उच्च न्यायालय (राजस्थान)

उच्च न्यायालय

भारत की एकीकृत न्यायिक व्यवस्था में उच्च न्यायालय का स्थान उच्चतम न्यायालय के नीचे तथा अधीनस्थ न्यायालयों के ऊपर होता है। राज्य के न्यायिक प्रशासन में उच्च न्यायालय सर्वोच्च संस्था के रूप में कार्य करता है।
भारतीय संविधान के भाग-6 में अनुच्छेद 214 से 231 तक उच्च न्यायालयों से संबंधित प्रावधान किए गए हैं। उच्च न्यायालय राज्य में न्यायिक व्यवस्था का संचालन करता है तथा अधीनस्थ न्यायालयों की निगरानी करता है।
उच्चतम न्यायालय की 9 सदस्यीय पीठ ने वर्ष 1999 में दिए गए एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह निर्धारित किया कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में भारत के मुख्य न्यायाधीश को, संबंधित उच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद ही राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश देनी होगी।
उच्च न्यायालय के अधीन जिला स्तर तथा ब्लॉक या तहसील स्तर पर स्थापित न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों की श्रेणी में आते हैं। संविधान के भाग-6 के अध्याय-6 में अनुच्छेद 233 से 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों के गठन और नियुक्तियों से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं।
अनुच्छेद 233 के अनुसार जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा उच्च न्यायालय से परामर्श करके की जाती है।
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भारत में सर्वप्रथम 1862 में, कलकत्ता, बम्बई और मद्रास उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। वर्ष 1866 ई. चौथे उच्च न्यायालय की स्थापना इलाहाबाद में हुई। कालक्रम में ब्रिटिश भारत के प्रत्येक प्रान्त का अपना उच्च न्यायालय बन गया।
संविधान के अनुच्छेद 214 में प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है, अनुच्छेद 231 के अनुसार यह व्यवस्था की गई कि संसद दो या दो से अधिक राज्यों एवं संघ राज्य क्षेत्र के लिए साझा उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है।
वर्तमान में देश में 25 उच्च न्यायालय हैं। 25वें उच्च न्यायालय के रूप में आंध्रप्रदेश के अमरावती में न्यायालय की स्थापना की गई है, यह 1 जनवरी, 2019 से कार्यरत है। आंध्रप्रदेश के लिए एक पृथक उच्च न्यायालय की स्थापना के प्रस्ताव को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 5 नवम्बर, 2018 को स्वीकृति प्रदान की गई। केवल दिल्ली ऐसा संघ राज्य क्षेत्र है, जिसका अपना उच्च न्यायालय (1966 से) है। अन्य संघ राज्य क्षेत्र विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायिक क्षेत्र में आते हैं। देश में वर्तमान में तीन साझा उच्च न्यायालय भी हैं। मुम्बई, चण्डीगढ़, गुवाहाटी है।
  • मुम्बई उच्च न्यायालय - महाराष्ट्र, गोवा, दादर एवं दमन
  • चण्डीगढ़ उच्च न्यायालय - पंजाब, हरियाणा, चण्डीगढ़
  • गुवाहाटी उच्च न्यायालय - असम, नागालैण्ड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय - पश्चिमी बंगाल, अण्डमान-निकोबार
  • केरल उच्च न्यायालय - केरल, लक्षद्वीप
  • जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय - जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख
अनुच्छेद 230 के अनुसार संसद एक उच्च न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र का विस्तार, किसी संघ राज्य क्षेत्र में कर सकती है अथवा किसी संघ राज्य क्षेत्र को एक उच्च न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र से बाहर कर सकती है। पंजाब-हरियाणा का उच्च न्यायालय चण्डीगढ़ में है। देश में कुल 7 उच्च न्यायालय हैं जिनका अधिकार क्षेत्र एक से अधिक राज्यों या संघ राज्य क्षेत्रों में है। संसद उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र व शक्ति का निर्धारण कर सकती है।

भाग - 6 राज्यों के उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 214 से 232)
  • अनुच्छेद - 214 राज्यों के लिए उच्च न्यायालय
  • अनुच्छेद - 215 उच्च न्यायालयों का अभिलेख न्यायालय होना
  • अनुच्छेद - 216 उच्च न्यायालय का गठन
  • अनुच्छेद - 217 उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें
  • अनुच्छेद - 218 उच्चतम न्यायालय से संबंधित कुछ उपबंधों (अनुच्छेद 124 (4) व (5) का उच्च न्यायालयों को लागू होता है
  • अनुच्छेद - 219 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान
  • अनुच्छेद - 220 स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि-व्यवसाय पर निर्बन्धन
  • अनुच्छेद - 221 न्यायाधीशों के वेतन आदि
  • अनुच्छेद - 222 किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरण (Transfer)
  • अनुच्छेद - 223 कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति
  • अनुच्छेद - 224 अपर और कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति
  • अनुच्छेद - 224क / 224A उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति
  • अनुच्छेद - 225 विद्यमान उच्च न्यायालयों की अधिकारिता
  • अनुच्छेद - 226 कुछ रिट निकालने की उच्च न्यायालय की शक्ति
  • अनुच्छेद - 227 सभी न्यायालयों के अधीक्षण की उच्च न्यायालय की शक्ति
  • अनुच्छेद - 228 कुछ मामलों का उच्च न्यायालय को अंतरण
  • अनुच्छेद - 229 उच्च न्यायालय के अधिकारी और सेवक तथा व्यय
  • अनुच्छेद - 230 उच्च न्यायालय की अधिकारिता का संघ राज्य क्षेत्रों तक विस्तार
  • अनुच्छेद - 231 दो यो दो अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की स्थापना।

