के रूप पर मुग्ध हो गया। पद्मिनी के रूप की मौखिक प्रशंसा सुन अलाउद्दीन राघव चेतन पर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने उसे बहुत बड़ी धन राशि इनाम में दे दी। उसी क्षण से अलाउद्दीन के मन मस्तिष्क में रानी पद्मिनी को पाने की तीव्र लालसा जागृत हो गई और उसके रूप विरह में वह व्याकुल रहने लगा। अपनी इस अभिलाषा को पूर्ण करने के उद्देश्य से अलाउद्दीन ने अपने दूत सूरजा के माध्यम से रतनसिंह के पास इस आशय का एक पत्र लिखकर भेजा कि वह रानी पद्मिनी को अलाउद्दीन को सौंप दे। अलाउद्दीन के ऐसे शर्मनाक दुस्साहस पर रतनसिंह प्रचण्ड क्रोध से भर उठा, क्योंकि यह पत्र उसकी प्रतिष्ठा और स्वाभिमान से जुड़ा था। उसने दूत को वहाँ से निकाल दिया।
इसे सुल्तान अलाउद्दीन ने अपना अपमान समझा और क्रोध से आपूरित हो चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। उधर रतनसिंह भी चुप बैठने वालों में से नहीं था उसने भी अपने सामंतों को एकत्रित किया तथा विचार-विमर्श कर युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।
सुल्तान ने अपनी विशाल सैन्य शक्ति के साथ चित्तौड़ को घेर लिया किंतु आठ बरस के निरन्तर संघर्ष के बाद भी वह चित्तौड़ के दुर्ग को विजित नहीं कर सका। इसी समय दिल्ली में भी हालत नाजुक हो रहे थे, उधर से सूचना आई कि शत्रु ने पश्चिम से हमला कर थाने उठा लिए है और राज्य संकट में है। ऐसी सूचना पाते ही सुल्तान अत्यन्त चिंताग्रस्त हो गया, उसने कपटता का सहारा लिया और रतनसिंह के पास यह संदेश भिजवाया कि हमें पद्मिनी नहीं चाहिए, हम आपसे समझौता करके वापस अपने राज्य लौटना चाहते हैं। रतनसिंह ने सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की धूर्तता पर विश्वास कर चित्तौड़ में उसका उचित आतिथ्य सत्कार किया। कपट का खेल यहीं प्रारम्भ हो गया।
वहाँ उनके आतिथ्य में जुटी असंख्य रूपवती दासियों को देखकर अलाउद्दीन ने राघव पंड़ित से पूछा कि 'इनमें से कौन सी सुंदरी रानी पद्मिनी है, इस पर राघव ने कहा ये तो मात्र रानी पद्मिनी की दासियाँ हैं। उसके सौन्दर्य में तो अप्सराओं को मात देने की ताकत है। इसी आतिथ्य सत्कार के मध्य सुल्तान और रतनसिंह दोनों भोजन इत्यादि से निवृत्त हो शतरंज की बाजियाँ खेलने बैठे। जहाँ सुल्तान बैठा था, उसके समक्ष एक दर्पण था तब अनायास ही उसे दर्पण में रानी पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिख गया।
झरोखे से आई पद्मिनी का प्रतिबिंब देखते ही सुल्तान अभिभूत होकर खेलना भूल गया और उसकी दशा कुछ और ही खराब हो गई, वह उन्मादित हो गया था। अतः रातभर वह वहीं रहा। दूसरे दिन राजा के प्रति अत्यंत प्रेम बतलाकर वह चित्तौड़ से रवाना हुआ, तो राजा भी उसे पहुँचाने को चला। चित्तौड़ के प्रत्येक पोल द्वार पर सुल्तान राजा की उपहार भेंट करता गया, इसी प्रकार सातवीं पोल के बाहर निकलते ही सुल्तान ने अकस्मात रतनसिंह को अपनी गिरफ्त में ले लिया। फिर उसे हथकड़ियों से जकड़ कर दिल्ली ले गया और कहा कि यदि इस कैद से मुक्त होना चाहते हो, तो पद्मिनी को दे दी, इस पर रतनसिंह खामोश रहा उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया।
उस समय कुंभलगढ़ के राजा देवीपाल ने, जिसकी रतनसिंह से शत्रुता थी-रतनसिंह के बंधक होने के समाचार सुनने पर उसने अपनी शत्रुता का बदला लेने की इच्छा से, एक वृद्ध ब्राह्मणी दूती को पद्मिनी के पास भेजकर, उसके सतीत्व को नष्ट करने के लिए उसे अपने यहाँ बुलवाने का प्रयास किया। उसने पद्मिनी के पास जाकर उसकी दशा पर खेद प्रकट करते हुए सांत्वना व्यक्त की। फिर वह उससे स्नेह बढ़ाती गई, परंतु अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कुछ चेष्टा करते ही पद्मिनी उसकी दुष्टतापूर्ण चालों का अभिप्राय समझ गई।
पद्मिनी ने उसे दण्डित किया तथा दण्डस्वरूप उसके नाक कान कटवाकर मुँह काला करवा, उसे गधे पर बिठा अपमानित कर निकलवा दिया। उधर सुल्तान को भी जब पद्मिनी को प्राप्त करने का कोई उपाय न दिखा तब उसने एक अत्यन्त रूपवती एवं प्राप्त चौवना वेश्या के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने की तरकीब सोची। वह वैश्या बदन पर साध्वी व संन्यासिनी का रूप धर गले में माला, कानों में मुद्रा, हाथ में त्रिशूल और पैरों में खड़ाऊ धारण कर खासी योगिन बन गई और सिंगी नाद करती हुई चित्तौड़ पहुँची। पद्मिनी ने जब उसे इस सन्यासिनी भेष में देखा तो अपने पास बुलवाया और पूछा कि इस युवावस्था में यह भेष क्यों धारण किया है।
उत्तर में उसने कहा कि मेरे पति ने मुझे त्याग कर विदेश गमन कर लिया है, उसके वियोग में व्याकुल हो कर मैंने यह भेष धारण किया, क्योंकि उनके वियोग ने मुझे भोग विलास से विरक्त कर दिया है। जिस कारण मैं योगिनी बन गई, तथा स्थान-स्थान भटककर उनकी तलाश कर रही हूँ। मैंने 64 तीर्थों में उनकी खोज की।
दिल्ली तक उनकी तलाश में गई, वहाँ मैंने राजा रतनसिंह को भी बंदी गृह में अथाह यातना सहते व धूप के ताप में झुलसते देखा। परन्तु मैंने अपने पति को तो कहीं भी नहीं पाया। इस प्रकार अलाउद्दीन इस वेश्या के माध्यम से रतनसिंह की घोर यातना का समाचार रानी पद्मिनी तक पहुँचाना चाहता था। राजा के इतने कष्ट में होने का समाचार सुनते ही रानी पद्मिनी ने उस योगिनी का अनुकरण किया व अपने पति की रक्षार्थ अभियान में जुट गई। उसने अपने चाचा (गोरा) व बादल (भाई) नाम के अपने दो वीर-धीर सामंतों को बुलाकर उनसे विचार विमर्श किया तथा अपनी योजना व अभियान का मंतव्य उनसे साझा किया।
उन सामंतों ने रानी की योजना सुन यह राय दी कि छली के साथ छल का बर्ताव करना चाहिए जिस प्रकार अलाउद्दीन ने रतनसिंह को छल से बंदी बनाया, उसी प्रकार हमें रतनसिंह को छल से स्वतंत्र कराना है। फिर उन्होंने इस षड़यंत्रकारी अभियान का प्रारम्भ करते हुए 1600 पालकियों में पद्मिनी की सखियों के भेष में वीर राजकुमारों को बिठा दिया। इस प्रकार इस विशाल दल बल के साथ पद्मिनी ने दिल्ली की ओर अपने पत्ति की रक्षार्थ प्रयाण किया।
वहाँ पहुँचते ही सुल्तान के पास पद्मिनी के आने की सूचना पहुंचाई गई और रानी ने कहलवाया कि उन्हें एक घड़ी के लिए चित्तौड़ के खजाने आदि की कुंजियाँ राजा को सौंपने की आज्ञा दी जाए। सुल्तान ने सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लिया। रानी के साथ गये लुहार ने बेड़ियाँ काटकर राजा को मुक्त कर दिया। स्वतंत्र होते ही राजा त्वरित गति से घोड़े पर सवार हुआ और रानी के साथ विशाल दल-बल में शामिल होकर शहर से बाहर निकल गया।
बादल, राजा और रानी के साथ चित्तौड़ की ओर निकल गया और गौरा अलाउद्दीन की पीछा कर रही सेना को रोकने व उनका सामना करने अपने सैनिकों सहित मार्ग में रुक गया। अंततः गोरा की सुल्तान की सेना के साथ मुठभेड़ हुई और अनेक योद्धाओं के साथ वह भी वीरगति को प्राप्त हुआ। उधर बादल ने राजा और रानी के साथ चित्तौड़ में प्रवेश किया, अपने शासक को सकुशल देख नगर में उत्सव का माहौल हो गया, प्रजा हर्षित थी। तत्पश्चात् रानी ने देवपाल की दुष्टता की कहानी राजा को सुनाई। सारा हाल जान राजा ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में देवपाल मारा गया तथा रतनसिंह देवपाल की हाथ की सांग से गंभीर रूप से घायल हो गया।
घायलावस्था में ही रतनसिंह चित्तौड़ को लौटा और वहाँ उसने बादल को किले की रक्षा का भार सौंपकर अपने प्राण त्याग दिये। पद्मिनी और नागमति दोनों रतनसिंह के साथ सती हो गई। उधर सुल्तान भी चित्तौड़ आ पहुंचा। बादल ने किले की रक्षा के लिए उससे भरसक संघर्ष किया और अंत में जीत अलाउद्दीन की हुई, व किला सुल्तान ने प्राप्त कर वहाँ इस्लामिक झंडा गाड़ दिया।
कथा की समाप्ति में जायसी ने इस सारी कथा को एक रूपक बतलाकर लिखा है- जिसमें 'चित्तौड़ शरीर का', 'राजा रतनसिंह मन का', 'सिंहलद्वीप हृदय का', 'पद्मिनी बुद्धि की', 'तोता मार्गदर्शक गुरु का', 'नागमती संसार के कामों की', 'राघव शैतान का' और 'सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी माया का' सूचक बताया गया है। जो इस प्रेम-कथा को समझ सके, वे इसे इसी दृष्टि से देखे।
इतिहास के अभाव में लोगों ने 'पद्मावत' को ऐतिहासिक रूप में मान्यता दी। परन्तु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की भाँति कवितावद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचित है कि रतनसिंह चित्तौड़ का राजा व पद्मिनी उसकी रानी और अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था, जिसने रतनसिंह से लड़कर चित्तौड़ का किला छीना था।
बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिये ही कल्पना रूप में गढ़ी गई हैं। क्योंकि रतनसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं आया, ऐसी दशा में योगी बनकर उसका सिंहलद्वीप तक जाना और वहाँ की राजकुमारी से विवाह करना कैसे संभव हो सकता है? ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार उसके समय सिंहलद्वीप का राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिशंकरदेव पराक्रमबाहु चतुर्थ या भुवनेकबाहु तृतीय होना चहिये।
सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नामक कोई राजा नहीं हुआ है। उस समय तक कुंभलगढ़ बना भी नहीं हुआ था। तो देवपाल वहाँ का राजा कैसे माना जाए? अलाउद्दीन 8 वर्ष तक चित्तौड़ के लिये लड़ने के बाद निराश होकर दिल्ली को नहीं लौटा, किन्तु अनुमान छः महीने लड़कर उसने चित्तौड़ ले लिया था। वह एक ही बार चित्तौड़ आया था, इसलिये दूसरी बार आने की कथा काल्पनिक ही है।
पद्मावत की सूचना के बाद 70 वर्ष पश्चात् मुहम्मद कासिम फिरिश्ता ने अपनी पुस्तक 'तारिख फिरिश्ता लिखी।
उस समय पद्मावत की कथा लोक में प्रचलित हो चुकी थी। फिरिश्ता ने उससे भी कुछ हाल लिया हो, ऐसा अनुमान होता है, क्योंकि चित्तौड़ की चढ़ाई का जो हाल ऊपर फिरिश्ता से वर्णन किया गया है, उसमें तो रतनसिंह का नाम तक नहीं है। लेकिन इस समय चित्तौड़ का राजा रतनसिंह- जो सुल्तान ने उसका दुर्ग छीना तब से कैद था अद्भुत रीति से भाग निकला। अलाउद्दीन ने उसकी एक पुत्री के अलौकिक सौंदर्य और गुणों का बखान सुनकर उससे कहा कि यदि तू अपनी पुत्री मुझे सौंप दे, तो तू बंधनमुक्त हो सकता है।
राजा ने, जिसके साथ कैदखाने में सख्ती की जाती थी, इस कथन को स्वीकार कर अपनी राजकुमारी को सुल्तान को सौंपने के लिये बुलाया। राजा के कुटुंबियों ने इस अपमानसूचक प्रस्ताव को सुनते ही अपने वंश के गौरव की रक्षा के लिए राजकुमारी को विष देना अधिक उपयुक्त समझा, परन्तु उस राजकुमारी ने ऐसी युक्ति निकाली, जिससे वह अपने पिता को स्वतंत्र करा अपने सतीत्व की रक्षा करने को समर्थ हो सकती थी। तदनुसार, उसने अपने पिता को लिखा, कि आप ऐसा वक्तव्य प्रसिद्ध कर दें कि मेरी राजकुमारी अपने सेवकों सहित आ रही है और अमुक दिन दिल्ली पहुँच जाएगी।
इस प्रकार राजकुमारी ने राजा को अपनी युक्ति से डोलियों में बिठा दिया, और राजवंश की स्त्रियों की रक्षा के योग्य सवारों तथा पैदलों के साथ वह चली। उसने अपने पिता के द्वारा सुल्तान की आज्ञा भी प्राप्त कर ली थी, जिससे उसकी सवारी बिना रोक-टोक के मंजिल दरमंजिल दिल्ली पहुँची। उस समय रात हो गई थी। सुल्तान की आज्ञा से उसके साथ की डोलियाँ कैदखाने में पहुँची और वहाँ के रक्षक बाहर निकल आये। भीतर पहुँचते ही राजपूतों ने डोलियों से निकल अपनी तलवारें सम्भालीं और सुल्तान के सेवकों को मारने के पश्चात् राजा सहित वे तैयार रखे हुए घोड़ों पर सवार होकर भाग निकले। सुल्तान की सेना आने न पाई, उसके पहले ही राजा अपने साथियों सहित शहर से बाहर निकल गया और भागता हुआ अपने पहाड़ी प्रदेश में पहुँच गया, जहाँ उसके सहयोगी छिपे हुए थे। इस प्रकार अपनी चतुर राजकुमारी की युक्ति से राजा ने कैद से छुटकारा पाया, और उसी दिन से वह मुसलमानों के हाथ में रहे हुए अपने मुल्क को उजाड़ने लगा।
अंत में सुल्तान ने चित्तौड़ को अपने अधिकार में रखना निरर्थक समझा और खिजखाँ को हुक्म दिया कि किले को खाली कर उसे राजा के भानजे मालदेव सोनगरा को सौंप दो।
उक्त कथा पद्मावत की कथा से फिरिश्ता के इस कथन की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य आधार वही मूल कथा है। फिरिश्ता ने उसमें रचनात्मक परिवर्तन कर ऐतिहासिक रूप से उसे रख दिया और पद्मिनी को रानी न कहकर पुत्री बतलाया है। फिरिश्ता के इस लेख में प्रमाणिकता का अभाव है। प्रथम तो पद्मिनी के दिल्ली जाने की बात ही निर्मूल प्रतीत होती है। दूसरी बात यह भी है कि अलाउद्दीन जैसे प्रबल व शक्तिशाली सुल्तान की राजधानी की कैद से भागा हुआ रतनसिंह बच जाए तथा मुल्क को उजाड़ता रहे, और सुल्तान उसको सहन कर अपने पुत्र को चित्तौड़ खाली करने की आज्ञा दे, यह असंभव और अप्रमाणिक गाथा प्रतीत होती है।
कर्नल जेम्स टॉड ने पद्मिनी से सम्बन्धित जो लिखा है उसका सार यह है कि 1274 ई. में लखमसी/लक्ष्मणसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर विराजित हुआ। उसके बालक होने के कारण उसका चाचा भीमसी उसका संरक्षक बना। सिंहलद्वीप के राजा हमीरसिंह चौहान की पुत्री पद्मिनी से विवाह किया जो बड़ी ही रूपवती और गुणवती थी।
अलाउद्दीन ने उसी प्राप्ति हेतु चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी, परन्तु उसमें सफल न होने से उसने केवल पद्मिनी का मुख देखकर लौटना चाहा और अंत में दर्पण में पड़ा हुआ उसका प्रतिबिंब देखकर लौट गया। राजपूत उसको पहुँचाने के लिये किले के नीचे तक गये, जहाँ मुगलों ने छल करके भीमसी को पकड़ लिया और पद्मिनी को सौंपने पर उसको छोड़ने को कहा। यह समाचार सुनकर पद्मिनी ने अपने चाचा गोरा और उसके पुत्र बादल की सहायता से एक ऐसी योजना निर्मित कि जिससे उसका पति बंधन से मुक्त हो जाए और अपने सतीत्व की रक्षा भी हो सके। फिर सुल्तान को यह सूचना दी कि तुम्हारे यहाँ से लौटते समय पद्मिनी अपनी सखियों तथा दासियों आदि सहित दिल्ली चलने के लिए तुम्हारे साथ हो जाएगी।
फिर पर्दे वाली 700 डोलियाँ तैयार की गई, जिनमें से प्रत्येक में एक एक वीर राजपूत सशस्त्र बैठ गया और कहारों का भेष धारण किये शस्त्रयुक्त छः-छः राजपूतों ने प्रत्येक डोली को उठाया। इस प्रकार राजपूतों का एक दल सुल्तान के डेरे में पहुँच गया।
पद्मिनी को अपने पति भीमसिंह से अंतिम मुलाकात हेतु मात्र 30 मिनट का समय दिया गया। इसी अंतराल में कहारों की वेशभूषा में कई राजपूतों ने चाल चलते हुए भीमसिंह को डोली में बिठाया और वहाँ से निकल पड़े।
सुल्तान जब पद्मिनी की आकांक्षा में उसके पास गया तो पद्मिनी की जगह उसे डोलियों में वीर राजपूत निकलते दिखाई दिये और उन्होंने अप्रत्याशित रूप से युद्ध प्रारम्भ कर दिया। अलाउद्दीन ने पुनः चित्तौड़ की घेराबंदी कर उसे जीतना चाहा किंतु इस वक्त सितारों ने उसका साथ नहीं दिया उसकी सेना पराजित होने लगी, अतः अपनी सेना की दुर्दशा देख उसे वापस लौटने का निर्णय करना पड़ा। परन्तु अलाउद्दीन पराजय स्वीकार करने वालों में से नहीं था, कुछ समय पश्चात् अपनी सेना में एक नई ऊर्जा भर उसने दोबारा चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया, राजपूतों ने भी वीरतापूर्वक उससे लोहा लिया परन्तु इस बार वे सफल नहीं हो सके। उन्हें आभास हो गया कि किला छोड़ना ही पड़ेगा, तब राजपूतों की आज्ञा से रानियों सहित अन्य राजपूत स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षार्थ स्वयं को अग्नि में समर्पित कर जौहर कर लिया।
अपनी रानियों को अग्नि के हवाले कर राजपूत किले का द्वार खोलकर मुगलों पर टूट पड़े। भीषण संघर्ष के बाद अंततः वे वीरगति को प्राप्त हुए। चित्तौड़ अब अलाउद्दीन के अधिकार में था। परन्तु यह किस्मत का खेल है कि जिस पद्मिनी के लिए उसने इतना संघर्ष किया अंत में वह उसकी चिता की अग्नि को ही प्राप्त कर सका।
कर्नल टॉड ने यह कथा विशेषकर मेवाड़ के भाटों को आधार मानकर लिखी है और भाटों ने इस कथा को पद्मावत के आधार पर ही लिखा है। भाटों की पुस्तकों में समरसिंह के पीछे रतनसिंह का नाम न होने की स्थिति में टॉड ने पद्मिनी का संबंध भीमसिंह से बताया और उसे लखमसी/लक्षमणसिंह के समय की घटना माना।
ऐसे ही भाटों के कथानुसार टॉड ने लक्षमणसिंह को बालक और मेवाड़ का राजा होना बताया, परन्तु लक्षमणसिंह न तो मेवाड़ का कभी राजा हुआ और न ही बालक था। किन्तु सीसोदा का सामन्त था और उस समय वृद्धावस्था के समीप पहुँच चुका था, क्योंकि वह अपने सात पुत्रों सहित अपनी स्वामिभक्ति के चलते रतनसिंह की सेना का मुखिया बनकर अलाउद्दीन के साथ की लड़ाई में लड़ते हुए मारा गया था, जैसा कि कुंभलगढ़ शिलालेख से पता चलता है। इसी प्रकार भीमसी, लक्षमणसिंह का चाचा नहीं अपितु दादा था, जैसा कि राणा कुंभकरण के समय के एकलिंगमहात्म्य से पता चलता है कि ऐसी दशा में टॉड का कथन भी विश्वास के योग्य नहीं हो सकता।
पद्मावत तारीख फिरिश्ता और टॉड के राजस्थान के लेखों की यदि कोई जड़ है, तो केवल यही कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर छः माह के घेरे के अन्दर उसे विजित किया, वहाँ का राजा रतनसिंह इस लड़ाई में लक्ष्मणसिंह आदि कई सामन्तों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी रानी पद्मिनी ने कई स्त्रियों सहित जौहर की अग्नि में प्राणाहुति दी। इस प्रकार चित्तौड़ पर थोड़े समय के लिए मुसलमानों का आधिपत्य हो गया।
बाकी की बहुधा सब बातें कल्पनात्मक हैं। महारावल रतनसिंह के समय का अब तक एक ही शिलालेख मिला है, जो यह लेख दरीबे की खान के पास वाले माता के मन्दिर में एक स्तम्भ पर अंकित है।
चित्तौड़ का खिज्र खाँ
अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का दुर्ग अपने पुत्र खिज खाँ के सुपुर्द कर इसका नाम खिजाबाद कर दिया। फिरिश्ता के अनुसार अलाउद्दीन ने खिज्र खाँ को आदेश दिया कि चित्तौड़ दुर्ग रतनसिंह के भानजे मालदेव सोनगरा को सुपुर्द कर दे।
खिज्र खाँ ने चित्तौड़ में गम्भीरी नदी पर एक पुल का निर्माण करवाया था। मेवाड़ राजपूतों ने जब इसका विरोध किया तब खिलजी ने अपने पुत्र को हटाकर चित्तौड़ का राज्य मालदेव सोनगरा (कान्हड़देव चौहान का भाई) को सौंप दिया।
मालदेव सोनगरा (1311 ई. से 1321 ई तक)
मालदेव रतनसिंह का भांजा व कान्हड़देव का भाई था। 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्युपरान्त सल्तनत की सत्ता क्षीण होती गई व प्रशासन कमजोर पड़ता गया। इसका अवसर उठाकर सिसोदा ठिकाने के हम्मीर ने मालदेव को 1321 ई. में पराजित कर दिया। मालदेव का 1321 ई. में निधन हो गया।
1326 ई. में बलबीर (मालदेव का पुत्र) से हम्मीर ने मेवाड़ छीन लिया। बप्पा रावल से रतनसिंह तक के शासक गुहिल वंशीय थे तथा उनकी उपाधि (सनद) 'रावल' थी।
गुहिल वंश के प्रमुख शासकों का क्रम
- गुहिल
- भोज
- महेन्द्र
- नाग (नागादित्य)
- शिलादित्य (शील)
- अपराजित
- महेन्द्र (दूसरा)
- कालभोज (बप्पा)
- खुम्माण
- मत्तट
- भर्तृभट (भर्तृप)
- सिंह
- खुम्माण (दूसरा)
- महायक
- खुमणा (तीसरा)
- भर्तृभट (भर्तृभट, दूसरा)
- अल्लट
- नरवाहन
- शालिवाहन
- शक्तिकुमार
- अंबाप्रसाद
- शुचिवर्मा
- नरवर्मा
- कीर्तिवर्मा
- योगराज
- वैरट
- हंसपाल
- वैरिसिंह
- विजयसिंह
- अरिसिंह
- चोड़सिंह
- विक्रमसिंह
- रणसिंह- इसके समय गुहिल दो शाखाओं में बंट गये-
- क्षेमसिंह
- सामन्तसिंह
- कुमारसिंह
- मथनसिंह
- पद्मसिंह
- जैत्रसिंह
- तेजसिंह
- समरसिंह
- रत्नसिंह।
सिसोदा गाँव की राणा शाखा
- राहप
- नरपति
- दिनकर
- जसकरण
- नागपाल
- पूर्णपाल
- पृथ्वीमल्ल
- भुवनसिंह
- जससिंह
- लक्ष्मणसिंह
- अरिसिंह
- हम्मीरसिंह।
सिसोदिया राजवंश
सिसोदा ठिकाने से होने के कारण सिसादिया कहलाये। सिसोदियों की कुल देवी बाणमाता व उपाधि राणा या महाराणा है।
राणा हम्मीर (1326 ई. से 1364 ई. तक)
हम्मीर के जन्म की कहानी
एक बार लक्ष्मण सिंह का ज्येष्ठ पुत्र अरिसिंह शिकार करने के लिए गया, वहाँ एक घायल सूअर ज्वार के खेत में चला गया, अरिसिंह भी उसके पीछे - पीछे खेत में जा रहा था तो उस खेत से एक लड़की ने आकर निवेदन किया कि आप घोड़ों सहित खेत में प्रवेश करोगे तो ज्वार खराब हो जायेगा मैं सूअर को बाहर निकाल देती हूँ।
लड़की ने लाठी से सूअर को बाहर निकाल दिया, लड़की की हिम्मत देखकर अरिसिंह आश्चर्यचकित हुआ अरिसिंह खेत के नजदीक एक वृक्ष के नीचे आराम कर रहा था, तब लड़की ने खेत में पक्षियों को भगाने के लिए गोफन चलाया जिसका पत्थर घोड़े के पैर के लगा और उसका पैर टूट गया फिर वह लड़की सिर पर दूध की मटकी रख भैंस के दो बच्चों को अपने साथ लिए घर जा रही थी, उसके बल व साहस को देखकर अरिसिंह आश्चर्यचकित हुआ फिर उसने लड़की की जाति पूछी तो पता चला कि वह चन्दाणा राजपूत (चन्दाणा चौहानों की एक शाखा है, नैणसी ने भी हम्मीर की माता का नाम देवी लिखा है व उसे सोनगरा राजपूतों की पुत्री कहा है) है।
तब अरिसिंह ने सोचा कि ऐसी बलशाली लड़की के पुत्र हुआ तो वह भी बलशाली होगा, इसी आशा से अरिसिंह ने लड़की से विवाह कर लिया अरिसिंह ने विवाह तो कर लिया लेकिन अपने पिता के भय के कारण लड़की को ऊनवा गाँव में रखा, यहाँ शिकार के बहाने आकर अरिसिंह रहता था।
इसी लड़की से हम्मीर का जन्म हुआ, हम्मीर अपने ननिहाल में रहता था। अरिसिंह की मृत्यु के बाद अजयसिंह ने हम्मीर को अपने पास बुला लिया। उस समय गोंडवाड़ क्षेत्र (जोधपुर के आसपास) के मुन्झा नामक बालेचां राजपूत मेवाड़ के आसपास लूटपाट करता था, बालेचा के विरूद्ध अयजसिंह ने सज्जनसिंह व क्षेमसिंह को भेजा, परन्तु ये असफल रहे।
इसके बाद उसने अपने भतीजे हम्मीर को भेजा, हम्मीर ने मुन्झा को गोंड़वाड़ के सांभेरी गाँव के पास मार दिया व उसका सिर अपने चाचा के सामने लाकर रख दिया।
हम्मीर की वीरता को देखकर अजयसिंह प्रसन्न हुआ व हम्मीर को बड़े भाई का पुत्र होने के नाते ठिकाणे का वास्तविक शासक भी यही है यह सोचकर मुन्झा के रक्त से तिलक करके उसे उत्तराधिकारी बना दिया अजयसिंह के पुत्र सज्जनसिंह व क्षेमसिंह नाराज होकर दक्षिण चले गये।
मेवाड़ की ख्यातों के अनुसार सज्जनसिंह के वंश में मराठों का राज्य स्थापित करने वाले प्रसिद्ध शिवाजी उत्पन्न हुए।
अजयसिंह की मृत्यु के बाद हम्मीर ने अपने पूर्वजों की राजधानी चित्तौड़ व सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। हम्मीर ने महाराणा की उपाधि धारण की।
सिंगोली का युद्ध
ऐसा उल्लेख आता है कि हम्मीर ने मालदेव के पुत्र जैसा को जब हराया तो जैसा मोहम्मद तुगलक के पास चला गया व तुगलक को हम्मीर मेवाड़ ले आया।
टॉड के अनुसार जैसा मुहम्मद खिलजी के पास गया था। टॉड ने मुहम्मद खिलजी नाम भ्रमवश लिख दिया है क्योंकि अलाउद्दीन खिलजी के बाद मुहम्मद खिलजी के नाम का कोई शासक नहीं है।
यह मुहम्मद तुगलक के स्थान पर मुहम्मद खिलजी लिखा गया है। इस युद्ध में हम्मीर ने सुल्तान को हराकर उसे कैद कर लिया तथा तीन माह तक उसे कैद में रखा।
हम्मीर ने चित्तौड़ में अन्नपूर्णा माता का मंदिर बनवाया था। हम्मीर को सिसोदिया राजवंश का संस्थापक कहा जाता है।
हम्मीर लक्ष्मणसिंह का पौत्र, अरिसिंह का बेटा था।
लक्ष्मण सिंह व उसके सातों पुत्र 1303 ई. में रतनसिंह की सहायता करते हुए मारे गए। ये सिसोदा ठिकाने के थे।
राणा हम्मीर को मेवाड़ का पुनः उद्धारक कहा जाता है। (मेवाड़ का उद्धारक भामाशाह को भी कहा जाता है) जयदेव के गीतगोविन्द पर कुम्भा द्वारा लिखी टिका रसिकप्रिया में हम्मीर को वीर राजा कहा है। कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में भी हम्मीर को 'विषमघाटी पंचानन' कहा गया है। (विषम घाटी पंचानन विकट आक्रमणों में सिंह सदृश्य) कर्नल टॉड ने इसे 'प्रबल हिन्दू राजा' कहा है।
क्षेत्र सिंह/खेता (1364 ई. से 1382 ई. तक)
चाचा व मेरा क्षेत्रसिंह की पासवान रानी के पुत्र थे जिन्होंने मोकल (लाखा - हंसाबाई का पुत्र) की हत्या की थी।
राणा लाखा/लक्षसिंह (1382 ई. से 1421 ई. तक)
इनके समय जावर (उदयपुर) में चाँदी की खान निकली थी। जावर परगना कुम्भा की पुत्री रमा बाई को दिया गया था। इस समय एक बनजारे ने पिछौला झील (उदयपुर) का निर्माण करवाया था।
हंसाबाई से विवाह
लाखा के वृद्धावस्था के समय मंडौर के राव चूड़ा की पुत्री व रणमल की बहन हंसाबाई का नारियल (रिश्ता) लाखा के पुत्र कुंवर चूड़ा के लिए आया। लाखा ने मजाक में कहा जवानों के लिए रिश्ते आते हैं हम जैसे बूढ़ों के लिए कौन भेजे, यह सुनकर चूड़ा के मन में विचार आया कि मेरे पिता की इच्छा नया विवाह करने की है।
इसी से प्रेरित होकर चूड़ा ने रणमल से कहा आप अपनी बहन का विवाह महाराणा से कर दें। इस पर रणमल ने कहा कि मेवाड़ के उत्तराधिकारी आप हैं, मैं अपनी बहन का विवाह महाराणा से करूंगा तो मेरे भांजे को तो चाकरी के सिवाय कुछ भी नहीं मिलेगा।
तब चूड़ा ने कहा कि आपकी बहन के जो पुत्र होगा वही मेवाड़ का राणा बनेगा। मै सेवक बनकर रहूंगा।
तब रणमल ने कहाँ मेवाड़ जैसा राज्य कौन छोड़ता है ये कहने की बाते हैं, तब चूड़ा ने कहा मैं एकलिंग जी की कसम खाता हूँ व आपको इकरार लिख देता हूँ, फिर चूड़ा ने पिता की इच्छा के विरूद्ध शादी के लिए बाध्य किया व प्रतिज्ञा पत्र लिख दिया कि इनके जो संतान होगी वही मेवाड़ का स्वामी बनेगा।
लाखा ने हंसाबाई से विवाह किया व इनसे मोकल का जन्म हुआ। कुँवर चूड़ा मेवाड़ के 'भीष्म पितामह' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
महाराणा ने अंतिम समय में मोकल का संरक्षक चूड़ा को बनाया व चूड़ा की पितृभक्ति के कारण यह नियम बनाया कि पेवाड़ के महाराणाओं की तरफ से जो पट्टे, परवाने व सनदें दी जावे या लिखी जावे उन पर भाले का राज चिह्न चूड़ा व उसके वंशधन (सलूम्बर के रावत चूड़ावत) करेंगे। इसका पालन अभी तक हो रहा है।
मिट्टी के दुर्ग की कहानी
ऐसा वृतान्त मिलता है कि महाराणा लाखा ने कसम खाई कि "जब तक में बूंदी के तारागढ़ दुर्ग को नहीं जीत लूंगा भोजन नहीं करूंगा, तब सामंतों ने कहा इतना शीघ्र बूंदी का दुर्ग कैसे जीत सकते हैं, तब मिट्टी का एक दुर्ग बनाया गया तथा उसकी रक्षा के लिए हाड़ा राजपूत कुम्भकरण को छोड़ा व कुंभकरण से कहा की जब महाराज आये तब हथियार डाल देना, कुंभकरण ने कहा में हाड़ा राजपूत हूँ में दुर्ग की रक्षा करूंगा।"
लोगों ने इसे मजाक समझा कुंभकरण को 300 राजपूतों के साथ दुर्ग की रक्षा के लिए छोड़ दिया।
जब महाराणा मिट्टी का दुर्ग जीतने के लिए आये तब कुंभकरण ने महाराणा को छोड़कर शेष सैनिकों को मार दिया व स्वयं वीरगति को प्राप्त हुआ।
लाखा के दरबार में झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट नामक विद्वान थे, झोटिंग भट्ट को पीपली गाँव व धनेश्वर भट्ट को पंचदेवालय गाँव दान में दिया था।
मोकल (1421 ई. से 1433 ई. तक)
मोकल ने चित्तौड़ दुर्ग में समाधि ईश्वर (समाधीश्वर) मंदिर का निर्माण किया था।
महाराणा लाखा की मृत्यु के समय मोकल लगभग 12 वर्ष का था जिसके राज्य का सभी कार्य उसका चाचा चूड़ा चलाता था। परन्तु मोकल की माँ हंसाबाई को धीरे-धीरे चूड़ा पर सन्देह होने लगा कि कहीं अवसर मिलने पर चूड़ा राज्य पर अपना स्वतंत्र अधिकार न स्थापित कर ले।
जब इस बात का आभास स्वाभिमानी चूड़ा को हुआ तो वह माण्डू के दरबार में चला गया जहाँ उसको सम्मानपूर्वक रखा गया।
हंसाबाई ने शीघ्र ही मारवाड से अपने भाई रणमल को उच्च पदों पर स्थापित कर दिया जिससे प्रतीत होने लगा कि मेवाड़ पर राठौड़ सत्ता स्थापित होने जा रही है।
मोकल की मृत्यु
1433 ई. में अहमदाबाद का सुल्तान अहमदशाह डूंगरपुर राज्य से होता हुआ जीलवाड़े की तरफ बढ़ा और वहाँ के मंदिर तोड़ने लगा।
यह खबर सुनते ही महाराणा उसे रोकने गया उस समय महाराणा खेता की पासवान के पुत्र चाचा व मेरा भी साथ थे।
एक दिन एक हाड़ा सरदार के इशारे से महाराणा ने एक वृक्ष की तरफ अंगुली करके उनसे पूछा कि इस वृक्ष का क्या नाम है।
चाचा और मेरा खातिन के पुत्र थे और वृक्ष की जाति खाति ही पहचानते है। महाराणा ने तो शुद्ध भाव से यह बात पूछी थी, परन्तु इसको अपमान समझकर चाचा और मेरा बुरा मान गये।
उन्होंने महाराणा को मारने का निश्चय कर महपा/महिताल परमार आदि कई लोगों को अपने पक्ष में मिलाया और उनको साथ लेकर वे महाराणा के शिविर गये।
महाराणा और उनके पास वाले उनका इरादा जानते ही उनसे लड़ने लगे। महाराणा पक्ष के कुछ आदमी मारे गए और महाराणा भी मारे गये।
राणा कुंभा (1433 ई. से 1468 ई.)
पिता मोकल, माता परमार राजकुमारी सौभाग्य देवी राणा लाखा कुंभा के दादा थे।
ऐतिहासिक स्त्रोत
वैसे तो कुम्भा से सम्बंधित छोटे-बड़े लगभग 60 अभिलेख है किन्तु प्रमुख स्त्रोत निम्न हैं-
- एकलिंग माहात्म्य- इसके प्रथम भाग को 'राजवर्णन' कहते हैं जिसे कुंभा ने लिखा था। दूसरा भाग कुंभा के निर्देशन पर 'कान्ह व्यास' ने लिखा था।
- रसिक प्रिया- कुंभा द्वारा 'जयदेव के गीत गोविन्द ग्रन्थ' पर लिखी गई टीका। इसमें कुंभा की उपाधियों व उपलब्धियों का उल्लेख है।
- कुम्भलगढ़ प्रशस्ति- 1460 ई., मामादेव मंदिर कुंभलगढ़ दुर्ग (सादड़ी, राजसमंद) में। इसका रचियता महेश था। इसमें राजनीतिक विजयों, राज्य विस्तार, सांस्कृतिक उपलब्धियों तथा कुंभा द्वारा बनाए गए दुर्गों का वर्णन है। इस प्रशस्ति में कुंभा को धर्म व पवित्रता का अवतार कहा गया है।
- कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति- 1460 ई. रचियता अत्रि व महेश, (दोनों का नाम अभिकवि) यह विजय स्तम्भ की नौवीं मंजिल पर उकेरित है। कुंभा की विजयों, उपाधियों तथा कुंभा द्वारा रचित ग्रंथों की जानकारी मिलती है। चित्तौड़ दुर्ग में निर्मित जलाशयों, महलों व मंदिरों की जानकारी मिलती है। 15 वीं शताब्दी के समाज, धर्म एवं राजनैतिक को जानने का महत्त्वपूर्ण स्रोत भी है। इसमें राणा हम्मीर से लेकर (1426 - 1468 ई.) कुंभा तक का इतिहास है। हम्मीर को इसमें विषम घाटी पंचानन कहा है।
कुंभा की उपाधियाँ
- हालगुरु - पहाड़ी दुर्गों का स्वामी होने के कारण।
- राणारासो - साहित्यकारों का आश्रयदाता।
- राजगुरु - राजनीति में दक्ष
- अभिनवभर्त्ताचार्य - संगीत में विपुल ज्ञान के कारण। कुम्भा वीणा वादक था। (समुद्रगुप्त व औरंगजेब भी वीणा वादक था)
- हिन्दू सुल्तान - तात्कालिक मुस्लिम इतिहासकारों तथा गुजरात व दिल्ली सुल्तानों द्वारा।
- नोट - हिन्दू पंथ - सांगा को कहा जाता है।
- चाप गुरु - धनुर्विद्या में निपुण होने के कारण।
- शैल गुरु - पर्वतों का स्वामी।
- दान गुरु - दानवीर होने के कारण
- राजगुरु - राजनीति में दक्ष होने के कारण।
- परम गुरु - राजाओं का सबसे बड़ा गुरु होने के कारण।
- नव्य भारत - कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में कुंभा को 'नव्य भारत' कहा है।
- नंदिकेश्वर अवतार - नंदिकेश्वर के मत का अनुसरण।
- नाटकराज कर्ता - नाट्यशास्त्र का ज्ञाता।
नरपति, अश्वपति, गणपति, धीमान, प्रजापालक आदि भी कुंभा की उपाधियाँ हैं।
कुंभा की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
पिता मोकल की हत्या से आन्तरिक स्थिति कमजोर हो गयी। तीन ओर से मालवा, गुजरात व नागौर के मुस्लिम शासकों द्वारा मेवाड़ को हथियाने का प्रयास।
मारवाड़ समस्या
1. चाचा व मेरा का दमन
कुंभा ने रणमल की सहायता से दोनों भाईयों को मरवा डाला। इस अभियान में रणमल के नेतृत्व में राठौड़ी सेना तथा राघवदेव के नेतृत्व में सिसोदिया सेना थी।
चाचा व मेरा के प्रमुख सहयोगी महपा व अका, मालवा शासक महमूद खिलजी की शरण में चले गए। चाचा व मेरा पाइकोटड़ा पहाड़ों में छुपे थे।
चाचा व मेरा के शिविर से छुड़ाई गई 500 स्त्रियों के भाग्य को लेकर राघवदेव व रणमल में विवाद हो गया। जिसके कारण कुंभा के दरबार में राठौड़ व सिसोदिया सरदारों के गुट बनकर एक दूसरे के विरुद्ध षड़यंत्र रचने लगे। रणमल ने धीरे-धीरे दरबार का राठौड़ीकरण करना शुरू किया जिसमें उसकी बहन हंसाबाई ने पूरा सहयोग दिया।
2. सिरोही विजय
कुंभा ने आबू के शासक सैसमल देवड़ा को नरसिंह डोडिया के नेतृत्व में पराजित करके आबू व सिरोही पर अधिकार कर लिया था।
सैसमल के पुत्र महाराव लाखा के साथ कुंभा ने अपनी पुत्री का विवाह किया था, किन्तु दोनों का संघर्ष यथावत चलता रहा। महाराव लाखा ने कुंभा के विरुद्ध गुजरात शासकों की सहायता की थी।
3. बूंदी विजय/हाड़ौती विजय
रणमल के नेतृत्व में बूँदी शासक बेरीसाल को पराजित करके गागरोन (झालावाड़) व माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
4. मेवाड़-मारवाड़ संघर्ष व रणमल की हत्या
राणा लाखा के साथ हंसाबाई का विवाह होने के उपरांत्त मोकल का मामा रामल मेवाड़ में आकर प्रशासनिक कार्यों का संचालन करने लगा। हंसाबाई को ये शंका थी कि चूड़ा मोकल को मारकर मेवाड़ का शासक न बन जाये।
इसलिए उसने अपने भाई रणमल को बुला लिया। चूड़ा मालवा शासक की शरण में चला गया। हालांकि रणमल ने मेवाड़ राज्य को स्थायीत्व व विस्तार देने में पूर्ण सहयोग किया किन्तु वह ऐसा करके मेवाड़ पर अपना प्रभाव जमाना चाहता था।
रणमल की हत्या
एक दिन सौभाग्यदेवी की दासी भारमली जिससे रणमल का प्रेम संबंध था, एक दिन देर से पहुँची, रणमल ने देर से आने का कारण पूछा भारमली ने कहा जिनकी दासी हूँ उनसे छुट्टी मिले तभी आऊं। इस पर नशे में रणमल ने कहा अब तू किसी की नौकर नहीं रहेगी।
जो चित्तौड़ में रहेंगे, वे तेरे नौकर होगें। (वीर बिनोद के अनुसार) भारमली ये बात सौभाग्यदेवी को बताई व सौभाग्यदेवी ने पुत्र कुम्भा को बतायी। इसके बाद स्वामिभक्त चूड़ा को बुलाने का फैसला हुआ। चूड़ा, अज्जा आदि वापस चित्तौड़ आ गये।
एक डीम ने रणमल को बताया कि तुम्हारे प्राणों को संकट है रणमल को पुत्र जोधा व कांधल को दुर्ग तलहटी भेज दिया और कहा जब बुलाऊं तभी आना।
एक रात भारमली ने रणमल को खूब शराब पिलाकर नशे में बेहोश कर पगड़ी से कसकर पलंग से बाँध दिया। फिर महपा (पंवार), (चाचा पुत्र जो कुंभा से माफी मांगकर वापस मेवाड़ आ गये) आदि ने मिलकर रणमल की हत्या कर दी। तब डोम किले की दीवार पर चढ़कर जोधा को कहा-
"चूंड़ा अजमल आविया, मांडू दूं धक आग।
जोधा रणमल मारिया, भाग सके तो भाग ।।"
रणमल की सफलता का सबसे बड़ा कांटा राघवदेव था जिसको 1437 में रणमल ने मरवा डाला।
इसी दौरान महप्पा व अका ने क्षमादान प्राप्त कर कुंभा की शरण प्राप्त कर ली। दोनों ने रणमल के इरादों से कुंभा को सचेत किया। चूंडा भी इस समय मेवाड़ पहुँच गया था। 1438 ई. में चूंडा के निर्देशन पर महप्पा व अक्का ने रणमल की प्रेयसी भारमली के सहयोग से रणमल की हत्या कर दी गई।
हत्या के बाद रणमल का पुत्र जोधा अपने राठौड़ सरदारों के साथ चित्तौड़ से भागने में सफल हुआ। चूड़ा ने सैन्य नेतृत्व करके मण्डौर पर अधिकार कर लिया।
जोधा के 15 वर्षों तक भटकने के बाद 1453-1454 ई. में मण्डौर पर अधिकार कर लिया इस समय कुंभा मालवा व गुजरात शासकों के साथ संघर्षरत था इन शासकों को पराजित करने के बाद कुंभा ने जोधा के विरूद्ध सैन्य अभियान किया किन्तु पाली के नजदीक दोनों के मध्य संधि हो गई।
आवल-बावल संधि राठौड़-सिसोदिया संधि/मारवाड़-मेवाड़ संधि (1453-54 ई.)- जोधा व कुम्भा के मध्य हुई इस संधि द्वारा मारवाड़-मेवाड़ सीमा को निर्धारण हुआ। जहाँ खेजड़ी का पेड़ वह मारवाड़, जहाँ आम का पेड़ वो मेवाड़। सीमा निर्धारण मूल केन्द्र बिन्दु सोजत (पाली) था। जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल से किया। श्रृंगार देवी ने चित्तौड़ में घौसुण्डा बावड़ी बनवायी थी।
5. मालवा
गुजरात व नागौर के मुस्लिम शासकों के साथ संघर्ष
मालवा- मालवा के स्वतंत्र राज्य की स्थापना अंतिम सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद तुगलक के समय 1401 ई में दिलावर खाँ गौरी ने की थी। इसकी राजधानी धार (मध्य प्रदेश) थी।
सुल्तान हुसंग शाह ने अपनी राजधानी माण्डु (मध्य प्रदेश) को बनाया।
हुसंगशाह का मकबरा भारत में निर्मित ऐसा प्रथम मकबरा है जो पूर्णतया संगमरमर से बना है। (सल्तनतकाल) 1423 ई. में हुसंगशाह ने गागरोन शासक अचलदास खिंची पर आक्रमण कर उसे जीत लिया इसका वर्णन खिंची के दरबारी कवि शिवदास गाडण ने अचलदास खिंची री वचनिका में किया है।
गागरोन को खिंचीवड़ा कहा जाता है। 1435 ई. में हुसंगशाह की मृत्योपरान्त उसके मंत्री महमूद खिलजी ने मालवा हथिया लिया।
हुसंगशाह का पुत्र उमराखां कुंभा की शरण में चला गया। कुंभा के छोटे भाई खेमकरण ने बड़ी सादड़ी में विद्रोह कर दिया। कुंभा द्वारा दमन के बाद खेमकरण भी मालवा शासक की शरण में चला गया।
सारंगपुर युद्ध/मालवा विजय- 1437 ई.
