जिला प्रशासन

जिला प्रशासन

यह लेख जिला प्रशासन की पूरी संरचना और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सरल और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें प्राचीन काल से लेकर आधुनिक भारत तक जिला प्रशासन के विकास, जिला कलेक्टर की भूमिका, उसके अधिकारों और दायित्वों को विस्तार से समझाया गया है। साथ ही राजस्थान के जिलों के गठन, नए जिलों और संभागों के निर्माण, उनके निरस्तीकरण तथा प्रशासनिक पुनर्गठन की पूरी प्रक्रिया को तथ्यात्मक ढंग से बताया गया है।
लेख में उपखण्ड अधिकारी, तहसीलदार और पटवारी जैसे प्रशासनिक पदों की नियुक्ति, कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियों का व्यावहारिक विवरण मिलता है, जिससे पाठक यह समझ पाता है कि शासन की योजनाएँ ज़मीनी स्तर तक कैसे पहुँचती हैं। कुल मिलाकर यह सामग्री जिला प्रशासन को केवल एक सरकारी ढाँचे के रूप में नहीं, बल्कि आम नागरिक के जीवन से सीधे जुड़े हुए तंत्र के रूप में सामने रखती है, जो कानून-व्यवस्था, विकास और जनकल्याण की रीढ़ है।
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शासन के एक अंग के रूप में जिला प्रशासन प्राचीन काल से विद्यमान रहा है। मनु की रचनाओं में जिला प्रशासन का उल्लेख मिलता है। मनु के मतानुसार 1000 गाँवों को मिलाकर एक जिला बनता था जो एक अलग अधिकारी के अंतर्गत कार्य करता था, गुप्त और मौर्य शासकों के शासन काल में जिला स्तर पर प्रशासन का एक सुगठित स्वरूप मिलता है। मौर्य काल में जिला को 'जनपद' कहा गया है। मौर्यकाल में प्रशासनिक इकाई के प्रमुख को 'राजुका' के नाम से पुकारा जाता था। उसकी स्थिति वर्तमान जिलाधीश के समान थी। मुगल शासकों के काल का भी जिला स्तर पर विशिष्ट संगठन विद्यमान था। मुगल काल में जिला को 'सरकार' कहा गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी मामूली हेर-फेर के साथ मुगलों का अनुकरण किया। जब कम्पनी को मुगल बादशाहों से 'दीवानी' के अधिकार प्राप्त हो गए तो उन्होंने राजस्व की वसूली के लिए अपने अलग अधिकारी नियुक्त किए। 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने राजस्व वसूली तथा न्याय कार्य दोनों के लिए कलेक्टर के पद का सृजन किया। कालांतर में इस पद को अधिकाधिक शक्तियाँ प्राप्त हो गई तथा जिला कलेक्टर भारत के ब्रिटिश शासन की आँख और कान का काम करने लगा। संविधान में जिला का कोई उल्लेख नहीं है, जिला शब्द का प्रयोग अनुच्छेद-233 में जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में किया गया है। जिला को अंग्रेजी में district कहा जाता है। इस district शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द districtus से हुई है, जिसका अर्थ है न्यायिक प्रशासन। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने विकास के कार्यक्रम प्रारम्भ किए। फलस्वरूप जिला कलेक्टर के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि हो गई।
जिला स्तर पर ही शासन की नीतियों को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया जाता है तथा स्थानीय जनता की समस्याओं का अध्ययन कर उन्हें राज्य सरकार तक पहुँचाया जाता है। यह कहना ठीक ही होगा कि जिला प्रशासन ही एक ऐसी इकाई है जिसका सम्पर्क प्रत्येक नागरिक से होता है। सचिवालय से परे राज्य में जिला सरकार पायी जाती है। कुछ मामलों में तो केन्द्रीय सरकार के क्षेत्रीय कार्यालय भी जिले में विद्यमान हैं। इन सभी विभागों की गतिविधियों को मिलाकर जिला प्रशासन का स्वरूप निर्मित करती है। राज्य प्रशासन को सुविधाजनक बनाने के लिए राज्य को सम्भाग में, सम्भाग को जिले में और जिलों को उपखण्ड व तहसील में तथा तहसील को पटवार सर्किलों में बाँटा जाता है। इस प्रकार तहसील राजस्थान में प्रशासनिक दृष्टि से सबसे छोटी इकाई है।