  • उच्च न्यायालय का गठन (अनुच्छेद 216)- अनुच्छेद 216 के अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और उतने अन्य न्यायाधीश होगें जितने आवश्यकतानुसार समय-समय पर राष्ट्रपति निर्धारित करते हैं। इस तरह संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या के बारे में विशेष तौर पर कुछ नहीं बताया गया है। इसे राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया गया है। तदनुसार राष्ट्रपति कार्य की आवश्यकतानुसार समय-समय पर इनकी संख्या निर्धारित करते हैं। जैसे वर्तमान में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या 160, मुम्बई में 94, चण्डीगढ़ में 85, मणिपुर में 5, मेघालय में 4, त्रिपुरा में 3, सिक्किम में 3 व राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या 50 निर्धारित की गई हैं। इसमें 38 स्थायी न्यायाधीश व 12 अतिरिक्त न्यायाधीश है।
  • न्यायाधीशों की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें अनुच्छेद 217 (1)- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर एवं मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करता है और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय वह उस राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम की सिफारिश पर की जाती है। कॉलेजियम में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश कॉलेजियम के चार न्यायाधीशों की सिफारिश के अनुसार नियुक्ति करते हैं। तृतीय न्यायाधीश वाद 1998 मामले में कालेजियम के लिए राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा 2 वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श ले सकता है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ-अनुच्छेद 217 (2)- अनुच्छेद 217 (2) के अनुसार कोई व्यक्ति किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के योग्य तभी माना जाएगा जब-
  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम-से-कम 10 वर्ष तक भारत में न्याय संबंधी पद पर कार्य कर चुका हो, या एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों का लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता (वकील) रह चुका हो।
संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए कोई न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के विपरीत प्रख्यात न्यायविदों को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं है।
अनुच्छेद 217 (3) के अन्तर्गत किसी न्यायाधीश की आयु सम्बन्धी प्रश्न का निर्धारण राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद किया जाता है।

शपथ (अनुच्छेद 219)- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राज्यपाल द्वारा या राज्यपाल द्वारा नियुक्त व्यक्ति द्वारा संविधान की तीसरी अनुसूची में वर्णित प्रारूप के अनुसार शपथ दिलवाई जाती है।

वेतन एवं भत्ते (अनुच्छेद 221)- वर्तमान में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,50,000 रुपये प्रति माह तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपये प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। न्यायाधीशों का वेतन संसद निर्धारित करती है।
सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीश उनके अंतिम माह के वेतन का 50 प्रतिशत प्रतिमाह पेन्शन पाने के हकदार हैं। उन्हें पेंशन भारत की संचित निधि से दी जाती है।

न्यायाधीश के वेतन तथा पद की शर्तों में उनके हित के विरुद्ध कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। परन्तु वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) लागू होने पर राष्ट्रपति उनके वेतन भत्तों में कटौती कर सकते हैं। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते राज्य की संचित निधि पर भारित होते हैं।

कार्यकाल और महाभियोग

अनुच्छेद 217 (1) के द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल 62 वर्ष की आयु तक होता है, परन्तु इससे पूर्व वह स्वयं पद त्याग कर सकता है। वह अपना लिखित त्यागपत्र राष्ट्रपति को भेज सकता है। 15वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1963 के द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्त आयु 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष की गई। उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में किसी प्रश्न का निर्णय राष्ट्रपति द्वारा, भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के पश्चात किया जाता है।

हटाना (अनुच्छेद 217 (1) (b))
उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की तरह ही निर्धारित प्रक्रिया द्वारा संसद के अनुमोदन के बाद राष्ट्रपति के आदेश द्वारा सिद्ध कदाचार (Proved misbehaviour) या असमर्थता (Incapacity) के आधार पर पद से हटाया जा सकता है। यह प्रक्रिया राष्ट्रपति महाभियोग जैसी है। इसमें अनुच्छेद 124 (4) की प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए यदि लोकसभा में प्रस्ताव लाया जाता है तो 100 सांसदों का और यदि राज्य सभा में प्रस्ताव लाया जाता है तो 50 सदस्यों (MP's) द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव अध्यक्ष या सभापति को पेश किया जाता है जिसे अध्यक्ष/सभापति स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो इन आरोपों की जाँच के लिए 3 सदस्यीय समिति का गठन न्यायाधीश जाँच अधिनियम 1968 के तहत करते हैं जिसमें (1) उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या अन्य न्यायाधीश (2) उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, (3) एक प्रख्यात न्यायाधीश, शामिल होने चाहिए। यदि समिति जाँच में न्यायाधीश को कदाचार का दोषी मानती है तो सदन प्रस्ताव पर विचार करता है। यदि प्रस्ताव सदन के दोनों सदनों द्वारा अपने कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित कर दिया जाता है तो उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष आदेश के लिए रखा जाता है। यदि राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाती है तो न्यायाधीश को उसी तिथि से पद से हटना पड़ता है।
न्यायाधीश पर जब महाभियोग प्रक्रिया चल रही हो, तब ही सदन में आलोचना की जा सकती है।
कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के विरुद्ध 18 अगस्त, 2011 को राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पारित हुआ। इस महाभियोग प्रस्ताव के पक्ष में 189 और विपक्ष में 17 सदस्यों ने मतदान किया। वह प्रस्ताव लोकसभा में पारित होता, उसके पहले ही न्यायमूर्ति सेन ने अपना हस्तलिखित इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दिया।