1437 ई. में कुंभा व मालवा सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम के मध्य युद्ध हुआ इसमें कुंभा की विजय हुई।
विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने चित्तौड़ दुर्ग में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया था।
खिलजी को 6 महीने बंदी बनाने के बाद कुंभा ने उसे छोड़ दिया। 1442 ई. में महमूद खिलजी ने कुंभलगढ़ पर असफल आक्रमण किया। 1444 ई. में खिलजी ने गागरोन पर आक्रमण किया।
यहाँ का शासक अचलदास खिंची का पुत्र व कुंभा का भाणजा पालनसिंह था।
कुंभा ने दाहिल के नेतृत्व में पालनसिंह की सहायता के लिए सेना भेजी। दाहिल व पालन सिंह मारे गए, खिलजी का गागरोन पर अधिकार हो गया।
विजय स्तम्भ/विष्णु ध्वज मूर्तियों का अजायबघर
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ दुर्ग को कुम्भा ने सांरगपुर विजय के उपलक्ष में बनवायी।
सारंगपुर विजय 1437 ई. में उपलक्ष में 1440 - 1448 ई. तक इस नौ मंजिली संगमरमर की इमारत का निर्माण चित्तौड़ दुर्ग में करवाया गया। विजय स्तम्भ की आठवीं मंजिल पर कोई मूर्ति नहीं है।
विजय स्तम्भ की 9वीं मंजिल पर बिजली गिर गई थी। स्वरूप सिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया।
विजय स्तम्भ पर 1949 ई. में डाक टिकट जारी हुई, विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिस व माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिह्न है।
यह 122 फीट ऊंचा है। 157 सीढ़ियां है। इसके मुख्य द्वार पर विष्णु की मूर्ति लगी है। इसलिए इसे विष्णु ध्वज भी कहते हैं।
पूरे विजय स्तम्भ पर हिन्दू देवी देवताओं की अनेक मूर्तियाँ बनी हैं। इसलिए इसे मूर्तियों का अजायबघर कहते हैं।
प्रत्येक मूर्ति के नीचे मूर्तिकार का नाम उकेरित है। तीसरी मंजिल पर नौ बार अल्लाह शब्द लिखा है। नौवीं मंजिल पर अत्री व महेश द्वारा रचित कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति उकेरित है।
अत्री व महेश को अभिकवि भी कहा जाता है। आर. बी. व्यास ने विजय स्तम्भ को 'हिन्दू प्रतिभा का अनुपम निधि' कहा।
विजय स्तम्भ को टॉड ने कुतुबमीनार के श्रेष्ठ व फर्ग्यूसन ने 'रोम टार्ज़न' के समान बताया है। गोपीनाथ ने लिखा है- "यह स्तम्भ व्यावहारिक जीवन को व्यक्त करने वाला लोकजीवन का रंगमंच है।"
कुंभा के समय महमूद खिलजी ने माण्डलगढ़ पर तीन बार आक्रमण किए। दो तो 1440 ई. में तथा अंतिम 1456 ई. में। अंतिम युद्ध में खिलजी को अस्थायी सफलता हासिल हुई।
जैन कीर्ति स्तम्भ
ये भी चित्तौड़ दुर्ग में हैं, कीर्ति स्तम्भ जैन आचार्य जीजा द्वारा बनवाई, जो 7 मंजिला व 75 फीट है। प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ/ऋषभदेव को समर्पित है।
ध्यान रहे कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति विजय स्तम्भ की 9वीं मंजिल पर अत्री व महेश ने लिखी।
नागौर की लड़ाई
इसमें महाराणा की नागौर की चढ़ाई के सम्बंध में फिरिश्ता लिखता है कि नागौर के स्वामी फिरोज खाँ के मरने पर उसका बेटा शम्सखां नागौर का स्वामी बना, परन्तु उसके छोटे भाई मुजाहिद खाँ ने उसको निकालकर नागौर छीन लिया, जिससे वह भागकर सहायता के लिए राणा कुंभा के पास चला आया।
राणा पहले से ही नागौर पर अधिकार करना चाहता था, इसलिए उसने उसको सहायतार्थ नागौर पर चढ़ाई कर दी।
उसके नागौर पहुँचने पर वहाँ की सेना ने बिना लड़े ही शम्सखां को अपना स्वामी स्वीकार कर लिया। राणा ने उसको नागौर की गद्दी पर इस शर्त पर बिठाया कि उसे राणा की अधीनता के चिह्नस्वरूप अपने किले का एक अंश गिराना होगा।
राणा चित्तौड़ को लौट आया। शम्सखाँ ने उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार किले को गिराने की बजाय उसको और भी दृढ़ किया।
इससे नाराज होकर राणा ने बड़ी सेना के साथ नागौर पर फिर चढ़ाई कर दी। शम्सखाँ अपने को राणा के साथ लड़ने में असमर्थ देखकर नागौर को अपने एक अधिकारी के सुपुर्द कर स्वयं सहायता के लिए अहमदाबाद गया।
वहाँ के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने उसको अपने दरबार में रखा, व अपनी लड़की से शादी भी कर दी। फिर उसने मलिक गदाई और राय रामचन्द्र/अमीचन्द्र की अधीनता में शम्सखाँ का सहायतार्थ नागौर पर सेना भेज दी। इस सेना के नागौर पहुँचते ही राणा ने उसे भी परास्त किया और बहुत से अफसरों और सिपाहियों को मारकर नागौर छीन लिया।
कुंभा ने गुजरात के सुल्तान की उपहास करते हुए नागौर लिया, पेरोज की बनवाई हुई ऊँची मस्जिद को जलाया, किले को तोड़ा, हाथी छीन लिये, यवनियों को कैद किया और असंख्य यवनों को दण्ड दिया, यवनों से गौओं को छुड़ाया, नागपुर/नागौर को गौचर बना दिया, शहर को मस्जिदों सहित जला दिया और शम्सखाँ के खजाने से विपुल रत्न संचय छीना।
गुजरात
गुजरात के स्वतंत्र राज्य की स्थापना नसीरूद्दीन मोहम्मद तुगलक के समय 1401 ई. में मुजफ्फर खाँ, जफ्फर खाँ ने की थी।
कुंभा के समय गुजरात में 5 मुस्लिम शासक हुए।
पहला अहमदशाह
जफ्फर खाँ का पुत्र जिसने 1413 ई. में अहमदाबाद की स्थापना की पहले गुजरात की राजधानी- अन्हिलवाड़ा थी बाद में अहमदाबाद बन गई।
मोहम्मद शाह, कुतुबुद्दीन अहमद शाह, दाऊदशाह, फतेह खाँ (महमूद बेगड़ा)
गुजरात व मेवाड़ संघर्ष का प्रमुख कारण नागौर की राजनीति थी। 1415-1452 ई. में नागौर शासक फिरोज खाँ की मृत्योपरांत उसके भाई मुजइद खाँ व पुत्र समष खाँ में संघर्ष हुआ।
शम्स खाँ ने कुंभा से सहायता लेकर शर्तों के साथ नागौर प्राप्त कर लिया। मुजाहिद खाँ मालवा शासक की शरण में चला गया।
कुछ समय पश्चात् शम्स खाँ ने कुंभा की शर्तों को तोड़कर नागौर का दुर्गीकरण करना प्रारम्भ कर दिया।
कुंभा ने नागौर पर आक्रमण कर शम्स खाँ को भगा दिया। शम्स खाँ ने गुजरात शासक कुतुबुद्दीन के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके कुंभा के विरूद्ध सहायता ली।
1456 ई. में गुजरात शासक व कुंभा के मध्य युद्ध हुआ जिसमें कुंभा की विजय हुई।
चम्पानेर संधि- 1456-57 ई. (गुजरात)
1457 ई. में मालवा शासक महमूद खिलजी तथा गुजरात शासक कुतुबुद्दीन के मध्य कुंभा के विरूद्ध चम्पानेर संधि हुई।
1457 ई. में संधि के तहत दोनों शासकों ने कुंभा पुर दोनों तरफ से एक साथ आक्रमण किए किन्तु असफल रहे। 1442 ई. में कुंभा ने आमेर शासक उद्धरण को कायमैखानियों से आमेर पुनः दिलवाया था।
मालवा और गुजरात के सुल्तानों की एक साथ मेवाड़ पर चढ़ाई: जब सुल्तान कुतुबुद्दीन कुंभलगढ़ से अहमदाबाद को लौट रहा था, तब रास्ते में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी का राजदूत ताजखां उसके पास पहुँचा और उससे कहा कि मुसलमानों में परस्पर मेल न होने से काफिर/हिन्दू शान्तिपूर्वक रहते है।
हमें परस्पर भाई बनकर रहना तथा हिन्दुओं को दबाना चाहिये और विशेषकर राणा कुंभा को, जो कई बार मुसलमानों को हानि पहुँचा चुका है।
महमूद ने प्रस्ताव किया कि एक ओर से मैं राणा पर हमला करूंगा और दूसरी तरफ से सुल्तान कुतुबुद्दीन करे, इस प्रकार हम उसको बिल्कुल नष्ट कर मेवाड़ आपस में बाँट लेंगे।
फिरिश्ता ने बताया कि राणा का मुल्क बाँटने में दोनों सुल्तानों के बीच यह तय हुआ था कि मेवाड़ के दक्षिण के सब शहर, जो गुजरात की तरफ है। कुतुबुद्दीन और मेवाड़ तथा अहीरवाड़े के जिले महमूद लेवे।
इस प्रकार का अहदनामा चंपानेर में लिखा गया है और उस पर दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए।
अब दोनों तरफ से मेवाड़ पर चढ़ाई करने की तैयारियाँ हुई। दूसरे वर्ष चंपानेर की संधि के अनुसार कुतुबुद्दीन चित्तौड़ के लिए चला, मार्ग में आबू का किला लिया और वहाँ कुछ सेना रखकर आगे बढ़ा।
राणा का विचार प्रथम मालवा वालों से लड़ने का था, परन्तु कुतुबुद्दीन शाह जल्दी से आगे बढ़ता हुआ सिरोही के पास पहुंचा और उसने पहाड़ी प्रदेश में प्रवेश कर राणा को लड़ने के लिए बाध्य किया, जिसमें राजपूत सेना हार गई। कुतुबशाह आगे बढ़ा और राणा से लड़ने को आया।
राणा दूसरी बार भी हारकर पहाड़ों में चला गया, फिर चौदह मन सोना और दो हाथी लेकर कुतुबशाह गुजरात को लौट गया। महमूद खिलजी पर इस द्वितीय मालवा विजय की उपलक्ष में कुम्भा ने बदनोर भीलवाड़ा में कुशाल माता का मंदिर बनवाया।
कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
स्थापत्य:- राजस्थान स्थापत्य का जनक कुम्भ को माना जाता है। भारत में स्थापत्य का स्वर्ण काल शाहजहाँ (ताजमहल, लालकिला, (दिल्ली) दिवाने आम, दिवाने खास, जामा मस्जिद (दिल्ली) तख्त-ए-ताउस बनवाया) के समय को माना जाता है। मारवाड़ में सर्वाधिक दुर्ग मालदेव ने व मेवाड़ में कुम्भा ने बनवाए। वीर विनोद ग्रन्थ के लेखक श्यामलदास के अनुसार मेवाड़ में 84 में से 32 दुर्ग कुम्भा ने बनवाए।
- कुम्भलगढ़ - राजसमंद
- अचलगढ़ दुर्ग - सिरोही
- बंसत्ती दुर्ग - सिरोही
- बैराठ दुर्ग - बदनौर, व्यावर
- भीमठ दुर्ग - बाड़मेर
- मचान दुर्ग - सिरोही
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग - चित्तौड़ दुर्ग चित्रंग/चित्रंगद मौर्य ने बनवाया परन्तु चित्तौड़ का आधुनिक निर्माता कुम्भा को माना जाता है। कुंभा ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत भी करवाई थी।
कुंभा द्वारा निर्मित मंदिर
- कुंभ स्वामी मंदिर : कुंभा ने अपने प्रत्येक दुर्ग में कुंभ स्वामी (विष्णु) का मंदिर बनवाया था। यह मंदिर पंचायतन शैली में बने है।
- श्रृंगार चबेरी मंदिर : कुम्भा की पुत्री रमा बाई विदुषी महिला थी, इन्हे वागीश्वरी भी कहा जाता है। बाद में रमा बाई को जावर परगना दिया गया। ऐसा मानते है कि यह कुंभा की पुत्री रमा बाई के विवाह की चंवरी थी जिसे कुंभा के समय ही 17वें जैन तीर्थकर शांतिनाथ के मंदिर के रूप में तब्दील कर दिया। ये चित्तौड़ दुर्ग में स्थित है।
- रणकपुर के जैन मंदिर (पाली) कुंभा के समय दो भाई जैन व्यापारी धरणकशाह धन्ना व रत्ना ने इसका निर्माण करवाया था। इसका डिजाइन देपाक ने तैयार किया था। रणकपुर के जैन मंदिरों को त्रिलोक दीपक घाटियों का मंदिर, स्तम्भों का वन (1444 खम्भे है) भी कहते हैं। ये मंदिर मथाई नदी के किनारे है।
- मीरा मंदिर (पहले श्याम मंदिर) चित्तौड़ दुर्ग में स्थित कुंभ श्याम मंदिर को ही मीरा मंदिर बना दिया गया किन्तु इसका निर्माण कुंभा ने ही करवाया था।
साहित्यिक उपलब्धियाँ
कुंभा स्वयं एक अच्छा वीणा वादक था (औरंगजेब व समुद्रगुप्त भी वीणा वादक थे, अकबर नगाड़ा वादक था) सारंग व्यास कुभां के संगीत गुरु थे।
कुम्भा द्वारा लिखे ग्रंथ
संगीत राज - संगीत का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ इसमें संगीत की तीनों विधाओं गीत, वाद्य व नृत्य का समावेश है।
संगीत राज के पाँच भाग है-
- पाठ्य रत्न कोष
- गीत रत्न कोष
- नृत्य रत्न कोष
- वाद्य रत्न कोष
- रस रत्न कोष।
- संगीत सुधा-
- संगीत मीमांसा-
- कामराज रतिसार - कुम्भा के कामशास्त्र पर लिखी पुस्तक इसके 7 भाग है।
- सुड़ या सुधा प्रबंधा-
कुम्भा द्वारा लिखी टीका
रसिक प्रिया- जयदेव के गीत गोविन्द पर कुंभा द्वारा रचित टीका। कुंभा ने संगीत रत्नाकर पर भी टीका लिखी। कुम्भा ने चण्डीशतक की व्याख्या की।
कुंभा के दरबारी विद्वान
- कान्हा व्यास - कुंभा के सर्वश्रेष्ठ दरबारी कवि, संगीत शास्त्र के ज्ञाता तथा एकलिंग माहात्म्य ग्रंथ के रचनाकार। एकलिंग माहात्म्य का प्रथम भाग रागवर्णन नाम से कुम्भा ने लिखा था। सारंग व्यास व रमा बाई भी विद्वानों की श्रेणी में थे।
- अत्रि व महेश - दोनों पिता-पुत्र, संस्कृत विद्वान जिन्होंने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति की रचना की। महेश ने कुंभलगढ़ प्रशस्ति की रचना की। इन्हें अभिकवि भी कहते है।
- मण्डन - गुजराती ब्राह्मण खेता का पुत्र, कुंभा का सर्वश्रेष्ठ शिल्पी, कुंभलगढ़ दुर्ग का शिल्पीकार कुंभा के समय बनाई गई इमारतों का निर्माण मण्डन के वास्तुशास्त्र के अनुसार हुआ था। कुंभलगढ़ दुर्ग का शिल्पी मण्डन ही था।
मण्डन के ग्रंथ
राजवल्लभ - नागरिकों के आवासीय ग्रहों, राजाप्रसाद एवं नगर रचना का विषद विवेचन हुआ है। इसके 14 भाग है।
प्रासाद मण्डन - देवालय तथा महल निर्माण कला सम्बंधी
वास्तुमण्डन व वास्तुकार - वास्तु कला का विस्तारित वर्णन
कोदंड मण्डन - धनुर्विद्या सम्बन्धी
शकुन मण्डन - शकुन व अपशकुन सम्बन्धित
वैद्य मण्डन - रोग व उनके निदान सम्बन्धित
रूप मण्डन तथा देवमूर्ति प्रकरण - मूर्ति निर्माण व प्रतिमा स्थापना सम्बधित।
नाथा (मण्डन का छोटा भाई) : प्रमुख ग्रंथ - वास्तु मंजरी
गोविन्द (मण्डन का पुत्र) - इसने वास्तुकला संबंधि उद्धार धोरणी, कलानिधि (मंदिरों के शिखर की जानकारी) व द्वार दीपिका, सारसमुच्च (आयुर्वेद की जानकारी) जैसे ग्रंथों की रचना की। जैन विद्वानों में सोम सुन्दर, मुनि सुन्दर, भुवन सुन्दर व सोमदेव थे।
कुंभा की पुत्री रमाबाई - कुंभा की पुत्री रमाबाई भी विदुषी महिला थी। इन्हें वागेश्वरी भी कहा जाता है। इनका विवाह सोरठ जूनागढ़ के यादव राजा मंडलीक से हुआ था।
रायमल के समय रमाबाई वापस मेवाड़ आ गई थी, क्योंकि रमाबाई का पति उसे दुःख देता था। इसकी जानकारी मिलने पर पृथ्वीराज गिरनार गया व सोते हुए मंडलीक को दबाया।
मंडलीक प्राणों की भिक्षा मांगने लगा जिस पर उसके कान का एक कोना काटकर उसे छोड़ दिया। फिर वह रमाबाई को मेवाड़ साथ ले आया, व रमाबाई ने अपनी शेष जीवन मेवाड़ में ही बिताया। महाराणा रायमल ने उसे खर्च के लिए जावर का परगना दिया। जावर में रमाबाई ने विशाल रामकुंड और उसके तट पर रामस्वामी का एक विष्णु मन्दिर बनवाया।
तिला भट्ट
हीरानन्द मुनि- कुम्भा के गुरु
कुम्भा के दरबारी विद्वान- सोमदेव सूरि, सोम सुन्दर सूरि, जयशेखर, भुवन कीर्ति
महाराणा कुंभा की मृत्यु
महाराणा कुंभा को अन्तिम दिनों में उन्माद रोग हो गया था। जिसमें वे बहकी बहकी बाते करते थे। उस समय उनके उन्माद रोग होने के विषय में ऐसी प्रसिद्धि है कि एक दिन उसने एकलिंग जी के मन्दिर में दर्शन करने को जाते समय उस मंदिर के सामने एक गौ को जम्हाते हुए देखा, जिससे उसका चित उठ गया और कुंभलगढ़ आने पर वह 'कामधेनु तंडव करिय' पद का बार-बार पाठ करने लगे।
जब कोई इस विषय में पूछता तो यही कहते 'कामधेनु तंडव करिय'। सब सरदार आदि महाराणा के इस उन्माद रोग से बहुत घबराये। कुछ समय पहले महाराणा ने एक ब्राह्मण की इस भविष्यवाणी पर कि आप एक चारण के हाथ से मारे जायेंगे, सब चारणों को अपने राज्य से निकाल दिया था।
एक चारण नै, जो गुप्तरूप से एक राजपूत के पास रहा करता था, उससे कहा कि मैं महाराणा का यह उन्माद रोग दूर कर सकता हूँ। अगले दिन वह सरदार उसे अपने साथ दरबार में ले गया। जब अपने स्वभाव के अनुसार महाराणा ने वही पद कहा, तब उस चारण ने मारवाड़ी भाषा का यह छप्पय पढ़ा-
जब धर पर जोवती दीठ नागोर धरंती
गायत्री संग्रहण देख मन मांहि डरती।
सुरकोटी तेतीस आण नीरन्त चारों
नहिं चरंत पीवंत मनह करती हंकारो।।
अर्थ- नागौर में गोहत्या होती देखकर गायत्री (कामधेनु) बहुत डर रही थी, तैंतीस करोड़ देवता उसके लिए घास और पानी लाते थे, परन्तु वह न खाती और न पीती थी। जब से राणा कुंभा ने मुगलों को मारकर व नागौर को जीतकर गौओं की रक्षा की, तब से गाय भी प्रसन्न होकर शंकर के द्वार पर तांडव करती है।
महाराणा ये छप्पय सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उसे कहा कि तू राजपूत नहीं, चारण है। उसने उत्तर दिया हाँ, मैं चारण हूँ। आपने हम लोगों की जागीरें छीनकर हम निरपराधियों को देश से निकाल दिया है, इसलिए यह प्रार्थना करने आया हूँ कि कृपा कर हमें जागीर वापस देकर अपने देश में आने की आज्ञा प्रदान कीजिये। कुंभा ने उसकी बात स्वीकार कर ली और वैसी ही आज्ञा दे दी। तब से महाराणा ने वह पद कहना तो छोड़ दिया, परन्तु उन्माद रोग बना ही रहा।
एक दिन कुम्भलगढ़ दुर्ग में मामादेव कुण्ड पर कुम्भा के पुत्र उदा ने कुम्भा की हत्या कर दी।
कुंभा का मूल्यांकन
कर्नल टॉड के अनुसार "कुंभा में महाराणा हम्मीर की शक्ति लाखा का कला प्रेम व प्रतिभा थी। इसने घग्घर के तट पर भी मेवाड़ के झण्डे को स्थापित कर प्रतिष्ठा प्राप्त की।"
हरविलास शारदा ने लिखा है कि- "कुंभा एक महान शासक सेनाध्यक्ष, महान विद्वान था, कुंभा राजस्थान ही नहीं भारतीय शासकों में भी अग्रणीय है।"
डॉ. ओझा लिखते हैं, "कुंभा जितना वीर व युद्धकुशल था उतना ही विद्यानुरागी व विद्वान था। कुंभा सिसोदिया शाखा के राजाओं में बड़ा ही प्रतापी हुआ।"
उदा/उदयसिंह (1468 ई. से 1473 ई. तक)
उदा को मेवाड़ का पितृहन्ता कहा जाता है, पितृहन्ता होने के कारण मेवाड़ के राजपूत सरदारों ने इसे स्वीकार नहीं किया।
सरदारों ने राव चूड़ा के पुत्र कांधल की अध्यक्षता में फैसला किया कि उदा के छोटे भाई रायमल को राणा बनाएगें, रायमल उस समय अपने ससुराल ईडर में था, रायमल को वहाँ से बुलाया व सेना सहित ब्रह्म की खेड़ ऋषभदेव होते हुए जावर पहुँचा, जावर के पास युद्ध हुआ व रायमल की विजय हुई।
इसके बाद दाड़िगंपुर में युद्ध हुआ, यहाँ भी रायमल की विजय हुई। इसके बाद रायमल ने चित्तौड़ को जीत लिया, उदा भागकर कुंभलगढ़ आ गया और उसके बाद कुंभलगढ़ से भी उसे भगा दिया।
यहाँ से उदयसिंह/उदा अपने पुत्रों सेसमल व सूरजमल सहित अपने ससुराल सोजत गया। उसके बाद कुछ दिन बीकानेर में रहा, उसके बाद मांडु के सुल्तान ग्यासशाह/ग्यासुद्दीन की शरण में चला गया। यहाँ पर बिजली गिरने से उसकी मृत्यु हो गई।
राणा रायमल (1473 ई. से 1509 ई. तक)
रायमाल के 11 रानियों 13 पुत्र व 2 पुत्रियाँ थी। प्रमुख पुत्र पृथ्वीराज, जयमल, संग्रामसिंह (सांगा), ऊता व रायसिंह थे।
रायमल ने सुथार अर्जुन की देख रेख में एकलिंग मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया, व रामशंकर, समयासंकट नामक तीन तालाब भी बनवाये।
उत्तराधिकारी युद्ध
रायमल के समय इनके पुत्रों में उत्तराधिकारी युद्ध प्रारम्भ हो गया, एक दिन पृथ्वीराज जयमल व संग्रामसिंह ने अपनी जन्म पत्री एक ज्योतिष को दिखाई। उसने कहा राज योग संग्रामसिंह के लिखा है। इसलिए मेवाड़ का स्वामी संग्रामसिंह ही बनेगा।
इस पर नाराज होकर पृथ्वीराज ने संग्रामसिंह पर तलवार से वार किया जिससे संग्रामसिंह की एक आंख फुट गई। रायमल के चाचा सारंगदेव ने कहा कि ज्योत्तिपी के कथन पर विश्वास न करके राजयोग किसको मिलेगा इसके लिए हम भीमलगाँव की चारणी के पास चलते है, जो देवी का अवतार मानी जाती है।
तब तीनों भाई पृथ्वीराज, जयमल व संग्रामसिंह अपने चाचा सारंग देव के साथ चारणी के पास गये। उसने भी कहा भावी राणा संग्रामसिंह ही बनेगा। पृथ्वीराज व जयमल दूसरों के हाथों मारे जाएगें।
यह बात सुनकर पृथ्वीराज व जयमल ने संग्राम सिंह को मारना चाहा, यहाँ से संग्राम घोड़े पर सवार होकर भागा। जयमल ने उसका पीछा किया संग्रामसिंह संवंत्री गाँव पहुँचा। यहाँ राठौड़ बीदा ने शरण दी, जयमल अपने साथियों सहित पहुँचा।
बीदा ने सांगा को गौड़वार की तरफ भेज दिया व बौदा जयमल से लड़ता हुआ मारा गया।
उसके बाद सांगा श्रीनगर (अजमेर) कर्मचन्द पंवार के यहाँ शरण ली, कर्मचन्द को जब पता चला कि ये मेवाड़ का राजकुमार है, तब उसने अपनी पुत्री का विवाह संग्रामसिंह से किया, संग्रामसिंह जब राणा बना तब उसने कर्मचन्द का अहसान उतारने के लिए उसे जागीर दी व 'रावत' की उपाधि दी व बबोई गाँव की जागीर दी।
जयमल की मृत्यु
टोडा का शासक सोलंकी राव सुल्तान था, टोडा (केकड़ी) पर लल्ला खाँ ने अधिकार कर लिया। राव सुल्तान अपने पुत्री ताराबाई के साथ रायमल की शरण में आ गया, रायमल ने उसे बदनोर की जागीर दी, रायमल को पुत्री ताराबाई की सुन्दरता का वर्णन सुनकर जयमल ने राव सुल्तान से कहा आपकी पुत्री बहुत सुन्दर है ऐसा सुना है, आप उसे मुझे दिखा दे तो मैं उससे विवाह कर लें।
सुल्तान ने कहा राजपूतों की पुत्री पहले दिखाई नहीं जाती, आप विवाह करना चाहते है तो मुझे स्वीकार है, जयमल ने कहा जैसा मैं चाहता हूँ वैसा आपको करना होगा, जयमल ने बदनौर पर चढ़ाई कर दी, राव सुल्तान ने महाराणा का नमक खाया है यह लिहाज समझकर लड़ाई न करके बदनोर से चला गया। जगमल उसका पीछा करते हुए अकडेसाधा गाँव के निकट सुल्तान के पास पहुँच गया।
राव सुल्तान का साला सांखला रत्नसिंह व जयमल के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें रतनसिंह व जयमल लड़ते हुए दोनों मारे गये। राव सुल्तान वापस रायमल की शरण में आया व सारी कहानी बताई रायमल ने कहा आप निदर्दोष हो आपको इसमें कोई गलती नहीं है।
राव सुल्तान ने कहा मैं अपनी पुत्री ताराबाई का विवाह उसी से करूंगा जो मुझे टोडा वापस दिलाएगा।
कुँवर पृथ्वीराज ने टोडा के लल्ला खाँ पर आक्रमण किया व उसे मार दिया। लल्ला खाँ की सहायता के लिए अजमेर का सूबेदार मल्लू खाँ, लल्लू खाँ की सहायता के लिए आया।
पृथ्वीराज ने मल्लू खाँ को मार दिया व अजमेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया, सुल्तान को टोडा वापस दिला दिया इसे शर्त के तहत ताराबाई से विवाह कर लिया अजमेर दुर्ग का नाम ताराबाई के नाम पर तारागढ़ कर दिया।
पृथ्वीराज की मृत्यु
कुंभलगढ़ दुर्ग में मामादेव मंदिर के सामने उसका दाह संस्कार किया गया। कुंभलगढ़ दुर्ग में पृथ्वीराज की बारह खम्बों की छतरी है। पृथ्वीराज की बहन आनन्दा बाई का विवाह सिरोही के राव जगमाल से हुआ जगमाल, पृथ्वीराज की बहन को दुख देता था।
पृथ्वीराज जगमाल को समझाने के लिए सिरोही गया, वापस आते समय जगमाल ने जहर मिली हुई 3 गोलियों दी व कहा ये गोलियाँ बहुत अच्छी हैं इन्हें खा लेना, कुंभलगढ़ के निकट पृथ्वीराज ने ये गोलियाँ खायी, यहाँ इसकी मृत्यु हो गई।
पृथ्वीराज को 'उडणा' पृथ्वीराज भी कहते हैं। क्योंकि कुंभलगढ़ दुर्ग की विशाल दीवार पर दिन में भागकर कई चक्कर लगा लेता था। कुंभलगढ़ दुर्ग में पृथ्वीराज की दोहरी छतरियाँ हैं।
अजमेर के प्रशासन का संचालन करते समय पृथ्वीराज ने अजमेर दुर्ग के कुछ भागों का निर्माण करवाकर दुर्ग का नाम अपनी पत्नी तारा के नाम पर तारागढ़ कर दिया।
बनवीर जिसने विक्रमादित्य/विक्रमसिंह की हत्या की थी, जो पृथ्वीराज की पासवान रानी का पुत्र था।
महर्षि/राजमाता - मुख्य रानी
खवासल/पासवान - वह पड़दायल जिसे राजा द्वारा आभूषण पहनने की इजाजत दे दी जाती थी। यह मुख्य रानी के बाद प्रमुख होती थी।
पड़दायल - जिस डावड़ी को राजा उप-पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेते थे उसे पड़दायल कहा जाता था।
डावड़ी दावड़ी - वह दासी जी राजा की पत्नी तो होती थी किन्तु पत्नी का दर्जा प्राप्त नहीं था, ये राजपूत राजकुमारियों के साथ अक्सर दहेज में प्राप्त होती थी।
चित्तौड़ी बेगम
1503 ई. में मालवा शासक नसीरूद्दीन ने मेवाड़ पर आक्रमण कर रायमल के सामंत भवानीदास की पुत्री को उठाकर शादी कर ली। यही इतिहास में चित्तौड़ी बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुई।
सुरजमल राणा कुंभा के छोटे भाई खेमकरण का पुत्र था। जिसने कांठल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यही प्रतापगढ़ राज्य है।
महाराणा संग्राम सिंह/सांगा (1509 ई. से 1528 ई.)
उपनाम- टॉड ने 'सैनिकों का भग्नावशेष' कहा, व हिन्दूपथ या हिन्दूपति।
जब रायमल बीमार हो गए तो उन्हें सूचना मिली कि संग्राम सिंह श्रीनगर (अजमेर) के कर्मचंद पंवार के यहाँ है।
रायमल ने दूत भेजा कर्मचंद व संग्रामसिंह चित्तौड़ आए तथा कर्मचंद को जागीर दी। कर्मचंद के वंशजों के पास आज भी बंबोरी नामक गाँव है। इनके वंशज मेवाड़ में 21 सरदारों में से प्रमुख है।
रायमल की मृत्यु के बाद 4 मई 1509 संग्राम सिंह मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। सिंहासन पर बैठने के बाद सांगा ने कर्मचंद को अजमेर की जागीर, 'रावत' की उपाधि व प्रथम श्रेणी के सरदारों में शामिल किया।
नोट
हिन्दू सुल्तान कुंभा को व हिन्दू बादशाह मालदेव को, प्रबल हिन्दू राजा राणा हम्मीर को, हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को कहा जाता है।
मालवा से संघर्ष
1511 ई. में मालवा शासक नसीरूद्दीन की मृत्यु के बाद महमूद खिलजी-।। सुल्तान बना। किन्तु अमीरों ने उसके छोटे भाई साहिब खाँ को सुल्तान बना दिया, महमूद खिलजी चंदेरी के राजपूत शासक मेदितिराय के सहयोग से पुनः मालवा का शासक बन गया।
कुछ दिनों बाद मालवा के अमीरों ने मेदिनिराय के विरुद्ध महमूद खिलजी को भड़काया। महमूद गुजरात के शासक मुजफ्फर शाह की शरण में चला गया।
इधर मेदिनिराय राणा सांगा से मदद के लिए गया किन्तु महमूद ने गुजरात शासक के साथ मिलकर मेदिनिराय के पुत्र नत्थू व उसके परिवार को माण्डु में मार डाला।
दिल्ली सल्तनत के साथ संघर्ष
सांगा जब राजगद्दी पर बैठा उस समय दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोदी था। 1517 ई. में सिकंदर लोदी की मृत्यु हो गई।
दिल्ली के सिंहासन पर उसका पुत्र इब्राहिम लोदी सुल्तान बना। इब्राहिम लोदी को सांगा के आक्रमण की सूचना मिली तो वह सेना लेकर मेवाड़ की ओर चला।
1. खातौली (कोटा) का युद्ध (1517 ई.)
इब्राहिम लोदी की सेना सांगा की सेना का मुकाबला नहीं कर सकी, 6 घंटे की लड़ाई के बाद ही सेना भाग खड़ी हुई तथा इब्राहिम लोदी भी मैदान से भाग गया। इब्राहिम लोदी के एक शहजादे को सांगा ने कैद कर लिया बाद में कुछ धन लेकर वापस छोड़ दिया।
इस युद्ध में सांगा का बायाँ हाथ कट गया, एक तीर लगने से वह हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया। लम्बी चिकित्सा के बाद संग्राम सिंह स्वस्थ हुए तब उन्होंने एक उत्सव में सभी सरदार व उमराओं को बुलाया। महाराणा ने सभी का स्वागत किया। परन्तु रिवाज के अनुसार दोनों हाथ छाती तक न उठाकर महाराणा ने दाहिना हाथ सिर तक उठाया व स्वागत किया। दरबारी अचम्भित हुए, सब सरदार अपने अपने स्थान पर बैठ गए। महाराणा सिंहासन पर न बैठकर सरदारों के साथ जमीन पर ही बैठ गए। तब सलुम्बर के रावत रतनसिंह ने महाराणा से रिवाज के विरूद्ध सम्मान न करने और सिंहासन छोड़कर धरती पर बैठकर मेवाड़ के पुरानी रिवाज का उल्लंघन करने का कारण पूछा।
इस पर महाराणा खड़े हो गए जिससे दूर तक उनकी आवाज सुनाई दे और कहा- भारत में एक प्राचीन रिवाज है, जब मूर्ति टूट जाए या खण्डित हो जाए तो मूर्ति पूजा योग्य नहीं रहती उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति स्थापित की जाती है। सिंहासन भी प्रजा की दृष्टि से पूजनीय है इस पर बैठने वाला व्यक्ति भी पूर्ण होना चाहिए।
मेरे एक आँख नहीं है, एक हाथ व एक पाँव काम नहीं करता इस कारण मैं अपने आपको सिंहासन के योग्य नहीं समझता तो मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ जिसे आप योग्य समझें उसे सिंहासन पर बैठाएँ और मुझे जीवन निर्वाह के लिए कुछ जागीर दे दें। ये सुनकर सरदारों ने कहा ये आपके घाव रणक्षेत्र में हुए हैं घाव तो वीरों के आभूषण होते हैं। आपने तो साहस व पराक्रम से मेवाड़ को विजय बनाया है तो राजसिंहासन के सबसे योग्य आप ही हैं। मेड़ता के राजा बीरमदेव व अन्य सरदार उठ खड़े हुए व महाराणा को सिंहासन पर बैठा दिया।
2. बाड़ी (धौलपुर) का युद्ध (1518 ई.)