राज्य
सम्भाग
जिला
उपखण्ड
तहसील
पटवार सर्किल

राजस्थान के एकीकरण के समय 1 नवम्बर, 1956 को राज्य में 26 जिले थे। इनमें 26वाँ जिला अजमेर था। इसके पश्चात् जनसंख्या वृद्धि, प्रशासनिक विस्तार एवं राजनीतिक कारणों से जिलों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्तमान में अगस्त 2023 में राज्य में 10 संभाग, 50 जिले हैं। राज्य में जिलों का निर्माण इस प्रकार हुआ है।

एकीकरण के समय 26 जिले थे
  • 27वाँ जिला, धौलपुर - 15 अप्रैल, 1982 में निर्मित
  • 28वाँ जिला, दौसा - 10 अप्रैल, 1991
  • 29वाँ जिला, बाराँ - 10 अप्रैल, 1991
  • 30वाँ जिला, राजसमंद - 10 अप्रैल, 1991
  • 31वाँ जिला, हनुमानगढ़ - 12 अप्रैल, 1994
  • 32वाँ जिला, करौली - 19 जुलाई, 1997
  • 33वाँ जिला, प्रतापगढ़ - 26 जनवरी, 2008

नए जिलों का निर्माण

शिव चरण माथुर 15 अप्रैल, 1982 को 27वें जिले के रूप में गठन किया। भैरोंसिंह शेखावत के कार्यकाल में 1991 में दौसा, बाराँ, राजसमन्द का गठन किया गया, 1994 में हनुमानगढ़, 1997 में करौली को जिला बनाया गया। 26 जनवरी, 2008 को वसुंधरा राजे सिंधिया ने 33वें जिले प्रतापगढ़ का गठन किया। पिछले 14 वर्षों में कोई नया जिला नहीं बन पाया है। भाजपा सरकार द्वारा वर्ष 2014 में सेवानिवृत आई.ए.एस. परमेश चन्द्र की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति द्वारा मार्च, 2017 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की इसमें नया जिला निर्माण हेतु 10-12 मापदंड निर्धारित किये गए। परन्तु भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दबाये रखी। वर्ष 2022-23 की बजट घोषणा की पालना में दिनांक 21.03.2022 को नये जिले बनाने के संबंध में आवश्यकता का आंकलन कर अभिशंषा देने हेतु श्री रामलुभाया, सेवानिवृत आई.ए.एस. की अध्यक्षता उच्च स्तरीय समिति गठित की गई थी। उक्त कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट के आधार पर बजट 2023-24 में वित्त एवं विनियोग विधेयक पर चर्चा के समय दिनांक 17.03.2023 को माननीय मुख्यमंत्री महोदय द्वारा प्रदेश में संवेदनशील, जवाबदेही एवं पारदर्शी प्रशासन की सरकार की प्रतिबद्धता की दिशा में कदम उठाते हुये 19 नवीन जिलों एवं 3 नवीन संभागों के गठन की घोषणा की गई थी। रामलुभाया कमेटी का कार्यकाल 6 माह बढ़ा दिया है।
अंतरिम रिपोर्ट के पश्चात् समिति एवं राज्य सरकार को प्राप्त प्रतिवेदनों के परीक्षण उपरान्त समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट दिनांक 02.08.2023 राज्य सरकार को प्रस्तुत की गई। समिति की रिपोर्ट पर मंत्रीमण्डल की बैठक दिनांक 04.08.2023 में विचार-विमर्श किया गया। विचार-विमर्श उपरान्त मंत्रीमण्डल द्वारा उच्च स्तरीय समिति की अनुशंसा अनुसार कुल 19 जिलों एवं 3 संभागों के गठन का अनुमोदन किया गया। जिससे राज्य में जिलों की संख्या 33 से बढ़कर 50 हो गयी और संभागों की संख्या 7 से बढ़कर 10 हो गई। नये जिलों की विधिवत स्थापना 7 अगस्त, 2023 को हुई। जबकि मंत्रिमंडल द्वारा इसका अनुमोदन 4 अगस्त, 2023 को किया गया।
नये जिलों के सीमांकन की अधिसूचना राजस्व विभाग द्वारा जारी की जायेगी।