पद में रिक्ति
किसी न्यायाधीश के पद में रिक्ति का उल्लेख निम्नलिखित अनुच्छेदों में वर्णित है।
  • अनुच्छेद 217 (1) (a) के अन्तर्गत कोई न्यायाधीश राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र दे सकता है।
  • अनुच्छेद 217 (1) (b) न्यायाधीशों को पद से हटाया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 217 (1) (c) किसी न्यायाधीशों को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है या एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण किया जा सकता है।

न्यायाधीशों का स्थानान्तरण- अनुच्छेद 222 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के बाद किसी न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।

कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश (अनुच्छेद 223)- जब कभी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त होता है या वह कार्य करने में असमर्थ या अनुपस्थित हो तो राष्ट्रपति, उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।

अपर एवं कार्यकारी न्यायाधीश- अनुच्छेद 224 के अनुसार राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में योग्य व्यक्तियों को उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीशों के रूप में अस्थायी रूप से नियुक्त कर सकते हैं, जिसकी अवधि दो वर्ष से अधिक की नहीं होगी-
  • यदि अस्थायी रूप से उच्च न्यायालय का कामकाज बढ़ गया हो, या
  • उच्च न्यायालय में बकाया कार्य अधिक है।

सेवानिवृत्त न्यायाधीश (अनुच्छेद 222 क)- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश किसी भी समय उस उच्च न्यायालय अथवा किसी अन्य उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को अस्थायी अवधि के लिए बतौर कार्यकारी न्यायाधीश काम करने के लिए कह सकते हैं। वह ऐसा राष्ट्रपति की पूर्व संस्तुति एवं संबंधित व्यक्ति की मंजूरी के बाद ही कर सकते हैं।

न्यायाधीशों पर प्रतिबन्ध- संविधान के अनुच्छेद 220 के अनुसार उच्च न्यायालय का कोई स्थायी न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद, उसी उच्च न्यायालय या उस उच्च न्यायालय के किसी अधीनस्थ न्यायालय में वकालत नहीं कर सकता है। किन्तु वह अन्य उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में वकालत कर सकता है।

उच्च न्यायालय की शक्तियाँ तथा अधिकार- क्षेत्र
उच्च न्यायालय को व्यापक शक्तियाँ और क्षेत्राधिकार प्रदान किये गए हैं। अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय को रिट जारी करने की अधिकारिता और अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत प्रशासनिक क्षेत्राधिकार की शक्ति प्राप्त है।

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- अनुच्छेद 226 के अनुसार मौलिक अधिकारों से सम्बंधित कोई भी अभियोग सीधे उच्च न्यायालय में लगाया जा सकता है। उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों एवं अन्य कार्यों के लिए रिट (बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा एवं उत्प्रेषण लेख) भी जारी करने का अधिकार प्राप्त है। वसीयत, विवाह, तलाक, जल, न्यायालय की अवमानना, कम्पनी कानून आदि से सम्बंधित अभियोग भी उच्च न्यायालय के प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र में आते हैं। उच्च न्यायालय मूल अधिकारों से भिन्न अन्य मामलों में रिट जारी कर सकता है और राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 32 निलम्बित हो जाता है परन्तु अनुच्छेद 226 नहीं।

अपीलीय अधिकार क्षेत्र- दीवानी और फौजदारी मामलों में अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार उच्च न्यायालय को है-

दीवानी मामले: इस सम्बंध में उच्च न्यायालय का न्यायादेश निम्नानुसार है-
  • अ. जिला न्यायालयों, अतिरिक्त जिला न्यायालयों एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के आदेशों और निर्णयों को प्रथम अपील के लिए कानून तथा दोनों प्रकार के प्रश्नों के लिए सीधे उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है। यदि परिणाम निर्धारित सीमा से अधिक है।
  • ब. जिला न्यायालयों एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के आदेशों और निर्णय के विरुद्ध दूसरी अपील जिसमें कानून का प्रश्न हो (तथ्यों का नहीं)?
  • स. प्रशासनिक एवं अन्य अधिकरणों के निर्णयों के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ के सामने की जा सकती है। 1997 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि ये अधिकरण उच्च न्यायालय के न्यायादेश क्षेत्राधिकार के विषयाधीन हैं। परिणामस्वरूप किसी पंचायत के फैसले के खिलाफ पीड़ित व्यक्ति पहले उच्च न्यायालय में नहीं जा सकता।

आपराधिक मामले- सत्र न्यायालय और अतिरिक्त सत्र न्यायालय के निर्णय के खिलाफ उच्च न्यायालय में तब अपील की जा सकती है। जब किसी को सात साल से अधिक सजा हुई हो। यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि सत्र न्यायालय या अतिरिक्त सत्र न्यायालय द्वारा दी गई मृत्यु दण्ड पर कार्रवाई से पहले उच्च न्यायालय द्वारा इसकी पुष्टि की जानी चाहिए। चाहे सजा पाने वाले व्यक्ति ने कोई अपील की हो या न की हो।

अधीक्षण की शक्ति या प्रशासनिक क्षेत्राधिकार- अनुच्छेद 227 के अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय को उन राज्यक्षेत्रों में जिनके सम्बंध में वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है। सभी न्यायालय और अधिकरणों के अधीक्षण करने की शक्ति है। परन्तु उच्चतम न्यायालय को अधीक्षण की शक्ति प्राप्त नहीं है।