इब्राहिम लोदी खातौली की हार को बरदाश्त नहीं कर सका। तब उसने अपने मुख्य सेनापति मियां हुसैन, मियां खान खाना फरमूली, हाँजी खाँ, दौलत खाँ, युसुफ खाँ आदि के नेतृत्व में अभियान सांगा के विरुद्ध भेजा। इस युद्ध में भी महाराणा की विजय हुई राजपूतों ने सुल्तान की भागती हुई सेना का बयाना तक पीछा किया।
इसके बाद मालवा के कुछ क्षेत्र पर सांगा ने अधिकार कर लिया। इसमें चंदेरी पर भी सांगा का अधिकार हो गया जिसे सांगा ने मेदिनी राय को सौंप दिया।
मालवा के साथ सांगा का संघर्ष
मालवा का शासक महमूद खिलजी द्वितीय था। जबकि वास्तव में सत्ता मुगल उमराव के गुट के हाथ में थी जो खिलजी को महत्त्व नहीं देते थे। इस कारण खिलजी को डर लगने लगा तो वह मांडू भाग आया।
मुहाफिज खाँ की अध्यक्षता में सरदारों ने महमूद खिलजी के भाई साहिबजादा साहिब खाँ को मालवा का सुल्तान बना दिया। मालवा के राजपूत मेदिनी राय ने महमूद खिलजी की सहायता की और वह सुल्तान का मुख्य सेनापति हो गया।
जब महमूद खिलजी राजधानी की ओर चला तब साहिबजादा साहिब खाँ की सेना ने खिलजी का सामना किया। मेदिनी राय की सहायता से महमूद खिलजी विजय हुआ तथा उसे मालवा वापस मिल गया। खिलजी ने मेदिनी राय को मालवा का प्रधानमंत्री बनाया।
मेदिनी राय को प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण दरबार में लोग इससे जलने लगे। मेदिनी के विरुद्ध दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी व गुजरात के मुजफ्फर खाँ द्वितीय से सहायता मांगी यह कहकर कि मालवा हिन्दुओं का राज्य है, खिलजी तो नाममात्र का शासक है।
चंदेरी के अधिपति बोहजत खाँ ने विद्रोह किया और सुल्तान महमूद खिलजी के भाई साहिबजादा खाँ को विद्रोह का नेता बनने चंदेरी बुलवाया।
चंदेरी पहुँचने पर बीहजत खाँ और मालवे का एक दूसरा बागी मसूर खाँ साहब खाँ से मिला और सुल्तान महमूद के नाम से मालवे का बादशाह बना बोजत खाँ उसका वजीर बना। इधर सुल्तान सिकंदर लोदी ने भी इमादुलमुल्क व सहिद खाँ की अध्यक्षता में 12,000 सैनिक मालवा दिलाने के लिए साहिब खाँ की सहायता के लिए भेजे। गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर भी विद्रोहियों की सहायता के लिए रवाना हुआ। मेदिनी राय ने सब विद्रोहियों पर विजय हासिल की, दिल्ली व गुजरात के सुल्तानों की सेनाओं को हराया।
मेदिनी राय ने भिलसे का शासक सिकंदर खाँ जो विद्रोह में शामिल था इसके विरुद्ध मलिक लाडू को भेजा। स्वयं सुल्तान महमूद के साथ गुजरात सेना का सामना करने के लिए पहुँचा। मुजफ्फर शाह पर आक्रमण किया, मुजफ्फर शाह अहमदाबाद भाग गया। गुजरात को हराकर मेदिनी राय चंदेरी की ओर चला, यहाँ भी विद्रोह को दबाया, सिकंदर लोदी ने अपनी सेना को वापस दिल्ली बुला लिया।
मुहाफिज खाँ व ख्वाजाजहाँ की अध्यक्षता में शहजादे साहिब खाँ ने मांडू को घेर लिया। मेदिनी राय ने बड़ी सेना को मांडू भेजा नालछा के पास युद्ध हुआ जिसमें मुहाफिज खाँ मारा गया विद्रोही पूर्ण रूप से हार गए। साहिब खाँ ने संधि कर ली, इस प्रकार मेदिनी राय ने महमूद खिलजी के शत्रुओं को हराया।
हारे हुए सरदारों ने महमूद खिलजी के मन में मेदिनी राय के विरुद्ध द्वेष भावना भरने लगे। और खिलजी को मेदिनी राय को मारने के लिए तैयार कर दिया। सुल्तान ने मेदिनी राय को मारना चाहा, घायल होकर मेदिनी राय शिविर में आ गया।
इसके बाद मेदिनी राय मांडू में अपनी सेना छोड़ महाराणा सांगा के पास सहायता के लिए चित्तौड़ आया, महाराणा मेदिनी राय की सहायता करने के लिए तैयार हुए।
महाराणा ने गागरोन चंदेरी के परगने मेदिनी राय को दिऐ। मेदिनी राय का बेटा भीमराज गागरोन रहने लगा। महमूद खिलजी ने 1519 ई. में सेना लेकर गागरोन की ओर रवाना हुआ।
गागरोन जागीर सांगा ने मेदिनी राय को दी थी। इस कारण सांगा महमूद खिलजी को दण्ड देने के लिए चित्तौड़ से मेड़ता के राव बीरमदेव की अध्यक्षता में स्वयं महाराणा आगे बढ़े।
महमूद खिलजी के साथ आसफ खाँ के नेतृत्व में गुजरात की सेना थी, महमूद खिलजी की इसमें हार हुई, आसफ खाँ भाग गया व उसका बेटा मारा गया, महमूद खिलजी को कैद कर लिया उसे चित्तौड़ ले आये, इतिहास में यह युद्ध गागरोन के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है, जो 1519 ई. में हुआ था। महमूद 3 माह तक कैद में रखा।
जब खिलजी के घाव अच्छे हो गए व वह स्वस्थ हो गया तब उसे वापस छोड़ दिया। महाराणा महमूद खिलजी के साथ अच्छा बरताव करते थे।
एक दिन जब महमूद खिलजी बैठा था, महाराणा कुछ फूल लेकर आये, महाराणा एक फूल खिलजी को देने लगे तो खिलजी ने कहा कोई चीज देने के दो मार्ग है-
प्रथम अपना हाथ ऊँचा कर अपने छोटे को दे। दूसरा अपना हाथ नीचा कर बड़े से ले। तब नजर करने का यहाँ सवाल ही नहीं है क्योंकि मैं तो पहले से ही आपका बंदी हूँ, मैं भिखारी की तरह फूलों के लिए अपना हाथ पसारूँ यह मुझे शोभा नहीं देता, तब महाराणा ने कहा मैं तुझे फूलों के साथ तेरा मालवा बापस दे रहा हूँ।
खिलजी ने खुश होकर हाथ फैलाकर फूल ले लिये। महाराणा ने उसे मांडू की राजगद्दी पर वापस बैठाया, सुल्तान ने होशंग का रत्न जडित मुकुट व कमर पेटी महाराणा को भेंट की।
महाराणा ने जामनी के रूप में खिलजी के एक बेटे को चित्तौड़ में ही रख लिया।
गुजरात से संघर्ष
सांगा व गुजरात संघर्ष का प्रमुख कारण ईडर राज्य के उत्तराधिकार की समस्या को लेकर था। ईडर शासक भानु की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र सूरजमल शासक बना।
18 महीने बाद उसकी मृत्युपरान्त उसका पुत्र रायमल अल्पवयस्क था। अतः सूरजमल के छोटे भाई भीम को शासक बना दिया।
कुछ महिनों बाद भीम भी मर गया। तब भीम का पुत्र भारमल गद्दी पर बैठा इस समय तक रायमल वयस्क हो चुका था। रायमल ने सांगा के सहयोग से ईडर राज्य को प्राप्त कर लिया।
भारमल ने मुजफ्फर शाह (गुजरात) के सहयोग से पुनः ईडर राज्य प्राप्त कर लिया। मुजफ्फर शाह ने ईडर राज्य से जाते समय एक जानवर का नाम सांगा रखकर उसे नगर के प्रवेश द्वार पर बाँध कर चला गया। जब इस घटना की सूचना महाराणा को पहुंची तो वे गुजरात की ओर रवाना हुऐ।
गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर खाँ ने महाराणा के आने की सूचना सुनकर निजामुलमुल्क की सहायता के लिए असदुलमुल्क, गाजीखाँ, शेफखां की अध्यक्षता में सेना भेजी।
मुजफ्फर खाँ ने अपनी राजधानी अहमदाबाद को हाकीम निजाममुलमुल्क को लड़ाई का भार सौंपकर स्वयं महाराणा मुहम्मदाबाद चला गया, 40,000 सैनिकों के साथ महाराणा रवाना हुए, बागड़ पहुँचे। डूंगरपुर से उदयसिंह भी महाराणा के साथ मिल गए, 7000 सेना के साथ जोधपुर से राव गांगा, 5000 राजपूतों के साथ मेड़ता से बीरमदेव भी महाराणा की सहायता के लिए आ गया।
बागड़ से महाराणा ईडर पहुँचे। निजाममुलमुल्क को पता चला सांगा इडर आ रहा तो वह भाग कर अहमदनगर चला गया। महाराणा ने इडर रायमल को सौंप दिया।
महाराणा ने अहमद नगर किले को घेर लिया। किला जीतने के लिए डूंगरसिंह चौहान के पुत्र कान्हसिंह ने दरवाजे के आगे लगे तीखी कीलों के सामने खड़े हो गए व हाथियों से दरवाजा तुड़वाया, बीर गति को प्राप्त हुआ तथा निजाममुलमुल्क भाग गया। और महाराणा विजय होकर वापस चित्तौड़ लौट आए।
सुल्तान मुजफ्फर खाँ ने इस हार का बदला लेने के लिए 1520 ई. में सुल्तान मलिक हयाज को मेवाड़ भेजा।
डूंगरपुर से होते हुए, सेना बाँसवाड़ा पहुँची व मालवा के मंदसोर के किले को घेर लिया जो महाराणा के अधीन था, किले का हाकिम अशोकमल मारा गया। महाराणा सेना लेकर चित्तौड़ से नन्दसाना गाँव (मंदसौर के नजदीक) पहुँचे।
महाराणा की सहायता के लिए चंदेरी का मेदिनी राय व रायसेन से सलहदी तंवर भी आ गया मलिक हयाज ने संधि कर ली व गुजरात वापस चला गया। सांगा व मुजफ्फर के मध्य 1521 ई. को युद्ध हुआ जिसमें मुजफ्फर शाह बिना सफल हुए गुजरात लौट आया।
बाबर का भारत में आगमन
बाबर काबुल/फरगना का शासक था। बाबर में दो वंशों के खून का मिश्रण था।
पिता- उमर शेख मिर्जा तुर्क तैमूर लंग का पाँचवां वंशज था तथा माता कुतलगनिगार बेगम के पिता युनुस खान मंगोल चंगेज खाँ के 14वें वंशज थे। बाबर ने सर्वप्रथम 1519 ई. में भारत के भैरा व बाजौर क्षेत्रों पर आक्रमण किया था।
ये अभियान बाबर का युसुफजाई जाति के विरुद्ध था। बाबर को भारत में आमंत्रण पंजाब के सुबेदार दौलत खाँ लौदी व आलम खाँ लोदी (इब्राहिम लोदी का चाचा) ने इब्राहिम लोदी के विरूद्ध दिया था। बाबर ने अपनी पुस्तक बाबर नामा में लिखा है कि मुझे भारत में निमंत्रण महाराणा सांगा ने दिया, कहा कि आप दिल्ली को जीत लेना और मुझे आगरा दे देना।
पानीपत का आक्रमण बाबर का पाँचवां आक्रमण था, बाबर ने 12000 सैनिक लेकर सिंधु नदी पार की। बाबर ने पंजाब को आसानी से जीत लिया, रास्ते में सैनिक उससे मिलते गए।
बाबर जब पानीपत के मैदान में पहुंचा तब लगभग इसके पास 70000 सैनिक थे। 21 अप्रैल 1526 ई- बाबर व इब्राहिम लोदी के मध्य पानीपत का प्रथम युद्ध हुआ। इब्राहिम लोदी मैदान में मारा गया। युद्ध क्षेत्र में मारा जाने वाला सल्तनत काल का इब्राहिम लोदी प्रथम शासक था।
पानीपत में तोप खाने का नेतृत्व उस्ताद अली व मुस्तफ कर रहे थे, युद्ध में तोपखाना व तुलगमा पद्धति का प्रयोग हुआ।
बाजोर व भेरा भारत का प्रथम युद्ध था जिसमें तोपखाने का प्रयोग हुआ, जबकि पानीपत भारत का प्रथम निर्णायक युद्ध था जिसमें तोपखाने का प्रयोग हुआ।
युद्ध जीतने के बाद बाबर ने काबुल में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सिक्का भेजा व सैनिकों में सिक्के बटवाए व 'कलंदर' की उपाधि धारण की। बाबर ने भारत में मुगल वंश की नींव रखी।
बाबर के पूर्व के वंशज मिर्जा की उपाधि लगाते थे, बाबर ने काबुल विजय के बाद 'बादशाह' की उपाधि धारण की थी विजय के बाद बाबर ने दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया।
बाबर व संग्रामसिंह (सांगा)
बाबर ने दिल्ली व आगरा पर अधिकार करने के बाद सांगा के साथ युद्ध की तैयारियों में लग गया। बाबर जानता था कि भारत में संग्राम सिंह के होते हुए वह शासन नहीं कर सकता।
बाबर ने सांगा के बयाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया, बयाना दुर्ग का हाकिम निजाम खाँ सांगा का जागीरदार था। बाबर का बयाना के दुर्ग पर अधिकार करना सांगा को सीधी चुनौती देना था, महाराणा संग्राम सिंह ने तुकों को बाहर निकालने की तैयारियाँ शुरू कर दी। बाबर व सांगा दोनों ही शक्तिशाली थे।
सांगा का जन्म 1482 ई. व बाबर का 1483 ई. में हुआ था। सांगा वीरता में प्रबल था तो बबर अधिक राजनैतिक व अधिक लड़ाका व चतुर सेनापति था। सांगा में प्रतिष्ठा, वीरता, साहस, सेना अधिक थी तो बाबर के पास चालाकी, मन लगाकर लड़ना, व धार्मिक उत्साह अधिक था।
संग्रामसिंह की तैयारियाँ
पाती परवन: ये एक राजपूती परम्परा है जिसमें युद्ध में जाने से पहले अन्य शासकों की सहायता के लिए निमंत्रण भेजा जाता है।
खानवा युद्ध में सांगा के सहयोगी
सांगा ने बाबर के विरूद्ध राजपूत राज्यों का एक संगठन बनाया जिसमें निम्न शासक थे-
मारवाड़ के शासक राव गंगा का पुत्र मालदेव 3000 सवार लेकर 'राठौड़ी सेना' का नेतृत्व किया।
मेड़ता से रत्न सिंह (मीरा का पिता) व रायमल (दूदा के पुत्र) ये भी राव गांगा की ओर से लड़ने आये थे।
बीरमदेव मेड़तिया 4,000 सवार
बीकानेर से जैतसिंह का पुत्र कल्याणमल
चंद्रभान चौहान 4,000 सवार
सलहदी का पुत्र भूपतराय 6,000 सवार
मानिकचंद चौहान 4,000 सवार
दिलीप राय 4,000 सवार
कर्मसिंह 3,000 सवार
डूंगरसिंह 3,000 सवार
नागौर का खानजादा
सिकंदर लोदी का पुत्र महमूद लोदी व आलम खाँ 10,000 सवार
आमेर के पृथ्वीराज कच्छवाह
चंदेरी से मेदिनीराय 12,000 सवार
बागड़ डूंगरपुर का उदयसिंह 12,000 सवार
सलूम्बर के रत्नसिंह
नरसिंह देव (सांगा का भतीजा)
चन्द्रभान चौहान व मणिकचन्द चौहान
रावत जोगा
नरबद हाड़ा (बूंदी के रामनारायण दास का छोटा भाई व सूरजमल का चाचा) ये बूँदी की सेना का नेतृत्व कर रहा था।
काठियावाड़ सादड़ी क्षेत्र के झाला अज्जा
सादड़ी का झाला अजा
मेवात के हसन खाँ मेवाती 10,000 सवार (सांगा का मुस्लिम सेनापति)
देवालिया का बाथसिंह
शत्रुसेन खिलजी 6,000 सवार
जगनेर (आगरा-उ.प्र.) से अशोक परमार (सांगा ने इसे खानवा युद्ध में सहायता करने के कारण बिजौलिया की जागीर दी। ये बिजौलिया ठिकाणे का संस्थापक माना जाता है। बिजौलिया [माण्डलगढ़ में सांगा का स्मारक इसी ने बनवाया था)
इडर का भारमल 4,000 सवार
नरबद हाड़ा 7,000 सवार
रायसीन का सलहदी तंवर 30,000 सवार (रायसीन व खानजादा दोनों सांगा से विश्वासघात कर बाबर की तरफ मिल गए)
स्वयं सांगा के पास 100,000 सवार थे। ये संख्या बाबरनामा के अनुसार है। इस तरह बाबर के अनुसार सांगा के पास 2,22,000 सेना थी।
बाबर ने यह सेना अतिश्योक्ति पूर्ण बता दी है जो विश्वासयोग्य नहीं है।
अकबर के बख्शी निजामुद्दीन ने अपनी पुस्तक 'तबकाते अकबरी' में सांगा की सेना 1,20,000 बताई है व शाहनवाज खाँ ने 'मआसिरूल उमरा' में 1,00,000 सेना बतायी है। टॉड के अनुसार सांगा के साथ 7 राजा, 9 राव व 104 सरदार थे।
बयाना युद्ध (16 फरवरी 1527 ई.)
सांगा जब बयाना पहुँचा तब बयाना शासक निजाम खाँ डरकर बाबर की शरण में चला गया। बाबर ने बयाना दुर्ग मेहंदी ख्वाजा को सौंपा। सांगा ने बड़ी आसानी से बयाना जीत लिया, मेहंदी ख्वाजा यहाँ से भाग गया। यहाँ से किस्मती, शाह मंसूर व बर्लास जब भागकर बाबर के पास पहुँचे तो उन्होने राजपूती सेना की पराक्रम की प्रशंसा की।
बाबर की तैयारियाँ
आगरा के पास बाबर युद्ध की तैयारियों में लग गया। तोपखाने आदि ठीक करने लगा, भारतीय मुसलमानों को बाबर पर विश्वास नहीं था, तो वह तुर्क सरदारों को व शहजादे हुमायूँ को जोधपुर से बुलवा लिया। बाबर ने सोचा कहीं सांगा सीकरी पर अधिकार न कर ले क्योंकि वहाँ की जल व्यवस्था अच्छी थी।
बाबर ने किस्मती व दरवेश मोहम्मद सारवान को सीकरी भेजा तथा स्वयं वहाँ पहुँचकर मोर्चे बन्दी करने लगा। यहाँ बयाना से हाकीम मेहंदी ख्वाजा सांगा से हारकर बाबर के पास आ गया। अब्दुल अजीज बाबर का मुख्य सेनापति था, सीकरी से खानवा पहुँचा।
सांगा ने इस पर हमला किया। बाबर ने इसकी सहायता के लिए मुहिब अली खलीफा, मुल्ला हुस्सेन की अध्यक्षता में सेना भेजी। राजपूतों ने वीरता दिखाई, मुल्ला नयामत, मुल्ला दाउद मारे गए।
महाराणा के इस प्रकार के साहस को सुनकर बाबर के सैनिक निराश होने लगे। इन्हीं दिनों काबुल से सुल्तान कासिम हुसैन और अहमद युसूफ 500 सैनिकों के साथ बाबर के पास आये थे। इनके साथ एक ज्योतिष मोहम्मद सरिफ आया था।
इसने भविष्यवाणी की कि मंगल का तारा पश्चिम में है इस कारण आप पूर्व दिशा में जिस व्यक्ति से लड़ोगे आपकी पराजय होगी इससे सेना और ज्यादा निराश हो गई।
बाबर अपनी पुस्तक में लिखता है कि सभी सैनिक भयभीत थे। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो बहादुरी की बात करे। सेना को उत्साहित करने के लिए मेने खाइयाँ खुदवाई, सात-सात आठ-आठ गज की दूरियों पर गाड़ियाँ खड़ी करवा के इन्हें जंजीरों से बंधवाया। इन तैयारियों को 20-25 दिन लग गए।
मैनें शेख जमाली को इस उद्देश्य से मेवात भेजा कि हसन खाँ मेवाती सांगा को छोड़कर मेवात आ जाये। बाबर ने युद्ध से पूर्व अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए कभी शराब न पीने की सौगंध खाई। शराब की सोने चाँदी की सुराहियाँ व बर्तनों को फकीरों में बंटवाया, एक मुसलमान की तरह कभी दाढ़ी नहीं कटवाउंगा की कसम खायी, सैनिकों व व्यापारियों पर लगने वाले 'तमगा' कर को हटाया।
बाबर ने सेना को उत्साहित करने के लिए सभी सैनिकों को बुलाकर कहा "सरदारों व सिपाहियों, जो व्यक्ति संसार में आता है, वह अवश्य ही मरता है इसलिए बदनाम होकर जीने की अपेक्षा प्रतिष्ठा से मरना अच्छा है, मैं भी चाहता हूँ कि कीर्ति के साथ मेरी मृत्यु हो, परमात्मा ने हम पर बड़ी कृपा की है, इस लड़ाई में हम मरेंगे तो 'शहीद' होंगे और जीतेंगे तो 'गाजी' (काफिरों को मारने वाला) कहलायेंगे। इसलिए सभी कुरान पर हाथ रखकर कसम खाओ कि प्राण रहते हुए कोई भी युद्ध में पीठ नहीं दिखाएगा।"
बाबर ने युद्ध से पहले जिहाद (धर्म युद्ध) का नारा दिया व खानवा की ओर रवाना हुआ।
खानवा का युद्ध (रूपवास तह. भरतपुर) (17 मार्च, 1527 ई.)
बाबर ने मैदान में खाइयाँ खुदवाई। तोपों को जंजीरों से बाँध दिया। युद्ध में बाबर के तोपची मुस्तफा रूमी व उस्ताद अली थे। ये दोनों ही बाबर के तोपखाने के मुख्य अधिकारी थे। तोपों के पीछे बाबर की सेना कई भागों में विभक्त होकर खड़ी थी। सेना का अग्रभाग (हरावल भाग) दो भागों में बांटा गया।
दक्षिणी भाग सुलेमान शाह, युनस अली, शाह मंसूर आदि के नेतृत्व में व बायें भाग का नेतृत्व अलाउद्दीन लोदी, शेख जयीन, मुहिब अली और शेरखां आदि कर रहे थे। इन दोनों के पीछे सेना के साथ घोड़े पर बाबर खड़ा था। हरावल सेना से दक्षिणी पार्श्व में हुमायूँ के नेतृत्व में मीर हामा, खानखाना दिलावर खां, कासीम हुसैन व हिंदू वेग आदि की सेनाएँ थी।
हुमायूँ की सेना के निकट इराक का राजदूत सुलेमान आका व सीस्तान का हुसैन आका युद्ध देखने के लिए खड़े थे। युद्ध में बाबर ने तुलगमा पद्धति का प्रयोग किया। तुलगमा पद्धति में दुश्मन सेना को घेरकर मारा जाता है। इस पद्धति से सांगा के सैनिक अपरिचित थे। तुलगमा पद्धति में दाहिनी ओर मलिक कासिम और बाबा कश्का नेतृत्व कर रहे थे व बायीं ओर मुमीन आतांक और रूस्तम तुर्कमान नेतृत्व कर रहे थे। 17 मार्च, 1527 सुबह 9:30 बजे युद्ध प्रारम्भ हुआ।
राजपूतों ने सर्वप्रथम मुगलों के दक्षिणी पार्श्व पर आक्रमण किया जिससे मुगल सेना का यह पार्श्व कमजोर हो गया। बाबर ने तुरन्त सहायता भेजी, यहाँ समय पर अगर सहायता नहीं पहुँचती तो मुगलों की हार निश्चित थी।
चिनतीमूर सुल्तान ने सांगा के वाम पार्श्व के मध्य भाग पर हमला किया, जिससे मुगलों का दक्षिणी पार्श्व नष्ट होने से बच गया। चिनतीमूर के इस हमले से राजपूतों के अग्र भाग व वाम पार्श्व के मध्य ज्यादा अंतर हो गया। जिसका फायदा उठाकर मुस्तफा ने तोपों के गोलों से वर्षा कर दी, जिस कारण मुगलों के दक्षिण पार्श्व सेना को सम्भलने का मौका मिल गया। मुगलों का दक्षिण पार्श्व विशेष ध्यान होने के कारण राजपूतों ने वाम पार्श्व पर हमला किया, उसी समय एक तीर आकर महाराणा के सर पर लगा। महाराणा युद्ध भूमि में मूर्छित हो गए।
महाराणा को न पाकर कहीं सेना निराश न हो जाए इस कारण कुछ सरदारों ने रावत रतनसिंह (सलूम्बर) को सांगा का राजचिह्न धारण करने को कहा। रतनसिंह ने कहा मेरे पूर्वज मेवाड़ राज्य छोड़ चुके हैं इसलिए मैं राजचिह्न धारण नहीं कर सकता लेकिन जो राजचिह्न धारण करेगा उसकी पूर्ण रूप से सहायता करूंगा और प्राण रहने तक दुश्मनों से लडूंगा। झाला अज्जा मेवाड़ का राज चिह्न धारण करके युद्ध का संचालन करने लगा।
इसकी स्मृति में झाला अज्जा के वंशधर सादड़ी के महाराणा के समस्त राज चिह्न धारण करने का अधिकार चला आ रहा है। अज्जा के नेतृत्व में सारी सेना युद्ध करने लगी।
वीर विनोद व टॉड आदि लिखते हैं कि युद्ध के समय रायसिंह का सलहदी तंवर जो महाराणा की हरावल सेना में था, सांगा से विश्वासघात करके बाबर की तरफ मिल गया व नागौर के खानजादा ने भी सांगा से विश्वासघात किया। वाम पार्श्व पर राजपूतों के आक्रमण को देखकर वाम पाश्वं पर मुमीन आतांक व रूस्तम तुर्कमान ने आक्रमण किया। बाबर ने इनकी सहायता के लिए ख्वाजा हुसैन की अध्यक्षता में एक और सेना भेजी।
अब तक युद्ध अनिश्चयात्मक रूप से चल रहा था, एक तरफ बाबर तोप चला रहा था, दूसरी तरफ राजपूत मुगलों को मार रहे थे, तो बाबर ने तुलगमा सेना को घेरने के लिए आदेश दिया व उस्ताद अली को तोप के गोले बरसाने का हुक्म दिया।
तोपों के पीछे बन्दूक लिए जो सैनिक थे, उन्हें राजपूतों के अग्र भाग पर हमला करने का आदेश दिया। बाबर ने बंदूक चलाना इरानियों से सीखा था।
तोप व बंदूक की इन मार से राजपूतों का अग्र भाग कमजोर हो गया। राजपूतों की इस अवस्था को देखकर बाबर की हरावल सेना तोप खाने सहित आगे बढ़ने लगी, इस अचानक आक्रमण से राजपूतों में खलबली मच गई, वे अग्र भाग की तरफ जाने लगे, फिर सचेत होकर मुगलों के दोनों पार्श्व पर हमला किया और राजपूत बाबर के निकट पहुँच गए।
इस समय तोप के गोलों ने मुगलों की सहायता की, तोप के गोलों के आगे राजपूत ठहर नहीं सके और पीछे हटे। अब राजपूत चारों ओर से घिर गये, राजपूतों ने तलवार व भालों से सामना किया परन्तु चारों ओर से घिर जाने व तोप के गोलों की वर्षा के आगे राजपूतों का संहार होने लगा।
उदयसिंह, हसनखाँ मेवाती, माणिकचन्द चौहान, चन्द्रभान चौहान, झाला अज्जा, रतनसिंह चूड़ावत, रायमल राठौड़, रतन सिंह मेड़तिया, गोकुलदास परमार, रामदास सोनगरा आदि युद्ध में मारे गये। सांगा की हार हुई, मुगल सेना ने शिविर तक उनका पीछा किया।
बाबर ने राजपूतों के सिरों की एक मीनार बनाई व 'गाजी' उपाधि धारण की। अब बाबर बयाना की ओर चला 3 दिन बाद यहाँ पहुँचा। बाबर की शक्ति कमजोर हो गई थी। वह दोबारा सांगा से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने ग्रीष्म ऋतु प्रारम्भ होने का बहाना देकर युद्ध स्थगित कर दिया।
महाराणा सांगा की हार का प्रमुख कारण बयाना युद्ध के बाद बाबर को तैयारी का मौका देना था, अगर महाराणा बयाना के बाद सीधे आगरा जाकर बाबर पर आक्रमण कर देते तो शायद उनकी निश्चित ही जीत होती, राजपूतों ने वीरता से युद्ध किया लेकिन राजपूत पुरानी पद्धति से युद्ध लड़ रहे थे, इन्हें तुलगमा पद्धति का ज्ञान नहीं था इस कारण चारों ओर से घिर गये।
राजपूतों के पास तोप व बंदूक नहीं थी फिर भी वे वीरता से लड़ते रहे इस कारण उनका बहुत नुकसान हुआ। महाराणा हाथी पर बैठकर युद्ध करने आये ये भी उनकी भूल थी।
हाथी पर बैठा होने के कारण दुश्मनों ने सीधा निशाना लगाकर महाराणा को घायल कर दिया जिस कारण सेना में निराशा आ गई।
इस हार से राजपूतों का जो प्रभाव शिखर पर पहुँच गया था वह अचानक से कम हो गया। भारत में राजपूतों का राजनीतिक रूप से अब उच्च स्थान न रहा, इस युद्ध में राजपूतों की शायद ही कोई ऐसी शाखा ही जो इस युद्ध में शहीद न हुई हो, इस युद्ध का एक परिणाम ये भी हुआ कि मेवाड़ की प्रतिष्ठा व शक्ति के कारण राजपूतों का जो संगठन बना था वह टूट गया और इस युद्ध से एक परिणाम यह भी हुआ कि भारत वर्ष में मुगल राज्य स्थापित हो गया
स्थिर रूप से बाबर भारत वर्ष का बादशाह बन गया, परन्तु इस युद्ध के बाद बाबर भी इतना कमजोर हो गया कि राजपूतों पर चढ़ाई करने की हिम्मत न कर सका। इस युद्ध के बाद सांगा के मेवाड़ राज्य की सीमा पिलिया खाल/पिला खाल नदी तक थी जो अब काणीता व बसवा तक रह गई।
महाराणा सांगा रणथम्भौर पहुंचे
महाराणा जब युद्ध में मूर्छित हुए तो उन्हें सिरोही के अखेराज, मालदेव आदि की देखरेख में बसवा (दौसा) लाया गया।
यहाँ महाराणा को होश आया तो उन्होंने पूछा सेना कहाँ है, किसकी जीत हुई। राजपूतों ने सारा वृत्तांत बताया तब महाराणा नाराज हुए कि मुझे युद्ध भूमि से बाहर क्यों लेकर आए और महाराणा ने यहीं युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दी, सरदारों ने इन्हें युद्ध न करने व चित्तौड़ चलने को कहा, तब महाराणा ने कहा जब तक मैं बाबर को नहीं हरा दूंगा चित्तौड़ नहीं जाऊंगा।
इसके बाद महाराणा रणथम्भौर आ गए, महाराणा यहाँ निराश रहते थे किसी से मिलते-जुलते भी नहीं थे।
एक दिन टोडरमल चाचल्या नामक एक चारण ने महाराणा को वीर रस की कविता सुनाई व इन्हें खुश किया, महाराणा ने चारण को बकान गाँव की जागीर दी, जो उनके वंशजों के पास आज भी है। महाराणा ने बाबर से युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ कर दी।
महाराणा सांगा की मृत्यु
खानवा युद्ध के बाद राजपूत हार गये परन्तु उनकी शक्ति कमजोर नहीं हुई, बाबर को डर था कहीं राजपूत दोबारा एक होकर उस पर आक्रमण नहीं कर दें, इस कारण उसने राजपूतों की शक्ति को कमजोर करने के लिए चंदेरी के मेदिनीराय पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ।
चंदेरी के मेदिनीराय ने खानवा युद्ध में सांगा की सहायता की थी, मेदिनीराय को मालवा राजाओं का निर्माता भी कहा जाता है। चंदेरी पर आक्रमण करने के लिए दिसम्बर, 1527 को आगरा से चला व 1 जनवरी, 1527 को कालपी पहुँचा, फिर इरिच व केचुआ होता हुआ 20 तारीख को चंदेरी पहुंचा।
जब महाराणा को यह सूचना मिली कि बाबर मेदिनीराय पर आक्रमण करने के लिए जा रहा है तो सांगा मेदिनीराय की सहायता के लिए इरिच पहुँचे, यहाँ महाराणा के मंत्रियों ने उन्हें जहर दे दिया जो युद्ध करने के विरोधी थे।
कुछ समय बाद कालपी के पास 30 जनवरी, 1528 को महाराणा का स्वर्गवास हो गया और इस तरह हिन्दुपति महाराणा सांगा की जीवन लीला समाप्त हुई। बाबर लिखता है- "महाराणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर बहुत शक्तिशाली हो गया था। मालवा, गुजरात व दिल्ली के सुल्तानों में से एक भी ऐसा नहीं था जी अकेला उसे हरा सके।"
उसका मुल्क 10 करोड आमदनी का, उसकी सेना में 1 लाख सवार थे। सांगा के साथ 7 राजा, 9 राव व 104 सरदार रहते थे, सांगा के उत्तराधिकारी भी उसी की तरह होते तो मुगलों का राज्य भारत में जम नहीं पाता"। बाबर ने जनवरी, 1528 में चंदेरी का युद्ध भी जीत लिया, इस युद्ध को भी बाबर ने 'जिहाद' घोषित कर दिया।
सांगा के उत्तराधिकारी
1. भोजराज
भोजराज का जन्म सोलंकी रायमल की पुत्री कुंवर बाई से हुआ, ये सांगा का बड़ा पुत्र था। इसका विवाह मेड़ता के राव दूदा की पोत्री व रतनसिंह की पुत्री मीरा राठौड़ से हुआ।
भोजराज की मृत्यु विवाह के सात वर्ष बाद खानवा युद्ध में हो गई। मीरा गुजरात के रणछोड़ मंदिर में विलीन हो गई थी, मीरा को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है। टॉड ने भूलवश मीरा को कुम्भा की पत्नी लिख दिया है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार भोजराज की मृत्यु खातौलो युद्ध में हुई थी।
2. राणा रतनसिंह द्वितीय (1528-31 ई.)
महाराणा सांगा के बाद मेवाड़ की राज गद्दी पर राणा रतनसिंह बैठे। रतनसिंह जोधपुर के राव जोधा के पोते बागासुजावत की पुत्री धनकुंवर की संतान थे।
सांगा के देहान्त के समय सांगा की पत्नी हाड़ी रानी कर्मावती अपने दोनों पुत्र विक्रमादित्य व उदयसिंह के साथ रणथम्भौर में थी। रणथम्भौर की जागीर सांगा ने विक्रमादित्य व उदयसिंह को दे दी थी। रणथम्भौर जागीर की आय लगभग 50 से 60 लाख रूपये थी, ये जागीर सांगा ने रतनसिंह की इच्छा के विरूद्ध दी थी, इस कारण रतनसिंह को यह अखरता था।
महाराणा सांगा ने रणथम्भौर की जागीर दोनों भाईयों को देकर सूरजमल को उनका संरक्षक बनाया था। हाड़ी रानी कर्मावती विक्रमादित्य को मेवाड़ का राणा बनाना चाहती थी, इसके लिए उसने अपने भाई सूरजमल से बात की व बाबर की सहायता लेने की योजना बनाई।
महाराणा रतनसिंह व बूंदी का हाड़ा सूरजमल के बीच ज्यादा मनमुटाव हो गया इस कारण महाराणा ने छल से उसे मारने की योजना बनाई।
नैणसी लिखता है "राणा रतनसिंह शिकार खेलता हुआ बूँदी के नजदीक पहुँचा व वहाँ सूरजमल को भी बुलवाया, सूरजमल जानता था कि राणा मुझे मारने के लिए बुला रहा है तब उसने अपनी माता खेतु से पूछा जो राठौड़ वंश से थी कि जाऊं या नहीं, इस पर माता ने कहा कि बेटा हम तो सदैव राणा के सेवक रहे हैं हमने काई अपराध नहीं किया जो राणा तुम्हारा वध करे।
तुम राणा के पास जाओ और उसकी सेवा करो सूरजमल माता की आज्ञा लेकर चला। बूँदी व चित्तौड़ की सीमा के पास गोकर्ण तीर्थ नामक गाँव में आकर मिला।
राणा ने ऊपरी मन से आदर किया व 'सूर भाई' कहकर सम्बोधन किया। एक दिन सुबह सूरजमल के साथ राणा शिकार पर निकले राणा ने अपने नौकर पूरणमल को सूरजमल पर वार करने को कहा परन्तु उसकी हिम्मत नहीं हुई तब राणा ने तलवार से उस पर वार किया। सूरजमल ने रतनसिंह पर वार किया दोनों लड़ते हुए मारे गये। राणा रतनसिंह का दाहसंस्कार पाटण में हुआ।
3. राणा विक्रमसिंह (1531-36 ई.)
रतनसिंह की मृत्यु होने के कारण उसका भाई विक्रमादित्य मेवाड़ का राणा बना।
वह शासन करने के अयोग्य था व दरबार में 7000 पहलवान रखता था जिन पर वह अधिक विश्वास करता था व सरदारों का मजाक उड़ाता था जिससे सरदार नाराज होकर अपने अपने ठिकानों में चले गये।
बहादुर शाह का चित्तौड़ पर प्रथम आक्रमण (1534 ई.)
मेवाड़ की कमजोर स्थिति को देखकर बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण की योजना बनाई व रायसेन के किले को घेर लिया, ये किला सलहदी के भाई लक्ष्मण सिंह के पास था।
रायसेन से जीतने के बाद बहादुर शाह ने चित्तौड़ दुर्ग को घेर लिया। यहाँ बहादुर शाह का मुख्य सेनापति रूमी खाँ था। इसने किले की दीवारों को तोपों से उड़ाने का प्रयास किया।
भयभीत होकर विक्रमादित्य की माता कर्मावती ने संधि का प्रस्ताव भेजा व कहा कि महमूद खिलजी से लिए मालवा के जिले, उसकी जड़ाऊ, सोने की कमर पेटी वापस दे दी जाएगी। इसके अतिरिक्त 10 हाथी, 100 घोड़े व नगद भी दिया जाएगा, सुल्तान ने घेरा उठा लिया व चित्तौड़ से वापस चला गया।
बहादुर शाह का चित्तौड़ पर दूसरा आक्रमण (1535 ई.)
मुहम्मद जमान को हुमायूँ ने बिहार का स्थायी गवर्नर बनाया था। इसने मुहम्मद सुल्तान मिर्जा के साथ मिलकर जुलाई 1534 में विद्रोह कर दिया जिसमें ये दोनों पराजित हुए।
मुहम्मद जमान को हुमायूँ ने कैद करके बयाना के किले में भेजा व अन्धा करने की आज्ञा दी, लेकिन मुहम्मद जमान एक जाली फरमान जारी करके भाग गया।
नवम्बर, 1534 ई. में गुजरात के बहादुर शाह की शरण में चला गया, हुमायूँ ने बहादुर शाह से मुहम्मद जमान को वापस माँगा, बहादुर शाह ने मना कर दिया इसके अलावा बहादुर शाह ने आलम खाँ लोदी व बहुत से मुगल विरोधी अफगान शत्रुओं को शरण दे रखी थी।
बहादुर शाह एक मजबूत शासक बन गया था क्योंकि इसने मालवा 1531, रायसेन 1532, चित्तौड़ 1533, आदि को पराजित कर चुका था। बहादुर शाह के पास कुस्तुनतुनिया का प्रसिद्ध तोपची रूमीखाँ भी इसके पास था।
जिससे इसको सैनिक शक्ति मजबूत हो गई थी, बहादुर शाह दिल्ली के राजगद्दी पर बैठने का सपना देख रहा था। बहादुर शाह ने सुल्तान तातार खाँ के नेतृत्व में हुमायूँ के विरुद्ध बयाना दुर्ग को जीतने के लिए भेजा। हुमायूँ ने अस्करी व हिंदाल को तातार खाँ के विरुद्ध भेजा, इन्होंने तातार खाँ को मंडरायल में मार दिया।
अब हुमायूँ ने बहादुर शाह को पूर्णतः नष्ट करने की योजना बनाई व रवाना हुआ। इस बात का पता जब बहादुर शाह को लगा तो इसने चित्तौड़ दुर्ग को जीतकर अपनी शक्ति मजबूत करने की सोची। मांडू से चित्तौड़ के लिए रवाना हुआ।
दुर्ग जीतकर रूमीखाँ को दुर्ग का हाकीम बनाने का वचन देकर दुर्ग को घेर लिया। उधर हुमायूँ भी बहादुर शाह से लड़ने के लिए चित्तौड़ की ओर बढ़ा।
इधर कर्मावती ने हुमायूँ को सहायता के लिए राखी भेजी, हुमायूँ सहायता के लिए चला व ग्वालियर में रुका, जब इस बात का पता जब बहादुर शाह को चला तो हुमायूँ कर्मावती की सहायता के लिए आ रहा है तो बहादुर शाह ने हुमायूँ को पत्र लिखा और कहा कि मैं इस समय 'जिहाद' (धर्म युद्ध) पर हूँ इस समय तुम हिंदुओं की सहायता करोगे तो खुदा को जाकर क्या जवाब दोगे, तुम एक मुसलमान हो तुम्हें जिहाद के बीच में नहीं आना चाहिए।
बहादुर शाह ने इस युद्ध को चुपके से जिहाद घोषित करके हुमायूँ को 'ग्वालियर' में रोक दिया, फिरिश्ता के अनुसार हुमायूँ सारंगपुर में रुका था।
विक्रमादित्य से नाराज होकर जो सरदार अपने अपने ठिकानों पर चले गये थे। उन सब सरदारों को कर्मावती ने पत्र लिखा व कहा "अभी तक तो चित्तौड़ राजपूतों के अधिकार में ही था। शायद अब निकलने का समय आ गया है, मैं दुर्ग तुम्हें सौंपती हूँ तुम इसे रखो या शत्रुओं को सौंप दो माना कि तुम्हारा स्वामी अयोग्य है। लेकिन वंश परम्परा में तुम्हारा ही है, ये दुर्ग शत्रुओं के हाथ में जाने से अपकीर्ति आप की भी होगी।"
हाड़ोरानी कर्मावती का यह पत्र पाकर राणा के व्यवहार से जो सरदार नाराज थे उनमें देश प्रेम की भावना उमड़ी वे चित्तौड़ की रक्षा के लिए कर्मावती के पास आ गए। देवलिए का रावत बाघ सिंह, सांईदास रतनसिंह चूड़ावत, हाड़ा अर्जुन, सोनगरा माला, डोडिया भाण, भेरोदास सौलंकी, झाला सिंहा, झाला सज्जा आदि सब सरदारों ने मिलकर विचार किया कि बहादुर शाह के पास सेना अधिक है इसलिए इन्होंने महाराणा विक्रमादित्य व उदयसिंह को ननिहाल बूँदी भेज दिया व चित्तौड़ का नेतृत्व बाघ सिंह ने सम्भाला।
किले का मुख्य नेतृत्व बाघ सिंह के पास था, किले के मुख्य दरवाजे भैरोपोल की जिम्मेदारी स्वयं बाघसिंह ने सम्भाली, हनुमान पोल पर भैरवदास सौलंकी, गणेश पोल पर झाला सज्जा व उसका भतीजा राजराणा सिंहा ने नेतृत्व लिया व युद्ध प्रारम्भ कर दिया।
लेकिन दुश्मनों के पास गोला-बारूद व यूरोपियन अफसर पोरचुगीज होने के कारण बहादुर शाह का पलड़ा भारी था। उसी समय बोका खोह की तरफ सुरंग के द्वारा दीवार टूट गई जिसमें अर्जुन हाड़ा मारा गया। बहादुर शाह ने तोप आगे करके पाण्डु पोल, सूरजपोल, लाखोटीबारा की तरफ हमला किया, राजपूतों ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिये सभी सरदार वीर गति को प्राप्त हुए। बाघ सिंह के नेतृत्व में केसरिया हुआ और हाड़ी रानी कर्मावती के नेतृत्व में जौहर हुआ।
मार्च, 1535 ई. में चित्तौड़ का दूसरा साका पूर्ण हुआ। हुमायूँ ने अंधविश्वासी होने के कारण राजपूतों की सहायता नहीं की, ये हुमायूँ को एक बड़ी भूल थी। यहाँ हुमायूँ राजपूतों की सहायता कर देता तो शायद हुमायूँ को दरदर की ठोकरें नहीं खानी पड़ती, शेरशाह के विरुद्ध राजपूत भी उसकी रक्षा करते।
ख्यातों के अनुसार इस साके में 32 हजार राजपूत वीर गति को प्राप्त हुए व 13 हजार रानियों ने जौहर किया था।
विक्रमादित्य का चित्तौड़ पर पुनः अधिकार
बहादुर शाह ने चित्तौड़ जीतकर वचन के मुताबिक रूमीखाँ को नहीं सौंपा। रूमीखां ने नाराज होकर हुमायूँ को गुप्त पत्र लिखा, शीघ्र आएं आपकी विजय हो सकती है। हुमायूँ के आने की सूचना पाकर बहादुर शाह थोड़ी सी सेना चित्तौड़ छोड़कर हुमायूँ से लड़ने मंदसौर की ओर चला।
यहाँ से भागकर बहादुर शाह माण्डू चला गया, हुमायूँ ने माण्डू दुर्ग को घेरा। यहाँ से बहादुर शाह चम्पानेर चला गया, हुमायूँ ने चम्पानेर दुर्ग को घेर लिया, इसके बाद बहादुर शाह पुर्तगालियों के पास चला गया वहाँ से लौटते समय समुद्र में मारा गया।
इसकी मृत्यु के साथ ही शेखजीऊ की भविष्यवाणी 'तेरे नाश के साथ ही चित्तौड़ का नाश होगा' सही सिद्ध हुई।
बहादुर शाह के हारने के समाचार सुनकर चित्तौड़ में रखी उसकी सेना भागने लगी, मौका देखकर मेवाड़ सरदारों ने सेना इकट्ठी करके चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिससे बहादुर शाह की शेष सेना भी भाग गई और सरदारों ने विक्रमादित्य व उदयसिंह को बूँदी से वापस बुलवा लिया।
विक्रमादित्य की हत्या
इतना सब कुछ होने के बाद भी विक्रमादित्य के चाल चलन में कोई सुधार नहीं आया। सरदारों के साथ उसका व्यवहार पहले जैसा ही था। सरदार नाराज होकर ठिकानों में चले गए, इस स्थिति में उड़णा राजकुमार पृथ्वीराज की पासवान रानी का पुत्र बनवीर चित्तौड़ आया और 1536 ई. में विक्रमादित्य की हत्या कर दी।
उस समय विक्रमादित्य की उम्र 19 वर्ष थी व उदयसिंह को मारना चाहा तब पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह को चित्तौड़ से सुरक्षित बाहर निकाला। बनवीर मेवाड़ का राणा बनकर शासन करने लगा।
नोट
जब उदयसिंह को पन्नाधाय ने बचाया उस समय टॉड लिखता है कि उदयसिंह की उम्र 6 वर्ष थी और उसे एक फल के टोकरे में रखकर बारी जाति के एक नौकर द्वारा किले से बाहर भिजवाया। ये स्वीकार योग्य नहीं है। सांगा की मृत्यु के समय उदयसिंह की उम्र 6 वर्ष थी, इस समय उनकी उम्र 15 वर्ष थी।
उदयसिंह का चित्तौड़ पर अधिकार
उदयसिंह को लेकर पन्नाधाय देवलिये के रावत रायसिंह के पास पहुँची रायसिंह ने बनवीर के डर से इसे डूंगरपुर भेज दिया। डूंगरपुर से पन्नाधाय वापस कुम्भलगढ़ आयी।
यहाँ आशा महाजन के संरक्षक में उदयसिंह को कुम्भलगढ़ छोड़ दिया। थोड़े दिनों में यह बात सब जगह फैल गई कि उदयसिंह जिन्दा है, बनवीर ने कहा कि उदयसिंह को तो मैंने मार दिया, ये बात सत्य नहीं हुई क्योंकि उस समय उदयसिंह की उम्र 15 वर्ष थी।
कई सरदार उसे पहचानते थे व चित्तौड़ के दूसरे साके के समय वह अपने ननिहाल बूँदी में था, उसके ननिहाल वाले भी उदयसिंह को पहचानते थे।
कुठारिया के रावत खाँ ने कुम्भलगढ़ पहुँचकर रावत सांईदास चूड़ावत (चूड़ा का वंशज) आमेट का जग्गा चूड़ावत (फत्ता का पिता), बागौर से रावत सांगा आदि सरदारों को बुलवाया, इन सरदारों ने मिलकर उदयसिंह को मेवाड़ की राजगद्दी पर बिठाया व नजराना किया, ये घटना 1537 ई. की मानी जाती है।
सभी सरदारों ने मिलकर पाली के अखैराज सोनगरा को उसकी पुत्री का विवाह उदयसिंह से करने को कहा।
अखैराज ने कहा- "मैं विवाह तो कर दूँ, परन्तु उदयसिंह के बारे में ये अफवाह फैली है, कि बनवीर ने उसे मार दिया, ये कोई नकली उदयसिंह है, यदि आप सब सरदार उदयसिंह का जूठा हुआ खा लें तो मैं अपनी पुत्री का विवाह कर दूँ।"
अखैराज की शंका दूर करने के लिए सब सरदारों ने उदयसिंह का जूठन खाया। यह रिवाज तभी से मेवाड़ में प्रारम्भ हो गया, इसके बाद अखैराज ने अपनी पुत्री जैवन्ता बाई का विवाह उदयसिंह से कर दिया।
उदयसिंह सभी सरदारों को बुलाकर व अपने ससुर अखैराज सोनगरा, कुंपा महराजोत आदि के सहयोग से बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ की ओर चला, इधर से बनवीर ने कुंवरसी तंवर के नेतृत्व में उदयसिंह के मुकाबले के लिए भेजी।
माहोली गाँव के पास दोनों सेनाओं के मध्य मुकाबला हुआ। जिसमें कुंवरसी तंवर मारा गया व उदयसिंह की विजय हुई, वहाँ से चलकर उदयसिंह ने चित्तौड़ को घेरा, चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की।
बनवीर के बारे में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, कुछ जगह उल्लेख आता है कि मारा गया व कुछ जगह उल्लेख आता है कि वह भाग गया। 1540 में उदयसिंह अपने पैतृक राज्य का स्वामी बन गया।
महाराणा उदयसिंह (1537-72 ई.)