अधीनस्थ न्यायालय पर नियन्त्रण- अनुच्छेद 227 के अनुसार उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों पर निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं-
  • अ. वह अधीनस्थ न्यायालय से विवरण मंगा सकता है।
  • ब. निचले न्यायालयों के लिए नियम बना सकता है।
  • स. जिला न्यायाधीश की नियुक्ति, तैनाती और पदोन्नति एवं व्यक्ति की राज्य न्यायिक सेवा (जिला न्यायाधीशों से अलग) में नियुक्ति में राज्यपाल इससे परामर्श लेता है।
  • द. यह राज्य की न्यायिक सेवा (जिला न्यायाधीश के अलावा), की तैनाती, स्थानान्तरण, सदस्यों के अनुशासन अवकाश स्वीकृति पदोन्नति आदि मामलों को भी देखता है।

मुकदमों का हस्तान्तरण (अनुच्छेद 228) - उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय में विचाराधीन अभियोग को अपने यहाँ हस्तान्तरित करवा सकता है, यदि उसे ऐसा लगता है कि वह विधि के किसी सारगर्भित प्रश्न से सम्बंधित है। ऐसे अभियोगों का उच्च न्यायालय या तो स्वयं निपटारा कर देता है या विधि से सम्बंधित प्रश्न को निपटाकर अधीनस्थ न्यायालय को वापस लौटा देता है।

अभिलेख न्यायालय (अनुच्छेद 215) - अनुच्छेद 215 के अनुसार उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है। अभिलेख न्यायालय के रूप में उच्च न्यायालय के पास दो शक्तियाँ हैं-
  1. उच्च न्यायालय में फैसले, कार्यवाही और कार्य शाश्वत स्मृति और परिसाक्ष्य के लिए रखे जाते हैं। इन अभिलेखों को साक्ष्य के तौर पर रखा जाता है और अधीनस्थ न्यायालयों में कार्यवाही के समय इन पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। इन्हें कानूनी परम्पराओं और सन्दर्भों की तरह माना जाता है। सिविल अवमानना, जिनमें न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश आदि का पालन नहीं किया जाता।
  2. इसे न्यायालय की अवमानना पर साधारण कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों प्रकार के दण्ड देने का अधिकार है। यह अपराधिक अवमानना है इसमें न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप, न्यायिक प्रशासन में अवरोध या मामलों का गलत प्रकाशन शामिल है।
उच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत 6 प्रकार रिट जारी की जाती है जिसमें 1. बंदी प्रत्यक्षीकरण, 2. परमादेश, 3. निषेध, 4. उत्प्रेषण, 5. अधिकार पृच्छा, 6. इंजेक्शन।

न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति
उच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति राज्य विधानमण्डल व केन्द्र सरकार दोनों के अधिनियमों और कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता के परीक्षण के लिए है। यदि वे संविधान का उल्लंघन करने वाले हैं तो उन्हें असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप सरकार उन्हें लागू नहीं कर सकती। 42वें संशोधन अधिनियम 1976 में उच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को कम किया गया। किसी भी केन्द्रीय कानून की संवैधानिक व्याख्या पर उच्च न्यायालय द्वारा विचार करने की मनाही कर दी गयी। हालांकि 43वें संशोधन अधिनियम 1977 में फिर मूल स्थिति बहाल कर दी गई है।
उच्च न्यायालय 'लोक हित वाद' से संबंधित आवेदन स्वीकार कर सकता है।

राजस्थान उच्च न्यायालय

स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान का प्रशासनिक व न्यायिक ढाँचा ब्रिटिश शासन के अनुरूप ही था। इस समय राजस्थान में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर एवं कोटा राज्य थे, जिनके पास अपना-अपना न्यायालय था। राजस्थान में एकीकरण से पूर्व 19 देशी रियासतें थी, जिनका एकीकरण कार्य 17 मार्च, 1948 से शुरू हुआ और 25 जनवरी, 1950 को पूर्ण हुआ। इस एकीकरण प्रक्रिया के दौरान ही एक अधीनस्थ प्रणाली के अन्तर्गत एक समिति का गठन किया गया। इस तीन सदस्यीय समिति के अध्यक्ष बी.आर. पटेल थे जो पेप्सू के मुख्य सचिव थे, अन्य सदस्यों में ले. कर्नल टी.सी. पुरी तथा एस पी. सिन्हा शामिल थे। इस समिति को यह कार्य सौंपा गया कि वह राजस्थान की राजधानी तथा उच्च न्यायालय की स्थापना संबंधी सुझाव दे। समिति द्वारा 27 मार्च, 1949 को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर यह सिफारिश की कि राजस्थान की राजधानी जयपुर को बनाया जाए तथा उच्च न्यायालय जोधपुर में स्थापित किया जाये।
इस समिति की सिफारिशों को मानते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय अध्यादेश, 1949 पारित करके जोधपुर में नवनिर्मित राजस्थान का उच्च न्यायालय स्थापित किया गया और राज्य की रियासतों के पाँच उच्च न्यायालयों को समाप्त कर दिया। इसके पश्चात् राजस्थान के तात्कालिक राज प्रमुख द्वारा 25 अगस्त, 1949 को एक अधिसूचना जारी कर 29 अगस्त, 1949 को राजस्थान उच्च न्यायालय का उद्घाटन करने की तिथि घोषित की गई। हालांकि 21 जून, 1949 को ही राजस्थान उच्च न्यायालय की स्थापना, राजस्थान उच्च न्यायालय अध्यादेश, 1949 के अन्तर्गत स्थापित करने का निर्णय लिया गया था। इस प्रकार 29 अगस्त, 1949 को राजस्थान उच्च न्यायालय का उद्घाटन तत्कालीन राजप्रमुख सवाई मानसिंह द्वारा जयपुर में किया गया। राजस्थान उच्च न्यायालय के नियम, 1952, 1 अक्टूबर, 1952 से प्रभावी हुए। इसकी एक पीठ जयपुर में स्थापित करने की घोषणा की। न्यायमूर्ति कमल कांत वर्मा को इस उच्च न्यायालय का प्रथम मुख्य न्यायाधीश बनाया गया और इनके साथ-साथ 11 अन्य न्यायाधीशों को भी शपथ दिलवाई गई।
26 जनवरी, 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ और राजस्थान को 'बी' श्रेणी का राज्य बनाया गया, इसलिए न्यायाधीशों की संख्या में कमी आई। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के द्वारा राज्य की सीमाओं का पुनर्गठन हुआ और अधिनियम की धारा-49 के अन्तर्गत राजस्थान में एक नया उच्च न्यायालय गठित किया गया। इसके लिए पी. सत्यनारायण राव की अध्यक्षता में 11 जुलाई, 1957 को एक समिति का गठन किया गया। वी. विश्वनाथन एवं वी.के. गुप्ता इस समिति के सदस्य थे। समिति द्वारा 26 फरवरी, 1958 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा गया कि राजस्थान उच्च न्यायालय का मुख्यालय जोधपुर में रहे और खण्डपीठ (Bench) जयपुर को समाप्त कर दिया जाये इनकी सिफारिश के आधार पर 1958 में जयपुर पीठ समाप्त कर दी गई। इसके पश्चात् जन असन्तोष एवं विरोध तथा कुछ राजनीतिक कारणों से जयपुर पीठ की स्थापना पुनः 1976 में हुई। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा-51 के अन्तर्गत राष्ट्रपति ने इस पीठ को पुनः बहाल कर दिया और यह पीठ 31 जनवरी, 1977 से दोबारा स्थापित हो गई।

क्षेत्राधिकार

राजस्थान उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार सम्पूर्ण राजस्थान है। इसकी प्रधान पीठ जोधपुर में 1935 में बनी इमारत में स्थित है। 7 दिसम्बर, 2019 को जोधपुर में नव निर्मित राजस्थान हाईकोर्ट के भवन का लोकार्पण राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने किया। 9 दिसम्बर, 2019 को इस नवीन भवन में न्यायालय के सभी न्यायाधीशों ने प्रकरणों की सुनवाई कर इस दिन को ऐतिहासिक बनाया। राजस्थान उच्च न्यायालय की एक पीठ जयपुर में स्थित है जिसकी स्थापना 31 जनवरी, 1977 को उच्च न्यायालय राजस्थान आदेश, 1976 के द्वारा हुई।

राजस्थान उच्च न्यायालय

  • स्थापना - 29 अगस्त, 1949
  • अधिकार क्षेत्र - सम्पूर्ण राजस्थान (भारत)
  • मुख्यालय - जोधपुर स्थित है।
  • खण्डपीठ - जयपुर (1976) में स्थित है।
  • न्यायाधीशों की संख्या - 50 (जनवरी, 2015 से)
  • इसमें से 12 न्यायाधीश अतिरिक्त है और 38 स्थायी है।
  • प्रथम मुख्य न्यायमूर्ति - न्यायमूर्ति कमल कांत वर्मा
  • वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश - न्यायमूर्ति - एम.एम. श्रीवास्तव

राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उनका कार्यकाल
नाम कार्यकाल
न्यायमूर्ति कमल कान्त वर्मा 29.08.1949 से 24.01.1950
न्यायमूर्ति कैलाश नाथ वांचू 02.01.1951 से 10.08.1958
न्यायमूर्ति सरजू प्रसाद 28.02.1959 से 10.10.1961
न्यायमूर्ति जे.एस. राणावत 11.10.1961 से 31.05.1963
न्यायमूर्ति दुर्गा शंकर दवे 01.06.1963 से 17.12.1968
न्यायमूर्ति दौलत मल भंडारी 18.12.1968 से 15.12.1969
न्यायमूर्ति जगत नारायण (ICS) 16.12.1969 से 13.02.1973
न्यायमूर्ति बी.पी. बेरी 14.02.1973 से 16.02.1975
न्यायमूर्ति पी.एन.सिंघल 17.02.1975 से 05.11.1975
न्यायमूर्ति वेदपाल त्यागी 06.11.1975 से 27.12.1977
न्यायमूर्ति सी. होनैया 27.04.1978 से 22.09.1978
न्यायमूर्ति सी.एस. लोढ़ा 12.03.1979 से 09.07.1980
न्यायमूर्ति के.डी. शर्मा 07.01.1981 से 22.10.1983
न्यायमूर्ति पी.के. बनर्जी 23.10.1983 से 30.09.1985
न्यायमूर्ति डी.पी. गुप्ता 12.04.1986 से 31.07.1986
न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा 01.09.1986 से 22.05.1989
न्यायमूर्ति के.सी. अग्रवाल 15.04.1990 से 07.07.1994
न्यायमूर्ति जी.सी. मित्तल 12.07.1994 से 03.03.1995
न्यायमूर्ति ए.पी. रावानी 04.04.1995 से 10.09.1996
न्यायमूर्ति एम.जी. मुखर्जी 19.09.1996 से 24.12.1997
न्यायमूर्ति शिवराज वी. पाटिल 22.01.1999 से 14.03.2000
न्यायमूर्ति डॉ. ए.आर. लक्ष्मणण 29.05.2000 से 25.11.2001
न्यायमूर्ति अरुण कुमार 02.12.2001 से 02.10.2002
न्यायमूर्ति अनिल देव सिंह 24.12.2002 से 22.10.2004
न्यायमूर्ति एस.एस. झा 12.10.2005 से 15.06.2007
न्यायमूर्ति जे.एन. पांचाल 16.06.2007 से 11.11.2007
न्यायमूर्ति नारायण राव 05.01.2008 से 31.01.2009
न्यायमूर्ति दीपक वर्मा 06.03.2009 से 10.05.2009
न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला 10.08.2009 से 31.10.2010
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा 26.11.2010 से 31.12.2012
न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय 02.01.2013 से 05.08.2014
न्यायमूर्ति सुनील अम्बवानी 24.03.2015 से 21.08.2015
न्यायमूर्ति सतीश कुमार मित्तल 05.03.2016 से 14.04.2016
न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा 14.05.2016 से 17.02.2017
न्यायमूर्ति प्रदीप नन्द्राजोग 02.04.2017 से 05.10.2019
न्यायमूर्ति इन्द्रजीत महान्ति 06.10.2019 से 11.10.2021
न्यायमूर्ति अकील अब्दुल कुरैशी 12.10.2021 से 06.03.2022
न्यायमूर्ति एम.एम. श्रीवास्तव ( कार्यवाहक ) 07.03.2022 से 20.06.2022
एस. एस. शिंदे 21.06.2022 से 01.08.2022
मनिंद्र मोहन श्रीवास्तव ( कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ) 26.08.2022 से 13.10.2022
पंकज मिथ्थल 14.10.2022 से 05.02.2023
ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह 30.05.2023 से 09.11.2023
मनिन्द्र मोहन श्रीवास्तव 06.02.2024 से लगातार