उदयसिंह व मालदेव के मध्य विवाद
झाल्ला सज्जा का पुत्र जैत्त सिंह किसी कारण जोधपुर के मालदेव के पास चला गया था, मालदेव ने उसे खैरवाँ की जागीर दी। जैत्त सिंह ने अपनी पुत्री स्वरूप देवी का विवाह मालदेव से कर दिया।
एक दिन मालदेव अपने ससुराल खैरवां आया हुआ था, वहाँ स्वरूप देवी की छोटी बहन जो अत्यंत सुन्दर थी उससे विवाह करने का जैत्तसिंह से प्रस्ताव रखा, जैत्त सिंह ने विवाह के लिए इन्कार कर दिया। तब मालदेव ने कहा कि मैं जबरदस्ती विवाह कर लूँगा, अधिक दबाव बढ़ने के कारण जैत्तसिंह ने कहा मैं दो माह में विवाह कर दूँगा।
जैत्तसिंह अपनी पुत्री व घरवालों को लेकर कुम्भलगढ़ के पास गुढ़ा गाँव आ गया, जैत्तसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह उदयसिंह से कर दिया।
स्वरूप देवी उस समय पीहर में थी, उसने अपनी बहन को विदा करते समय दहेज में जो गहने का डिब्बा दिया, परन्तु जल्द बाजी के कारण गहनों के डिब्बों के स्थान पर वह डिब्बा चला गया जिसमें राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची माता की मूर्ति थी, जब ये डिब्बा खोला गया तो उसमें नागणेची माता की मूर्ति निकली जिसने महाराणा ने पूजा करने के लिए रखवाया, तभी से भाद्रपद शुक्ल सप्तमी व माघ शुक्ल सप्तमी को मेवाड़ में नागणेची माता के पूजन का रिवाज प्रारम्भ हो गया।
स्वरूप देवी की बहन अर्थात मालदेव की साली से उदयसिंह ने विवाह कर लिया मालदेव ने नाराज होकर कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया, जिसमें मालदेव की हार हुई।
महाराणा उदयसिंह व शेरशाह सूरी
गिरी सुमेल युद्ध में शेरशाह की विजय हुई। शेरशाह ने जोधपुर व अजमेर पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद वह दक्षिण में मेवाड़ की ओर मुड़ गया, जब शेरशाह चित्तौड़ से 12 कोस दूर रहा तब महाराणा उदयसिंह ने दुर्ग की चाबियाँ शेरशाह के पास भिजवा दी।
शेरशाह ने ख्वास खाँ के छोटे भाई मियां अहमद सरवानी को चित्तौड़ छोड़कर आगे निकल गया। अफगानों की अधीनता स्वीकार करने वाला उदयसिंह मेवाड़ का प्रथम शासक है, इस समय उदयसिंह के राज्य का यह प्रारम्भिक काल था इसलिए उसने लड़ना उचित न समझकर शेरशाह से सुलह करके उसे भेज दिया।
महाराणा उदयसिंह का हाजीखां पठान से विवाद/हरमाड़ा का युद्ध (1557 ई.)
हाजीखाँ शेरशाह सूरी का गुलाम व सेनापति था। अकबर के राजगद्दी पर बैठने से पूर्व इसका मेवात/अलवर पर अधिकार था। अलवर में हाजीखाँ के विरुद्ध अकबर ने पीर मोहम्मद सरवानी को भेजा, हाजीखां अजमेर आ गया।
मालदेव ने हाजीखाँ के विरुद्ध पृथ्वीराज को भेजा, हाजीखाँ ने मालदेव के विरुद्ध उदयसिंह से सहायता मांगी। महाराणा उसकी सहायता के लिए राव सुरजन, जयमल राठौड़, दुर्गा सिसौदिया आदि को लेकर हाजीखाँ की सहायता को रवाना हुआ।
तब राठौड़ों ने पृथ्वीराज से कहा मालदेव शेरशाह के विरुद्ध लड़कर बहुत कमजोर हो गया है, अगर इस युद्ध में हम मारे गए तो मालदेव कमजोर हो जाएगा, इस तरह पृथ्वीराज को समझाकर वापस ले गए।
महाराणा उदयसिंह ने इस सहायता के बदले रंगराय पातर (वेश्या) की मांग की, जो हाजीखाँ की प्रेमिका थी, हाजीखाँ ने कहा 'ये मेरी औरत है इसे मैं कैसे दूँ' कहकर देने से इंकार कर दिया। सरदारों ने महाराणा को वेश्या की मांग न करने के लिए समझाया लेकिन उदयसिंह नहीं माने, बीकानेर के कल्याणमल, जयमल राठौड़ आदि को साथ लेकर हाजीखाँ के विरुद्ध चढ़ाई कर दी।
अब हाजीखाँ ने उदयसिंह के विरुद्ध मालदेव से सहायता मांगी, मालदेव ने देवीदास राठौड़, जैत्तमाल राठौड़ आदि के नेतृत्व में 1500 सैनिक भेजे, 24 जनवरी 1557 ई. उदयसिंह व मालदेव की सेना के मध्य अजमेर के निकट 'हरमाड़ा' का युद्ध हुआ।
जब युद्ध चल रहा था तब हाजीखां पहाड़ियों में छुपा हुआ था, उदयसिंह पर अचानक आक्रमण कर दिया, उदयसिंह की हार हुई।
उदयपुर की स्थापना (1559 ई.)
16 मार्च, 1559 ई. कुँवर प्रताप के पुत्र अमर सिंह का जन्म हुआ, पौत्र के जन्म की खुशी में महाराणा उदयसिंह एकलिंगजी के दर्शन करने के लिए कैलाशपुरी आए, वहाँ से दक्षिण की ओर आहड़ गाँव की ओर मुड़ गए, यहाँ महाराणा ने सरदारों के सामने प्रस्ताव रखा कि चित्तौड़ दुर्ग अलग पहाड़ी पर होने के कारण दुश्मन इसे घेरकर अधिकार कर लेते है। इसलिए इन पहाड़ियों में एक नगर बसाया जाए, सरदारों ने योजना अच्छी बताई और महलों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया, दूसरे दिन महाराणा ने पिछौला तालाब के पास एक साधु प्रेमगिरी को तपस्या करते हुए देखा, साधु ने उदयसिंह से कहा अगर तुम यहाँ शहर बसाओगे तो तुम्हारे वंश का उस पर हमेशा अधिकार रहेगा, साधु की सलाह मानकर उदयसिंह ने पुराने महलों को छोड़ दिया, इन पुराने महलों के खण्डहर वर्तमान में मोती महल कहलाते हैं और जहाँ साधु बैठा था वहाँ उदयसिंह ने अपने हाथों से महल की नींव रखी थी।
अन्य महल व शहर बसना प्रारम्भ हुआ, जिस महल की नींव उदयसिंह ने रखी थी वह महल 'पानेडा' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी पानेड़ा नामक स्थान पर मेवाड़ महाराणाओं का राजतिलक होता था, इसी समय उदयसागर झील भी बनना प्रारम्भ हो गई।
अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण
अकबर जानता था कि राजपूत रियासतों में सबसे मजबूत रियासत मेवाड़ है। अगर मेवाड़ रियासत को अधीन कर लिया जाए, तो सभी रियासतें अधीनता स्वीकार कर लेगी इसके अलावा उत्तर भारत में शासन करने व गुजरात से व्यापारिक सम्बंधों की दृष्टि से चित्तौड़ दुर्ग को अधीन करना आवश्यक था।
अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण का कारण
मालवा शासक बाज बहादुर को उदयसिंह ने शरण दी थी।
1562 ई. में अकबर ने सरफूदीन के नेतृत्व में मेड़ता के जयमल राठौड़ पर आक्रमण किया, मेड़ता दुर्ग उस समय जयमल राठौड़ के अधीन था। देवदास युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुआ, जयमल राठौड़ उदयसिंह की शरण में आ गया।
अकबर मालवा जाते समय बाड़ी होते हुए धौलपुर में रुका, यहाँ पर उदयसिंह का पुत्र शक्तिसिंह किसी कारणवश उदयसिंह से नाराज होकर अकबर के पास आ गया था। एक दिन अकबर ने शक्तिसिंह से कहा बड़े-बड़े राजा मेरे अधीन आ गए।
अब मेवाड़ रियासत्त ही बची है, मैं मेवाड़ पर आक्रमण करूँगा शक्तिसिंह तुम मेरी क्या सहायता करोगे। शक्तिसिंह ने सोचा, अकबर अब चित्तौड़ पर आक्रमण करेगा, लोग यही सोचेंगे कि मैं अकबर को अपने पिता के विरुद्ध लाया हूँ और उसी रात अकबर को बिना बताए शक्तिसिंह चित्तौड़ आ गया व उदयसिंह को अकबर के चित्तौड़ पर आक्रमण की सूचना दी, इस घटना के कारण अकबर नाराज हुआ उसने मालवा अभियान छोड़कर चित्तौड़ की ओर रवाना हुआ।
सितम्बर, 1567 अकबर चित्तौड़ की ओर रवाना हुआ, शिवपुर व कोटा दुर्गों पर अधिकार करता हुआ गागरोन पहुँचा, आसफखाँ व वजीरखाँ को माण्डलगढ़ भेजा, माण्डलगढ़ दुर्ग उदयसिंह के अधीन था जिसका संरक्षक बल्लू, सोलंकी था। माण्डलगढ़ दुर्ग को भी उन्होंने जीत लिया, अब अकबर स्वयं चित्तौड़ की ओर रवाना हुआ।
जब शक्तिसिंह ने उदयसिंह को अकबर के चित्तौड़ पर आक्रमण करने की सूचना दी तो महाराणा उदयसिंह ने सभी सरदारों को बुलवाया, जिसमें मेड़ता के जयमल राठौड़, साई दास चूड़ावत, इसरदास चौहान, बल्लू, सोलंकी, डोडिया सांडा, रावत साहिब खां, फत्ता चूड़ावत, रावत नेतसी आदि सरदार उपस्थित हुए। सभी सरदारों ने निर्णय लिया कि गुजरात के शासकों से लड़कर मेवाड़ कमजोर हो गया, अकबर बहुत शक्तिशाली है इसलिए उदयसिंह परिवार सहित पहाड़ियों में चले जाएँ व दुर्ग का कार्यभार जयमल राठौड़ व फत्ता चुड़ावत को सौंप दे, महाराणा ने ऐसा ही किया, आठ हजार राजपूत सैनिकों को चित्तौड़ दुर्ग में छोड़कर स्वयं राव नेतसी आदि सरदारों के साथ उदयपुर व गोगुंदा की तरफ आ गया था।
अकबर माण्डलगढ़ से चलकर 23 अक्टूबर, 1567 को चित्तौड़ के पास पहुँचकर घेराबंदी कर दी, सेनापति बख्शीसखां को घेरा डालने का कार्य सौंपा जो एक माह तक चला व आसफखाँ को रामपुरा के किले में भेजा, जो उसने जीत लिया। अकबर को पता चला कि उदयसिंह कुम्भलगढ़ व उदयपुर की तरफ चला गया तो उसने हुसैन कुल्ली खाँ को बड़ी सेना देकर उदयसिंह व उसके परिवार को बंदी बनाकर लाने के लिए भेजा। लेकिन हुसैन कुल्लीखाँ खाली हाथ वापस आ गया, अकबर के तोपों के गोले चित्तौड़ दुर्ग की दीवार तक नहीं पहुँच रहे थे, तब अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग के बराबर एक बड़ा मिट्टी का टिल्ला मोहर मगरी बनवाया जिसपर तोप रखकर चलवायी और अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग तक पहुँचने के लिए 'साबात' का निर्माण करवाया, साबात एक बड़ी सुरंग होती है जिसकी ऊँचाई इतनी होती है कि हाथी पर भाला लेकर खड़े हो तो उसकी छत को छू सकते हैं और इसकी छत पर जानवरों की खालें लगवाई जाती है जिससे चित्तौड़ दुर्ग के उपर से जो बाण चलाए जा रहे थे उनका कोई असर न हो सके। चित्तौड़ के लाखोटी बारी नामक दरवाजे के सामने स्वयं अकबर, हसन खाँ, चकताई खाँ, इख्तियारखाँ के साथ स्वयं खड़ा था, जयमल राठौड़ से सीधा मुकाबला करने के लिए।
किले के पूर्वी दरवाजा, सूरजपोल के सामने सुजातखाँ, राजा टोडरमल व कासीमखाँ नियुक्त थे। इस दरवाजे पर साईदास चूड़ावत था, यहाँ भी एक साबात का निर्माण करवाया गया था। किले के दक्षिणी दरवाजे चित्तौड़ी बुर्ज पर बल्लू सोलंकी था और उनके सामने ख्वाजा अब्दुल मजीद व आसफ खाँ थे। इस बीच संधि की वार्ताएँ चली। साहिब खाँ चौहान व डोडिया ठाकुर सांडा अकबर से संधि वार्ता करने के लिए गए, लेकिन अकबर इस बात पर अड़ गया कि स्वयं उदयसिंह को आना चाहिए। संधि की वार्ताएँ असफल हुई, लेकिन राजपूत निराश नहीं हुए युद्ध जारी रखा, ऐसा उल्लेख आता है- डोडिया सांडा की बातों से खुश होकर अकबर ने कहा कुछ माँगों तब डोडिया सांडा ने कहा हम में से जब तक एक भी राजपूत जिंदा है आप दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सकते, हमारे मरने के बाद, हमारा क्रियाकर्म हिन्दू रीति रिवाज से कर दें। बताते हैं चित्तौड़ विजय के बाद अकबर ने सब राजपूतों को जलवा दिया था। साबात का कार्य चल रहा था, अबुल फजल लिखता है, साबात निर्माण में रोज 200 आदमी मारे जा रहे थे क्योंकि दुर्ग के उपर से राजपूत तोप व बाण चला रहे थे। अकबर ने साबात बनाने वाले कर्मचारियों को खूब पैसे दिये ताकि साबात का काम जल्दी किया जा सके। दो सुरंगे किले की तलहटी तक पहुँचाई गई एक में 120 मण व दूसरी में 80 मण बारूद भरी गई। 17 दिसम्बर, 1567 एक सुरंग उड़ाई गई, जिससे किले की एक दीवार कमजोर हो गई मुगल फौज अंदर घुसने लगी, अचानक दूसरी सुरंग फट गई जिस कारण मुगलों के 200 आदमी मारे गए। इस विस्फोट की आवाज लगभग 50 कोस तक सुनाई दी थी, राजपूतों ने रात को दिवार वापस तैयार करवा दी, उसी दिन बीकाखोह व मोरमगरी की तरफ आसफ खाँ ने तीसरी सुरंग उड़ाई जिसमें लगभग 30 आदमी मारे गए। अभी तक युद्ध का कोई निर्णय नहीं निकला, कई बार अकबर मरते-मरते बचा। एक गोली अकबर के पास से गुजरी जिसमें उसके पास खड़ा व्यक्ति मारा गया। अंत में राजा टोडरमल व कासीमखां मीर की देखरेख में साबात बनकर तैयार हुए।
लंबे समय तक संघर्ष चलने के कारण दुर्ग में भोजन सामग्री समाप्त होने लगी। सभी सरदारों ने साका करने का निर्णय लिया, जौहर करने दरवाजा खोला गया, फत्ता की पत्नी फूलकवर के नेतृत्व में जौहर हुआ, जौहर की अग्नि को देखकर अकबर ने आमेर के भगवन दास से पूछा, ये दुर्ग में आग की लपटें कैसे निकल रही है, जब भगवन दास ने कहा, जब राजपूत जीत की उम्मीद खो देते हैं।
तब वे अपनी स्त्रियों व बच्चों को जौहर की अग्नि में जलाकर शत्रुओं पर मारने व मरने के लिए टूट पड़ते है। इसलिए आप सावधान हो जाओं दुर्ग के दरवाजे खुलेंगे।
राजपूतों ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए, ये युद्ध दो रात व एक दिन चला, दोनों सेनाएँ खाना-पीना तक भूल गई, अकबर ने संग्राम बंदूक चलाई जिसकी गोली जयमल को लगी, जयमल ने अपने भतीजे कल्ला से कहा, मेरी लड़ने की इच्छा रह गई इसलिए मुझे अपने कंधे पर बिठाओं मैं घोड़े पर नहीं बैठ सकता।
कल्ला राठौड़ ने जयमल को कंधे पर बैठाकर लड़े और इन दोनों के हाथों में दो-दो नंगी तलवारें थी, दोनों चाचा-भतीजे हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच में वीर गति को प्राप्त हुए, कल्ला राठौड़ इतिहास में चार हाथों वाले देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए।
डोडिया सांड़ा लड़ते हुए गंभीरी नदी तक चला गया, अकबर ने राजपूतों के प्रचण्ड आक्रमण को देखकर हाथियों के सूंडों के आगे तलवारें बाँधकर दुर्ग में घुसा, अकबर एक हाथी पर सवार होकर जैसे ही दुर्ग में घुसा ईसरदास चौहान ने खंजर से गुणग्राहक कहकर आक्रमण किया, कहा मेरा मुजरा स्वीकार करो, ईसरदास ने ऐसा इसलिए कहा कि चित्तौड़ दुर्ग में धर्नुधर सेना का नेतृत्व ईसरदास कर रहा था, ईसरदास ने मुगलों को दुर्ग के नजदीक नहीं आने दिया था तब अकबर ने ईसरदास को बुलाया व जागीर का लालच देकर अपनी ओर मिलाना चाहा तब ईसरदास ने कहा था कि 'मैं कभी तुम्हारा मुजरा करूंगा' और इसी वचन को निभाने के लिए ईसरदास ने गुणग्राहक कहकर अकबर का मुजरा किया।
ईसरदास ने अकबर के हाथी का दाँत तोड़ दिया था। फत्ता चूड़ावत वीरता से लड़ा, एक हाथी ने उसे सूंड में पकड़कर फेंक दिया वह सूरजपोल के नजदीक वीरगति को प्राप्त हुआ।
रावत साईदास, जेत्ता सतावत, सुल्तान आसावत, राव संग्रामसिंह, रावत साहिबखां, राठौड़ नेतसी आदि राजपूत सरदार वीरगति को प्राप्त हुए।
सेना के साथ आम जनता को भी नुकसान हुआ, अकबर ने यहाँ शरण लिए हुए 30000 निर्दोष लोगों को मरवा दिया जो अकबर के जीवन का एक काला दाग है, 25 फरवरी, 1568 की दोपहर को चित्तौड़ पर अकबर का अधिकार हो गया। तीन दिन अकबर चित्तौड़ रुका इसके बाद अब्दुल मजीद आसफ खाँ को दुर्ग सौंपकर अजमेर की ओर रवाना हो गया। अकबर ने जयमल और फत्ता की वीरता से प्रभावित होकर इनकी गजारूढ़ मूर्तियाँ आगरा में लगवाई बाद में औरंगजेब के समय इन्हें तोड़ दिया गया, वर्तमान में यह मूर्तियाँ जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) के आगे लगी हैं। नोट-चित्तौड़ विजय उपलक्ष अकबर ने एलची सिक्के चलाए।
अकबर का रणथम्भौर पर अधिकार (1569 ई.)
रणथम्भौर दुर्ग महाराणा उदयसिंह के अधीन था जिसका किलेदार सुरजन हाड़ा था, अकबर 8 फरवरी, 1569 को रणथम्भौर पहुँचा, इसी समय अबुल फजल ने कहा था 'बाकी दुर्ग नंगे हैं ये बख्तरबंद है।'
उल्लेख आता है कि यहाँ भी अकबर ने 'साबात' का निर्माण करवाया तब सूरजन हाड़ा ने अपने पुत्र दूदा व भोजा को बादशाह के पास भेजा अकबर की ओर से भगवन दास कच्छवाह, मानसिंह (मानसिंह अकबर के साथ सर्वप्रथम रणथम्भौर के अभियान पर आया था), हुसैन कुल्ली आदि के सहयोग से वार्ता हुई।
सुरजन हाड़ा ने अधीनता स्वीकार कर ली व दुर्ग की चाबियाँ सौंप दी, रणथम्भौर दुर्ग महतर खाँ को सौंप दिया, सुरजन हाड़ा ने उदयसिंह की चाकरी छोड़कर बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली, अकबर ने सुरजन हाड़ा को गडकंटगा का किलेदार बनाया व चुनार किले का हाकिम भी नियुक्त किया।
महाराणा की मृत्यु
चित्तौड़ मुगलों के अधीन हो जाने के बाद महाराणा कुम्भलगढ़ रहा करते थे क्योंकि उदयपुर उस समय तक पूर्णतः बनकर तैयार नहीं हुआ था, 28 फरवरी, 1572 (होली) को इनकी गोगुदा में मृत्यु हुई थी।
उदयसिंह के पुत्र शक्तिसिंह के नाम पर सिसोदियों की सत्तावत शाखा चली। इनके पुत्र अगर के नाम पर अगरावत शाखा चली, सीया के नाम पर सीयावत शाखा चली।
महाराणा उदयसिंह का स्थापत्य
उदयपुर नगर बसाया व यहाँ पानेड़ा, नेका की चौपड़, जनाना रावला (इसे वर्तमान में कोठार कहते है) जिसे उदयसिंह ने बनवाया था व पिछौला झील के पश्चिमी तट पर उदयश्याम मंदिर बनवाया था व 1559 से 64 ई. के बीच उदयसागर झील का निर्माण करवाया।
वीर शिरोमणि महाराणा प्रतापसिंह (1572-97 ई.)
- जन्म - ज्येष्ठ सुदी तृतीया वि.स. 1597 (9 मई, 1540 ई.) वार-रविवार, कुम्भलगढ़ दुर्ग के बादल महल में (कर्नल टॉड के अनुसार)
- राज्याभिषेक - 28 फरवरी, 1572 ई. गोगुन्दा में हुआ।
- माता - पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री जैवन्ता बाई।
- पत्नी - अजब दे पंवार (बिजौलिया के रामरख पंवार की पुत्री।)
- गुरु - राघवेन्द्र
- बचपन का नाम - कीका/कुका
- महाराणा प्रताप को शस्त्र विद्या की शिक्षा जयमल राठौड़ ने दी थी।
- महाराणा प्रताप की जयंती - ज्येष्ठ सुदी तृतीया को मनाई जाती है।
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक
उदय सिंह ने भटियाणी राणी के प्रभाव में आकर छोटे पुत्र जगमाल को राणा बना दिया था। गोगुन्दा में उदय सिंह के दाह संस्कार के समय मे जगमाल उपस्थित नहीं था।
मेवाड़ की परम्परा के अनुसार जी राणा बनता है वह दाह संस्कार में नहीं जाता। जगमाल को राणा बना दिया। इसकी सूचना सामन्तों को नहीं थी। श्मशान में जगमाल को उपस्थित न पाकर ग्वालियर के राजा रामसिंह ने जगमाल के छोटे भाई राजकुमार सगर से पूछा "जगमाल कहाँ है।" सगर ने कहा स्वर्गीय महाराजा ने जगमाल को उत्तराधिकारी बना दिया। सामन्तों को जब इस बात का पता चला उन्होंने विरोध किया कि अकबर के जैसा प्रवल शत्रु हमारे सिर पर है मेवाड़ उजड़ रहा है। इस समय मेवाड़ का महाराणा योग्य व्यक्ति होना चाहिए।
प्रताप सभी प्रकार से योग्य है और नियम के अनुसार भी बड़ा पुत्र राणा बनना चाहिए। दाह संस्कार में प्रताप के मामा जालौर के राव अखेसिंह भी उपस्थित थे।
दाह संस्कार में चूड़ा के वंशज चूड़ा के पौत्र रावत कृष्णदास व रावत सांगा भी उपस्थित थे। सरदारों ने कहा 'आप चूड़ा के वंशज है आपको मेवाड़ की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अधिकार है।' यहीं पर गोगन्दा परं कृष्णदास व रावत सांगा ने महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कर दिया।
मेवाड़ के महलों की क्रांति
इधर कुम्भलगढ़ में जगमाल ने राजतिलक करवा लिया। उदय सिंह की अंत्येष्टि के बाद सभी सरदार कुम्भलगढ़ आये। महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ के बाहर ही रुक गये। सामन्तों ने जगमाल का हाथ पकड़ कर कहा, 'तुम्हारा सिंहासन यह नहीं है, यहाँ महाराणा बैठेंगे आप सामने बैठो।' जगमाल का पक्ष कमजोर था, इसलिए उसने विरोध नहीं किया।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में विधिवत रूप से दुबारा महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ। 'प्रताप राव की जय' नाम से आसमान गूंजने लगा। मेवाड़ के रिवाज के अनुसार सभा में उपस्थित सभासदों को उपहार व भेटे दिये। प्रताप मेवाड़ के महाराणा बन गये। यह समस्त घटना 28 फरवरी, 1572 को ही हुई। क्योंकि मेवाड़ में रिवाज है कि शासक की मृत्यु के दिन ही उत्तराधिकारी का चुनाव किया जाता है। इस समस्त घटनाक्रम को 'महलों की क्रांति' कहा जाता है।
जगमाल का अकबर की शरण में जाना
जगमाल ने प्रत्यक्ष विरोध तो नहीं किया लेकिन वह अपमान को सह नहीं सका। जगमाल अकबर की शरण में चला गया। अकबर ने जगमाल को जहाजपुर (शाहपुरा) को जागीर दी।
1583 ई. में अकबर ने जगमाल को सिरोही का राज्य दिया। सिरोही में जगमाल के ससुर राव मानसिंह का शासन था। जगमाल के राव सुल्तान जगमाल का विरोधी हो गया। सन् 1583 ई. में दत्तानी के युद्ध में जगमाल अपने साले के हाथों मारा गया।
महाराणा प्रताप की प्रारम्भिक समस्याएँ
महाराणा प्रताप जब मेवाड़ के महाराणा बने उस समय राज्य की स्थिति दयनीय थी। मेवाड़ का सम्पूर्ण उपजाऊ क्षेत्र मुगलों के अधीन था। मेवाड़ का पूर्वी भाग बदनोर, शाहपुरा, रायला मुगलों के अधीन था। चित्तौड़ मुगलों के अधिकार में पहले ही आ चुका था।
इस कारण राणा ने नई अस्थाई राजधानी कुम्भलगढ़ को बनाया। कुम्भलगढ़ में ही राजतिलक करवाया। राजतिलक के अवसर पर मारवाड़ का राव चन्द्रसेन भी आया था। चन्द्रसेन प्रताप के मामा थे। प्रताप व चन्द्रसेन के मध्य अच्छे सम्बन्ध थे।
प्रताप को अकबर से शत्रुता विरासत के रूप में मिली। महाराणा का बूंदी, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, रणथम्भौर, ईडर और सिरोही से अच्छे संबंध थे। किसी एक से संधि टूट भी जाती तो महाराणा दूसरे से नवीन संधि कर लेते थे। क्योंकि महाराणा प्रताप अच्छे तरीके से जानते थे कि सम्राट अकबर से कभी भी युद्ध हो सकता है।
महाराणा सीमावर्ती राज्यों से मित्रता करने लगे व अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाने लगे। यह समस्त सूचनाएँ अकबर के पास भी पहुँच रही थी। चन्द्रसेन व प्रताप की मित्रता से अकबर चिन्तित था। इस मित्रता को तोड़ने के लिए अकबर ने जोधपुर व ईडर की छावनियों को मजबूत कर दिया।
मुगलों के साथ लम्बे संघर्ष के कारण मेवाड़ की जनता में उदासीनता व निराशा की भावना थी। प्रताप ने इस नकारात्मक भावना को दूर करने का प्रयास किया। लोगों को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रेरित किया। भीलों को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रेरित किया। भील भी स्वतंत्रता व गौरव की रक्षा के लिए महाराणा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गये। मेवाड़ में एक नवीन युग की शुरूआत हुई।
अकबर द्वारा शांति अभियान व संधि का प्रयास
अकबर बड़ा ही चतुर राजनीतिज्ञ था व समस्त राजपूत जाति को अपने अधीन करना चाहता था। दूसरी ओर महाराणा मेवाड़ को स्वतंत्र रखना चाहते थे। वे इसे अपना धर्म समझते थे।
महाराणा जानते थे कि मुगलों की अधीनता का अर्थ है मेवाड़ की स्वतंत्रता का बलिदान। अधीन होकर भले ही उन्हें संघर्षों से मुक्ति मिल जायेगी और वह सुखी जीवन जीयेंगे, लेकिन उनके नाम के आगे लगा महाराणा अर्थहीन हो जायेगा। वे अकबर के अधीन एक जागीरदार बन के रह जायेंगे।
बहुत से राजपूत शासक अकबर की अधीनता व उससे वैवाहिक संबंध स्थापित कर चुके थे। महाराणा इसे अपमानजनक कार्य समझते थे। महाराणा के पूर्वजों ने भी सदा इसका विरोध किया। इस कारण महाराणा प्रताप ऐसा कार्य करके अपने वंश को कलंकित करना नहीं चाहते थे। इस प्रकार सभी परिस्थितियों पर विचार करके महाराणा ने मुगल दासता स्वीकार न करने का निर्णय लिया।
एक तरफ महाराणा का संघर्ष था, दूसरी तरफ अपमानपूर्ण जीवन व सुख-सुविधाएँ थी। संधि व विग्रह दोनों ही कष्ट देने वाले थे। लेकिन विग्रह का कष्ट भयानक होते हुए भी गौरव कीर्ति देने वाला था। सम्मानपूर्ण जीवन ही महान पुरुषों के लिए सबसे बढ़कर होता है। महाराणा प्रताप ने भी संघर्ष के सम्मानपूर्ण जीवन को अपनाने का निश्चिय लिया।
अकबर ने महाराणा के पास 4 शांति अभियान भेजे
- प्रथम - सितम्बर-नवम्बर, 1572 ई. जलाल खाँ कोरची के नेतृत्व में
- द्वितीय - मार्च से अप्रैल, 1573 ई. मानसिंह के नेतृत्व में
- तृतीय - सितम्बर से अक्टूबर, 1573 ई. भगवन्त दास के नेतृत्व में
- चतुर्थ - दिसम्बर, 1573 ई. टोडरमल के नेतृत्व में
1. जलाल खाँ कोरची का शांति अभियान
महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के 6 माह बाद ही सितम्बर, 1572 ई. में जलालखां के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल भेजा। महाराणा ने इसका उचित सम्मान किया। लेकिन संधि प्रस्ताव का कोई परिणाम नहीं निकला। 2 माह तक दोनों पक्षों में वार्ताएँ चलती रही।
नवम्बर, 1572 ई. में जलाल खाँ वापस चला गया। अकबर उस समय अहमदाबाद में था। संधि की असफलता पर वह निराश नहीं हुआ, उसने शांति अभियान जारी रखे।
2. मानसिंह द्वारा शांति अभियान
प्रथम शांति प्रस्ताव की असफलता के बाद अकबर ने किसी राजपूत को महाराणा के पास भेजना उचित समझा। इसके पीछे अकबर की कूटनीतिक चाल थी। एक तो दोनों एक ही जाति के थे।
इससे प्रताप पर अनुकूल प्रभाव पड़ने की सम्भावना थी क्योंकि एक ही जाति में अपनत्व की भावना होती है। दूसरा कारण यह था यदि सफलता नहीं मिली तो मानसिंह अपना अपमान समझेगा और राजपूतों में प्रताप के प्रति दुश्मनी की भावना का उदय होगा।
अकबर को पूर्ण विश्वास था कि महाराणा अधीनता स्वीकार नहीं करेगे फिर भी वह शांति अभियान भेज रहा था। क्योंकि ऐसा करके अकबर स्वयं को शांति का समर्थक और प्रताप को हठी साबित करना चाहता था।
1573 ई. में शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह डूंगरपुर, सलूम्बर होते हुए उदयपुर की ओर रवाना हुआ। महाराणा प्रताप उस समय उदयपुर में थे। जून, 1573 ई. में मानसिंह उदयपुर पहुँचा।
महाराणा ने मानसिंह का सम्मान किया। दोनों के मध्य वार्ताएँ हुई। वार्तालाप के समय महाराणा के मंत्री व युवराज अमरसिंह भी उपस्थित थे। वार्तालाप के समय मानसिंह ने अकबर की धर्मनिरपेक्ष नीति, राजपूत राजकुमारियों से विवाह की प्रशंसा की व महाराणा से कहा, 'आप अकबर को भारत का सम्राट स्वीकार करें और उससे मित्रता करें।' लेकिन महाराणा ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
प्रताप व मानसिंह की मुलाकात के विभिन्न मत
टोड के अनुसार प्रताप व मानसिंह की मुलाकात उदयसागर झील पर हुई। जबकि गोपीनाथ के अनुसार इनकी मुलाकात गोगुन्दा में हुई। रणछोड़ भट्ट (अमर काव्य वंशावली पुस्तक) तथा भट्ट सदाशिव (राज रत्नाकर-पुस्तक) के अनुसार मानसिंह व प्रताप के मध्य मुलाकात उदयसागर झील के किनारे हुई थी।
राजपुताने में कहानी प्रचलित है कि उदयसागर झील के किनारे मानसिंह के लिए भोज का आयोजन किया गया। भोजन के समय राणा ने पेट दर्द का बहाना करके कुँवर अमर सिंह को भेज दिया।
मानसिंह ने अमर सिंह पर जोर डाला कि भोजन में महाराणा को बुलाया जाये। लेकिन महाराणा नहीं आये। तब मानसिंह ने चुनौती दी, "कि इस पेट दर्द की दवा में अच्छी तरह जानता हूँ अब तक हमने आपकी भलाई चाही किन्तु आगे सावधान रहना।"
मानसिंह का इस तरह स्पष्ट युद्ध की चेतावनी दिए जाने पर एक राजपूत ने कहा, "युद्ध में अपने फूफा को भी लेते आना।" तब महाराणा ने कहलवाया, अगर आप अपनी सेना के दम पर आये तो मालपुरा में आपका स्वागत करेंगे और अपने फूफा के दम पर आये, जहाँ मौका मिलेगा वहीं आपका सत्कार करेंगे।
अपमानित होकर मानसिंह वापस चला गया मानसिंह के लिए बनवाया गया भोजन झील में फिंकवा दिया गया। वहाँ की भूमि पर गंगा जल छिड़का गया।
राजप्रशस्ति व वंशभास्कर काव्यों में भी इससे मिलती-जुलती घटना मिलती है। लेकिन इतिहासकार महाराणा द्वारा मानसिंह के अपमान की घटना को सत्य नहीं मानते। क्योंकि यह घटना टोड ने समाज में प्रचलित किंवदती के आधार पर लिखा है जिसे प्रमाणित नहीं माना जा सकता। क्योंकि प्रताप की नीतियों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि प्रताप दुश्मनों को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते थे जिसे तत्काल युद्ध हो जायें।
महाराणा मेवाड़ की शक्ति को मजबूत करने में लगे हुए थे। वो अकबर से होने वाले युद्ध को आगे खिसकाना चाहते थे। ताकि उन्हें तैयारी का पर्याप्त मौका मिल जाये। मानसिंह उस समय राजकुमार था उसके साथ भोजन में न बैठना अपमान की कोई बात नहीं थी। कुँवर अमरसिंह भोजन के लिए बैठ गये थे।
सबसे बड़ा प्रमाण मानसिंह के अपमान की घटना को असत्य सिद्ध करता है कि इसके बाद भी मानसिंह ने शांति अभियान भेजे थे। अगर मानसिंह का अपमान हुआ होता तो अकबर मानसिंह के पिता भगवंतदास को शांति के लिए नहीं भेजता सीधा आक्रमण कर देता। तात्कालिक मुस्लिम इतिहासकार ने इस घटना का वर्णन नहीं किया।
3. भगवंतदास द्वारा शांति अभियान
सितम्बर, अक्टूबर 1573 ई. में अहमदाबाद विजय के बाद भगवंतदास को महाराणा से मिलने का आदेश मिला। भगवंतदास सेना लेकर रवाना हुआ। सैनिक शक्ति का परिचय देने के लिए भगवंतदास ने मार्ग में बड़नगर व रावलिया पर अधिकार किया।
इसके बाद ईडर के राजा नारायण सिंह के यहाँ रूका। महाराणा प्रताप उस समय गोगुन्दा में थे। भगवंतदास ईडर से गोगुन्दा पहुंचा। संधि वार्ता हुई और यह वार्ता भी असफल रही।
4. टोडरमल द्वारा शांति अभियान
अकबर ने चौथा शांति अभियान दिसम्बर, 1573 ई. में टोडरमल को भेजा। टोडरमल एक उच्च कुल हिन्दू राजा था। यह अभियान भी असफल रहा।
अकबर के सभी शांति प्रस्ताव असफल हुए। अब युद्ध निश्चित हो गया। क्योंकि अकबर यह सहन नहीं कर सकता था कि मेवाड़ स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सके। मेवाड़ कुशल राजनीतिज्ञ थे।
वे अकबर के शांति प्रस्तावों को कुछ ना कुछ कमियाँ दिखाकर टालते रहे इस कारण अकबर दूत भेजता रहा और महाराणा को पर्याप्त समय मिल गया और वे अपनी सैनिक शक्ति को मजबूत करते रहें। सभी दांव-पेच युद्ध की ओर ले जा रहे थे। प्रताप भी भावी युद्ध के लिए तैयार हो गये।
हल्दीघाटी युद्ध की तैयारियाँ
1572 व 1573 ई. संधि प्रस्तावों में बीत गया। संधि प्रस्ताव असफल हो जाने के बाद अकबर के सामने युद्ध का ही विकल्प शेष रह गया। लेकिन इसके तुरन्त बाद अकबर ने आक्रमण नहीं किया। 1574 से 1576 ई. प्रतीक्षा करता रहा कि प्रताप संधि के लिए सहमत हो जाये। लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। अकबर मेवाड़ पर आक्रमण की तैयारी करने लगा।
1574-1575 ई. में अकबर का इन्तजार करना इसकी विवशता थी। क्योंकि 1574 ई. में अकबर बंगाल अभियान में उलझा था और 1575 ई. में चन्द्रसेन अभियान में उलझा था। मार्च, 1576 ई. में फतेहपुर सीकरी से अकबर रवाना होकर अजमेर पहुँचा।
अजमेर पहुँचने का उसका उद्देश्य था, मेवाड़ आक्रमण को समीप से देख सके। लगभग 15 दिन तक गहन विचार-विमर्श में भावी युद्ध की योजना अजमेर दुर्ग/मैग्जीन दुर्ग/अकबर का दौलतखाना में बनी। यहीं अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण करने वाली सेना का सेनापति मानसिंह को बनाया।
अब तक के मुगल इतिहास में यह प्रथम अवसर है जब किसी हिन्दू को सेनापति बनाया गया। अकबर के अन्य सेनापतियों ने मानसिंह को प्रधान सेनापति बनाने के विरोध में थे। नबीखाँ ने मानसिंह को प्रधान सेनापति बनाने के कारण युद्ध में आने से मना कर दिया। उसने कहा 'कि इस सेना का सेनापति अगर एक हिन्दू न होता तो युद्ध में शामिल होने वाला मैं प्रथम व्यक्ति होता।' युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप पकड़े नहीं गये तो कुछ मुसलमानों ने इसके लिए मानसिंह को दोषी ठहराया। प्रसिद्ध इतिहासकार बदायूँनी भी इस युद्ध में मानसिंह के साथ था।
इतना विरोध होने के बाद भी अकबर ने निर्णय नहीं बदला और सेनापति मानसिंह को रखा। मानसिंह के सेनापति बनने की घोषणा अकबर ने फतेहपुर सीकरी में न करके अजमेर में की। इसका कारण अकबर जानता था कि मानसिंह को सेनापति बनाना कई लोगों को अखरेगा। अन्य मुख्य सेनापति आसफखाँ को बनाया। मानसिंह मेवाड़ विजय के लिए निकल गया।
कर्नल जेम्स टॉड ने अकबर की सेना का मुख्य सेनापति शहजादा सलीम (जहाँगीर) को बताया है। तात्कालिक किसी भी इतिहासकार ने सलीम को सेनापति नहीं बताया है। सलीम इस सेना का सेनापति नहीं हो सकता क्योंकि सलीम का जन्म 1569 ई. में हुआ था। इस समय सलीम की उम्र मात्र 7 वर्ष ही थी।
7 वर्ष के बालक को इतने महत्वपूर्ण युद्ध का सेनापति नहीं बनाया जा सकता। उदयपुर के जगदीश मंदिर के शिलालेख में भी महाराणा प्रताप के विरुद्ध मुगलों का सेनापति मानसिंह ही लिखा है। अबुल फजल भी लिखता है-
'राजा मानसिंह जो अकबर के दरबार में बुद्धिमता, स्वामीभक्ति व साहस में अग्रणी था, इसे फर्जद का उच्च पद भी प्राप्त था महाराणा प्रताप के विरुद्ध युद्ध करने के लिए चुना गया'।
मानसिंह के साथ आसफ खाँ, सैय्यद हाशम बाराहा, सैय्यद अहमद, राजा जगन्नाथ कच्छवाहा, मिहतर खां, राय लूणकरण कच्छवाहा, मीर गाजी खां, मुजाहिद खां, इतिहासकार बदायूँनी आदि थे।
मानसिंह को सेनापति बनाने का कारण
मानसिंह को सेनापति बनाने के पीछे कई कारण थे। एक तो वह योग्य, बुद्धिमान व स्वामीभक्त था और अकबर के कई युद्धों में भाग ले चुका था। अकबर से मानसिंह का विशेष स्नेह था। महाराणा कुम्भा के दरबार में आमेर के शासक सेवा में थे।
भगवन्त दास उदयसिंह के दरबार में रह चुका था। बाद में उसने अकबर की सेवा स्वीकार कर ली थी। इस कारण महाराणा प्रताप मानसिंह को एक बागी जागीरदार से अधिक महत्त्व नहीं देते थे। जब महाराणा प्रताप अपने बागी जागीरदार को रणभूमि में देखेंगे तो महाराणा अपना विवेक खो देंगे और मारने पर आतुर हो जाएंगे। इस प्रकार उन्हें युद्ध भूमि में मार दिया जायेगा।
एक अन्य कारण सेनापति बनाने का यह भी था कि मानसिंह व भगवन्त दास पहले संधि प्रस्ताव लेकर गये थे। महाराणा ने अस्वीकार कर दिया था इस कारण मानसिंह के मन में प्रबल विरोध की भावना है। सेनापति बनाने का एक कारण यह भी था कि अकबर की सेना में बहुत सारे राजपूत थे।
प्रत्येक राजपूत का मेवाड़ राजघराने के प्रति आदर का भाव है। अधिकतर राजपूत मेवाड़ राजघराने के अधीन रह चुके थे। इस कारण मुगल पक्ष के राजपूत महाराणा के विरुद्ध लड़ने में संकोच कर रहे थे। मानसिंह को सेनापति बनाकर इस संकोच को अकबर दूर करना चाह रहा था। इन सबके बावजूद भी अकबर जानता था कि कई राजपूतों को लड़ते समय महाराण प्रताप से सहानुभूति न हो जाये।
इस बात को ध्यान रखते हुए मानसिंह के साथ अन्य सेनापतियों के रूप में आसफ खाँ, मीरबख्शी, सय्यद असमद खां, मिहतर खां, ख्वाजा मौहम्मद रफी, महाबले खान, मुजाहित खान आदि थे।
मानसिंह का मेवाड़ में प्रवेश
3 अप्रैल, 1576 ई. मानसिंह अजमेर से रवाना होकर माण्डलगढ़ पहुँचा। यहाँ 2 माह तक रुका क्योंकि शेष सेना जो पीछे छूट गयी थी उसे यहाँ आकर रुकना था। यहाँ 2 माह तक रुकने का एक अनुमान यह भी लगाया जाता है कि मेवाड़ की सेना यहीं आकर आक्रमण कर दे। जिससे इसे सफलता मिलने की ज्यादा संभावना थी। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि 2 माह तक यहाँ रुक कर मानसिंह महाराणा प्रताप को एक और संधि का अवसर देना चाह रहा है।
2 माह तक माण्डलगढ़ में ठहरने के बाद मानसिंह अपनी विशाल सेना के साथ मोलेला पहुँचा। यह गाँव बनास नदी के किनारे था। इस गाँव से 10 मील दूर महाराणा प्रताप का सैन्य शिविर था।
महाराणा प्रताप की तैयारियाँ
महाराणा भी अकबर की विशाल सेना से मुकाबला करने के लिए तैयार थे। इन्हें मानसिंह के समस्त गतिविधियों की सूचना प्राप्त हो रही थी। महाराणा प्रताप ने युद्ध की योजना कुम्भलगढ़ में बनाई। यहाँ से रवाना होकर महाराणा गोगुन्दा पहुँचे।
यहाँ मेवाड़ के मैदानी भागों को उजाड़ कर वीरान कर दिया ताकि शत्रुओं को भोजन, घास आदि नहीं मिल सके।
महाराणा प्रताप को जब मानसिंह के माण्डलगढ़ पहुँचने की सूचना मिली तो प्रताप चाहते थे कि माण्डलगढ़ पहुँचकर सामना किया जाये। लेकिन सामंतों ने सलाह दी कि मानसिंह शाही बल के साथ आया है इसलिए सामना पहाड़ों की ओट में करना चाहिए।
दूसरा कारण माण्डलगढ़, अजमेर के रास्ते में पड़ता है, वहाँ मुगलों को सैनिक सहायता मिल जायेगी। प्रताप ने यह सलाह मान ली।
प्रताप ने सामन्तों की सलाह पर चलकर मेवाड़ी परम्परा का पालन करने का एक और उदाहरण युद्ध से पहले मिलता है।
एक दिन मानसिंह अपने थोड़े से साथियों के साथ शिकार पर निकला इसकी सूचना प्रताप को मिल गयी। प्रताप के कुछ सरदारों ने राय दी कि इस अच्छे अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।
शत्रुओं को मारने का यह अच्छा मौका है। सरदारों को दूसरे पक्ष में प्रमुख बड़ी सादड़ी के झाला मानसिंह ने कहा इस प्रकार धोखे से मारना सच्चे क्षत्रिय का काम नहीं है।
प्रताप के मन में भी यही बात थी। मानसिंह पर आक्रमण नहीं किया गया।
हल्दीघाटी का युद्ध ( 18/21 जून, 1576 ई.)