राज्य की न्यायिक व्यवस्था में उच्च न्यायालय के अधीन जिला न्यायालय और मुंसिफ मजिस्ट्रेट के न्यायालय होते हैं। इन्हें अधीनस्थ न्यायालय कहा जाता है। संविधान के अनुच्छेद 233 में अधीनस्थ अथवा जिला न्यायालयों का प्रावधान किया गया है। ऐसे न्यायालय संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के अधीन एवं उसके निर्देशानुसार जिला और निम्न स्तर पर कार्य करते हैं। संविधान के भाग-VI में अनुच्छेद 233 से 237 तक इन न्यायालयों के गठन एवं कार्यपालिका से इनकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले उपबंध का उल्लेख किया गया है।

संवैधानिक प्रावधान अधीनस्थ न्यायालय : भाग-VI अनुच्छेद 233 से 237 तक
अनुच्छेद 233 अनुच्छेद 233 (क) जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति कुछ जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियों का और उनके द्वारा किए गए निर्णयों आदि का विधिमान्यकरण
अनुच्छेद 234 न्यायिक सेवा में जिला न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की नियुक्ति
अनुच्छेद 235 अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण
अनुच्छेद 236 निर्वाचन
अनुच्छेद 237 कुछ वर्ग या वर्गों के मजिस्ट्रेटों पर इस अध्याय के उपबंधों का लागू होना।

अधीनस्थ न्यायालय

जिला न्यायाधीश के न्यायालय को और पद सोपान क्रम में उससे निचले स्तर के न्यायालयों को 'अधीनस्थ न्यायालय' कहा जाता है। प्रत्येक राज्य न्यायिक जिलों में विभाजित होता है। इसका प्रमुख जिला एवं सत्र न्यायाधीश होता है। जिला एवं सत्र न्यायालय जिला क्षेत्र की सबसे बड़ी अदालत होती है। इसके अधीन मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय होता है।
संविधान के प्रावधानों के अनुसार जिला स्तर पर एक ही न्यायाधीश होता है। जब वह दीवानी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे जिला न्यायाधीश कहा जाता है तथा जब वह फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे सत्र न्यायाधीश कहते हैं। इसलिए जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश को जिला न्यायाधीश व सत्र न्यायाधीश के नाम से जाना जाता है। यह जिले का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी होता है। जिसे दीवानी व फौजदारी मामलों में मूल और अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
अधीनस्थ न्यायालयों की दूसरी श्रेणी के न्यायालय को मुंसिफ न्यायाधीश या दीवानी न्यायाधीश या प्रथम श्रेणी के ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट के न्यायालय के नाम से जानते हैं। ऐसे न्यायालयों की स्थापना खण्ड (Block) या तहसील स्तर पर की जाती है। जिसके अधिकार क्षेत्र में अनेक ताल्लुके या तहसीलें हो सकती है। जिले में एक तीसरे प्रकार का न्यायालय होता है जिसे राजस्व न्यायालय कहते हैं। यह भू-राजस्व संबंधी विवादों का निपटारा करता है।

संरचना और अधिकार क्षेत्र
जिला न्यायालयों के न्यायाधीश या सत्र न्यायाधीश को जिले के अन्य सभी अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण करने की शक्ति प्राप्त है। जिला न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। जिला न्यायाधीश, किसी अपराधी को उम्रकैद से लेकर मृत्यु दण्ड की सजा देने का अधिकार रखता है। जिला न्यायाधीश के ऐसे फैसले का उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदन किया जाना अनिवार्य है। अन्यथा उम्रकैद या मृत्यु दण्ड का फैसला प्रभावी नहीं होगा। 6 जून, 2020 को राजस्थान सरकार द्वारा राजधानी जयपुर में दो जिला एवं सत्र न्यायालयों के गठन को मंजूरी दे दी है अब जयपुर महानगर में जिला एवं सत्र न्यायाधीश प्रथम और जयपुर महानगर जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वितीय होंगे। नये कोर्ट के गठन के साथ ही अब प्रदेश में जिला एवं सत्र न्यायालयों की संख्या 35 से बढ़कर 36 हो गई है।

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जिला न्यायाधीश की नियुक्ति
संविधान के अनुच्छेद 233 के अनुसार जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापना और पदोन्नति राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है। जिला न्यायाधीश के अलावा अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा राज्य लोक सेवा आयोग तथा उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है। (अनुच्छेद 234)
वह व्यक्ति जिसे जिला न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है उसके पास निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए।
वह केन्द्र व राज्य सरकार में किसी सरकारी सेवा में कार्यरत न हो।
उसे कम से कम सात वर्ष का अधिवक्ता का अनुभव हो।
उच्च न्यायालय द्वारा उसकी नियुक्ति की सिफारिश की गई हो।

व्याख्या
'जिला न्यायाधीश' पद के अन्तर्गत नगर दीवानी न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, संयुक्त जिला न्यायाधीश, लघु न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, अतिरिक्त मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और सहायक सत्र न्यायाधीश शामिल हैं।

अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण : (अनुच्छेद 235)
जिला न्यायालयों एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायिक सेवा से संबंधित व्यक्तियों का पदस्थापन, पदोन्नति एवं अन्य मामले पर नियंत्रण का अधिकार राज्य के उच्च न्यायालय को होता है।

मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय
जिला न्यायाधीश एवं सत्र न्यायालय के अधीन ब्लॉक या खण्ड स्तर पर मुंसिफ अदालत होती है। मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय अगले स्तर का दीवानी न्यायालय होता है, जिनके क्षेत्राधिकार उच्च न्यायालयों द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। मुंसिफ न्यायाधीश का कार्यक्षेत्र सीमित होता है तथा वह छोटे दीवानी मामलों की सुनवाई करता है। ब्लॉक स्तर पर फौजदारी मामलों के लिये सत्र न्यायाधीश होता है। सत्र न्यायाधीश ऐसे फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है, जिसमें 3 वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकती है।

लोक अदालत

लोक अदालत पुरानी न्याय व्यवस्था का आधुनिक वैधानिक स्वरूप है। लोक अदालत एक मंच (forum) है जहाँ ऐसे मामलों, को शामिल किया जाता है जो न्यायालय में लंबित है अथवा अभी मुकदमे के रूप में दाखिल नहीं हुए हैं। इसमें विवादित मामलों को आपसी सहमति बनाकर सौहार्द्रपूर्ण ढंग से निपटाया जाता है। समाज के कमजोर वर्गों, में यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त कर पाने के अवसर से वंचित न रह जाए इसलिए अनुच्छेद 39 A के प्रावधानों के तहत निःशुल्क और सक्षम विधिक सेवा उपलब्ध करवाने के लिए लोक अदालतें स्थापित की गई।

लोक अदालत का अर्थ
लोक अदालत का अर्थ है- 'जनता की अदालत'। यह वैकल्पिक विवाद समाधान का अंग है जिसमें विवादित पक्षों में आपसी सुलह करवाकर मामले निपटाये जाते हैं। लोक अदालतें कम खर्चीली व त्वरित न्याय देने वाली अदालत है इसकी कार्यवाही में किसी की जीत (विजय) या हार (पराजय) नहीं समझी जाती। यह आम जन को अनौपचारिक सस्ता तथा त्वरित न्याय उपलब्ध कराने की रणनीति है। जिसमें दोनों पक्षों से बातचीत करके, मध्यस्थता द्वारा, आपसी मान मनोव्वल करके और वादियों की समस्याओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर वादों का निपटारा करवाते हैं।

लोक अदालत वैधानिक स्थिति
26 नवम्बर, 1980 को उच्चतम न्यायालय के तात्कालिक प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में 'कानूनी सहायता योजना क्रियान्वयन समिति' का गठन किया गया जिसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को द्रुतगामी और सरल बनाना था। इस समिति के प्रयासों से देश के विभिन्न भागों में कैम्प के रूप में 'लोक अदालतें' लगायी गई। पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात के जूनागढ़ में लगाया गया। यह पहल विवादों को निपटाने में बहुत सफल सिद्ध हुई। प्रारम्भ में यह व्यवस्था एक स्वैच्छिक एवं समझौताकारी एजेंसी के रूप में कार्य कर रही थी। इन अदालतों की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इसके द्वारा पारित फैसलों को वैधानिक मान्यता देने का प्रयास किया। इसलिए लोक अदालतों को वैधानिक दर्जा प्रदान करने के लिए वैधानिक सेवाएँ प्राधिकरण अधिनियम, 1987 पारित किया गया। जिसे Legal Service Authorities Act (LSAA) कहते हैं। इस अधिनियम में वर्ष 2002 में संशोधन किया गया।
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा-19 में लोक अदालतों के गठन का प्रावधान किया गया है। प्रत्येक राज्य प्राधिकरण या जिला प्राधिकरण या सर्वोच्च कानूनी सेवा समिति या प्रत्येक उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति या जैसा भी हो, तालूका कानूनी सेवा समिति ऐसे अन्तराल या स्थानों पर लोगों के लिए 'लोक अदालतों' का आयोजन कर सकती है। लोक अदालत में कोई वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश या प्रतिष्ठित विधिक व्यक्ति पीठासीन अधिकारी होता है। सामान्यतया एक वकील (अधिवक्ता) एवं एक सामाजिक कार्यकर्ता इसके सदस्य होते हैं। लोक अदालत में पारिवारिक विवाद, विवाह संबंधी विवाद, आपराधिक मामले, भूमि अधिग्रहण मामले, श्रम विवाद मामले, कर्मचारी क्षतिपूर्ति मामले, बैंक वसूली मामले, पेंशन मामले, आवास वित्त संबंधी मामले, उपभोक्ता शिकायत मामले, मोटर वाहन दुर्घटना मुआवजा संबंधी मामले लाए जा सकते हैं। लोक अदालतों के निर्णय दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी होते है लोक अदालत के फैसलों के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती।