महाराणा प्रताप व अकबर के मध्य हुआ।
युद्ध के उपनाम
कर्नल जेम्स टॉड ने मेवाड़ की थर्मोपल्ली,
बदायूँनी ने (मुन्तख-उत-तवारिख) गोगुन्दा का युद्ध,
अबुल फजल ने (आइने अकबरी/अकबरनामा) खमनौर का युद्ध कहा है।
हल्दीघाटी युद्ध को बादशाह बाग का युद्ध (आशीर्वाद श्रीलाल) व रक्ततलाई का युद्ध, बनास का युद्ध, हाथियों का युद्ध भी कहते हैं। बदायूँनी हल्दीघाटी युद्ध का प्रत्यक्ष दृष्टया इतिहासकार था।
ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों के विरूद्ध जब भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जा रहा था। उस समय राष्ट्रीयता की भावना को जागृत करने के लिए स्वतंत्रता प्रेमियों ने इसे तीर्थस्थल नाम दिया।
महाराणा की तैयारियाँ
महाराणा ने गोगुन्दा पहुँच कर तैयारियाँ शुरू कर दी। छापामार युद्ध की भी सुन्दर व्यवस्था की गयी।
मेवाड़ के सैनिकों को घाटी के तंग व चौड़े भागों में नियुक्त कर दिया गया। समस्त घाटी, पहाड़ियाँ इस प्रकार घिरी थी कि शत्रु का उसमें एक बार घूमने का अर्थ प्राणों की बाजी लगाना था। थोड़े से सैनिक भी विशाल शत्रु सेना का मुकाबला कर सकते थे।
मेवाड़ के सैनिक इन दुर्गम मार्गों से परिचित थे। अतः कोई भी संकट आने पर ये सुरक्षित स्थान पर जा सकते थे।
प्रताप की सेना में ग्वालियर के रामसिंह तंवर (अपने सभी पुत्रों के साथ) कृष्णदास चूड़ावत, रामदास राठौड़, झाला मानसिंह, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास चारण, पुरोहित जगन्नाथ, हाकीम खाँ सूर, चारण रामासान्धू आदि थे।
दोनों सेनाओं में कितनी सेना थी इसका अलग-अलग विवरण मिलता है।
मेवाड़ की ख्यातों के अनुसार मानसिंह की सेना में 80 हजार सैनिक व प्रताप के पास 20 हजार सैनिक थे।
नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40 हजार और महाराणा प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक थे।
टॉड लिखता है महाराणा प्रताप 22 हजार सैनिकों को लेकर युद्ध भूमि में गये। जिनमें से 14 हजार मारे गये और 8 हजार बच गये।
ये संख्याएँ बढ़ा-चढ़ाकर बतायी गई है। तात्कालिक मुस्लिम इतिहासकारों व प्रत्यक्ष दृष्टा बदायूँनी के अनुसार मानसिंह के पास 5 हजार और महाराणा प्रताप के पास 3 हजार सैनिक थे।
मुगल सेना से आमना-सामना
मुगल सेनापति मानसिंह ने खमनौर के निकट मौलेला गाँव में शिविर लगाया। महाराणा प्रताप सेना लेकर हल्दीघाटी के दूसरे छोर पर पहुँच गये। ये युद्ध जून, 1576 में लड़ा गया। जून, 1576 ई. को प्रातः 8 बजे प्रारम्भ हुआ। (कुछ इतिहासकार के अनुसार 18 जून व कुछ इतिहासकारों के अनुसार 21 जून) महाराणा प्रताप ने अपनी सैना मेवाड़ की परम्परागत शैली या राजपूत शैली के अनुसार तैयारी की।
इस शैली में मध्य भाग में राजा रहता है। राजा के सबसे आगे सेना को हरावल सेना कहते हैं और राजा के पीछे रहने वाली सेना को चन्द्रावल सेना, हरावल से कुछ पीछे बाईं ओर वाम पार्श्व और हरावल की दाईं ओर पीछे की सेना को दक्षिण पार्श्व सेना कहते हैं।
राणा की हरावल सेना का नेता हाकीम खाँ सूर था। हाकीम खाँ के सहयोग के लिए सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीम सिंह, देवगढ़ का रावत सांगा, जयमाल का पुत्र रामदास आदि थे।
वाम पार्श्व सेना ग्वालियर के शासक रामसा व उसके तीन पुत्रों के नेतृत्व में थी। दक्षिण पार्श्व का राजा झाला मानसिंह व इसके साथ झाला बीदा मानसिंह सोनगरा आदि थे।
चन्द्रावल सेना का नेतृत्व पानरवा के पुंजा के नेतृत्व में थी। इसके साथ अन्य सहयोगी पुरोहित जगन्नाथ, गोपीनाथ, मेहता रत्नाचन्द्र, महासानी जगन्नाथ, चारण केशव, जेसा आदि थे। मध्य भाग में चेतक घोड़े पर महाराणा प्रताप, भामाशाह ताराचन्द आदि थे।
पैदल भील सेना का नेतृत्व राणा पूंजा कर रहे थे। पूंजा एकमात्र भील है जिन्हें महाराणा प्रताप ने राणा लगाने की इजाजत दी थी। पूंजा तीर, कमान के साथ पहाड़ियों में तैनात था।
समस्त सेना नेताओं के आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी। इन वीरों के मन में मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो जाने की भावना और महाराणा प्रताप के प्रति अपार श्रद्धा थी।
मानसिंह हल्दीघाटी के नीचे कुछ चौड़े व उबड़-खाबड़ स्थान पर पहुँचा। वर्तमान में इस स्थान को बादशाह बाग कहा जाता है। मुगल सेना के पास छोटे तोप भी थे। क्योंकि बड़े तोपों को पहाड़ी क्षेत्रों में ले जाना संभव नहीं था। महाराणा प्रताप के पास कोई तोपखाना नहीं था। मानसिंह की हरावल सेना में सैय्यद हासीन, मोहम्मद बादबख्शी, रफी राजा, जगन्नाथ, आसफ खाँ आदि थे। दक्षिण पार्श्व सैय्यद अहमद खाँ के नेतृत्व में था। वाम पार्श्व गाजी खाँ बादबख्शी, राजा लूणकरण के नेतृत्व में था।
चन्द्रावल सेना मिहतर खाँ व माधोसिंह के नेतृत्व में थी। मुख्य सेनापति मानसिंह मध्य में मर्दाना हाथी पर बैठा था। इतिहासकार बदायूँनी को भी विशेष अंगरक्षकों के साथ युद्ध की घटना को लिपिबद्ध कर रहा था।
दोनों सेनाएँ अब आमने-सामने थी। कुछ समय तक सेना एक-दूसरे के आक्रमण की प्रतीक्षा करती रही। अमर काव्य वंशावली व राजरत्नाकर के अनुसार युद्ध की शुरूआत महाराणा प्रताप ने की।
21 जून को प्रातः मेवाड़ का हाथी राजकीय ध्वजा फहराता हुआ दर्रे से बाहर आया। राजपूतों की ओर से रणभेरी वाद्ययंत्र बजने लगे। सेनापति हाकीम शाह सूर के नेतृत्व में महाराणा का हरावल दस्ता शत्रुओं पर शेर की भांति टूट पड़ा।
वाद्य यंत्र व चारणों वीर रस के गीतों ने सैनिकों के शौर्य व उत्साह को बढ़ा दिया। जिस स्थान पर दोनों सेनाओं के हरावल सेना का युद्ध हुआ वह स्थान उबड़-खाबड़ था।
मेवाड़ की सेना ऐसे स्थानों पर युद्ध करने में अभ्यस्थ थी। लेकिन मुगल सेना के लिए ऐसे स्थानों पर युद्ध करना कठिन था। पहले हमले में मुगलों के पाँव उखड़ गये। प्रथम हमले में महराणा प्रताप की विजय हुई।
प्रथम सफलता के बाद मेवाड़ की सेना में जोश बढ़ गया। वे घाटी से निकल कर बादशाह बाग तक पहुँच गये। बादशाह बाग स्थान मुगल सेना के लिए अनुकूल था क्योंकि ये एक मैदान था और यहाँ युद्ध के लिए सेना पूर्णतया तैयार थी।
हाकीम खाँ सूर और महाराणा प्रताप मुगल सेना के केन्द्रीय दल पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूरे उत्साह से भिड़ गयी। हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, तलवारों की टंकार से पूरा हल्दीघाटी गूंज उठा।
मेवाड़ की सेना ने वाम पार्श्व पर इतना जबरदस्त आक्रमण किया कि मुगल सेना में अव्यवस्था फैल गई। ग्वालियर के नरेश रामशाह ने शौर्य का अद्भुत प्रदर्शन किया।
राजपूत सेना का दबाव निरन्तर बढ़ रहा था। मुगलों की हरावल व वाम पाश्व सेना का ठहरना कठिन हो गया। दोनों दल युद्ध भूमि से भाग खड़े हुए। इसमें गाजीखां, आसफ खाँ व मानसिंह के सैनिक भी शामिल थे। कई मुगल सैनिक युद्ध भूमि से 10 से 12 मील भाग गये थे।
राजपूतों की इस विजय से मुगलों की सेना का मनोबल घटने लगा। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मुगल सेना निश्चत ही हार जायेगी। सेना को भागते हुए देख चन्द्रावल सेना से मिहतर खाँ आगे बढ़ा व ऊँचे स्वर में अकबर के पहुँचने की झूठी घोषणा करते हुए कहा 'बादशाह सलामत स्वयं आ चुके है।' इस घोषणा से स्थिति पलट गई।
भागती हुई मुगल सेना वापस आ गई तथा नये जोश के साथ युद्ध करने लगी। पुनः नये उत्साह से युद्ध आरम्भ हुआ। युद्ध करते-करते दोनों सेनाएँ खमनौर और भागल के मध्य बनास नदी के तट पर रक्ततलाई नामक स्थान पर पहुँच गई। वनवासी भीलों ने भी वीरता दिखाई। भील पहाड़ियों से निकल मुगल सेना पर टूट पड़े। अभी तक के युद्ध में महाराणा की सेना के दो वीर ग्वालियर का रामसा व जयमल के पुत्र रामदास वीर गति को प्राप्त हो गये थे।
राजपूतों के बढ़ते दबाव को देखकर मानसिंह भी युद्ध भूमि में उतर गया। मानसिंह मर्दाना हाथी पर बैठ कर युद्ध कर रहा था। मुगलशाही हाथियों के दल का सेनापति हुसैन खाँ भी युद्ध करने के लिए आगे आ गया। महाराणा के हाथी सवार इनका सामना करने लगे। हल्दीघाटी के युद्ध में हाथियों के युद्ध का विशेष वर्णन है। हल्दीघाटी के युद्ध को हाथियों का युद्ध भी कहा जाता है।
महाराणा के लूणा हाथी व मुगलों के गजमुख हाथी परस्पर भिड़ गये। लूणा ने गजमुख को पराजित किया। महाराणा प्रताप के पास रामप्रसाद नाम का एक प्रशिक्षित हाथी था। सम्म्राट अकबर इस हाथी की प्रशंसा सुन चुका था। कहा जाता है कि अकबर ने कई बार इस हाथी को महाराणा प्रताप से मांगा था।
अब राजपूतों ने रामप्रसाद हाथी को मैदान में उतार दिया। रामप्रसाद हाथी का महावत रामशाह का पुत्र प्रताप सिंह तंवर था। रामप्रसाद हाथी ने मुगलों में खलबली मचा दी। इसने मुगलों की सेना को रौंदना शुरू कर दिया। मुगलों ने रामप्रसाद के सामने गजराज हाथी उतार दिया। गजराज का महावत कमलखान था।
गजराज, रामप्रसाद हाथी को रोक नहीं पाया। तब मुगलों ने एक अन्य हाथी रणमंदिर मैदान में उतार दिया। अब मुगलों के दो हाथी गजराज व रणमंदिर, रामप्रसाद से लड़ रहे थे। रामप्रसाद के महावत प्रताप सिंह तंवर पर मुगलों ने तीरों की वर्षा कर दी। प्रताप सिंह मारा गया। रामप्रसाद हाथी मुगलों के हाथ लग गया।
महाराणा प्रताप की प्रारम्भ से ही इच्छा थी कि मानसिंह से सीधा आमना-सामना हो। लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिला। हाथियों के युद्ध के समय मानसिंह आगे आ गया।
राणा को इसी की प्रतीक्षा थी। महाराणा सीधे मानसिंह के सामने चले गये व मानसिंह से कहा 'प्रताप आ गया अब बहादुरी दिखाओं।' वे एक-दूसरे पर दांव-पेच लगाने लगे।
महाराणा ने अपने घोड़े चेतक को संकेत दिया। चेतक ने अपने पाँव मानसिंह के हाथी की सूंड पर रख दिये। महाराणा ने भाले से वार किया। मानसिंह हाथी के हौदे में घुस गया। महाराणा का भाला मानसिंह के कवच में लगा। महाराणा ने समझा कि मानसिंह मर गया। मानसिंह का महावत घायल होकर नीचे गिर गया था। हाथी की सूंड पर जो तलवार लगी थी उससे चेतक का पिछला पैर कट गया। महाराणा शाही सैनिकों से घिरने लगे।
इस स्थिति में झाला मानसिंह ने महाराणा प्रताप का छत्र स्वयं ले लिया व महाराणा के युद्ध भूमि से चले जाने का आग्रह किया। मुगलों ने झाला मानसिंह को महाराणा प्रताप समझ कर मार दिया और प्रताप यहाँ से सुरक्षित बाहर निकल गये।
झाला मानसिंह को झाला बीदा व झाला सज्जा भी कहा जाता है। झाला मानसिंह के बलिदान से महाराणा प्रताप युद्ध भूमि से सुरक्षित बाहर निकल गये।
घायल होते हुए भी चेतक युद्ध भूमि से 2 मील दूर बलीचा गाँव (राजसमंद) तक आ गया। यहाँ चेतक ने दम तोड़ दिया। जहाँ चेतक की मृत्यु हुई, वहाँ महाराणा ने एक स्मारक बनाया। चेतक की छतरी राजसमंद बलीचा में है।
युद्ध का प्रत्यक्ष दृष्टा इतिहासकार बदायूँनी लिखता है 'कि घमासान युद्ध चल रहा था। युद्ध के समय मैंने आसफ खाँ से पूछा कि पता ही नहीं चल रहा है अपने वाले राजपूत कौनसे है और उसकी पहचान कैसे करें। आसफ खां ने कहा, तुम तो बस तीर चलाते जाओ जिस भी प०% के राजपूत मर रहे हैं अपने को तो फायदा ही है।' इसलिए हम तार चलाते रहे।
भीड़ इतनी थी कि हमारा एक भी तीर खाली नहीं गया। बदायूँनी लिखता है कि पहले हमले में हमारी सेना भाग गयी और बनास नदी के पार 5-6 कोस तक चली गई। तब मिहतर खाँ ने जोर-जोर से आवाज लगाई। मिहतर खाँ ने हल्ला मचाकर क्या कहा यह बात बदायूंनी नहीं लिखता।
इस विषय में अबुल फजल 'अकबरनामा' में लिखता है 'सरसरी तौर पर देखने पर राणा की जीत नजर आती थी लेकिन अचानक खबर फैल गई कि बादशाह स्वयं आ गया। इससे शाही सेना में हिम्मत बढ़ गई और शत्रु सेना की हिम्मत टूट गई।'
अबुल फजल अकबरनामे में लिखता है कि दोनों पक्षों के वीरों ने जान सस्ती व इज्जत महंगी कर दी। जिस वीरता से वे लड़े उसी वीरता से उनके हाथी लड़े।
हल्दीघाटी युद्ध में जयमल का पुत्र राठौड़ रामदास व ग्वालियर के राजा रामशाह अपने पुत्र शालीवान के साथ बड़ी वीरता से लड़े व मारे गये। तंवर खानदान का एक भी वीर नहीं बचा।
हकीम खाँ सूर भी युद्ध में मारा गया। हाकीम खाँ सूरी का मकबरा खमनौर, राजसमंद में है। हल्दीघाटी का युद्ध दोपहर तक लगभग 5-6 घंटे तक चला। दोनों पक्षों से लगभग 500 व्यक्ति मारे गये। इसमें 128 मुसलमान और 380 हिन्दू थे।
प्रताप व शक्ति सिंह का मिलन
राजपूताने में कहानी प्रचलित है कि महाराणा जब युद्ध भूमि से जा रहे थे तो दो मुगल सैनिक इनके पीछे हो गये। शक्ति जो उदयसिंह के समय में अकबर की शरण में चला गया था।
युद्ध में वह अकबर की ओर से लड़ने आया था। लेकिन भाई पर आये संकट को देखकर वह उन दो मुगल सैनिकों के पीछे हो गया और उनको मार दिया व अपना घोड़ा महाराणा प्रताप को दिया। गोपीनाथ शर्मा के अनुसार शक्ति सिंह चित्तौड़ के तीसरे साके में मारा गया था।
युद्ध के परिणाम
हल्दीघाटी युद्ध सुबह से प्रारम्भ होकर दोपहर तक चला। प्रारम्भ में मेवाड़ का पलड़ा भारी रहा। बाद में मुगलों की स्थिति संभल गई। महाराणा के युद्ध भूमि से चले जाने के बाद अव्यवस्था फैल गई।
झाला मानसिंह राठौड़, शंकर दास रावत नैतसी आदि ने कुछ समय तक मुगलों का सामना किया। बाद में इन्हें पीछे हटना पड़ा। दोपहर तक मेवाड़ सेना के पाँव उखड़ गये। मुगल सेना ने अपना दवाब बनाये रखा।
युद्ध में किसकी विजय हुई इसमें विवाद हैं। अधिकांश इतिहासकारों ने मुगलों की जीत बताई है। मुस्लिम इतिहासकारों ने मुगलों की जीत का उल्लेख किया है।
कुछ लोगों ने महाराणा की जीत का समर्थन किया है। बदायूँनी मुगलों की जीत लिखता है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी विजय बताते है। बताने का कारण यह है कि मुगलों की वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि अकबर का आदेश था कि प्रताप गिरफ्तार कर लिये जाये। इस युद्ध में न तो प्रताप पकड़े गये और न ही बंदी बनाये गये।
ये कोई निर्णायक युद्ध नहीं था। इस दृष्टि से महाराणा प्रताप की पराजय भी नहीं कही जा सकती। गोपीनाथ शर्मा ने हल्दीघाटी के युद्ध को अनिर्णित युद्ध कहा है।
इस युद्ध में मुगल सेना को भारी क्षति हुई। मुगलों में महाराणा का पीछा करने की हिम्मत नहीं रही। युद्ध के इस परिणाम का दोषी अकबर ने मानसिंह को माना।
मानसिंह के कुछ समय तक दरबार में प्रवेश पर रोक लगा दी। हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा की शक्ति कमजोर नहीं हुई। बस उन्हें धक्का जरूर लगा। हताश होने की बजाय महाराणा का संकल्प और दृढ़ हो गया। क्योंकि संसार के सबसे शक्तिशाली सम्राट का सामना महाराणा के सैनिकों ने बड़ी वीरता से किया।
हल्दीघाटी युद्ध महाराणा प्रताप की नीतियों व कार्यों को विभाजित करने वाली रेखा है। प्रताप ने इस युद्ध के बाद निर्णय लिया कि भविष्य में अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु सेना का सामना खुले मैदान में नहीं करेंगे। महाराणा ने अब छापामार युद्ध प्रणाली अपना ली।
महाराणा के युद्ध में पीछे हटने के कारण
महाराणा की सेना में वीरता, उत्साह की कोई कमी नहीं थी। फिर भी इन्हें पीछे हटना पड़ा। इसका कारण जानने के लिए महाराणा की युद्ध नीति व तात्कालिक परिस्थितियों का विश्लेषण करना अनिवार्य है। महाराणा के राज्याभिषेक के बाद ये उनका पहला युद्ध था। यद्यपि महाराणा अपने पिता उदयसिंह के समय युद्धों मे भाग ले चुके थे फिर भी उस समय वे एक राजकुमार ही थे।
उदयसिंह के समय अकबर का आक्रमण हुआ तो उस समय पूरा राजपरिवार वनों में सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया था। अतः उन्हें युद्धों का अनुभव नहीं था।
हल्दीघाटी युद्ध महाराणा ने राजपूती परम्परा से लड़ा। ये उनके पीछे हटने का सबसे महत्वपूर्ण कारण था। क्योंकि महाराणा को अपनी समस्त सेना एक स्थान पर नहीं लानी चाहिए थी। जहाँ पर पूर्व में राजपूतों का पलड़ा भारी था। वहाँ आगे बढ़ना भी महाराणा के लिए घातक सिद्ध हुआ। उसी स्थान पर शत्रुओं को उलझाये रखना मेवाड़ के हित में था। महाराणा अपनी सेना को अगर पहाड़ियों में छिपा देते इसके बाद मुगल सेना आगे बढ़ती तो मुगल चारों ओर से घिर जाते। जिन्हें सरलता से समाप्त किया जा सकता था।
महाराणा के सैनिक शुरूआत में ही मुगलों पर टूट पड़े इस कारण वे जल्दी थक गये। मुगल सेना पूर्ण अनुशासन से लड़ी। महाराणा के युद्ध भूमि से बाहर निकलने के बाद सेना में अव्यवस्था फैल गयी। इसके अलावा महाराणा की सेना मुगलों की सेना की बजाय कम थी।
प्रताप में संकटकाल में शांत मनोवृत्ति, सूझबूझ से युद्ध-स्थल से बाहर निकलकर अपने आप को मारे जाने से बचाना एक महत्वपूर्ण कदम था। युद्ध भूमि से निकलकर अपने देश की रक्षा के कार्य में सक्रिय भाग लिया।
निश्चय ही युद्ध भूमि से निकल कर अपने आप को बचा लेना महाराणा का प्रशंसनीय कार्य था। अगर ये युद्ध भूमि में लड़ते हुए मारे जाते तो महाराणा प्रताप को वो प्रसिद्धि नहीं मिलती जो उन्हें जीवित रहने पर प्राप्त हुई।
मानसिंह का गोगुन्दा पर अधिकार
प्रताप हल्दीघाटी से सुरक्षित बच निकले, ये मेवाड़ के लिए बड़े ही सौभाग्य की बात थी। हल्दीघाटी से निकल कर महाराणा कोल्यारी (उदयपुर) गाँव पहुँचे। यहाँ घायल सैनिकों का उपचार किया और शीघ्र ही गोगुन्दा होते हुए मझेरा पहुँचे।
यहाँ भीलों को एकत्रित कर एक नई सेना बनाई। मानसिंह को सूचना मिली कि महाराणा गोगुन्दा में है। मानसिंह सेना लेकर गोगुन्दा पहुँचा। हल्दीघाटी के तीसरे दिन 23 जून, 1576 को मानसिंह ने गोगुन्दा पर अधिकार कर लिया।
गोगुन्दा में मुगलों की स्थिति (उदयपुर)
गोगुन्दा में मुगल सेना दुःखी हो गयी। इस पहाड़ी क्षेत्र में न तो अनाज पैदा होता है और न ही व्यापारी और बंजारें आते हैं। मुगल सेना के लिए खाने की समस्या पैदा हो गई।
यहाँ कई दिनों तक आम व माँस खाकर रहना पड़ा। इस कारण कई सैनिक बीमार भी पड़ गये। यहाँ मुगल सेना बंदी की तरह जीवन-यापन कर रही थी। क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं महाराणा पहाड़ियों से निकल कर उन पर हमला नहीं कर दे। इस भय से मानसिंह ने गोगुन्दा में चारों ओर खाई खुदवाई, ऊँची दीवार बनवाई ताकि कोई उन्हें पार करके अन्दर नहीं आ सके। दीवार, खाई, बाड़ ऐसे बनाई गई कि कोई घुड़सवार उसे पार नहीं कर सके। इसके बाद मृत व्यक्यिों व घोड़ों की सूची बनाने लगे।
बदायूँनी का अकबर के पास पहुँचना
अकबर युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था। अकबर ने महमूद खाँ को युद्ध का समाचार लाने के लिए गोगुन्दा भेजा। उसने समस्त वृत्तांत अकबर को सुनाया। हल्दीघाटी की जीत से अकबर को प्रसन्नता हुई। किन्तु महाराणा के बच निकलने के समाचार से वह खिन्न हुआ। गोगुन्दा से बदायूँनी 300 अंग रक्षकों के साथ रामप्रसाद हाथी को लेकर फतेहपुर सीकरी की ओर चला।
अकबर उस समय फतेहपुर सीकरी में था। विभिन्न स्थानों पर मुगल थानों को स्थापित करता हुआ मानसिंह भी गोगुन्दा से 20 कोस दूर मोही गाँव तक शिकार खेलता हुआ बदायूँनी के साथ गया। बदायूँनी माण्डलगढ़ होते हुए आमेर पहुँचा। हल्दीघाटी युद्ध की सूचना सभी जगह पहुँच गई थी। रास्ते में लोगों ने बदायूँनी से पूछा युद्ध का क्या परिणाम हुआ। बदायूँनी अकबर की विजय बताता किन्तु लोग उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहे थे। 25 जून, 1576 को बदायूँनी फतेहपुर सीकरी पहुँचा।
राजा भगवन्त दास ने युद्ध विजय के उपहार के रूप में रामप्रसाद हाथी अकबर को भेंट किया। अकबर को बड़ी प्रसन्नता हुई। अकबर ने हल्दीघाटी विजय को पीर की कृपा माना। इसलिए उसने रामप्रसाद हाथी का नाम पीरप्रसाद कर दिया। लेकिन अकबर मानसिंह से नाराज हो गया था।
उसे संदेह हो गया कि मानसिंह महाराणा के साथ मिल गया होगा। अकबर ने मानसिंह के शाही दरबार में प्रवेश पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया।
प्रताप का गोगुन्दा पुनः प्राप्त करना
हल्दीघाटी युद्ध के बाद मानसिंह ने गोगुन्दा पर अधिकार कर लिया था। अकबर ने नाराज होकर मानसिंह को गोगुन्दा से वापस अजमेर बुला लिया। मानसिंह के स्थान पर कुतुबुद्दीन मौहम्मद खां, कुली खाँ आदि को गोगुन्दा भेजा।
कुतुबुद्दीन मोहम्मद खाँ व कुली खाँ गोगुन्दा पर नियंत्रण नहीं रख सके। महाराणा प्रताप ने इसका फायदा उठाया। जुलाई, 1576 ई, में महाराणा ने गोगुन्दा पर आक्रमण कर दिया। मुगल सेना भाग खड़ी हुई। प्रताप ने गोगुन्दा पर अधिकार कर लिया। हल्दीघाटी युद्ध के बाद कोल्यार गाँव के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ को महाराणा ने अपनी अस्थाई राजधानी बनाई थी।
गोगुन्दा के बाद महाराणा कुम्भलगढ़ आये तथा कुम्भगलढ़ को अपना निवास स्थान बनाया व आगे के कार्यक्रमों के बारे में विचार करने लगे।
अकबर का उदयपुर आगमन
अकबर के लिए मेवाड़ प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। अकबर ने स्वयं महाराणा का दमन करने का निर्णय लिया किन्तु उसने अपने इस निर्णय को किसी के सामने प्रकट नहीं किया। सितम्बर में अकबर ख्वाजा साहब के यहाँ अजमेर आया। ख्वाजा की मजार पर दुआ मांगी व प्रताप को मिटाने की योजना बनाने लगा।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर ने अनेक वीरों को सम्मानित किया। मिहतर खाँ को भी विशेष सम्मानित किया। लेकिन मानसिंह व आसफ खाँ से मिलना भी स्वीकार नहीं किया।
11 अक्टूबर, 1576 को अकबर अजमेर से गोगुन्दा के लिए रवाना हुआ। पूरे मार्ग में अकबर की सुरक्षा की व्यवस्था की गई। अकबर से पहले ही सैनिक टुकड़ी भेज दी जाती थी। ताकि राजपूत हमला करें तो अकबर की रक्षा की जा सके। 13 अक्टूबर, 1576 अकबर गोगुन्दा पहुँच गया। अकबर के आने की सूचना मिलते ही महाराणा पहाड़ों में चले गये। गोगुन्दा पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया।
गोगुन्दा को कुछ दिन के लिए अकबर ने अपना मुख्यालय बना लिया। अकबर हल्दीघाटी देखना चाहता था। अकबर हल्दीघाटी पहुँचा। इसके बाद पूर्व की ओर मुड़ा। नाथद्वारा के पास मोही में 30 हजार सैनिक छोड़ दिये। इसके बाद मदारिया में शाही थाना नियुक्त किया। नवम्बर में अकबर उदयपुर पहुँचा। यहाँ कुछ दिन रुका।
फखरूद्दीन तथा जगन्नाथ को उदयपुर का प्रशासक नियुक्त किया। सैय्यद अब्दुला खाँ, भगवन्त दास को उदयपुर के पहाड़ी क्षेत्र का उत्तरदायित्व सौंपा। अब बाँसवाड़ा, डूंगरपुर की ओर चला। अकबर ने यहाँ महाराणा को पकड़ने के लिए 6 माह तक प्रयास किया। अकबर को विश्वास हो गया कि महाराणा को पकड़ना कोई आसान काम नहीं है।
बाँसवाड़ा का रावल प्रताप सिंह और डूंगरपुर का रावल आसकरण दोनों महाराणा प्रताप के मित्र थे। भगवन्त दास ने इन्हें अपनी ओर मिला लिया और अकबर की सेवा में उपस्थित किया। अकबर ने इनसे मित्रता की। डूंगरपुर के रावल आसकरण की पुत्री से अकबर ने विवाह कर लिया। अकबर मालवा की ओर रवाना हो गया। अकबर 12 मई, 1577 को फतेहपुर सीकरी पहुँच गया।
महाराणा का गोगुन्दा पर पुनः अधिकार
मुगल सेना व महाराणा के मध्य अब आँख मिचौली शुरू हो गयी। अकबर के मेवाड़ से वापस जाते ही महाराणा वापस सक्रिय हो गये। अकबर द्वारा स्थापित थानों पर घात लगाकर महाराणा आक्रमण करने लगे। मेवाड़ से आगरा जाने वाले मार्ग पर महाराणा ने अधिकार कर लिया। मुगल सेना का आवागमन बंद हो गया।
उदयपुर व गोगुन्दा में स्थापित थानों पर महाराणा का अधिकार हो गया। मोही पर हमला किया और वहाँ का थानेदार मारा गया। वीरविनोद के अनुसार महाराणा एक पल के लिए भी शांत नहीं बैठे। इन्होंने इस अवधि में अपने युद्ध की पौशाक एक क्षण के लिए भी नहीं उतारी।
शाहबाज खाँ का मेवाड़ पर आक्रमण
शाहबाज खाँ ने मेवाड़ पर 3 बार आक्रमण किया। अकबर ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध शाहजहाँ को सेनापति बनाकर एक बड़ी सेना भेजी। 15 अक्टूबर, 1577 शाहबाज खाँ मेवाड़ पहुँचा। शाहबाज को सफलता नहीं मिली। उसने अकबर से एक अतिरिक्त सेना की मांग की। अकबर ने शेख इब्राहिम फतेहपुरी ने नेतृत्व में शीघ्र ही सेना भेज दी। दोनों सेना लेकर शाहबाज खान आगे बढ़ा।
शाहबाज खाँ ने अपनी सेना में एक भी हिन्दू अधिकारी नहीं रखा। मानसिंह व भगवन्त दास को भी इस अभियान से अलग रखा। उसे डर था कि राजपूत होने के नाते ये महाराणा की सहायता न कर दे। महाराणा इस समय कुम्भगलढ़ में थे।
शाहबाज खाँ ने केलवाड़ा में शिविर डाला। महाराणा पहाड़ियों में चले गये। महाराणा को अपनी प्रजा को कृषि न करने की कठोर आज्ञा देनी पड़ी। इस क्षेत्र की जनता को चले जाने का आदेश दिया। ये राजा की आज्ञा इतनी कठोर थी कि प्रजा से कहा गया यदि कोई भी किसान एक विस्वा भूमि में भी खेती करके मुसलमानों को देगा तो उसका सिर काट दिया जायेगा। इस राजाज्ञा से सारे मेवाड़ में खेती बंद हो गई। किसान मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र चले गये।
शाहबाज खाँ इस समय कुम्भलगढ़ दुर्ग के नीचे केलवाड़ा गाँव में था। महाराणा कुम्भलगढ़ से निकलकर राणपुर में ठहरे। इसके बाद ईडर की ओर चूलिया गाँव पहुँचे। महाराणा ने कुम्भलगढ़ दुर्ग की रक्षा के लिए राव अक्षयराज के पुत्र भाण को नियुक्त किया। केलवाड़ा से कुम्भलगढ़ की दूरी 3 मील है।
शाहबाज खाँ कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार की योजना बनाने लगा। कुम्भलगढ़ दुर्ग में समस्त कोष महाराणा का मंत्री भामाशाह लेकर मालवा में रामपुरा चला गया। वहाँ के राव ने भामाशाह को सुरक्षा दी। शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। दुर्ग में राजपूत सामना कर रहे थे। दुर्भाग्य से एक दिन दुर्ग में रखी एक तोप फट गयी। किले में रखी युद्ध की बहुत सारी सामग्री जल गई। राजपूतों के लिए मुगलों का सामना करना कठिन हो गया। इस कारण उन्होने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए और आसान युद्ध हुआ।
3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने इस अजेय दुर्ग को जीत लिया। इतिहास में इस दुर्ग को सिर्फ शाहबाज खाँ ने ही जीता है। शाहबाज खाँ ने यह दुर्ग गाजी खान बादवशी को सौंप दिया। अब शाहबाज खाँ ने महाराणा को ढूंढते हुए गोगुन्दा पर अधिकार कर लिया। गोगुन्दा की व्यवस्था कर शाहबाज खाँ बड़ी तेजी से उदयपुर पहुँचा और उदयपुर पर अधिकार कर लिया। इन स्थानों पर शाहबाज खाँ ने बड़ी भयंकर लूट-पाट की। इसके बाद प्रताप को पकड़ने के लिए शाहबाज खाँ 3 महीने तक पहाड़ियों में भटकता रहा लेकिन प्रताप को नहीं पकड़ पाया। अतः विभिन्न स्थानों पर 50 मुगल थाने स्थापित कर अकबर के पास पंजाब चला गया।
राजेन्द्र बीड़ा लिखता है, 'शाहबाज खाँ जिस तेजी से कुम्भलगढ़, गोगुन्दा तथा फिर उदयपुर पहुँचा, उसने नेपोलियन को भी मात दे दी। रूस के युद्ध के बाद नेपालियन जिस तेजी से फ्रांस पहुँचा था उसी तेजी से शाहबाज खाँ कुम्भलगढ़, गोगुन्दा तथा उदयपुर पहुंचा था।'
महाराणा की भामाशाह से मुलाकात
महाराणा इस समय वन्य जीवन जी रहे थे। लगभग मेवाड़ पर मुगलों का अधिकार हो गया था शेष मेवाड़ विरान हो चुका था महाराणा निरन्तर संघर्ष कर रहे थे कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनकी आर्थिक स्थिति चिन्तनीय हो गई थी।
शाहबाज खाँ के मेवाड़ से जाते ही महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह व उनके भाई ताराचन्द ने मालवा से लूटकर लाई हुई 20 हजार स्वर्ण मुद्राएँ (अशर्फियाँ) व 25 लाख रूपडे महाराणा को भेंट किये। इस समय महाराणा चुलिया (चित्तौड़गढ़) गाँव में थे। भामाशाह पाली के थे। भामाशाह को 'मेवाड़ का उद्धारक' व टॉड ने इन्हें 'मेवाड़ का कर्ण' कहा। इससे पूर्व महाराणा के प्रधानमंत्री रामा महासाणी थे अब महाराणा के नये प्रधानमंत्री भामाशाह बन गये।
इस समय आर्थिक सहायता मिलना किसी वरदान से कम नहीं था। इससे महाराणा की सेना का संगठन तथा शक्ति संचय करने में बड़ी सहायता मिली।
शाहबाज खाँ का दूसरी बार मेवाड़ आगमन
शाहबाज खाँ का प्रथम मेवाड़ अभियान संतोषजनक रहा इस कारण अकबर ने पुनः शाहबाज खाँ को ही भेजा। 15 दिसम्बर 1578 ई. में शाहबाज खाँ महाराणा के विरुद्ध रवाना हुआ। शाहबाज खाँ के साथ गाजी खाँ, मौहम्मद हुसैन, अलि खान आदि भी थे।
इस अभियान में शाहबाज खाँ को विशाल धन राशि दी गई जिससे वे साम-दाम दण्ड-भेद किसी भी प्रकार से महाराणा का दमन कर सके। शाहबाज खाँ के मेवाड़ पहुँचते ही महाराणा पुनः वनों में चले गये। कहा जाता है शाहबाज खाँ को भेजते समय अकबर ने कठोर आदेश दिया था कि प्रताप का दमन किये बिना वापस आये तो सिर काट दिये जायेंगे। इसलिए विशाल धनराशि दी गई ताकि आवश्यकता पड़ने पर राजपूतों को खरीदा जा सके।
शाहबाज खाँ दूसरे अभियान में 2-3 माह तक मेवाड़ में रहा। महाराणा का पीछा भी किया उसे भले ही सफलता न मिली। परन्तु मेवाड़ के कुछ स्थानों पर अधिकार करने में सफलता हासिल की। शाहबाज खाँ के वापिस लौटते ही महाराणा पुनः सक्रिय हो गये महाराणा ने मुगल विरोधी कार्य और तीव्र कर दिये।
शाहबाज खाँ का तीसरी बार मेवाड़ आना
अकबर किसी भी मूल्य पर महाराणा का दमन कर मेवाड़ पर अधिकार करना चाहता था। इसके लिए वह कई बार अजमेर में ख्वाजा की दरगाह में मन्नत भी मांग चुका था। परन्तु उसे मनचाही सफलता अभी तक नहीं मिली थी। अक्टूबर, 1579 ई. में अकबर पुनः ख्वाजा की दरगाह अजमेर आया।
यहाँ पुनः मन्नत मांगी फिर सांभर पहुँचा यहाँ से उसने तीसरी बार शाहबाज खाँ को मेवाड़ जाने का आदेश दिया। 9 नवम्बर, 1579 ई. शाहबाज खाँ मेवाड़ के तीसरे अभियान के लिए रवाना हुआ। यहाँ उसने प्रताप के विरुद्ध पूरी शक्ति लगा दी। महाराणा पुनः पर्वतों में चले गये। शाहबाज खाँ पहाड़ों, वनों आदि सभी जगहों पर महाराणा को पकड़ने के लिए घूमता रहा।
महाराणा इस समय आबू से 12 मील दूर सोढ़ा के पहाड़ों में चले गये। वहाँ लोयाना के रावधूला के अतिथि बनकर रहे धूला की पुत्री से महाराणा ने विवाह किया महाराणा ने रावधूला को 'राणा' की उपाधि दी।
शाहबाज खाँ सफल नहीं हुआ। अकबर ने 1580 ई. में शाहबाज खाँ को वापस बुला लिया।
अब्दुलरहीम खानखाना का मेवाड़ अभियान
जून, 1580 ई. में अकबर ने अजमेर का सूबेदार रहीम जी को बनाया। रहीम जी बेरामखाँ के पुत्र थे। रहीम जी को प्रताप के विरुद्ध भेजा गया। रहीम जी ने अपना परिवार शेरपुरा में छोड़ दिया व प्रताप के पीछे लग गया, महाराणा इस समय ढोलान की ओर चले गये।
प्रताप से रहीम जी का ध्यान हटाने के लिए अमर सिंह ने शेरपुरा पर आक्रमण कर दिया व रहीम जी के परिवार को बन्दी बना लिया। जब यह सूचना महाराणा के पास भेजी गई, सूचना मिलते ही महाराणा ने अमर सिंह को सूचित किया कि खानखाना के परिवार को तुरन्त सम्मान के साथ छोड़ा जाये व उनकी महिलाओं के साथ किसी प्रकार दुर्व्यवहार नहीं किया जाये।
महाराणा के इस आदेश का पालन हुआ। खानखाना का पूरा परिवार सम्मान के साथ खानखाना के पास पहुँचा दिया गया। मुसलमानों को इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। महाराणा के इस उदार मानवतापूर्ण व्यवहार से खानखाना का कवि हृदय अभिभूत हो उठा। महाराणा के प्रति उनकी कृतज्ञता निम्न दोहे में साकार हो उठी-
भ्रम रहसी रहसी धरा, खस जारो खुरसाण।
अमर विसम्भर उपरौं, राखौ नह जा राण।।
मुगलों की मुख्य चौकियाँ
- दिवेर की चौकी- राजसमंद
- देबारी की चौकी- उदयपुर
- देसुरी की चौकी- पाली
- देवल की चौकी- डूंगरपुर
दिवेर का युद्ध (अक्टूबर 1582)
शाहबाज खाँ व रहीम जी के वापस जाने के बाद महाराणा ने मुगलों की चौकियों पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये। भामाशाह से आर्थिक सहायता मिलने के कारण सेना का गठन किया। दिवेर चौकी का प्रभारी सफलतान खाँ था।
महाराणा ने दिवेर पर आक्रमण किया। सफलतान खाँ व कुंवर अमरसिंह एक दूसरे से लड़ने लगे। अमरसिंह ने भाले से सफलतान खाँ पर इतनी शक्ति से वार किया कि भाला सफलतान खाँ सहित उसके घोड़े के आर-पार हो गया। दोनों उसी समय मारे गये। इस दृश्य की देखकर मुगल सैनिक भाग खड़े हुए व दिवेर पर महाराणा का अधिकार हो गया। दिवेर के युद्ध को महाराणा प्रताप के गौरव का प्रतीक तथा टॉड ने दिवेर के युद्ध को 'मेवाड़ का मैराथन' कहा।
दिवेर के युद्ध से महाराणा प्रताप के विजयों की शुरूआत मानी जाती है। दिवेर के बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़ के नजदीक हमीरसरा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद महाराणा ने कुम्भलगढ़ पर भी अधिकार कर लिया। अब महाराणा की सेना ने जावर, छप्पन व बागड़ की पहाड़ियों को जीतते हुए चावण्ड पहुँचे। चावण्ड पर भी अधिकार कर लिया।
डूंगरपुर के आसकरण व बाँसवाड़ा के प्रतापसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इसमें भगवन्तदास की मुख्य भूमिका थी। महाराणा ने रावतमान के नेतृत्व में डूंगरपुर, बाँसवाड़ा को अधीन करने के लिए भेजा। सोम नदी के पास 1578 ई. में रावतमान व डूंगरपुर, बाँसवाड़ा की सेना के मध्य युद्ध हुआ।
डूंगरपुर, बाँसवाड़ा वापस महाराणा प्रताप के अधीन हो गये। लेकिन रावतमान की मृत्यु हो गई थी।
जगन्नाथ कछवाहा मेवाड़ अभियान पर (1584 ई.)
अब्दुर्रहीम खानखाना के प्रति महाराणा का व्यवहार उदार था, जिसके सम्बन्ध में जानकारी होने पर अकबर ने यह अनुमान लगा लिया कि खानखाना कर्त्तव्य विमुख हो रहा है। अतः मेवाड़ अभियान हेतु उसने किसी अन्य व्यक्ति का चयन अधिक उपयुक्त समझा तथा किसी दूसरे को मेवाड़ भेजने का निर्णय किया। यद्यपि खानखाना को पद से विमुक्त नहीं किया। खानखाना 1591 ई. तक पद पर बने रहे। उनके स्थान पर अकबर ने राजा जगन्नाथ कछवाहा को महाराणा के विरुद्ध अभियान पर भेजा, वे राजा भगवानदास के अनुज थे। राजा जगन्नाथ ने हल्दीघाटी युद्ध में भी प्रतिभाग किया था।
6 दिसम्बर, 1584 ई. को जगन्नाथ कछवाहा ने मेवाड़ के लिए प्रस्थान किया। मिर्जा जाफर बेग उसका वक्शी बनाकर उसके साथ भेजा गया। उसने मेवाड़ पहुँचते ही महाराणा प्रताप द्वारा अधिकृत किये गए क्षेत्रों को अपने अधिकार में लेना आरम्भ कर दिया और शीघ्र ही मोही, माण्डलगढ़, मदारिया आदि स्थानों पर पुनः मुगल थानों की स्थापना कर दी।
सैयद राजू को माण्डलगढ़ का कार्यभार सौंपकर जगन्नाथ कछवाहा महाराणा की खोज में चल पड़ा। महाराणा चित्तौड़ की पहाड़ियों में चले गए। मुगलों द्वारा अधिकार किये गये क्षेत्रों में उन्होंने दूसरी ओर से आक्रमण कर दिया। सैयद राजू राणा से लोहा लेने आगे बढ़ा, किन्तु प्रताप पुनः चित्तौड़ की पहाड़ियों में चले गये।
विवश होकर सैयद राजू ने माण्डलगढ़ की ओर पुनः प्रस्थान किया। जगन्नाथ कछवाहा ने कुम्भलगढ़ पर भी आक्रमण किया, किन्तु प्रताप वहाँ अनुपस्थित थे, अतः जगन्नाथ भी वापस माण्डलगढ़ लौट आया। जगन्नाथ कछवाहा भी महाराणा को पकड़ने में नाकाम रहा।
महाराणा प्रताप द्वारा लिखे अकबर के पत्रों की सत्यता
महाराणा प्रताप के विषय में अनेक कहावतें व कहानियाँ लोक में प्रचलित हैं। जिसमें से एक घटना में प्रताप द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार करने की बात कही गई है। लोक में प्रचलित है कि शाहबाज खाँ ने अपने अभियानों के दौरान मेवाड़ को अधिकांशतः क्षतिग्रस्त कर दिया।
अपने प्रिय राज्य की ऐसी भयानक दुर्दशा देखकर प्रताप शोक में डूब गये अतः इन आक्रमणों को रोकने हेतु नतमस्तक हो व अपने अभिमान को कुचलकर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए उसे एक पत्र लिखा। कर्नल टॉड ने इस अप्रत्याशित ऐतिहासिक घटना का उल्लेख किया है और लिखा अकबर के पास जब यह पत्र पहुँचा तो प्रथमतः तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। अतः अपने संदेह निवारण हेतु उसने अपने दरबारियों से इस पत्र की सत्यता का परीक्षण किया। इस पत्र से अकबर के अनेक दरबारियों को निराशा हुई, जिस कारण राजपूतों की महाराणा प्रताप के प्रति अगाध श्रद्धा थी। इन्हीं दरबारियों में से एक बीकानेर के राजा पृथ्वीराज राठौड़ थे, जो प्रताप के इस निर्णय से बहुत दुखी थे, तथा वे कदापि नहीं चाहते थे प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर राजपूतों के अभियान पर प्रश्न चिह्न लगाये। साथ ही वे प्रताप की निष्ठा पर संदेह नहीं कर सकते थे, अतः उन्होंने अकबर के समक्ष उस पत्र को प्रताप का मानने से इन्कार कर दिया। इसके पश्चात् पृथ्वीराज ने महाराणा को एक पत्र लिखा। यह पत्र राजस्थानी भाषा की एक कविता थी, जो संक्षेप में इस प्रकार है-
"हिन्दुओं का सम्पूर्ण भरोसा एक हिन्दू पर है। राणा ने सब कुछ छोड़ दिया, और इसी से राजपूतों का गौरव आज भी बहुत कुछ सुरक्षित रह सका है। प्रताप ने अपना सब कुछ त्याग दिया है, क्या वह अपने स्वाभिमानी गौरव को भी बेचना चाहता है। बाजार में जिसने राजपूतों के गौरव की खरीद की है, वह भी एक दिन मिटाने वाला है। उस दशा में हमारा गौरव महाराणा प्रताप द्वारा ही प्राप्त होगा। उस दिन की प्रतीक्षा में राजस्थान के सम्पूर्ण राजपूतों की आँखे लगी हुई हैं।"
इस पत्र से प्रताप का सुप्त अभिमान पुनः जागृत हो गया और महाराणा अन्त तक संघर्ष करते रहे।
कर्नल टॉड को छोड़कर तत्कालीन किसी भी इतिहासकार ने महाराणा प्रताप के इस पत्र का उल्लेख नहीं किया। टॉड का यह वर्णन राजस्थान की एक लोक कथा पर ही आधारित है। इसीलिए प्रायः सभी इतिहासकारों ने इस घटना की सत्यता पर संदेहपूर्ण माना है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा इस पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं।
"महाराणा के संबंध में एक और लोककथा है, जिसे इतिहासकार स्वीकार नहीं करता और वह यह कि शाही फौजों के आतंक से घबराकर महाराणा प्रताप ने सम्राट को क्षमायाचनार्थ पत्र लिखा, यह कथन कर्नल टॉड ने बीकानेर की मौखिक परम्परा से ग्रहण किया और उसका प्रचार किया। डिंगल साहित्य में राणा और बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ (जो कवि भी था) के मध्य तथाकथित पत्रव्यवहार का उल्लेख मिलता है, जिसमें कुंवर पृथ्वीराज राणा से क्षमायाचना वार्ता के संबंध में पूछता है। पत्रोतर में राणा पृथ्वीराज को लिखता है कि उसने कभी सम्राट से क्षमायाचना नहीं की है और वह उसके सम्मुख किसी प्रकार से झुकने के लिए तैयार नहीं है। इस पत्र व्यवहार का वर्णन इतना रोचक है कि यह लोककथा में परिणत हो गया है।
यह कहना कठिन है कि इस लोक परम्परा में कविता का सृजन हुआ या इस कविता के माध्यम से लोक परम्परा को जन्म मिला। लोककथाएँ ऐतिहासिक हिन्दू या मुस्लिम इतिहासकार महाराणा प्रताप द्वारा क्षमायाचना के पत्र का उल्लेख नहीं करता। यदि ऐसा होता, तो मुस्लिम इतिहासकार उसके संबंध में अवश्य लिखते, क्योंकि ऐसी घटना न लिखी जाए ऐसा हो नहीं सकता मुस्लिम इतिहासकार इसे बढ़ा चढ़ाकर लिखते हैं।"
मेवाड़ पर अंतिम आक्रमण
जगन्नाथ कछवाहा मेवाड़ अभियान में विशेष रूप से सफल नहीं हो पाया। बार-बार प्रयासों के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई। अतः अकबर को आभास हो गया कि प्रताप के विरुद्ध जाना अंततः व्यर्थ ही है। महाराणा प्रताप किसी भी भाँति प्रभुसत्ता स्वीकार नहीं करेंगे। प्रताप को अधीन करना एक न पूरी होने वाली यात्रा है। इसके अतिरिक्त अकबर अन्य व्यवधानों में उलझ गया था।
सन् 1579 से 1585 तक के काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार तथा गुजरात के मुगल अधीन क्षेत्रों में विद्रोह के स्वर प्रबल होने लगे थे अतः अकबर इन संघर्षों में उलझा रहा। इसके पश्चात् अकबर ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत तथा पंजाब में उठे विद्रोहों के दमन में अपनी ऊर्जा लगा दी।
इन तथाकथित कारणों के चलते मेवाड़ राज्य पर अकबर का दबाव शिथिल हो गया, एक प्रकार से यह प्रताप के समय मेवाड़ के साथ अकबर के संघर्षों का विराम था। अतः जगन्नाथ कछवाहा का आक्रमण मेवाड़ पर प्रताप के काल का अंतिम आक्रमण माना जा सकता है।
राठौड़ों की प्रभुसत्ता
प्रताप के विरूद्ध मुगलों के अभियान जारी थे और महाराणा प्रताप अवसर प्राप्त होते ही पुनः मुगलों को खदेड़ देते थे।
महाराणा प्रताप को इन युद्धों में संघर्षरत देख कुछ आन्तरिक विद्रोही शक्तियाँ अपनी शक्ति में वृद्धि करने का प्रयोजन करने लगी थी। छप्पन के राठौड़ों ने इस अवसर से लाभान्वित होने का प्रयास किया। उन्होंने मगरा जिले के दक्षिण-पश्चिमी भाग में अपनी शक्ति में विस्तार किया। महाराणा के लिए यह एक नया संकट था। इसी समय जगन्नाथ कछवाहा भी मेवाड़ अभियान पर सक्रिय था। एक ओर महाराणा कछवाहा के अभियान में उलझे थे, दूसरी ओर राठौड़ विद्रोह पर उतारू हो गये थे।
महाराणा ने राठौड़ों का दमन करना अधिक आवश्यक समझा। अतः 1585 ई. में उन्होंने मगरा के दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रयाण किया। वहाँ उन्होंने राठौड़ों को पराजित किया। उनका नेता लूणा चावण्डिया हार गया और इस प्रकार वहाँ महाराणा की सत्ता स्थापित हो गई। सराड़ा के निकट सूरखण्ड गाँव के एक शिलालेख में इस घटना को उल्लेखित किया गया है।
1585 ई. में महाराणा ने अपनी राजधानी चावण्ड (सलूम्बर) में स्थापित की तथा चावण्ड में महाराणा प्रताप ने चामुण्डा माता के मन्दिर का निर्माण कराया। चावण्ड महाराणा प्रताप की अन्तिम राजधानी थी, चावण्ड 1613/1615 ई. तक राजधानी के रूप में स्थापित रही।
अधिकांश मेवाड़ पर अधिकार
अकबर के अन्य सघर्षों में लिप्त होने के कारण मेवाड़ पर मुगलों का दबाव घटने लगा। अतः महाराणा ने 1585 ई. में मेवाड़ की स्वतंत्रता हेतु अपने प्रयासों में वृद्धि कर दी।
अमरसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने प्रस्थान कर दिया। सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिये। मुगल सेना तितर-बितर होकर भागने लगी और शीघ्र ही उदयपुर, माही, गोगुंदा, माण्डल, पिण्डवाड़ा आदि 36 महत्वपूर्ण स्थानों पर महाराणा का आधिपत्य हो गया। महाराणा के अनवरत प्रयासों से एक वर्ष के अंतराल में ही उत्तर-पश्चिमी, उत्तर-पूर्वी तथा मध्यवर्ती मेवाड़ में स्थापित सभी मुगल चौकियाँ खाली हो गई। केवल चित्तौड़, माण्डलगढ़ और उनके उत्तर-पूर्व में मुगलों का अधिकार बचा रहा।
महाराणा प्रताप जिस समय सिंहासन पर आसीन हुए थे, उस समय जितने मेवाड़ पर उनका आधिपत्य था, लगभग उतने ही भू-भाग पर उनका पुनः अधिकार हो गया। बारह वर्षों के अनवरत संघर्ष के पश्चात् भी अकबर उसमें कोई परिर्वतन नहीं कर सका।
इसके पश्चात् महाराणा प्रताप ने मानसिंह तथा जगन्नाथ कछवाहा को सीख देने के उद्देश्य से आमेर के क्षेत्रों पर भी आक्रमण कर दिया तथा इसके एक सम्पन्न नगर मालपुरे (टोंक) को ध्वस्त कर दिया। बाँसवाड़ा तथा डूंगरपुर पर मुगलों की सत्ता स्थापित हो गई थी, इन दोनों राज्यों को भी उसने अपने अधीन कर लिया।
यह समय मेवाड़ के लिए स्वर्णिम काल व भाग्योदय लेकर आया। महाराणा दीर्घकालीन संघर्ष के पश्चात् अधिकांश मेवाड़ को स्वतंत्र करने में सफल हुए। इस विषय में डॉ. गोपीनाथ का कथन है "सन् 1585 ई. का समय महाराणा प्रताप के विषम जीवन का एक स्वर्णिम काल है। इस समय तक मुगलों का आंतक सा हो गया था। जगन्नाथ कछवाहा का मेवाड़ पर सम्भवतः अन्तिम आक्रमण था, क्योंकि सम्राट का ध्यान मेवाड़ से हटकर अब उत्तर-पश्चिमी सीमा के प्रदेशों व पंजाब की आवश्यक समस्याओं की ओर लग गया था। प्रताप ने इस विराम अवधि में पुनः उत्तर-पश्चिमी, उत्तर-पूर्वीय तथा केन्द्रीय मेवाड़ के भाग की मुगल चौकियों पर हमला करना आरम्भ कर दिया। उसने कुंवर अमरसिंह की सहायता से 36 स्थानों से, जिनमें मोही, गोगुंदां, माण्डल, पिण्डवाड़ा आदि मुख्य थे, मुगलों को निकाल दिया। मेवाड़ के प्रमुख स्थान महाराणा प्रताप के हाथ में आ चुके थे।"
गोगुंदा में सभा
विजय की प्रसन्नता से आह्लादित महाराणा ने गोगुंदा में एक भव्य सभा आयोजित की। इस सभा में महाराणा के सभी सामन्त व सैनिक सम्मिलित हुए तथा महाराणा की प्रसन्नता का हिस्सा बनें। युद्ध काल में साथ निभाने वाले वीरों तथा संघर्ष में अपने प्राणों की बलि देने वाले प्रतापियों के उत्तराधिकारियों को इस विस्तृत आयोजन में महाराणा ने यथासंभव पुरस्कृत व सम्मानित किया।
संघर्ष के दौरान मेवाड़ के जो भाग उजड़ गये थे उन्हें पुनः स्थापित करने का ऐलान किया गया।
नई राजधानी के रूप में चावण्ड (सराडा, सलूम्बर)
अपने इस उत्कर्ष काल में सन् 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने चावण्ड के रूप में अपने राज्य की नई राजधानी का निर्माण करवाया। इस क्षेत्र पर उन्होंने छप्पन के शासक चावण्डिया को पराजित कर विजय प्राप्त की थी। इसी क्षेत्र के चावण्ड गाँव को बाद में राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। यह क्षेत्र प्राकृतिक सुषमा से युक्त था जो चारों ओर से घने वनों व विस्तृत पर्वत मालाओं से युक्त था। अतः प्राकृतिक रूप से संपन्न यह क्षेत्र अन्य सुरक्षा कारणों से भी महत्त्वपूर्ण था तथा शांतिकाल में यह मुगलों की पहुँच से दूर था।
चावण्ड को अपनी राजधानी बनाना प्रताप की दूरदर्शिता का परिचय देता है।
चावण्ड को पुनर्निमित करते हुए नवीन निर्माण कार्य करवाया गया। भव्य राजमहलों के निर्माण के साथ ही इन महलों की निर्माण शैली राणा कुम्भा तथा राणा उदयसिंह की निर्माण शैली के समान रखी गई। इनके स्थापत्यों निर्माण में आकार, प्रकार और समय की आवश्यकता पर बारीकी से ध्यान दिया गया। आज भी इनके अवशेषों को देखकर ज्ञात होता है कि इनके निर्माण में युद्ध काल व्यापकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
प्रत्येक स्थान पर सुरक्षा, सुदृढ़ता आदि का समुचित ध्यान रखा गया है।
राजप्रासाद के निकट ही सामन्तों के निवास भी निर्मित किये गये। इन अवशेषों में इनके कमरे राजप्रासाद की तुलना में संकीर्ण थे। इनमें कुछ कमरे, चबूतरे तथा खुली घुड़शाल होती थी। मकानों की छतों को बाँस और केलू से ढका जाता था। जनसाधारण के लिए कच्चे मकान निर्मित कराये गये। राजप्रासाद के सम्मुख चामुण्डा माता का मन्दिर है।
चावण्ड महाराणा प्रताप की मृत्यु के पश्चात् भी अमरसिंह की जहांगीर से संधि के अगले वर्ष 1615 ई. तक मेवाड़ की राजधानी के रूप में स्थापित रहा। राजधानी न रहने के बाद भी इसने अपना उत्कर्ष नहीं खोया तथा प्रायः दो सौ वर्षों तक साहित्य, कला आदि का समृद्ध केन्द्र रहा।
उजड़े क्षेत्रों का पुननिर्माण
अरावली की शरण में जाने से पूर्व प्रताप ने कई क्षेत्रों का विध्वंस किया था। तत्पश्चात् मुगल प्रताप के पीछे गये व उक्त कार्यवाहियाँ करते वक्त उन्होंने मार्ग में पड़ने वाले क्षेत्रों को पूर्णतः उजाड़ दिया। मेवाड़ में जब स्वाधीनता ने साँस ली तब इन ध्वस्त क्षेत्रों को पुनः बसाना प्रारम्भ किया गया। पीपीली, ढोलान टीकड़ आदि क्षेत्र भी मुगल सेना द्वारा अग्नि के हवाले कर पूर्णतः नष्ट कर दिये। इन क्षेत्रों को भी पुनः निर्मित करने की प्रक्रिया आरम्भ की गई। कृषकों की पूर्ण सहायता की गई, उन्हें पुनः बसाने के उद्देश्य से उन्हें नई भूमि प्रदान की गई, जिससे वे स्वयं को उन्नत बना सके।
साथ ही कृषकों की भूमि के पुराने पट्टे प्रदान किये गये। समाज के विकास पर ध्यान दिया गया। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे बिंदुओं पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। प्रशासन द्वारा विकास की बागडोर थामने पर मेवाड़ की बंजर भूमि शस्य-श्यामला हो उठी। खेतों में फसलें लहलहाने लगीं। सुख, समृद्धि और शांति की त्रिवेणी राज्य में बहने लगी। जनता ने भय मुक्त होकर विचरना प्रारम्भ कर दिया। पुरुष, स्त्री, बच्चे, वृद्ध समाज के सभी वर्ग निर्भय होकर जीवनयापन करने लगे थे। यह सब प्रताप के एक अच्छा राजा होने का परिणाम था।
वह एक आदर्श चरित्र का स्वामी था, जिसके लिए उसकी प्रजा की भलाई सर्वोपरि थी। वह अपनी प्रजा से अगाध स्नेह करता था तथा उनके विकास व हित के लिए वह कुछ भी कर सकता था। अतः शांतिकाल में प्रताप ने अपनी जनता के जीवन को पूर्ण रूप से खुशहाल व समृद्ध बनाने के प्रयत्न किये।
महाप्रयाण
महाराणा प्रताप अपने पिता उदयसिंह के काल से ही मुगलों से संघर्षरत रहे। मेवाड़ का काल बने इन मुगलों द्वारा दी गई त्रासदी का अन्त सन् 1585 ई. में हुआ। इसके बाद प्रताप अपने राज्य के विकास में लग गये, किन्तु दुर्भाग्यवश लगभग ग्यारह वर्षों के उपरांत इस महान व दयावान शासक का ही 19 जनवरी, 1597 को देहावसान हो गया।
कर्नल टॉड के अनुसार महाराणा की मृत्यु असीम कष्टमय थी, उनके प्राण नहीं निकल पा रहे थे। उन्हें मेवाड़ की रक्षा की चिन्ता ने घेरा हुआ था। जब उनके सामन्तों ने उन्हें मेवाड़ की रक्षा का पूर्णतः आश्वासन दिया तब महाराणा के प्राण निकले।
उनकी मृत्यु किस रोग से हुई इस विषय में अनिश्चितता बनी हुई है। इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शिकार करते समय असावधानीवश उनके पाँव में आकस्मिक लगी चोट से घायल हो गये। निरन्तर संघर्षमय जीवन ने उनकी शारीरिक क्षमता क्षीण कर दी थी। अतः इस चोट की मार वे झेल न पाये और अस्वस्थ रहने लगे और कुछ दिनों में उनका देहान्त हो गया।
अकबरनामा में अबुलफजल के अनुसार अमरसिंह ने महाराणा को जहर दिया था, जो उनकी मृत्यु का कारण बना।
अबुलफजल के इस कथन का किसी भी समकालीन इतिहासकार ने कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, अतः उसका यह मत निराधार व मिथ्या व मनगढ़ंत माना जाता है।
कर्नल टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप की मृत्यु चावण्ड (सलूम्बर) में हुई न कि पिछोला झील पर। गाँव बाण्डोली (सलूम्बर) में एक झरने के निकट केजड़ बाँध के निकट उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। यह क्षेत्र राजपरिवार का श्मशान स्थल है। बाण्डोली और चावण्ड में प्रायः डेढ़ मील की दूरी है। बाण्डोली में ही उनके स्मारक के रूप में एक छोटी समाधि का निर्माण किया गया, जिस पर आठ खम्भों की एक छतरी है।
इस छतरी पर बाद में लगभग सन् 1601 ई. में किसी ने उनकी बहिन के विषय में एक पाषाण लेख लगा दिया, जिससे प्रायः लोगों को भ्रम हो जाता है कि यह महाराणा की नहीं, अपितु उनकी बहिन की समाधि है, जो सत्य नहीं है।
महाराणा की मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया
प्रताप की विशिष्टताओं की पर्यालोचना करने से पूर्व यह समझना अनिवार्य है कि महाराणा स्वयं में ही एक विशिष्टता थे। उनके समकालीन या उनके समकक्ष के किसी भी राजा का व्यवहार और चरित्र प्रताप की तुलना में समान नहीं था, उनकी श्रेष्ठता अतुलनीय थी। न ही किसी ने वैसी सफलता प्राप्त की।
अपनी असाधारण, देशभक्ति, देशाभिमान, वीरता और चरित्र की दृढ़ता के कारण प्रताप भारतीय सांकृतिक परंपरा के प्रतीक के साथ-साथ उनके संरक्षक भी बन गये।
अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु व विरोधी था, किन्तु उनकी यह लड़ाई किसी व्यक्तिगत द्वेष से प्रेरित न थी, अपितु सिद्धान्तों पर आधारित थी। साम्राज्यवादी होते हुए भी अकबर गुणग्राही था। वह गुणों की कदर जानता था।
महाराणा प्रताप की मृत्यु पर वह अत्यन्त शोकग्रस्त हुआ था, क्योंकि हृद्य से वह उनके गुणों का प्रशंसक था। जब अकबर को दरबार में महाराणा की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ अकबर रहस्यमय रूप से मौन हो गया। वह अनिर्वचीय हो गया।
उसी समय उसके एक दरबारी चारण दुरसा आढ़ा ने प्रताप के प्रति श्रद्धायुक्त कविता का पाठ किया। सभी दरबारियों को लगा कि इससे चारण दुरसा आड़ा को बादशाह के कोप का शिकार होना पड़ेगा। सभी निर्णय की भय एवं उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे, किन्तु ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ। अकबर ने चारण को अपने समक्ष बुलाया तथा उसे पुनः कविता पाठ करने का आदेश दिया। चारण ने पुनः अपना छप्पय सुनाया। इस छप्पय को सुनने के बाद अकबर ने चारण से कहा कि तुमने मेरे मनोभावों को भलीभांति व्यक्त कर दिया है। इस पर उसने दुरसा चारण को पुरस्कृत भी किया।
किसी की महानता का इससे बढ़कर और क्या साक्ष्य हो सकता है कि उसके शत्रु भी उसकी प्रशंसा करें। वास्तव में महाराणा प्रताप की मृत्यु से मेवाड़ के ही नहीं, भारत के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। इस विषय में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के निम्नलिखित शब्द उल्लेखनीय हैं-
"प्रताप की मृत्यु से एक युग की समाप्ति होती है। राजपूत राजनीतिक मंच से एक सुयोग्य व चमत्कारी व्यक्ति चला गया। अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता से उसने अपने पड़ोसी राज्यों से मित्रता संबंध स्थापित कर चतुराई से मुगलों का ध्यान मेवाड से हटाकर उन राज्यों की ओर लगा दिया। एक आशावादी होते हुए उसने भाग्य को संतुलित बुद्धि से सहन किया।
साहस और सफलता से उसने अपने सैनिकों को कर्मपरायणता का पाठ पढ़ाया, प्रजा को आशावादी होने की प्रेरणा दी और शत्रु को उसके प्रति सम्मान प्रदर्शन करने की सीख दी।"
यद्यपि समस्त इतिहासकार इस बात के पक्ष में हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् महाराणा का जीवन अत्यन्त संघर्षमय रहा, वे मुगलों के विरुद्ध निरन्तर युद्धों में उलझे रहे और मेवाड़ की जीत के बाद सन् 1597 ई. में चावण्ड में वे कलवित हुए। परन्तु इस मत के विरुद्ध श्री राजेन्द्र बीड़ा ने अपनी पुस्तक 'महाराणा प्रताप' में एक भिन्न मत का प्रतिपादन करते हुए महाराणा की मृत्यु के संबंध में कुछ विरोधाभास उत्पन्न कर दिया, उनके अनुसार महाराणा की मृत्यु हल्दीघाटी युद्ध में घायल होने के तुरन्त बाद ही हो गई थी।
"हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के बारे में सही तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे जिन्दा भी थे या नहीं। इतिहास के विद्यार्थी को लगता है कि कहीं महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध के बाद ही चल न बसे हों। कहीं पीथल और राजा मानसिंह ने उनके नहीं होते हुए भी उनके होने की बात को प्रचलित न रखा हो।"
मुगलों के सतत् अभियानों के पश्चात् भी महाराणा प्रताप मुगलों के हाथ नहीं लगे। इस विषय में संदेह व्यक्त करते हुए श्री बीड़ा ने लिखा है "अकबर की इस खोजबीन के बावजूद प्रताप का कहीं पता न लग पाना इतिहास के विद्यार्थी के मस्तिष्क में संदेह पैदा करता है कि कहीं महाराणा प्रताप हल्दीघाटी में लगे घावों के कारण कालकलवित न गए हों।"
श्री बीड़ा की आशंका संभवतः सत्य हो सकती है, किन्तु प्रताप को मुगलों द्वारा न पकड़ पाना ही इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि प्रताप उस समय जीवित नहीं थे। मुगल प्रताप ही क्या, उनके किसी सामन्त या अमरसिंह को भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले सके, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि ये सब भी उस समय कालकलवित हो चुके थे।
श्री बीड़ा का मत है कि हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा ने जितने भी संघर्ष किये, उन सभी का संचालन अमरसिंह द्वारा किया गया, प्रताप द्वारा नहीं। उनका यह भी मानना है कि मानसिंह तथा अमरसिंह ने प्रताप के जीवित रहने की कहानी अपने निहित स्वार्थों के लिए रची-
"महाराणा प्रताप के शव का न मिल पाना और मानसिंह का हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात राणा का पीछा न करना, ये दो ऐसी बातें है, जिसने प्रताप के भूत को बीस साल तक खड़े रखा। इस संबंध में यह कहना अप्रासंगिक भी होगा कि इसी प्रकार बीरबल की लाश नहीं मिलने पर भी अकबर के समय कई बीरबल खड़े कर दिए गए थे।"
जो भी हो जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता कि महाराणा प्रताप हल्दीघाटी युद्ध के तुरन्त बाद दिवंगत हो गये थे, तब तक यही मानना पड़ेगा कि उनकी मृत्यु 1597 ई. में हुई थी।
अतः वीरों में वीर, युग निर्माता, युग पुरुष व महान योद्धा महाराणा प्रताप का जीवन अंत तक मुगलों के साथ संघर्ष में बीता। उन्होंने इस संघर्ष के चलते न क्षण भर स्वयं चैन लिया और न ही अकबर को शांत बैठने दिया। अकबर के विशाल साम्राज्य की शक्ति भी उनके संकल्प में कोई व्यवधान न डाल सकी। इस धैर्य और अडिग संकल्प के चलते अंततः वे विजयी रहे। विजय के उपरान्त उन्होंने मेवाड़ के चहुंमुखी विकास पर ध्यान दिया। मेवाड़ की जनता के जीवन को संतुलित करने व समृद्ध करने के अनेक प्रयास किये। उनकी समस्याओं का समाधान किया। अपनी नई राजधानी चावण्ड को उन्होंने अपनी सुरुचि का केन्द्र बनाते हुए विकसित किया। नई राजधानी चावण्ड उनकी कलाप्रियता का परिचय देती है। किंतु काल के सामने किसकी चली है। अति अल्प समय में समय चक्र ने उन्हें मेवाड़ से छीन लिया और महाराणा ने स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। किंतु उनका व्यक्तित्व इतना प्रखर और तेजस्वी था कि उनके शत्रु भी उनसे सदैव अभिभूत रहे व उनके गुणों से प्रभावित रहे।
चक्रपाणि मिश्र (मथुरा) महाराणा प्रताप का दरबारी कवि इन्होंने विश्व वल्लभ, मुहूर्त माला, व्यवहारदर्शा, राज्याभिषेक पद्धति नामक रचनाएँ लिखी।
महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन खेल के क्षेत्र में महाराणा प्रताप पुरस्कार देती है।
महाराणा प्रताप के स्मारक
- हल्दीघाटी - राजसमंद
- फतेहसागर झील - उदयपुर
- पुष्कर - अजमेर
- महाराणा प्रताप का शस्त्रागार मायरा (उदयपुर) में था।
- शक्तिसिंह के घोड़े का नाम त्राटक था।
- महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक काठियावाड़ी नस्ल का था।
- महाराणा प्रताप के महलों के अवशेष धौलिया गाँव (चावण्ड) में थे।
- जोगीमण्डी-योगी रूपनाथ ने महाराणा प्रताप को आशीर्वाद दिया कि मगराचल के राजपूतों का साथ मिलने पर आपकी विजय होगी।
- आडामथारा की पहाड़ी-यहाँ से दिवेर युद्ध की घोषणा हुई।
- उडकेश्वर महादेव मंदिर-दिवेर युद्ध से पहले व बाद में महाराणा प्रताप ने यहाँ पूजा की थी।
- गोकुलगढ़ महाराणा प्रताप की गुप्त राजधानी थी। यहाँ से महाराणा प्रताप गुप्त योजनाएँ बनाते थे।
- पंचमहूवा के साधुओं ने महाराणा प्रताप का साथ दिया था।
- छापली गाँव में छापामार युद्ध पद्धति का प्रयोग किया था।
- चावण्ड राजधानी लगभग 30 वर्षों तक रही, महाराणा प्रताप की चावण्ड राजधानी 12 वर्ष तक रही।
महाराणा अमरसिंह (1597-1620 ई.)