लोक अदालत की शक्तियाँ
लोक अदालत को सिविल प्रक्रिया संहित 1908 के तहत सिविल कार्यवाही की शक्ति प्राप्त है। यह किसी गवाह को सम्मन भेजकर बुला सकता है, शपथ पत्र लेकर उसकी परीक्षा ले सकता है।
किसी दस्तावेज को प्राप्त कर सकता है या प्रस्तुत करने के लिए आदेश दे सकता हैं।
शपथ पत्रों पर साक्ष्य की प्राप्ति।
किसी भी अदालत या कार्यालय से सार्वजनिक अभिलेख या सामग्री को प्राप्त करना।
अन्य विनिर्दिष्ट सामग्री प्राप्त करना। प्रत्येक लोक अदालत आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 के उद्देश्य से एक सिविल न्यायालय माना जायेगा। राजस्थान की पहली लोक अदालत कोटा में आयोजित की गई।
राजस्थान में 22 अगस्त, 2020 को ऑनलाइन लोक अदालत का आयोजन किया गया। राजस्थान देश का पहला राज्य है जहाँ ऑनलाइन लोक अदालत का आयोजन किया गया। राज्य में 350 ऑनलाइन बेंचों का गठन किया गया है।

स्थायी लोक अदालत
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 को 2002 में संशोधित कर सार्वजनिक उपयोगी सेवाओं से जुड़े मामलों के लिए स्थाई लोक अदालतों के गठन की व्यवस्था की गई है। राजस्थान में पहली स्थायी लोक अदालत वर्ष 2000 में उदयपुर में स्थापित की गई।

ग्राम न्यायालय
ग्रामीण क्षेत्रों में खोले गए इन न्यायालयों में स्थानीय स्तर पर विवादों की सुनवाई हो रही है। इन न्यायालयों की बैठकें पंचायत समिति के मुख्यालय पर होंगी। जिला परिषद के किसी भी पंचायत समिति मुख्यालय को उच्च न्यायालय किसी ग्राम न्यायालय के लिए अतिरिक्त बैठक का स्थान अधिसूचित कर सकता है, तब उस ग्राम न्यायालय को उस पंचायत समिति का क्षेत्राधिकार होगा। राजस्थान में सबसे पहले 27 नवम्बर, 2010 को राज्य के पहले ग्राम न्यायालय की स्थापना बस्सी, जयपुर में की गई। राजस्थान में इस समय कुल 45 ग्राम न्यायालय कार्यरत हैं। ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 पारित होने के पश्चात् मध्यप्रदेश के भोपाल जिले के बैरसिया में ग्राम न्यायालय स्थापित किया गया। गाँधी जयंती के अवसर पर 2009 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अनंग कुमार पटनायक ने इसका शुभारम्भ किया।
  • ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 - यह अधिनियम प्रत्येक पंचायत के लिए एक ग्राम न्यायालय की स्थापना का प्रावधान करता है। अब तक देश में इस अधिनियम के तहत 320 ग्राम न्यायालय अधिसूचित किये गए हैं जिसमें 204 कार्यरत है।
  • विधि आयोग की 114वीं रिपोर्ट 1986 - ग्राम न्यायालय विधि आयोग की अनुशंसाओं पर आधारित है जो उसने अपनी 114वीं रिपोर्ट में दी।

उद्देश्य
न्याय आपके द्वार- गरीबों एवं साधनहीनों को उनके दरवाजे पर ही न्याय सुलभ कराना जिससे उन्हें शीघ्र, सस्ता एवं समुचित न्याय मिल सके।

विशेषताएँ
  • चलायमान न्यायालय (Mobile Court) - ग्राम न्यायालय एक चलायमान न्यायालय होगी जो दीवानी व फौजदारी दोनों शक्तियों का उपयोग करेगा।
  • न्यायिक अधिकारी (Presiding Officer) - की नियुक्ति राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सहमति से करेगी। यह ग्राम न्यायालय की अध्यक्षता करता है।

परिवार न्यायालय
‘परिवार न्यायालय अधिनियम 1984’ द्वारा ‘परिवार न्यायालय’ स्थापना का प्रावधान किया गया।

उद्देश्य
एक ऐसे विशेषीकृत न्यायालय का सृजन जो केवल पारिवारिक मामले ही देखेगा।
विवाह एवं परिवार संबंधी विवादों को मध्यस्थता एवं बातचीत के जरिये तीव्र गति से सुलझाना।

विशेषताएँ
परिवार न्यायालय की स्थापना राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय की सहमति से की जाएगी।
एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर हेतु एक परिवार न्यायालय अनिवार्य है।
केवल एक अपील - परिवार न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध केवल संबंधित उच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है, अन्य कहीं नहीं।

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Kartik Budholiya

Kartik Budholiya

Education, GK & Spiritual Content Creator

Kartik Budholiya is an education content creator with a background in Biological Sciences (B.Sc. & M.Sc.), a former UPSC aspirant, and a learner of the Bhagavad Gita. He creates educational content that blends spiritual understanding, general knowledge, and clear explanations for students and self-learners across different platforms.