अमरसिंह का जन्म 1559 ई. में हुआ था। इनका राज्याभिषेक 19 जनवरी, 1597 ई. को हुआ था।
भामाशाह व उनके वंशज
महाराणा प्रताप के समय प्रधानमंत्री भामाशाह थे, महाराणा अमरसिंह के समय 3 वर्ष तक भामाशाह ही प्रधानमंत्री रहे। 1600 ई. में भामाशाह की मृत्यु हो गई तब अमरसिंह ने उनके पुत्र जीवाशाह को प्रधानमंत्री बनाया। जीवाशाह अपने पिता की लिखी बही के अनुसार खजाना निकालकर राज्य का खर्च चलाता रहा।
संधि होने के बाद जब कर्ण सिंह बादशाह जहाँगीर के पास अजमेर आया उस समय जीवाशाह भी उनके साथ थे। जीवाशाह की मृत्यु के बाद कर्णसिंह ने उनके पुत्र अक्षयराज को प्रधानमंत्री बनाया। इस प्रकार तीन पीढ़ियों तक भामाशाह का परिवार मेवाड़ के प्रधानमंत्री रहे।
सलीम का मेवाड़ आगमन
महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद भी अकबर की मेवाड़ को अधीन करने की लालसा वैसी ही थी। इसलिए उसने अपने पुत्र सलीम या जहाँगीर को 1600 ई. में मानसिंह आदि कई बड़े सरदारों के साथ मेवाड़ में आकर सलीम ने माण्डल, मोही, मदोरिया, बागौर, उंटाला आदि स्थानों पर थाने स्थापित कर दिये व उंटाला के किले को कायम खाँ को सौंप दिया। महाराणा अमरसिंह ने इन थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।
हरावल सेना को लेकर विवाद
युद्ध में राजा के आगे जो सेना रहती है उसे हरावल सेना कहते हैं। हरावल सेना में हमेशा चूड़ावत रहते थे। लेकिन अमरसिंह के समय शक्तावतों का प्रभाव भी बढ़ने लगा तब शक्तावतों ने कहा कि हरावल सेना में हम रहेंगे। इस विवाद को बढ़ता देख कर महाराणा अमरसिंह ने कहा हरावल सेना में वही रहेंगे जो ऊँटाला (सलूम्बर) के किलों में सर्वप्रथम प्रवेश करेगा वही हरावल सेना में रहेगा। यह सुनकर चूड़ावत व शक्तावत अपनी-अपनी सेना लेकर ऊँटाला (सलूम्बर) पर आक्रमण करने चल पड़े।
शक्तावत रास्ते से परिचित होने के कारण सर्वप्रथम पहुँचे। शक्तिसिंह का तीसरा पुत्र बल्लू शक्तावत मुख्य दरवाजे पर खड़ा हो गया। इसने महावत से कहा हाथी से दरवाजे को टक्कर मरवाओं, दरवाजे पर भाले की कील लगी होने के कारण व हाथी के दांत नहीं होने के कारण, हाथी दरवाजे के टक्कर नहीं दे पाया तब बल्लू शक्तावत भालों की कीलों के आगे खड़ा हो गया व महावत से कहा हाथी को मेरे शरीर पर टक्कर मरवाओं, दूसरी तरफ चूड़ावत रावत जैत सिंह, रावत दूदा आदि भी कीलों के पास पहुँचकर सीढ़ी लगाकर दीवार पर चढ़ने लगे परन्तु गोली लगने के कारण जैत सिंह नीचे गिर गये, जैत सिंह ने साथियों से कहा मेरा सिर काटकर कीले में फैंक दो उन्होंने वैसा ही किया, चुड़ावत भी सीढ़ियों द्वारा किले पर चढ़ गये।
उधर मुख्य दरवाजा तोड़कर शक्तावत भी किले में पहुँचे, युद्ध हुआ कायम खाँ व बहुत सारे शाही सैनिक मारे गये, कुछ कैद कर लिये गये। महाराणा अमर सिंह ने युद्ध का समाचार सुनकर चूड़ावत व शक्तावत दोनों पक्ष वालों की प्रतिष्ठा बढ़ाई। लेकिन हरावल में रहने का अधिकार चूड़ावतों का ही रहा।
सलीम इस अभियान से निराश होकर मेवाड़ से बंगाल की ओर चला गया।
सलीम का मेवाड़ में दूसरी बार आगमन
1603 ई. में बादशाह अकबर ने बड़ी सेना के साथ सलीम को महाराणा अमर सिंह के विरुद्ध भेजा, सलीम के साथ जगन्नाथ कछवाहा, माधोसिंह कछवाहा, बीकानेर शासक राय सिंह, बूँदी से राय भोज, मोटा राजा का पुत्र विक्रमाजीत व दलपत आदि राजपूत सरदार भी थे। सलीम अपने पिता की आज्ञा को न टाल पाने के कारण सेना सहित रवाना हुआ। परन्तु उसको मेवाड़ की पूर्व चढ़ाई का अनुभव हो चुका था इसलिए वह मेवाड़ के विरुद्ध जाना नहीं चाह रहा था व फतेहपुर में आकर रूक गया।
यहाँ से उसने बादशाह अकबर को अर्जी भेजी की सेना तैयार नहीं है। अतः मुझे और सेना व खजाने की आवश्यकता है। अतः मुझे अपनी जागीर इलाहाबाद जाने की आज्ञा दें। बादशाह अकबर समझ गया कि वह मेवाड़ जाना नहीं चाहता। अतः उसे इलाहाबाद जाने की आज्ञा दे दी. सलीम इलाहाबाद चला गया।
शहजादा परवेज का मेवाड़ आगमन
1605 ई. में अकबर की मृत्यु हो गई। नया बादशाह सलीम जहाँगीर नाम से बना। सलीम ने बादशाह बनते ही मेवाड़ के विरुद्ध वहीं नीति रखी जो अकबर ने रखी। बादशाह बनते ही 1605 ई. में 20 हजार सेना के साथ शहजादा परवेज को महाराणा अमर सिंह के विरुद्ध भेजा व शहजादे से कहा महाराणा अमर सिंह व उसका पुत्र कर्ण सिंह अधीनता स्वीकार कर लें तो मेवाड़ में किसी प्रकार की हानि नहीं करना।
शहजादा परवेज व महाराणा अमर सिंह के मध्य ऊंटाला व देबारी (उदयपुर) के मध्य युद्ध हुआ। दोनों पक्षों के बहुत सारे लोग मारे गये। शाही सेना का भी नुकसान हुआ, शहजादा परवेज वापस चला गया।
सगर को चित्तौड़ (उदयपुर) का राणा बनाना
जहाँगीर ने शहजादा परवेज को मेवाड़ भेजते समय महाराणा अमर सिंह के चाचा सगर को चित्तौड़ का किला व मुगलों के अधीन जो मेवाड़ का क्षेत्र था वह दे दिया। ऐसा जहाँगीर ने इसलिए किया ताकि मेवाड़ के सरदार राणा अमर सिंह का साथ छोड़कर सगर की ओर आ जाये व अमर सिंह की शक्ति कमजोर हो जाये, परन्तु महाराणा अमर सिंह के स्वामीभक्त सरदारों पर इसका कोई असर नहीं हुआ। थोड़े वर्षों बाद सगर को राणा का पद छोड़कर पुनः रावत की उपाधि धारण करने का अपमान सहना पड़ा व चित्तौड़ का किला भी पुनः देना पड़ा।
महावत खाँ का मेवाड़ आगमन
शहजादा परवेज के असफल होने के बाद 1608 ई. में जहाँगीर ने महावत खाँ को मेवाड़ भेजा। महावत खाँ भी असफल होकर वापस लौट गया।
अब्दुला खाँ का मेवाड़ आगमन
1609 ई. में जहाँगीर ने फिरोजजंग की उपाधि देकर अब्दुला खाँ को भेजा।
राणपुर का युद्ध
1611 ई. में अब्दुला खाँ ने राणपुर की घाटी के पास अमर सिंह की सेना पर आक्रमण किया। इसमें अमर सिंह की सेना की विजय हुई। इस युद्ध में अमर सिंह के कई नामी सरदार मारे गये। परन्तु इस विजय से मेवाड़ की नष्ट हुई कीर्ति एक बार पुनः चमक उठी। गोंड़वाड के परगने पर अमरसिंह का अधिकार हो गया। यह परगना मुगलों के अधीन चला गया था।
अब्दुला खाँ को विशेष सफलता नहीं मिली। जहाँगीर ने अब्दुला खाँ को 1611 ई. में गुजरात का सूबेदार बनाकर वहाँ भेज दिया।
राजा बासु का मेवाड़ आगमन
राजा बासु पंजाब के मऊ और पठानकोट जिलों का स्वामी था व नूरपुर उसकी राजधानी थी। यह तंवर वंश से था। 1611 ई. में जहाँगीर ने राजा बासु को मेवाड़ भेजा।
बासु के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। तुजुके-जहाँगीरी के अनुसार मेवाड़ की सीमा के पास शाहबाद में इसकी मृत्यु हो गई।
स्वयं बादशाह जहाँगीर का मेवाड़ आगमन
सभी अभियानों की असफलता के बाद जहाँगीर ने विचार किया जब तक मैं स्वयं नहीं जाऊंगा महाराणा अमर सिंह अधीन नहीं होंगे। यही विचार कर जहाँगीर 7 सितम्बर, 1613 ई. को आगरा से रवाना होकर 8 नवम्बर को अजमेर पहुँचा।
इस संबंध में बादशाह जहाँगीर स्वयं लिखता है "मेरे इस अभियान के दो उद्देश्य थे, एक तो ख्वाजा साहब की जियारत करना दूसरा हिन्दुस्तान के मुख्य राजाओं में से एक महाराणा अमर सिंह को अधीन करना"।
शहजादा खुर्रम को मेवाड़ भेजना
जहाँगीर स्वयं अजमेर ठहर गया, व शहजादे खुर्रम को बड़ी सेना देकर मेवाड़ भेजा। खुर्रम के साथ जोधपुर से राजा सुरसिंह, राणा सगर, राजा कृष्ण सिंह, बूँदी से राव रतन हाड़ा, राजा बशु का बेटा राजा सूरजमल तंवर, रजाक बेग आदि थे।
शहजादा बहुत बड़ी सेना के साथ 17 दिसम्बर, 1613 ई. अजमेर से चलकर माण्डलगढ़ पहुँचा, इसके बाद खुर्रम उदयपुर आ ठहरा। इधर महाराणा अमर सिंह भी अपने मुख्य सरदारों सहित मुकाबले के लिए तैयार हुए। शहजादे खुर्रम ने अपनी सेना के चार भाग करके उन्हें अमर सिंह को पहाड़ियों में ढूंढने भेजा, इन चारों सेना की टुकड़ियों ने पहाड़ियों में प्रवेश कर लूटमार की, गाँव को जलाया व लोगों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया।
महाराणा ने सरदारों को आज्ञा दी जहाँ मौका मिले युद्ध किया जाये व मुगलों की रसद लूट ली जाये परन्तु थोड़े से राजपूत इतनी बड़ी सेना का मुकाबला कब तक करते, शाही सेना आगे बढ़ने लगी, अब्बदुला खाँ ने महाराणा अमर सिंह का पीछा करते समय उसके प्रसिद्ध हाथी आलमगुमान को पकड़ कर शहजादे खुर्रम को भेंट किया। शाही सेना आगे बढ़कर चावण्ड के नजदीक पहुँची, महाराणा अमरसिंह चावण्ड छोड़कर छप्पन की पहाड़ियों में चले गये, इस समय जो हाथी पीछे रह गये थे वो शाही सेना के हाथ लग गये थे, इसमें आलमगुमान सहित 17 हाथी और थे।
खुर्रम ने इन हाथियों को बाद में बादशाह जहाँगीर के पास अजमेर पहुँचा दिया। शाही सेना लूटमार करते हुए आगे बढ़ रही थी, महाराणा का क्षेत्र सीमित होता जा रहा था।
शाही सेना लोगों की स्त्रियों व बाल बच्चों को कैद कर रही थी। अन्त में महाराणा के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई, अगर युद्ध जारी रहता है तो या तो उन्हें देश छोड़ना पड़ेगा या कैद होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति को देखकर सभी सरदारों ने महाराणा अमरसिंह से निवेदन किया कि लड़ते लड़ते कई साल बीत गये, अपना देश शत्रुओं के हाथ में जा रहा है बाल बच्चे पकड़े जा रहे है, स्त्रियाँ पकड़ी जा रही हैं इससे राजा का अपमान होता है। अतः संधि कर ली जावे, राजपूतों के लिए यह बड़ी विकट स्थिति थी, यह राजपूत महाराणा सांगा के समय से मुगलों से लड़ते आ रहे थे, कईयों की तीन-तीन पीढ़ियाँ गुजर गई लड़ते-लड़ते। अतः इनकी भी संधि करने की इच्छा थी, मगर दूसरी तरफ महाराणा यह भी जानते थे कि बादशाह के अधीन रहने वालों की क्या दशा होती है।
बादशाह के दरबार में जाकर वहाँ मुजरा करना पड़ता था। जब दरबार लगता बादशाह ऊँचे सिंहासन पर बैठता, शहजादों के अतिरिक्त अन्य किसी को बैठक नहीं मिलती थी। सभी राजा, उमराव व अमीरों को अपनी मनसब के अनुसार भिन्न-भिन्न पंक्ति में हाथ जोड़कर खड़े रहना पड़ता था। बहुत थक जाने पर कुछ बुजुर्ग राजाओं को सहारे के लिए लकड़ी दी जाती थी। इसके अतिरिक्त कभी-कभी राजाओं को कई वर्षों तक अपने राज्य में लौटने की आज्ञा नहीं दी जाती थी। व दूर-दूर तक उन्हें मुसलमान अफसरों के अधीन भेजा जाता था, कई बार अपमान भी सहन करना पड़ता था।
यह सब बप्पारावल के वंशज सहन नहीं कर सकते थे। तब ऐसा रास्ता निकाला गया ताकि महाराणा का अपमान भी ना हो और संधि भी हो जाये। शहजादे की इच्छा जानने के लिए मेवाड़ की ओर से शर्त बताकर राय सुन्दरदास को भेजा, खुर्रम ने शर्त स्वीकार की, खुर्रम ने मौलवी शकुलाह व सुन्दरदास को जहाँगीर के पास भेजा, जहाँगीर ने भी संधि के लिए सहमति दे दी।
मेवाड़ मुगल संधि (5 फरवरी, 1615 ई.)
संधि की तारीख निश्चित की गई, महाराणा उक्त तारीख पर अपने मुख्य सरदार व कुंवरों सहित गोगून्दे थाने पर मुलाकात के लिए चले। जब यह खुर्रम के नजदीक पहुँचे तब खुर्रम ने अगवानी के लिए अब्बदुला खाँ, सूरसिंह, वीरसिंह बुदेला आदि को भेजा, इन्होंने बड़े सम्मान के साथ अमरसिंह को शहजादा के पास लाये।
सलाम कलाम होने के बाद शहजादे खुर्रम ने महाराणा अमर सिंह को छाती से लगाकर बायीं ओर बैठाया, महाराणा ने शहजादे को एक लाल भेंट किया, ये लाल चन्द्रसेन के पास था, जिसे विपत्ति के समय चन्द्रसेन ने उदयसिंह को बेचा था। इसकी कीमत उस समय 60 हजार थी। लाल के अतिरिक्त 7 हाथी व 9 घोड़े दिये। शहजादे ने भी बहुत सारे उपहार दिये।
संधि की शर्ते
- महाराणा कभी मुगल दरबार में नहीं जायेगा। अपने कुंवर को भेजेगा। महाराणा ने कर्ण सिंह को मुगल दरबार में भेजा था।
- शाही सेना में महाराणा के 1 हज़ार सवार रहेंगे।
- किसी प्रकार का वैवाहिक संबंध नहीं होगा।
- चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं की जायेगी। ध्यान रहे इस शर्त को जगत सिंह प्रथम ने तोड़ा व चित्तौड़ की मरम्मत प्रारम्भ कर दी थी, फिर राजसिंह ने चित्तौड़ की मरम्मत पूर्ण करवा दी थी।
मुगलों के अधीन जो क्षेत्र थे वो चित्तौड़, माण्डलगढ़, उदयपुर वापिस दे दिये गये। चावण्ड राजधानी 1585 ई. में बनी व 1613 ई. तक रही।
महाराणा अमरसिंह ने जो संधि की वो मेवाड़ के प्राचीन गौरव की रक्षा के साथ की गई, मेवाड़ के किसी महाराणा को मुगल दरबार में जाकर सलाम करने का अपमान नहीं सहन करना पड़ा। लेकिन महाराणा को इस संधि से इतना दुःख हुआ कि उन्होंने राजकार्य कर्ण सिंह को सौंप दिया स्वयं राज महलों में एकान्त में रहने लगे। जैसे अकबर के साथ लड़ने वाले वीर जयमल व फत्ता की मूर्तियाँ आगरे के किले में लगवायी। वैसे ही जहाँगीर ने अजमेर में रहते समय महाराणा अमर सिंह व कुंवर कर्ण सिंह की पूरे कद की खड़ी संगमरमर की मूर्तियाँ बनवायी व आगरा के किले में लगवायी। मेवाड़ का नया राणा बनते ही मुगलों की ओर से घर बैठे ही मनसबदारी भेज दी जाती थी। मुगलों के समय इतनी प्रतिष्ठा किसी अन्य राजा की नहीं थी जैसी मेवाड़ महाराणा की थी।
राणा सगर को जहाँगीर ने राणा बनाकर जो चित्तौड़ दुर्ग सौंपा था वह पुनः ले लिया गया। सगर को राणा की उपाधि से हटाकर रावत की उपाधि दी गयी।
महाराणा की मृत्यु
26 जनवरी 1620 ई. उदयपुर में महाराणा की मृत्यु हुई। महाराणा का दाह संस्कार आहड़ में हुआ, आहड़ में प्रथम छतरी अमर सिंह की है। इसके बाद मेवाड़ महाराणाओं का दाह संस्कार आहड़ में हुआ।
महाराणा कर्ण सिंह (1620-28)
कर्ण सिंह का जन्म 1584 ई. में हुआ। जहाँगीर ने इसे एक हज़ार की मनसबदारी दी।
शहजादा खुर्रम का शरण लेना
शहजादे खुर्रम ने 1622 ई. में अपने पिता जहाँगीर से विद्रोह कर दिया क्योंकि उस समय जहाँगीर नूरजहाँ के प्रभाव में था, नूरजहाँ ने अपनी पुत्री लाडली बानो बेगम का विवाह शहजादे शहरयार से किया था, इस कारण नूरजहाँ शहरयार को बादशाह बनाना चाहती थी। नूरजहाँ जहाँगीर के कान भरती व खुर्रम को दूर कंधार भेजना चाहती थी क्योंकि उन दिनों ईरान के शाहबाज़ ने कंधार का किला जीत लिया था। बादशाह जहाँगीर ने खुर्रम को बुरहानपुर से कंधार जाने की आज्ञा दी, खुर्रम नूरजहाँ के षड्यंत्र को समझ चुका था, वह कंधार नहीं जाना चाहता था इस कारण खुर्रम ने विद्रोह कर दिया।
वह दक्षिण से मांडू पहुँचा, इसके बाद कई स्थानों को लूटते हुए उदयपुर के महाराणा कर्ण सिंह के पास पहुँचा, कर्ण सिंह व खुर्रम के बीच अच्छी मित्रता थी।
कर्ण सिंह ने खुर्रम को देलवाड़ा की हवेली में ठहराया इसके बाद जग मंदिर में ठहराया। राजप्रशस्ति में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि खुर्रम भी मेवाड़ में ठहरा था। वंश भास्कर में भी खुर्रम का उदयपुर में ठहरने का उल्लेख मिलता है।
महाराणा कर्ण सिंह का निर्माण कार्य
पिछोला झील में जगमंदिर का निर्माण प्रारम्भ करवाया इसे पूर्ण जगतसिंह प्रथम ने करवाया। इसके अतिरिक्त जनाना रावला महल बनवाया, बड़ा दरीखाना बनवाया, दिलखुस महल बनवाया, उदयपुर में शहरपनाह बनवाना प्रारम्भ किया लेकिन यह अधूरा रह गया।
महाराणा जगत सिंह प्रथम (1628-52 ई.)
शाहजहाँ ने इन्हें 5 हजार की मनसबदारी दी। जगतसिंह के समय चित्तेरो री ओवेरी/तस्वीरा रो कारखानो की स्थापना की थी। जगतसिंह प्रथम का काल चित्रकला का स्वर्णकाल था। जगत सिंह प्रथम की धाय माँ नौजूबाई थी।
देवलिया का मेवाड़ से अलग होना
देवलिया (प्रतापगढ़) का ठाकुर जसवंत सिंह को महाराणा ने उदयपुर बुलवाया। जसवंत सिंह ने अपने पुत्र हरिसिंह को देवलिया सौंपकर अपने पुत्र महासिंह के साथ उदयपुर आया व उदयपुर के निकट चम्पा बाग में ठहरा, महाराणा कर्ण सिंह ने राठौड़ रामसिंह को भेजकर जसवंत सिंह व उसके पुत्र महासिंह को मरवा दिया।
जसवंत सिंह का पुत्र हरिसिंह बादशाह के पास पहुँचा, बादशाह ने देवलिया को मेवाड़ से अलग कर दिया।
महाराणा कर्ण सिंह अपने राज्याभिषेक के दिन प्रत्येक वर्ष चाँदी का तुला दान करता था। कर्ण सिंह ने बड़े बड़े दान किये, कर्ण सिंह ने कल्पवृक्ष, सप्तसागर, सतसागर, स्तनदेनु, विश्वचक्र आदि का दान किया था। काशी में ब्राह्मणों के लिए बहुत सोना भेजा था।
जगन्नाथ राय या जगदीश मंदिर राजमहल के निकट बनवाया, इसे विष्णु का पंचायतन मंदिर भी कहा जाता है। इसके शिल्पकार भाणासुथार व पुत्र मुकुन्द थे। ये मन्दिर अर्जुन की देखरेख में बना था। इसे सपनों का मंदिर भी कहते हैं। ध्यान रहे विष्णु के पंचायतन मंदिर में मध्य में विष्णु का मंदिर होता है परिक्रमा के चारों कोनों में ईशान कोण में शंकर, अग्नि कोण में गणपति, नैऋत्य में सूर्य व वायवय में देवी के छोटे-छोटे मंदिर होते हैं। इस मंदिर के पास एक प्रशस्ति लिखी है जिसकी रचना कृष्णभट्ट ने की थी।
महाराणा कर्ण सिंह ने अपनी पासवान रानी के नाम पर पिछोला झील पर मोहन मंदिर बनवाया व रूपसागर तालाब का निर्माण करवाया।
जगतसिंह ने 1615 ई. की मेवाड़ मुगल संधि को तोड़कर चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत प्रारंभ करवा दी।
जगतसिंह ने सिरोही विजय के उपलक्ष्य में पिछोला झील में मोहन मंदिर बनवाया रूपसागर तालाब का निर्माण करवाया।
महाराणा राजसिंह (1652-80 ई.)
महाराणा राजसिंह का जन्म 1629 ई. में हुआ था। 1652 ई. में जब राजसिंह राजगद्दी पर बैठे तब एकलिंग जी के यहाँ आये, यहाँ रत्नों का तुला दान किया।
रत्नों के तुला दान का एकमात्र उदाहरण यही मिलता है। शाहजहाँ ने राजसिंह की 5 हजार की मनसबदारी भेजी।
महाराणा राजसिंह व शाहजहाँ
1615 ई. में हुई मेवाड़ मुगल संधि में यह शर्त रखी थी, कि चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत नहीं की जायेगी। लेकिन शर्त तोड़कर जगत सिंह ने मरम्मत प्रारम्भ करवा दी। राणा बनते ही इस कार्य को राजसिंह ने शीघ्रता से किया व चित्तौड़ दुर्ग को मरम्मत पूर्ण करवा दी।
1654 ई. में शाहजहाँ जियारत के लिए अजमेर आ रहा था, तब मार्ग में उसने अब्दलावेग को चित्तौड़ मरम्मत देखने के लिए भेजा, इसने आकर बादशाह को बताया कई दरवाजों की मरम्मत की गई है, कई स्थानों से जहाँ से दुर्ग में प्रवेश करना आसान था वहाँ पर दीवारें बना दी गई है।
शाहजहाँ ने सादुल्लाखाँ के नेतृत्व में 30 हजार सैनिक भेजे। महाराणा ने इस समय लड़ाई करना उचित नहीं समझा और चित्तौड़ से अपने सैनिक हटा लिये। सादुल्लाखां ने जितना निर्माण करवाया उसे वापस तोड़ दिया। सादुल्लाखां 15 दिन रूका फिर वापस चला गया।
राजसिंह द्वारा मुगल थानों को लूटना
महाराणा राजसिंह मुगलों से बदला लेने का मौका ताक रहे थे। यह मौका उन्हें तब मिला जब शाहजहाँ बीमार हुआ व इसके चारों पुत्र दाराशिकोह, शुजा, औरंगजेब, मुराद आपस में लड़ने लग गये।
चारों पुत्रों को आपस में लड़ता देखकर राजसिंह ने मुगल थानों पर आक्रमण शुरू कर दिये। सबसे पहले इन्होंने माण्डलगढ़ पर आक्रमण किया, माण्डलगढ़ को बादशाह ने किशनगढ़ के राजा रूप सिंह को दे दिया था, इस समय माण्डलगढ़ के किले का किलेदार राघवदास था, राजसिंह ने इसे जीत लिया, इसके बाद दरीबा को जीत लिया, इसके बाद जहाजपुर, सावरपुर, केकड़िया आदि को जीत लिया। इसके बाद मालपुरे को भी लूटा।
महाराणा ने 'टीकादौड़' का आयोजन करवाया व 'विजय कट कातु' की उपाधि धारण की।
महाराणा राजसिंह व औरंगजेब
औरंगजेब ने महाराणा के लिए 6 हजार जात व 6 हजार सवार का फरमान भेजा। बदनोर, माण्डलगढ़, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, बसावर, गयासपुर आदि क्षेत्र जगतसिंह के समय अलग हो गये थे, इन्हें महाराणा को वापस दे दिये गये।
दाराशिकोह का महाराणा से सहायता माँगना
दाराशिकोह पंजाब से भागता हुआ कच्छ और गुजरात होते हुए सिरोही पहुँचा वहाँ से उसने 1659 ई. में महाराणा के लिए पत्र भेजा, लिखा कि मैं राजपूतों का मेहमान हूँ, मेरी इज्जत अब राजपूतों के हाथ में है।
महाराणा जसवंत सिंह मेरी सहायता करने के लिए तैयार हैं, आप तमाम राजपूतों के सरदार है। अतः मेरे पिता शाहजहाँ को कैद से मुक्त करवाने में मेरी सहायता करें। अगर आप न आ सके तो मेरे पास 2 हजार सवार भेज देवे, महाराणा ने पत्र की ओर ध्यान नहीं दिया।
चारूमती विवाद
1658 ई. में किशनगढ़ के शासक रूपसिंह की मृत्यु के बाद मानसिंह शासक बना, मानसिंह की बहन चारूमती से औरंगजेब विवाह करना चाहता था, मानसिंह को विवश होकर कहना पड़ा क्योंकि किशनगढ़ रियासत औरगंजेब से मुकाबला करने में सक्षम नहीं थी। चारूमती का पिता वैष्णव धर्म को मानता था, चारूमती की भी वैष्णव धर्म में रूचि थी।
चारूमती औरंगजेब से विवाह नहीं करना चाहती थी। चारूमती ने राजसिंह को पत्र लिखकर कहा- "हंसिनी बगुलों के साथ नहीं रह सकती। मैं औरगंजेब से विवाह नहीं करना चाहती। अतः आप मेरे धर्म की रक्षा करें व मुझसे विवाह करे" जब औरगंजेब को देवलिये के रावत हरिसिंह के माध्यम से इस बात का पता चला कि राजसिंह ने चारूमती से विवाह कर लिया है। तब औरंगजेब ने गयासपुर व बसावर को उदयपुर से अलग करके हरिसिंह को दे दिये। इस घटना के कारण औरंगजेब का राजसिंह के मध्य विरोध का बीज उत्पन्न हुआ।
मीणों को दमन : 1662 ई. में मेवाड़ के दक्षिणी हिस्से मेवल क्षेत्र में मीणाओं ने सिर उठाया राजसिंह ने इनका दमन किया।
मन्दिर तोड़ो अभियान (1669 ई.)
औरंगजेब बादशाह बनने से पूर्व भी मुसलमान धर्म का कट्टर समर्थक था। औरगंजेब सुन्नी धर्म को मानता था। बादशाह बनने से पूर्व भी इसने गुजरात की सूबेदारी के समय अहमदाबाद के चिन्तामणी मन्दिर को तोड़कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवायी। 1669 ई. में औरंगजेब ने हिन्दुओं के समस्त मन्दिर व पाठशालाओं को तोड़ने का आदेश दिया। धर्म संबंधी ग्रंथ पढ़ने पर रोक लगा दी, गुजरात का सोमनाथ, बनारस का विश्वनाथ, मथुरा का केशवराय मन्दिर भी तोड़े गये। हिन्दुओं के हजारों मन्दिर तोड़े गये, जिससे हिन्दु इससे नाराज हो गये। राजसिंह सभी राजपूत राजाओं के मुखिया थे, राजसिंह ने इस अभियान का विरोध किया। मन्दिर तोड़ों अभियान के समय जब औरंगजेब ने वल्लभसमप्रदाय की गौवर्धन की मूर्ति तोड़ने की आज्ञा दी तब द्वारकाधीश की मूर्ति मेवाड़ लाई गई।
राजसिंह ने इस मूर्ति को कांकरोली रेल्वे स्टेशन के पास राजसंमद झील की पाल पर लगवाया। इसी प्रकार गोवर्धन में स्थित श्रीनाथ जी की मूर्ति गॉसाई बूँदी, कोटा, पुष्कर, किशनगढ़ होते हुए जोधपुर गये, लेकिन किसी राजा ने औरंगजेब के भय से मूर्ति नहीं रखी। तब महाराणा राजसिंह ने कहा ये मूर्तियाँ मेरे पास ले आओ।
मेरे एक लाख राजपूतों के सर कटने के बाद ही औरंगजेब श्रीनाथ जी की मूर्ति को हाथ लगा पायेगा। राजसिंह ने यह मूर्ति सिहाड़ (नाथद्वारा) में लगवाई, ध्यान रहे नाथद्वारा की पिछवाईयाँ प्रसिद्ध है।
जजिया कर का विरोध (1679 ई.)
जजिया कर मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुसलमानों से लिया जाता था। इस्लामिक राज्य में मुसलमानों के अलावा जो रहेगा उसे 'जिम्मी' माना जायेगा (गहढ़वालों ने मुसलमानों पर 'तुरूष्कदण्ड' नामक कर लगाया था)। सर्वप्रथम मौहम्मद बिन कासिम ने जजिया कर लगाया था। ब्राह्मणों पर सर्वप्रथम जजिया कर फिरोज तुगलक ने लगाया था। बहमनी शासक अल्लाउद्दीन हसन (1347 से 1358 ई.) भारत का प्रथम शासक जिसने जजिया न लेने की घोषणा की। गुजरात में सर्वप्रथम जजिया अहमद शाह ने लगाया था।
कश्मीर में सर्वप्रथम जजिया कर सिकन्दर शाह ने लगाया। कश्मीर में जजिया कर जैनुलाबदीन (1420 से 1470 ई.) ने हटाया था, जैनुलाबदीन को 'कश्मीर का अकबर' कहा जाता है।
शेरशाह के समय जजिया कर को "नगर कर" कहा जाता था। अकबर ने 1564 ई. में जजिया कर बंद कर दिया था। 1575 ई. में अकबर ने इसे पुनः प्रारम्भ किया। 1579-80 ई. में अकबर ने जजिया कर पुनः बंद कर दिया। औरंगजेब ने 1679 ई. में इसे पुनः प्रारम्भ कर दिया। राजसिंह ने पत्र लिखकर इसका विरोध किया।
बादशाह फर्रुखशियर ने 1713 ई. में जजिया कर हटाया व 1717 ई. में पुनः प्रारम्भ कर दिया। रंगीला बादशाह मौहम्मद शाह ने सवाई जयसिंह के कहने पर 1720 ई. में जजिया कर बंद कर दिया।
अजित सिंह को शरण देना
दुर्गादास राठौड़ अजीत सिंह को दिल्ली से बचाकर मारवाड़ लेकर आये। लेकिन सम्पूर्ण मारवाड़ पर औरंगजेब का अधिकार हो गया था, तब दुर्गादास अजीत सिंह को लेकर राजसिंह के पास लेकर आये।
राजसिंह ने अजीत सिंह व दुर्गादास को केलवे पट्टा दिया व रखा। औरंगजेब ने कई बार फरमान भेजकर अजीत सिंह को माँगा लेकिन राजसिंह ने ध्यान नहीं दिया, इस कारण औरंगजेब राजसिंह से नाराज था।
हाड़ी रानी सहल कंवर
सहल कंवर बूँदी के संग्राम सिंह की पुत्री थी। इसका विवाह सलूम्बर के रतनसिंह चूड़ावत से हुआ। चूड़ावत औरंगजेब की सेना को रोकने के लिए जा रहे थे, बीच रास्ते में चूड़ावत ने एक सैनिक भेजकर सहल कंवर की कोई निशानी मंगवाई, चूड़ावत को इस तरह युद्ध से विचलित होता देखकर, सहल कंवर ने अपना सिर काटकर सैनाणी के रूप में भेज दिया।
यह सहल कवर इतिहास में हाड़ी रानी नाम से प्रसिद्ध हुई। हाड़ी रानी का स्मारक सलूम्बर में है।
'सैनाणी' कविता मेघराज मुकुल ने लिखी थी। "चूड़ावत मांगी सैनाणी, सर काट दे दियो क्षत्राणी"
राजस्थान की प्रथम महिला पुलिस बटालियन 2009 में हाड़ी रानी नाम से बनी थी।
राजसमंद/राजसमुद्र झील (राजसमंद)
राजनगर की पहाड़ियों के मध्य से गोमती नदी बहती है। महाराणा अमर सिंह ने इसे रोककर एक बाँध बनवाया लेकिन नदी के वेग के कारण बाँध टूट गया। कुंवर राजसिंह जैसलमेर के रावमनोहर दास की पुत्री कृष्ण कुंवरी से विवाह के लिए जा रहे थे। तब उन्होंने यहाँ तालाब बनाने का विचार बनाया।
जब राजसिंह महाराणा बने तब 1661 ई. में रूपनारायण के दर्शन करने जाते समय तालाब बनाने का संकल्प लिया। इस झील को बनवाने के पीछे कई बातें प्रचलित हैं, कोई कहता है कि राजसिंह विवाह के लिए जैसलमेर जाते समय नदी के वेग के कारण 2-3 दिन यहा ठहरना पड़ा था, इसलिए उन्होंने नदी को रोककर तालाब बनाने का विचार किया। कुछ कहते हैं कि राजसिंह ने एक पुरोहित, एक रानी, एक कुंवर, एक चारण की हत्या की थी, इनकी हत्या का निवारण हेतु ब्राह्मणों के बताये अनुसार तालाब बनवाया। कुछ कहते हैं कि अकाल राहत के तहत यह झील बनवायी थी। 1662 ई. में इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ।
झील प्रतिष्ठा के समय राजसिंह ने सप्त सागर का दान किया। उत्सव में 46 हजार ब्राह्मण आये थे। इस झील को बनवाने में ₹10507608 खर्च हुए थे। झील के उत्तर में 9 चौकी बनी है इसलिए इसे 9 चौकी झील भी कहा जाता है। झील के किनारे गेवर/घेवर माता का मन्दिर है। गेवर माता बिना पति के सती हुई थी। झील के किनारे द्वारकाधीश का मन्दिर भी बना है।
राजप्रशस्ति महाकाव्य
राजसिंह ने राजसंमद की पाल पर 25 शिलालेखों पर संस्कृत भाषा में रणछोड़ भट्ट तेलंग (गौसांई मधुसूदन का पुत्र) द्वारा राजप्रशस्ति लिखवाई। प्रशस्ति के अंत में कुछ हिन्दी भाषा की भी पंक्तियाँ लिखी गई है। इस प्रशस्ति में मेवाड़ का इतिहास है।
यह विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति में मीणा जाति का भी जिक्र है। इसका शेष इतिहास 'अमरकाव्य वंशावली' में लिखा गया है।
महाराणा का निर्माण कार्य
राजसिंह जब राजकुमार थे तब इन्होंने सर्वऋतुविलास/शर्वतविलास नामक महल बनवाया। उदयपुर में अम्बा माता का मन्दिर बनवाया। 1668 ई. में रंग सागर तालाब बनवाया जो पिछोला में मिला दिया गया। उदयपुर में जना सागर तालाब बनवाया।
राजसिंह की पत्नी रामरस दे ने 1675 ई. में देबारी के पास 'जया' नामक बावड़ी बनवायी, इसे वर्तमान में त्रिमुखी बावड़ी कहते हैं।
राजसिंह की मृत्यु
राजसिंह एक बार कुम्भलगढ़ जा रहे थे, ओड़ा गाँव में रुके, यहाँ किसी ने उन्हें भोजन में जहर दे दिया।
महाराणा जयसिंह (1680-98 ई.)
राजसिंह की मृत्यु के समय जयसिंह कुरज (राजसमंद) गाँव में थे। यहीं पर इनका राज्याभिषेक हुआ।
24 जून, 1681 ई. राजसमंद झील के पास औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम व जयसिंह के मध्य संधि हुई जिसकी निम्न शर्तें थी-
- मारवाड़ के अजीतसिंह की सहायता नहीं करेंगे।
- जजिया कर के बदले पुर, मांडल व बदनोर के परगने औरंगजेब को दिए गए।
- औरंगजेब ने मुगल सेना मेवाड़ से हटाने व जयसिंह पर आक्रमण न करने का आश्वासन दिया।
- जयसिंह को पैतृक राज्य का स्वामी माना जाएगा और उसे ₹5,000 का मनसब दिया जाएगा।
जयसमंद झील - सलूम्बर
जयसमंद झील महाराणा जयसिंह ने बनवायी। झील में गोमती, झामरी, रूपारेल, बगार नामक छोटी छोटी नदियाँ गिरती हैं।
ये नदियाँ ढेबर दरें से निकलती है इस कारण इसे ढेबर झील भी कहते हैं। 1691 ई. में झील की नींव रखी गयी।
यह झील राजस्थान की सबसे बड़ी कृत्रिम झील है। इसमें 7 टापू हैं। बड़े टापू का नाम बाबा का भांगड़ा व छोटे का प्यारी है। बाबा का मगरा नामक टापू पर आइसलैण्ड रिसोर्ट है। झील के पास रूठी रानी का महल है।
अमर सिंह द्वितीय (1698-1710 ई.)
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्र आजम व मुअज्जम में उत्तराधिकारी युद्ध हुआ, इस युद्ध में अमर सिंह ने मुअज्जम का पक्ष लिया।
अमरसिंह के राज्यभिषेक के समय डूंगरपुर, बाँसवाड़ा व देवलिया के सामंतों ने टीके का दस्तुर नहीं भेजा महाराणा ने इन्हें दण्डित किया।
महाराणा अमर सिंह ने प्रशासन में सुधार किये, सरदारों के विभाग बाटे, प्रथम श्रेणी में 16 सरदार व द्वितीय श्रेणी में 32 सरदार नियुक्त किये व उनकी जागीरें निश्चित की। जागीरों के नियम बनाकर जागीरें निश्चित कर दी।
अमर सिंह ने अमरविलास नामक महल बनवाया, वर्तमान में इसे 'बाड़ी महल' कहा जाता है।
अमरशाही पगड़ी प्रारंभ की।
संग्राम सिंह द्वितीय (1710-1734)
संग्राम सिंह के समय दुर्गादास राठौड़ इनकी शरण में आये थे, क्योंकि अजीत सिंह ने बुरे लोगों के बहकावे में आकर दुर्गादास को मारवाड़ से निकाल दिया था। संग्राम सिंह ने दुर्गादास को विजयपुर की जागीर दी व रामपुरे का हाकिम नियुक्त किया, उनकी मृत्यु वहीं हुई व इनका दाह संस्कार शिप्रा नदी के किनारे हुआ।
महाराणा संग्राम सिंह ने पिछोला झील के पास शीतला माता का मन्दिर बनवाया। पिछोला झील के पास सीसारमा गाँव में वैद्यनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया व वैद्यनाथ प्रशस्ति (1719 ई.) लिखवाई।
प्रशस्ति के अनुसार संग्राम सिंह द्वितीय व मुगल सेनापति रणबाज खाँ के मध्य 'बांधनवाड़ा का युद्ध' हुआ जिसमें महाराणा विजय हुए, फतेह सागर झील पर संग्राम सिंह द्वितीय ने सहेलियों की बाड़ी बनवाई। बप्पा रावल के वंशजों को गौरव रखने वाला संग्राम सिंह अंतिम शासक है। इसके बाद मराठों का प्रभाव बढ़ गया।
जगदीश मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया। हुरड़ा सम्मेलन का अध्यक्ष बनाना संग्राम सिंह को तय हुआ था लेकिन संग्राम सिंह की इससे पूर्व मृत्यु हो गई थी, इस कारण हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता जगतसिंह द्वितीय ने की थी। मेवाड़ शैली का प्रसिद्ध चित्रा 'कलीला दमना' का चित्रण संग्राम सिंह के समय हुआ।
जगतसिंह द्वितीय (1734-51 ई.)
पिछोला झील में जगनिवास का निर्माण करवाया। इसके दरबारी नेकराम ने जगतविलास ग्रंथ लिखा।
जगत सिंह ने हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता की थी।
जगत सिंह के समय मराठों से सर्वप्रथम चौथ वसूला, पेशवा बाजीराव प्रथम जनवरी, 1736 ई. में जगतसिंह से 1.5 लाख रुपये वार्षिक चौथ वसूलने का समझौता किया।
- महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय (1751-54 ई.)
- महाराणा राज सिंह द्वितीय (1754-61 ई.)
- महाराणा अरिसिंह द्वितीय (1761-73 ई.)
- महाराणा भीमसिंह (1778-1823 ई.)
कृष्णा कुमारी भीमसिंह की पुत्री थी।
सहायक संधि
सिंधिया, होल्कर, अमीरखाँ, जमशेदखाँ, मराठा, पिण्डारियों की लूट खसोट व जोर-जुल्म से मेवाड़ की दशा कमजोर हो गई। इस समय तो खजाना बिल्कुल खाली हो गया, रहे सहे जेवर भी बिक गये, देश उजड़ गया, अधिकतर प्रजा मालवा, हाड़ौती आदि प्रान्तों में जा बसी। मराठे जिस इलाके में ठहरते उसे लूटते, तबाह कर देते थे, गाँवों को आग लगा देते थे, फसलें नष्ट कर देते थे। जहाँ मराठे 24 घंटे ठहर जाते थे, वह क्षेत्र कितना ही सम्पन्न हो उजड़ जाता था। 1806 ई. में कप्तान टॉड प्रथम बार मेवाड़ आया।
उस समय मेवाड़ की स्थिति अच्छी थी, जब टॉड 1818 में दुबारा मेवाड़ आया, उसने भीलवाड़ा को देखा जो पूर्णतः उजड़ चुका था। जबकि इससे पूर्व भीलवाड़ा व्यापार का केन्द्र था व 6 हजार घर थे। उस समय का आँखों देखे हाल का टॉड मेवाड़ की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखते हैं "जहाजपुर से कुम्भलगढ़ जाते हुए 140 मील की दूरी में 2 कस्बों के अलावा मुझे कहीं मनुष्य के पैरों के चिहन भी दिखाई नहीं दिये, जंगली जानवरों ने अपना आवास बना रखा था। महाराणा का भी उदयपुर, चित्तौड़ व मांडलगढ़ तक ही अधिकार रह गया था। राज्य की दशा ऐसी थी कि महाराणा को खर्च के लिए कोटा के जालिम सिंह से रूपये उधार लेने पड़ते थे। महाराणा के साथ 50 सैनिक भी नहीं रहते थे।"
संग्राम सिंह से लेकर महाराणा राजसिंह तक मेवाड़ के महाराणाओं ने मुगलों से अनेक लड़ाइयाँ लड़ी, तब भी मेवाड़ की स्थिति कमजोर नहीं हुई थी, परन्तु मराठों ने 60 वर्ष में ही मेवाड़ की ऐसी दुर्दशा कर दी, यदि अंग्रेजों से संधि नहीं होती तो सारा मेवाड़ मराठा राज्य में मिल जाता।
13 जनवरी, 1818 ई. में अंग्रेजी सरकार व महाराणा भीमसिंह के मध्य संधि हुई। अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से हेस्टिंग के दिये हुये अधिकारों के अनुसार मेटकॉफ और महाराणा की ओर से मिले हुए अधिकारों ठाकुर अजीत सिंह व भीमसिंह के मध्य संधि हुई।
टॉड द्वारा शासन संभालना
मेवाड़ की बिगड़ी व्यवस्था सुधारने में महाराणा असमर्थ दिखे, टॉड महाराणा का सच्चा हितैषी था। इसने राज्य प्रबंध अपने हाथ में लिया। मराठों के अत्याचारों के कारण मेवाड़ के किसान, व्यापारी जो अन्य स्थानों पर चले गये थे, टॉड ने इन्हें वापस बुलाया, 8 महिनों में ही मेवाड़ में 300 कस्बे व गाँव बस गये।
खेती, व्यापार होने लगा, भीलवाड़ा जो व्यापारिक केन्द्र था, उजड़ गया था, इसे पुनः आबाद किया। 1826 ई. में भीमसिंह के समय चार्ल्स मेटकॉफ उदयपुर आया था।
1818 ई. में टॉड सर्वप्रथम उदयपुर के पॉलिटीकल एजेंट बने थे। इसी समय टॉड ने अजमेर में टॉडगढ़ दुर्ग बनवाया था।
महाराणा भीमसिंह ने पिछोला झील के पूर्वी तट पर 'नया महल' बनवाया। भीमसिंह की बीकानेरी रानी पदमकुंवरी ने पिछोला झील के पश्चिमी तट पर 'भीमपदेश्वर' नामक शिवालय बनवाया।
चारण कवि आढ़ा किशन ने महाराणा की आज्ञा से 'भीमविलास' नामक ग्रंथ की रचना की।
महाराणा जवान सिंह (1828-1838 ई.)
महाराणा जवान सिंह के समय नेपाल के महाराजा राजेन्द्र विक्रमशाह ने अपने पूर्वजों की प्राचीन राजधानी के रीति-रिवाज आदि जानने के लिए नेपाल से कुछ प्रतिष्ठित स्त्री व पुरुषों को उदयपुर भेजा था। तब से मेवाड़ व नेपाल का संबंध फिर से प्रारम्भ हो गया। ध्यान रहे नेपाल के राणा मेवाड़ के गुहिल वंश से निकले हुए थे।
समरसिंह का पुत्र कुंभकर्ण नेपाल चला गया था। वहाँ पर उसने राणा शाखा की शुरूआत की थी। महाराणा जवान सिंह ने पिछोला झील के पास 'जलनिवास' नामक महल बनाया।
महाराणा सरदार सिंह (1838-1842 ई.)
महाराणा सरदार सिंह के समय 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर की स्थापना हुई थी। मेवाड़ भील कोर का 1950 ई. में राजस्थान पुलिस विभाग में विलय कर दिया।
महाराणा स्वरूपसिंह (1842 ई.)
यह महाराणा सरदार सिंह के दत्तक पुत्र थे। इस समय मेवाड़ में बाहर से चित्तौड़ी व उदयपुरी जाली सिक्के बनकर आने लगे। महाराणा इन जाली रुपयों का चलन रोकना चाहते थे।
इन सिक्कों पर मुगल बादशाहों के नाम व फारसी लेख थे। इस कारण महाराणा इन्हें दान पुण्य में देना धर्म विरुद्ध समझते थे। महाराणा ने स्वरूपशाही नाम के सिक्के चलाये। इस सिक्के में एक तरु चित्रकुट उदयपुर लिखा है जो चित्तौड़ के किले का सूचक है दूसरी तरु 'दोस्ती लंदन' लिखा है जिसका अर्थ है इग्लैण्ड का मित्र।
1857 ई. की क्रांति के समय मेवाड़ का महाराणा स्वरूप सिंह था, इन्होंने नीमच से भागे हुए अंग्रेजों को जगमंदिर में शरण दी थी।
सती प्रथा बंद किया जाना
1829 ई. में राजाराम मोहन राय के प्रयासों से विलियम बैटिंक ने धारा 17 के तहत सती प्रथा पर रोक लगा दी। लेकिन पूर्णतः सती प्रथा पर रोक नहीं लगी थी।
अब देशी राज्यों में इस प्रथा को बंद करने का प्रयास होने लगा, महाराणा स्वरूप सिंह ने 15 अगस्त, 1861 ई. अंग्रेजी सरकार की इच्छा के अनुसार सती प्रथा को बंद कर दिया और प्रथा के साथ ही जीवित समाधि पर भी रोक लगा दी।
डाकण प्रथा पर रोक
लम्बे समय तक मेवाड़ में इस बुरी प्रथा का प्रचलन था। इस प्रथा में लोग स्त्री पर डायन होने का झूठा आरोप लगाते थे और बड़ी क्रूरता से उसे मार देते थे। राज्य की ओर से इस कृत्य के लिए कोई दण्ड की व्यवस्था नहीं थी।
ऐसी स्त्री महाराणा के सामने पेश होकर डाकिनी होना स्वीकार कर लेती तो इसकी पुष्टि में भी वह प्राण दण्ड के योग्य समझी जाती थी। अंग्रेजी सरकार के अनुरोध पर महाराणा स्वरूप सिंह ने इस प्रथा को भी बंद कर दिया।
शम्भूसिंह को गोद लेना
महाराणा बीमार हो गये थे, इनके कोई सन्तान नहीं थी, तब इन्होंने 1861 ई. में सरदारों की सहमती से अपने भाई शेरसिंह के पोते व शार्दुलसिंह के पुत्र शम्भूसिंह को गोद ले लिया।
महाराणा की मृत्यु व मेवाड़ की अन्तिम सती
लम्बी बीमारी के कारण स्वरूप सिंह की मृत्यु हुई। राजपूतों के रिवाज के अनुसार उदयपुर के महाराणाओं के साथ अनेक रानियाँ सती होती थी, महाराणा स्वरूप सिंह तक यह प्रथा जारी रही।
सती होने के रिवाज सिर्फ राजघरानों में ही नहीं प्रत्येक जाति के लोगों में प्रचलित था। स्वरूप सिंह की मृत्यु के बाद उनकी पासवान (उपपत्नी) रानी ऐजांबाई सती हुई थी। ये मेवाड़ की अन्तिम सती थी।
स्वरूप सिंह का स्थापत्य
स्वरूप सिंह ने गोवर्धनविलास महल, गोवर्धन सागर, पशुपतेश्वर महादेव, जगत सिरोमणी, जवान सुरजबिहारी के मन्दिर बनवाये।
विजय स्तम्भ की 9वीं मंजिल पर बिजली गिर गई थी, स्वरूप सिंह ने 9वीं मंजिल की मरम्मत करवायी। स्वरूप सिंह की बीकानेरी माता ने पिछोला झील के पास हरिमंदिर बनवाया। पिछोला झील का जीर्णोद्धार भी करवाया।
डाकन प्रथा, समाधि प्रथा पर रोक लगाई।
महाराणा शम्भूसिंह (1861-1874 ई.)
रीजेन्सी कौंसिल की स्थापना
महाराणा नाबालिग होने के कारण मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट मेजर टेलर की अध्यक्षता में पंच सरदारी रिजेन्सी कौंसिल की स्थापना हुई। एजेंट गर्वनर जनरल कर्नल ब्रुक ने अंग्रेजी सरकार की ओर से महाराणा को जी.सी.एस.आई. (ग्रैंड कमांडर ऑफ दि स्टार ऑफ इंडिया) की उपाधि 1871 ई. को दी।
शम्भूसिंह ने उदयपुर में शम्भूनिवास महल बनवाया जो अंग्रेजी शैली से बना हुआ था। शम्भूसिंह ने जगनिवास में शम्भूप्रकाश महल, शम्भूरतन पाठशाला बनवायी। मेयो कॉलेज में पढ़ने वाले उदयपुर के विद्यार्थियों के लिए अजमेर में उदयपुर हाऊस नाम की कोठी बनवायी। महाराणा की ओर्स माता ने गोकुल चन्द्रमा का मंदिर बनवाया, स्वरूप सिंह की मेहड़तनी रानी ने उदयपुर के बाजार में विष्णु मंदिर व बावड़ी बनवायी।
वीर विनोद
वीर विनोद के लेखन का कार्य 1871 ई. में प्रारम्भ हुआ, वीर विनोद के लेखक श्यामलदास है, श्यामलदास सज्जनसिंह के दरबार में भी रहे थे। वीर विनोद के लेखन पर रोक महाराणा फतेहसिंह ने लगायी थी, इसके चार खण्ड है, वीर विनोद में मेवाड़ के विस्तृत इतिहास के साथ अन्य रियासतों का भी वर्णन है। अंग्रेजों ने श्यामलदास को 'केसर-हिन्द' की उपाधी दी थी, उर्दू मिश्रित हिन्दी शैली में लिखा गया है।
श्यामलदास का जन्म 1836 ई. में ढोकलिया गाँव माण्डलगढ़ तहसील भीलवाड़ा में हुआ।
श्यामलदास चारणों के देवल (दधवाड़िया) गौत्र से थे। श्यामलदास शम्भूसिंह, सज्जनसिंह, फतेहसिंह तीन महाराणाओं की सेवा में रहे। श्यामलदास को 'कवि राजा व महामहोपाध्याय' भी कहा जाता है। वीर विनोद के लिए श्यामलदास को सज्जन सिंह ने 1 लाख रूपये दिये।
महाराणा सज्जन सिंह (1874-1884 ई.)
सज्जन सिंह जब महाराणा बने तब ये नाबालिग थे, तब पॉलिटिकल एजेंट की अध्यक्षता में चार मेम्बरों की रीजेन्सी कौंसिल की स्थापना की गई।
लॉर्ड रिपन ने महाराणा को जी.सी.एस.आई. (ग्रैंड कमांडर ऑफ दि स्टार ऑफ इंडिया) की उपाधि दी। सज्जनसिंह के समय लॉर्ड नार्थबुक उदयपुर आये। ये उदयपुर आने वाले प्रथम गर्वनर जनरल थे।
सज्जन सिंह ने जयपुर के रामनिवास बाग की तरह सज्जन निवास नामक सुन्दर बाग बनवाया। सज्जन सिंह के अपने महलों में सज्जनवाणी विलास नामक पुस्तकालय बनवाया व उसका निरक्षक श्यामलदास को बनाया।
सज्जन गढ़ दुर्ग-1877 ई. में बाँसदरा पहाड़ी पर सज्जनगढ़ दुर्ग बनवाया।
सज्जन वाणी विलास पुस्तकालय- सज्जनसिंह ने 1175 ई. में पुस्तकालय की स्थापना की व 'सज्जनकीर्ति सुधाकर' साप्ताहिक पत्रिका निकाली। इस पुस्तकालय का प्रमुख श्यामलदास जी थे। श्यामलदास जी ने यहीं पर वीर विनोद का लेखन किया था।
इजलास खास- सज्जन सिंह ने श्यामलदास की सलाह पर दीवानी, फौजदारी अपील के महकमों के ऊपर 10 मार्च 1877 ई. 'इजलास खास' नामक एक कौंसिल की स्थापना की जिसमें 15 अवैतनिक सदस्य नियुक्त किये।
नमक समझौता- 14 फरवरी, 1878 ई. सज्जनसिंह ने अंग्रेजों के साथ नमक समझौता किया इस कारण नमक महंगा हो गया था।
महेन्द्रराज सभा- 20 अगस्त, 1880 महाराणा ने शासन प्रबंध न्याय कार्य के लिए महेन्द्रराज सभा का गठन किया।
पिछोला झील के जगनिवास में सज्जननिवास नामक महल बनवाया। चित्तौड़गढ़ दुर्ग की मरम्मत करवायी।
सज्जनसिंह के समय 1881 ई. में प्रथम बार जनगणना हुई। 1877 ई. में सज्जन सिंह द्वारा देशहितैषिनी सभा का गढ़ किया गया, जिसका उद्देश्य राजपूताना में वैवाहिक समस्याओं का निराकरण करना था। सज्जन सिंह के समय 1879 ई. में राजस्थान की प्रथम साप्ताहिक पत्रिका सज्जन कीर्ति सुधाकर प्रारम्भ हुई, इसके संपादक बंशीधर थे।
सज्जन सिंह के समय स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उदयपुर आये, यहाँ उन्होंने परोपकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष सज्जन सिंह को बनाया और सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश का कुछ भाग उदयपुर में लिखा था।
1880 ई. में सज्जन सिंह ने सज्जन यंत्रालय उदयपुर में छापेखाने की स्थापना की।
महाराणा फतेहसिंह (1884-1930 ई.)
1885 ई. में वायसराय लार्ड डफरिन उदयपुर आये उस समय फतेहसिंह ने जनाना अस्पताल की नींव लार्ड डफरिन के हाथों रखवायी।
1887 ई. में महारानी विक्टोरिया के 50 साल पूर्ण होने पर जुबली समारोह के अवसर पर महाराणा ने सज्जन निवास बाग में विक्टोरिया हॉल नाम का एक पुस्तकालय व अजायबघर बनवाया। इस जुबली समारोह के उपलक्ष्य में महाराणा फतेहसिंह को अंग्रेजी सरकार की ओर से जी.सी.एस.आई. की उपाधि मिली।
वाल्टरकृत राजपूत-हितकारिणी सभा- क्षेत्रीय जाति के सुधार हेतु 'वाल्टरकृत राजपूत-हितकारिणी सभा' की स्थापना सम्पूर्ण राजपूताने में हुई। 1889 ई. में इसकी एक शाखा उदयपुर में स्थापित हुई।
कनॉट बाँध-1889 ई. में ड्यूक ऑफ कनॉट उदयपुर आया, देबाली गाँव के पास कनॉट बाँध बनवाया जिसकी नींव ड्यूक ऑफ कनॉट ने रखी, इसे फतेहसागर झील कहा जाता है।
1890 ई. में शहजादा एलबर्ट विक्टर उदयपुर आये इनके सम्मान में सज्जन निवास बाग में विक्टोरिया हॉल के सामने महारानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति का उद्घाटन किया।
श्यामजी कृष्ण वर्मा को महाराणा फतेहसिंह ने महेन्द्राज सभा का सदस्य नियुक्त किया था। छप्पनीयाँ अकाल (1899) के समय मेवाड़ के महाराणा फतेहसिंह थे।
दिल्ली दरबार व चेतावनी के चूंगटिये
एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण पर दिल्ली में एक बड़ा दरबार लगा इसमें भारत के सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों को बुलाया गया। लॉर्ड कर्जन ने महाराणा फतेहसिंह को भी दिल्ली बुलवाया। केसरीसिंह बारहठ को महाराणा का इस तरह दरबार में जाना अच्छा नहीं लगा। तब केसरीसिंह बारहठ ने डिंगल भाषा में 13 सोरठे लिखे जिन्हें 'चेतावनी के चूंगटिये' कहा जाता है। केसरी सिंह बारहठ ने ये सोरठे गोपाल सिंह खरवा के हाथों महाराणा के पास पहुँचाये महाराणा दिल्ली तो गये लेकिन दरबार में भाग नहीं लिया।
13 सोरठों में से कुछ महत्वपूर्ण सोरठे
पग पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यों धरम।
महाराणा र मेवाड़, हिरवे वासिया हिन्द रे ॥
अर्थ: मेवाड़ के महाराणा पैदल पैदल पहाड़ों में भटके इन्होंने धरती का मोह छोड़ कर धर्म की रक्षा की। इसलिए महाराणा और मेवाड़ यह दोनों शब्द हिन्दुस्तान के हृदय में बसते हैं।
नरियद सह नजराण, झुक करसी सरसी जिको।
पसरेलो किम पाण, पाण छतां थारी फता ॥
अर्थ: अन्य राजाओं के लिये आसान है कि वे झुक झुक कर नजराना दिखला सकेंगे। परन्तु हे महाराणा फतेहसिंह। तेरे हाथ में तलवार होते हुये नजराने के लिये तेरा हाथ कैसे फैलेगा?
अंत खैर आखीह, पातल जै वातां पहल।
राणा-सह आखीह, जिणरी शाखी सिर जटा ॥
अर्थ: महाराणा प्रताप ने अपने अन्तिम समय में जो बात कही थी उसको अब तक सब महाराणाओं ने निभाया है और इसकी साक्षी तुम्हारे सिर की जटा दे रही है।
लॉर्ड मिन्टो के उदयपुर आगमन पर मिन्टो दरबार हॉल बनवाया गया। 1921 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स उदयपुर आया था।
सज्जन सिंह ने जो सज्जन गढ़ दुर्ग बनवाया था वह अधूरा रह गया था। महाराणा फतेहसिंह ने इसे पूर्ण करवाया। बिजौलिया व बेगूँ किसान आन्दोलन के समय मेवाड़ के महाराणा फतेहसिंह थे।
महाराणा भोपाल सिंह (1930-1955 ई.)
एकीकरण के समय मेवाड़ के महाराणा थे। संयुक्त पूर्व राजस्थान संघ का राजप्रमुख व वृहद राजस्थान संघ का राजप्रमुख बनाया गया। 1900 ई. में इन्हें रीढ़ की बीमारी हुई इस कारण ये अपाहिज हो गये थे।
सरदार:- मेवाड़ में सरदारों की तीन श्रेणियाँ थी, प्रथम, द्वितीय, तृतीय। महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने अपने प्रथम श्रेणी के सरदारों की संख्या 16 नियुक्त की थी, प्रथम श्रेणी के सरदार 'उमराव' कहलाते थे, आगे ये बढ़कर 21 हो गये थे। द्वितीय श्रेणी के सरदारों की संख्या महाराणा अमर सिंह के समय 32 थे, इन्हें सामान्यतः सरदार कहा जाता था। तृतीय श्रेणी के सरदारों को 'गोल के' सरदार कहते थे।
1. राणा हम्मीर
- 1326 ई. महाराणा हम्मीरसिंह का चित्तौड़ लेना।
- 1341 ई. महाराणा हम्मीरसिंह का राव देवा को बूँदी का दिलाना।
- 1366 ई. महाराणा क्षेत्रसिंह के समय का गोगूंदे का शिलालेख।
- 1379 ई. महाराणा क्षेत्रसिंह का अमीशाह को जीतना।
- 1382 ई. महाराणा लक्षसिंह
- 1421 ई. महाराणा मोकल
- 1428 ई. महाराणा मोकल के समय का चित्तौड़ का शिलालेख।
- 1431 ई. महाराणा मोकल के समय की सुल्तान अहमदशाह पर चढ़ाई।
- 1433 ई. महाराणा कुंभा।
- 1437 ई. महाराणा कुंभा की सफलतान महमूद के साथ की लड़ाई।
- 1438 ई. चूड़ा का मेवाड़ में आना और रणमल का मारा जाना।
- 1439 ई. महाराणा कुंभा के समय का राणपुर का शिलालेख।
- 1448 ई. महाराणा कुंभा ने विजय स्तम्भ बनवाया।
- 1452 ई. महाराणा कुंभा का आबू पर अचलगढ़ ने दुर्ग बनाना।
- 1456 ई. महाराणा कुंभा की नागौर पर चढ़ाई।
- 1458 ई. महाराणा कुंभा की नागौर पर दूसरी चढ़ाई।
- 1459 ई. कुंभलगढ़ की प्रतिष्ठा।
- 1460 ई. चित्तौड़ की कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति।
- 1461 ई. कुंभलगढ़ की दूसरी प्रशस्ति ।
- 1461 ई. अचलगढ़ के आदिनाथ की मूर्ति का लेख।
- 1468 ई. महाराणा कुंभा का मारा जाना।
2. महाराणा उदयसिंह/उदयकरण
- 1468 ई. - महाराणा उदयसिंह (प्रथम, ऊदा) का राज्य लेना।
- 1473 ई. - ऊदा का चित्तौड़ से भागकर कुंभलगढ़ जाना।
3. महाराणा रायमल
- 1473 ई. - महाराणा रायमल।
- 1482 ई. - कुंवर संग्रामसिंह का जन्म।
- 1488 ई. - एकलिंगजी का जन्म।
- 1497 ई. - रमाबाई के बनवाये हुए जावर के मंदिर की प्रशस्ति।
- 1500 ई. - नारलाई के आदिनाथ के मंदिर का शिलालेख।
- 1503 ई. - नासिरशाह की चित्तौड़ पर चढ़ाई।
- 1504 ई. - घोसुंडी की बावड़ी की प्रशस्ति।
- 1506 ई. - झालों का मेवाड़ में जाना।
- 1509 ई. - महाराणा रायमल की मृत्यु।
4. महाराणा संग्रामसिंह/सांगा
- 1509 ई. - सांगा की गद्दीनशीनी।
- 1514 ई. - गुजरात के सुल्तान से लड़ाई।
- 1516 ई. - कुंवर भोजराज का मीराबाई के साथ विवाह।
- 1517 ई. - चित्तौड़ का शिलालेख।
- 1519 ई. - महाराणा का मालवे के सफलतान महमूद को कैद करना।
- 1520 ई. - महाराणा का निजामुल्मुल्क को हराना।
- 1526 ई. - बाबर की इब्राहिम लोदी के साथ की पानीपत की लड़ाई।
- 1527 ई. - सांगा का देहान्त।
5. महाराणा रतनसिंह
- 1527 ई. - रतनसिंह (द्वितीय) का राज्यारोहण।
- 1531 ई. - रतनसिंह का मारा जाना।
- 1531 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1533 ई. - बहादुरशाह की चित्तौड़ पर चढ़ाई।
- 1535 ई. - महाराणा का चित्तौड़ पर अधिकार होना।
- 1536 ई. - महाराणा का रणवीर के हाथ से मारा जाना और उसका राज्य लेना।
6. महाराणा उदयसिंह (द्वितीय)
- 1537 ई. - महाराणा का राज्यारोहण।
- 1540 ई. - कुंवर प्रतापसिंह का जन्म।
- 1543 ई. - शेरशाह सूरि का चित्तौड़ की तरफ जाना।
- 1546 ई. - मीराबाई का देहान्त।
- 1557 ई. - महाराणा का हाजीखां पठान के साथ युद्ध।
- 1559 ई. - कुंवर प्रतापसिंह के पुत्र अमरसिंह का जन्म।
- 1564 ई. - उदयसागर का बनाना।
- 1568 ई. - बादशाह अकबर का चित्तौड़ लेना।
- 1569 ई. - बादशाह अकबर का रणथंभोर लेना।
- 1572 ई. - महाराणा का देहान्त।
7. महाराणा प्रतापसिंह
- 1572 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1573 ई. - कुंवर मानसिंह कछवाह का उदयपुर जाना।
- 1573 ई. - महाराणा के समय का शिलालेख।
- 1576 ई. - हल्दीघाटी की लड़ाई।
- 1576 ई. - बादशाह अकबर का गोगुन्दे जाना।
- 1577 ई. - महाराणा के समय का दानपात्र।
- 1578 ई. - बादशाह अकबर का शाहबाज खाँ को मेवाड़ पर भेजना और कुंभलगढ़ पर उसका अधिकार होना।
- 1582 ई. - महाराणा के समय का दानपात्र।
- 1583 ई. - जगमाल का राव सुरताण के हाथ से लड़ाई में मारा जाना।
- 1584 ई. - जगन्नाथ कछवाह का मेवाड़ में भेजा जाना।
- 1586 ई. - महाराणा का फिर मेवाड़ पर अधिकार होना।
- 1597 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
- 1597 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1600 ई. - मंत्री भामाशाह का देहान्त।
- 1600 ई. - शहजादे सलीम की मेवाड़ पर चढ़ाई।
- 1603 ई. - सलीम का मेवाड़ की दूसरी चढ़ाई के लिये नियत होना।
- 1605 ई. - परवेज की मेवाड़ पर चढ़ाई।
- 1607 ई. - कुंवर कर्णसिंह के पुत्र जगतसिंह का जन्म।
- 1608 ई. - महावतखाँ का मेवाड़ पर भेजा जाना।
- 1609 ई. - अब्दुल्ला खाँ का मेवाड़ पर भेजा जाना।
- 1611 ई. - राणपुर की लड़ाई।
- 1613 ई. - बादशाह जहाँगीर का खुर्रम को मेवाड़ अभियान पर भेजना।
- 1614 ई. - महाराणा की बादशाह जहाँगीर से संधि।
- 1615 ई. - महाराणा के पौत्र जगतसिंह का बादशाह के पास जाना।
- 1616 ई. - कुंवर कर्णसिंह का दूसरी बार बादशाह सेवा में जाना।
- 1620 ई. - महाराणा का देहान्त।
8. महाराणा कर्णसिंह
- 1620 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1622 ई. - शहजादे खुर्रम का महाराणा के पास जाना।
- 1628 ई. - महाराणा की मृत्यु।
9. महाराणा जगत्सिंह
- 1628 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1628 ई. - देवलिये (प्रतापगढ़) का मेवाड़ से अलग होना।
- 1628 ई. - ठिकरिया गाँव का दानपात्र।
- 1629 ई. - कुंवर राजसिंह का जन्म।
- 1630 ई. - नारलाई और नाडोल के आदिनाथ की मूर्तियों के लेख।
- 1643 ई. - कुंवर राजसिंह का बादशाह के पास अजमेर जाना।
- 1648 ई. - औंकारनाथ का शिलालेख।
- 1648 ई. - धाय के मंदिर की प्रशस्ति ।
- 1652 ई. - जगन्नाथ के मंदिर का शिलालेख।
- 1652 ई. - रूपनारायण के मंदिर का शिलालेख।
- 1652 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
10. महाराणा राजसिंह
- 1652 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1657 ई. - महाराणा के समय का दानपात्र।
- 1658 ई. - औरंगजैब का बादशाह होना।
- 1659 ई. - महाराणा का बाँसवाड़ा पर सेना भेजना।
- 1659 ई. - संत् की पहाड़ी के स्तम्भ का लेख।
- 1660 ई. - महाराणा का चारूमती से विवाह होना।
- 1660 ई. - भवांणा की बावड़ी का शिलालेख।
- 1662 ई. - मीणों का दमन।
- 1663 ई. - सिरोही के राव अखैराज को कैद से छुड़ाना
- 1664 ई. - अंबा माता की चरणचौकी का लेख।
- 1669 ई. - बड़ी के तालाब की प्रशस्ति ।
- 1674 ई. - देबारी का शिलालेख।
- 1675 ई. - छाणी गाँव के आदिनाथ की मूर्ति का लेख।
- 1675 ई. - राजनगर के आदिनाथ के मंदिर की 4 मूर्तियों के 4 लेख।
- 1675 ई. - राजप्रशस्ति महाकाव्य।
- 1676 ई. - देबारी क त्रिमुखी बावड़ी की प्रशस्ति।
- 1677 ई. - महाराजा राजसिंह का सिरोही के राव बेरिसाल की सहायता करना।
- 1679 ई. - कुंवर जयसिंह का बादशाही सेवा में जाना।
- 1679 ई. - महाराजा जसवंतसिंह का देहान्त और अजीतसिंह का महाराणा की शरण में जाना।
- 1679 ई. - बादशाह औरंगजेब का 'जजिया' लगाना।
- 1679 ई. - महाराणा का जजिया का विरोध
- 1679 ई. - औरंगजेब की महाराणा पर चढ़ाई।
- 1679 ई. - औरंगजेब के साथ लड़ाई।
- 1680 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
11. महाराणा जयसिंह
- 1680 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1681 ई. - महाराणा की औरंगजेब के साथ लड़ाई।
- 1681 ई. - महाराणा की बादशाह से संधि।
- 1684 ई. - पुर आदि परगनों का प्राप्त होना।
- 1687 ई. - थूर के तालाब की प्रतिष्ठा।
- 1690 ई. - कुंवर अमरसिंह के पुत्र संग्रामसिंह का जन्म।
- 1691 ई. - जयसमुद्र की प्रतिष्ठा।
- 1691 ई. - महाराणा का कुंवर अमरसिंह से विरोध।
- 1698 ई. - महाराणा का देहान्त।
12. महाराणा अमरसिंह (द्वितीय)
- 1698 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1707 ई. - बादशाह औरंगजेब की मृत्यु।
- 1708 ई. - महाराजा जयसिंह और अजीतसिंह का महाराणा के पास जाना।
- 1709 ई. - महाराणा का फरे, मांडल पर अधिकार होना।
- 1709 ई. - कुंवर संग्रामसिंह के पुत्र जगतसिंह का जन्म।
- 1710 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
13. महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय)
- 1710 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1711 ई. - रणबाजखां का मारा जाना।
- 1711 ई. - ऋषभदेव के मंदिर की वासुपूज्य की मूर्ति का लेख।
- 1711 ई. - ऋषभदेव के मंदिर की दूसरी मूर्ति का लेख।
- 1713 ई. - फर्रूखशियर का जजिया लगाना।
- 1713 ई. - उदयपुर का शिलालेख।
- 1714 ई. - महाराणा का दानपात्र।
- 1717 ई. - बेदले की बावड़ी का लेख।
- 1717 ई. - रामपुर पर महाराणा का अधिकार होना।
- 1717 ई. - राठौर दुर्गादास का मेवाड़ में जाना और रामपुरे का हामिम दोनों।
- 1719 ई. - सीसाराम की प्रशस्ति।
- 1724 ई. - कुँवर जगतसिंह के पुत्र प्रतापसिंह का जन्म।
- 1727 ई. - ईडर का मेवाड़ में मिलाया जाना।
- 1729 ई. - माधवसिंह को रामपुरा दिया जाना।
- 1734 ई. - महाराणा का देहान्त।
14. महाराणा जगतसिंह
- 1734 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1734 ई. - उदयपुर के हरबेनजी के मंदिर की प्रशस्ति।
- 1741 ई. - मरहटों से लड़ाई।
- 1742 ई. - गोवर्धन विलास के कुंड की प्रशस्ति।
- 1743 ई. - उदयपुर के पंचोलियों के मंदिर की प्रशस्ति।
- 1743 ई. - कुंवर प्रतापसिंह के पुत्र राजसिंह का जन्म।
- 1750 ई. - भटियाणी की सराय का शिलालेख।
- 1750 ई. - रामपुरे का मेवाड़ से निकाल जाना।
- 1751 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
15. महाराणा प्रतापसिंह (द्वितीय)
- 1751 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1753 ई. - महाराणा की मृत्यु।
16. महाराणा राजसिंह (द्वितीय)
- 1754 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1755 ई. - संध्यागिरी के मठ के निकटवर्ती शिवालय का शिलालेख।
- 1759 ई. - मरहटों का मेवाड़ पर आक्रमण।
- 1761 ई. - महाराणा का देहान्त।
17. महाराणा अरिसिंह (द्वितीय)
- 1761 ई. - महाराणा का राज्याभिषेक।
- 1762 ई. - उदयपुर का शिलालेख।
- 1763 ई. - उदयपुर की पार्श्वनाथ की मूर्ति का लेख।
- 1763 ई. - देवारी के मंदिर का शिलालेख।
- 1763 ई. - मल्हारराव होल्कर का मेवाड़ पर आक्रमण।
- 1764 ई. - धायभाई के मंदिर का शिलालेख।
- 1768 ई. - कुंवर भीमसिंह का जन्म।
- 1769 ई. - उज्जैन की लड़ाई।
- 1770 ई. - माधवराव सिन्धिया का उदयपुर को घेरना।
- 1771 ई. - गोड़वाड परगने का मेवाड़ से अलग होना।
- 1773 ई. - महाराणा का आटूण आदि पर आक्रमण।
- 1773 ई. - महाराणा का देहान्त।
18. महाराणा हम्मीरसिंह (द्वितीय)
- 1773 ई. - महाराणा का राज्यारोहण।
- 1777 ई. - महाराणा का विवाह।
- 1778 ई. - महाराणा का देहान्त।
19. महाराणा भीमसिंह
- 1778 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1782 ई. - रावत राघवदास का महाराणा की सेवा में जाना।
- 1787 ई. - महाराणा की मरहटों पर चढ़ाई।
- 1788 ई. - हड़क्याखाल की लड़ाई।
- 1789 ई. - सोमचन्द्र गाँधी का मारा जाना।
- 1791 ई. - महाराणा में सिंधिया की मुलाकात।
- 1792 ई. - रतनसिंह को कुंभलगढ़ से निकालना।
- 1794 ई. - डूंगरपुर तथा बाँसवाड़ा पर महाराणा की चढ़ाई।
- 1796 ई. - प्रधान सतीदास तथा जयचन्द का कैद होना।
- 1799 ई. - मेहता देवीचन्द का प्रधान नियत होना।
- 1800 ई. - कुंवर जवानसिंह का जन्म।
- 1802 ई. - जसवन्तराव होल्कर की मेवाड़ पर चढ़ाई।
- 1803 ई. - होल्कर का मेवाड़ को लूटना।
- 1805 ई. - मेवाड़ में सिंधिया और होल्कर का जाना।
- 1809 ई. - अमीरखां आदि का मेवाड़ में जाना।
- 1810 ई. - कृष्णकुमारी का आत्म बलिदान।
- 1815 ई. - प्रधान सतीदास और जयचन्द का मारा जाना।
- 1816 ई. - दिलेरखां की चढ़ाई।
- 1818 ई. - अंग्रेजों की सन्धि।
- 1819 ई. - मेरों का दमन।
- 1821 ई. - शिवलाल गलूंडया का प्रधान नियत होना।
- 1826 ई. - कप्तान सदरलैंड के सुधार।
- 1827 ई. - कप्तान कॉब का कौलनामा।
- 1828 ई. - महाराणा की मृत्यु।
20. महाराणा जवानसिंह
- 1828 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1828 ई. - मेहता रामसिंह का प्रधान बनाया जाना।
- 1828 ई. - भोमट का प्रबन्ध।
- 1829 ई. - बेगूं के रावत की होल्कर के इलाके पर चढ़ाई।
- 1831 ई. - महाराणा की लॉर्ड विलियम बेंटिक से मुलाकात।
- 1832 ई. - शेरसिंह का प्रधान बनाया जाना।
- 1833 ई. - महाराणा की गया यात्रा।
- 1836 ई. - चढ़े हुए खिराज का फैसला होना।
- 1837 ई. - महाराणा की आबू यात्रा।
- 1838 ई. - महाराणा की मृत्यु।
21. महाराणा सरदारसिंह
- 1838 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1839 ई. - भोमट के भीलों का उपद्रव।
- 1840 ई. - महाराणा की गया यात्रा।
- 1841 ई. - महाराणा का सरूपसिंह को गोद लेना।
- 1842 ई. - महाराणा की मृत्यु।
22. महाराणा सरूपसिंह
- 1842 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1844 ई. - मेहता शेरसिंह का प्रधान बनाया जाना।
- 1845 ई. - सरदारों के साथ कौलनामा।
- 1847 ई. - लावे पर चढ़ाई।
- 1849 ई. - सरूपशाही सिक्के का जारी होना।
- 1852 ई. - चावड़ों को आज्यें की जागीर वापस मिलना।
- 1854 ई. - नया कौलनामा बनना और उसका रद्द होना।
- 1854 ई. - सिपाही विद्रोह।
- 1856 ई. - बीजोल्यों का मामला।
- 1857 ई. - आमेट का झगड़ा।
- 1858 ई. - महारानी विक्टोरिया का घोषणापत्र।
- 1859 ई. - कोठारी केसरीसिंह को प्रधान बनाया जाना।
- 1860 ई. - खेराड़ में शांति स्थापना।
- 1860 ई. - शंभुसिंह का गोद लिया जाना।
- 1860 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
- 1860 ई. - मेवाड़ की अंतिम सती।
23. महाराणा शंभुसिंह
- 1861 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1862 ई. - सलूंबर का मामला।
- 1863 ई. - 'अहलियान दरबार राज्य मेवाड़' का स्थापित होना।
- 1865 ई. - महाराणा को राज्याधिकार होना।
- 1866 ई. - खास कचहरी का कायम होना
- 1868 ई. - मेवाड़ में भीषण अकाल।
- 1869 ई. - सौहनसिंह को बागौर की जागीर मिलना।
- 1869 ई. - महकमा खास का कायम होना।
- 1870 ई. - महाराणा का अजमेर जाना।
- 1871 ई. - महाराणा को जी.सी.एस.आई. का खिताब मिलना।
- 1874 ई. - महाराणा का स्वर्गवास।
24. महाराणा सज्जनसिंह
- 1874 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1875 ई. - मेहता पन्नालाल की पुनर्नियुक्ति।
- 1875 ई. - मेवाड़ में अति वृष्टि।
- 1875 ई. - महाराणा का बंबई जाना।
- 1875 ई. - लॉर्ड नॉर्थब्रुक का उदयपुर जाना।
- 1877 ई. - महाराणा का दिल्ली दरबार में जाना।
- 1877 ई. - इजलास खास की स्थापना।
- 1878 ई. - अंग्रेजी सरकार और महाराणा के बीच नमक का समझौता।
- 1878 ई. - शाहपुरा के साथ की कलमबन्दी।
- 1878 ई. - जमीन का बन्दोबस्त जारी होना।
- 1880 ई. - महेन्द्राजसभा की स्थापना।
- 1881 ई. - भीलों का उपद्रव।
- 1881 ई. - लॉर्ड रिपन का चित्तौड़ पर जाना और महाराणा को जी.सी.एस. आई. का खिताब मिलना।
- 1884 ई. - बोहडे का मामला।
- 1884 ई. - महाराणा का देहान्त।
25. महाराणा फतेह सिंह
- 1884 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1885 ई. - लॉर्ड डफरिन का उदयपुर जाना।
- 1889 ई. - ड्यूक ऑफ कनॉट का उदयपुर जाना।
- 1889 ई. - बागौर का खालसा किया जाना।
- 1890 ई. - शहजादे एल्बर्ट विक्टर का उदयपुर जाना।
- 1893 ई. - बन्दोबस्त का काम पूरा होना।
- 1893 ई. - उदयपुर-चितौड़ रेलवे का बनाया जाना।
- 1896 ई. - लॉर्ड एलगिन का उदयपुर जाना।
- 1897 ई. - महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती के अवसर पर महाराणा को दी जाने वाली सलामी में वृद्धि और महारानी को ऑर्डर ऑफ दी क्राउन ऑफ इन्डिया का सम्मान मिलना।
- 1899 ई. - मेवाड़ में भीषण अकाल।
- 1903 ई. - दिल्ली दरबार।
- 1904 ई. - मेवाड़ में प्लेग का प्रकोप।
- 1909 ई. - महाराणा की हरिद्वार यात्रा।
- 1911 ई. - महाराणा का जोधपुर जाना।
- 1911 ई. - दिल्ली दरबार।
- 1918 ई. - महाराणा को जी.सी.वी.ओ. उपाधि मिलना।
- 1918 ई. - मेवाड़ में इन्फ्लुएंजा का भयानक प्रकोप।
- 1919 ई. - महाराजकुमार (भूपालसिंह जी) को के.सी.आई.ई. का खिताब मिलना।
- 1921 ई. - महाराणा का भूपालसिंह को राज्याधिकार सौंपना।
- 1921 ई. - भूपालसिंह की घोषणा।
- 1920 ई. - प्रिन्स ऑफ वेल्स का उदयपुर जाना।
- 1930 ई. - महाराणा की मृत्यु।
26. महाराणा भूपालसिंह (विद्यमान)
- 1930 ई. - महाराणा की गद्दीनशीनी।
- 1931 ई. - महाराणा को जी.सी.एस.आई. का खिताब मिलना।
वागड़ (डूंगरपुर) के गुहिल
सामन्तसिंह (1178-1192 ई.)
वागड़ के गुहिल वंश का संस्थापक सामन्तसिंह पहले मेवाड़ का शासक था परन्तु चौहान कीतु द्वारा मेवाड़ से निकालने के बाद इसने वागड़ में अपना राज्य स्थापित किया।
सामन्तसिंह ने बड़ौदा को राजधानी बनाया। वह तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की ओर से लड़ता हुआ मारा गया।
वीरसिंह
वीरसिंह ने भील मुखिया डूंगरिया को मारकर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
डूंगरसिंह
डूंगरपुर नगर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।
गोपीनाथ (1424-1448 ई.)
गुजरात के अहमदशाह ने 1433 ई. में वागड़ राज्य पर आक्रमण कर गोपीनाथ को अपने अधीन कर लिया था परन्तु गोपीनाथ ने बाद में राणा कुम्भा की अधीनता स्वीकार कर ली।
उदयसिंह (1497-1527 ई.)
महारावल उदयसिंह ने अपने जीवनकाल में ही अपना राज्य दो भागों में बाँट दिया था- पश्चिमी भाग (डूंगरपुर) ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज को तथा पूर्वी भाग (बाँसवाड़ा) दूसरे पुत्र जगमाल को दे दिया।
उदयसिंह खानवा के युद्ध (1527 ई.) में राणा सांगा की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था।
आसकरण (1549-1580 ई.)
पृथ्वीराज के उत्तराधिकारी आसकरण ने मारवाड़ के राव चन्द्रसेन को शरण दी थी। इसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली परन्तु मुगल दरबार में नहीं गया।
आसकरण ने सोम व माही नदियों के संगम पर वेणेश्वर शिवालय तथा डूंगरपुर में चतुर्भुजजी के मन्दिर का निर्माण करवाया था।
जसवन्तसिंह द्वितीय (1806-1846 ई.)
1818 ई. - अंग्रेजों से सन्धि।
बाँसवाड़ा के गुहिल
जगमाल (1518-1545 ई.)
वागड़ (डूंगरपुर) के उदयसिंह के पुत्र जगमाल ने भीलों को पराजित कर बाँसवाड़ा क्षेत्र पर अधिकार किया था। बाँसवाड़ा बंसिया अथवा बिशना भील ने बसाया था।
प्रतापसिंह (1550-1579 ई.)
प्रतापसिंह ने 1576 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 1615 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा बाँसवाड़ा रियासत को मेवाड़ में मिला दिया गया था परन्तु समरसिंह ने जहाँगीर से अपना राज्य वापस प्राप्त कर लिया।
औरंगजेब ने राज्याभिषेक के समय बाँसवाड़ा को पुनः मेवाड़ में मिला दिया गया परन्तु 1681 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा बाँसवाड़ा रियासत को मेवाड़ से अलग कर कुशलसिंह को शासक बना दिया।
उम्मेदसिंह (1816-1819 ई.)
1818 ई. में अंग्रेजों से सन्धि।
देवलिया-प्रतापगढ़
सूरजमल (1473-1530 ई.)
राणा मोकल के पौत्र और खेमकरण के पुत्र सूरजमल ने 1473 ई. में भीलों को पराजित कर देवलिया राज्य की स्थापना की।
इस राज्य का देवलिया नाम वहाँ के भील मुखिया की विधवा के नाम पर पड़ा था। सूरजमल ने ग्यासपुर को राजधानी बनाया।
बाघसिंह (1530-1534 ई.)
यह मेवाड़ के दूसरे साके के समय (1534 ई.) चित्तौड़ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
रावत विक्रमसिंह (1552-1578 ई.)
इसने मीणों को पराजित कर कांठल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। विक्रमसिंह को देवलिया-प्रतापगढ़ राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
1615 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा देवलिया राज्य को मेवाड़ में मिला दिया गया परन्तु शाहजहाँ ने मेवाड़ के राणा जगतसिंह प्रथम से नाराजगी के कारण 1631 ई. में हरिसिंह को शासक मानकर देवलिया-प्रतापगढ़ को पृथक रियासत के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।
प्रतापसिंह (1676-1708 ई.)
प्रतापसिंह ने 1698 ई. में प्रतापगढ़ नगर की स्थापना कर इसे राजधानी बनाया। तब से देवलिया राज्य प्रतापगढ़ राज्य कहलाया।
महत्त्वपूर्ण तथ्य
- दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1303 ई. में चित्तौड़गढ़ पर कब्जा किया था।
- गुहिल वंश का पहला वास्तविक शासक शासक बप्पा रावल था।
- 18 जून, 1576 ई. में हल्दीघाटी का युद्ध हुआ।
- महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 में हुआ था।
- पन्नाधाय ने राणा उदयसिंह के जीवन को बचाया था।
- खानवा युद्ध में सांगा के घायल होने पर नेतृत्व झाला अज्जा ने संभाला था।
- 'बाण-माता' मेवाड़ राजपरिवार की कुलदेवी थी।
- संगीत पर लिखे गये संगीतराज, संगीत मीमांसा, सूड़ प्रबन्ध, रसिकप्रिया सभी राणा कुम्भा द्वारा रचित है।
- राणा कुम्भा को वीणा वाद्ययन्त्र में दक्षता हासिल थी।
- तिलभट्ट, नाथा, तथा मुनि सुन्दर सूरि महाराणा कुम्भा के दरबार में थे।
- चित्तौड़ का तीसरा साका 1567-68 ई. में हुआ।
- नोटः चित्तौड़ के तीसरे साके के समय अकबर ने अक्टूबर, 1567 ई. में चित्तौड़ किले पर घेरा डाल दिया था। 25 फरवरी, 1568 को अकबर का किले पर अधिकार हो गया था। इसलिए चित्तौड़ का साका 1568 ई. में माना जाएगा।
- जोधपुर राज्य जिसने मुगलों के विरुद्ध मेवाड़ के महाराणा प्रताप से संधि नहीं की।
- रामसिंह तंवर, बीदा झाला तथा रावत कृष्णदास चुण्डावत राजपूत सरदार हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप के पक्ष में लड़े थे।
- सिसोदिया राजवंश ने 7वीं शताब्दी तक चित्तौड़गढ़ किले पर शासन किया।
- चेतावनी रा चुंगट्या कविता सुनने के बाद शाही नरेश (रॉयल किंग) ब्रिटिश वायसरॉय से मिलने के लिये दिल्ली नहीं गये थे।
- अलाउद्दीन खिलजी और मेवाड़ वासियों के बीच चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी 1303 ई. में हुई थी।
- महाराणा प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया, जो 1615 ई. तक मेवाड़ की राजधानी रही।
- चित्तौड़गढ़ किले को जीतने के क्रम में अकबर को जयमल एवं पत्ता के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था।
- 1559 ई. में उदयपुर शहर के संस्थापक का श्रेय इतिहास में महाराणा उदयसिंह को दिया जाता है।
- राणा सांगा ने खातोली के युद्ध में इब्राहिम लोदी को पराजित कर बूँदी राज्य पर अधिकार किया।
- जहाँगीर ने मेवाड़ राज्य के शासक को मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होने की छूट दी।
- महाराणा प्रताप की मृत्यु के समय उनकी आयु 57 वर्ष थी।
- उदयपुर को बसाने वाले महाराजा उदयसिंह चित्तौड़गढ़ के महाराणा थे।
- 'हरमाड़ा का युद्ध' शेरशाह के सेनानायक हाजी खाँ और उदयसिंह के मध्य हुआ।
- अलाउद्दीन खिलजी ने 1303 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया, जिसके कारण पद्मिनी को जौहर कर अपने अस्तित्व की रक्षा करनी पड़ी।
- 1679 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब तथा राणा राजसिंह के मध्य उत्पन्न कटुता का प्रमुख कारण राणा राजसिंह द्वारा औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति का प्रतिरोध करना था।
- राजपूताना के चित्तौड़गढ़, रणथम्भौर, सिवाणा आदि स्थानों पर अलाउद्दीन खिलजी को कठोर संघर्ष करना पड़ा।
- 1567-68 ई. में चित्तौड़गढ़ के मुगल घेरे के दौरान दो राजपूत सामंतों जयमल व पत्ता ने दुर्ग की रक्षा करते हुए प्राण त्याग दिये।
- राणा रतनसिंह की रानी पद्मिनी का गोरा व बादल से क्रमशः चाचा व भाई का रिश्ता था।
- खानवा में बाबर के विरुद्ध सांगा की सहायता के लिए मालदेव के नेतृत्व में मारवाड़ी सेना भेजी गई।
- महाराणा कुम्भा मेवाड़ का मशहूर शासक था जिसने अचलगढ़ के किले की मरम्मत करवाई थी।
- महमूद लोदी, हसन खाँ, मालदेव और मेदिनी राय खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा के पक्ष में लड़े।
- 'इजलास खास' की स्थापना 1877 ई. में हुई।
- मुगल सम्राट बाबर ने 1527 ई. में (खानवा) में राणा सांगा व राजपूत शासकों को हराया था।

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