नवगठित जिले

  1. अनूपगढ़
  2. बालोतरा
  3. ब्यावर
  4. डीग
  5. डीडवाना-कुचामन
  6. दूदू
  7. गंगापुरसिटी
  8. जयपुर
  9. जयपुर (ग्रामीण)
  10. केकड़ी
  11. जोधपुर
  12. जोधपुर (ग्रामीण)
  13. कोटपूतली-बहरोड़
  14. खैरथल-तिजारा
  15. नीम का थाना
  16. फलौदी
  17. सलूम्बर
  18. सांचौर
  19. शाहपुरा
नवीन जिलों के गठन के लिये 18 वर्तमान जिलों का पुनर्गठन भी किया गया है। नये जिलों के गठनोपरान्त अब जिले की औसत आबादी 15.5 लाख और क्षेत्रफल 260 वर्ग किमी. हो गया है परन्तु आज भी जैसलमेर राज्य का सबसे बड़ा जिला है। तहसील व क्षेत्रफल के आधार पर सबसे छोटा जिला दूदू है। तहसीलों की दृष्टि से सबसे बड़ा जिला (13 तहसीलों वाला) जयपुर ग्रामीण है।
  • इस प्रकार 19 नये जिले बनाने के कारण प्रदेश में कुल 50 जिले हो गये थे।

ललित के. पंवार समिति- गठन- जून, 2024 अध्यक्ष - ललित के. पंवार उद्देश्य- गहलोत सरकार में बने जिलों तथा संभागों की समीक्षा के लिए गठित की गई।
  • इस समिति का गठन भजनलाल सरकार के द्वारा किया गया।
  • इस समिति ने अपनी रिपोर्ट मंत्रिमंडलीय उपसमिति को प्रस्तुत की है।

मंत्रिमण्डलीय उपसमिति
  • इस समिति के संयोजक - मदन दिलावर सदस्य: राज्यवर्धन सिंह राठौड़, कन्हेयालाल चौधरी, हेमंत मीणा, सुरेश सिंह रावत
  • इस समिति ने अपनी समीक्षा क्षेत्र में 17 जिलों को शामिल किया गया जिसमें 8 जिलों (फलौदी, सलूम्बर, ब्यावर, बालोतरा, डीडवाना-कुचामन, कोटपूतली-बहरोड़, खैरथल-तिजारा, डीग) को यथावत रखा जबकि निम्न 9 जिलों को निरस्त कर दिया गया: सांचौर, शाहपुरा, केकड़ी, दूदू, नीमकाथाना, गंगापुर सिटी, अनूपगढ़, जयपुर ग्रामीण, जोधपुर ग्रामीण है।
  • इसी समिति की सिफारिश पर निम्न 3 संभागों को भी निरस्त कर दिया गया: सीकर, पाली, बांसवाड़ा।

जिला प्रशासन
जिला, राज्य प्रशासन को आधार प्रदान करता है। जिला प्रशासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिस पर भारतीय प्रशासन का पूरा ढांचा खड़ा है। जिला प्रशासन का तात्पर्य निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र में 'लोक (सार्वजनिक) कार्यों के प्रबंधन' से है। ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार 'जिला वह भौगोलिक क्षेत्र है जिसे विशेष प्रशासनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निर्धारित किया गया हो।'
एस. एस. खेरा के अनुसार, जिला प्रशासन जिला के अन्तर्गत सार्वजनिक कार्यों का प्रबंध है। जिला प्रशासन लोक प्रशासन का वह भाग है जो जिले की भौगोलिक सीमाओं के भीतर कार्य करता है। भारतीय प्रशासन के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर पता चलता है कि इसके विकास के प्रारम्भिक चरण में जिला स्तर पर केवल एक अधिकारी, जिलाधिकारी, शासन के सभी कार्यों को संपादित करता था। कालांतर में स्थानीय स्वशासी संस्थाएं तथा प्राविधिक विभागों की स्थापना की गई। परिणामस्वरूप आदेश की एकता का स्थान आदेश की अनेकता ने ले लिया। इस प्रकार जिला एक प्रकार से उप राजधानी बन गया है, जिले में विभिन्न विभागों के मुख्य कार्यालय स्थित है। इन विभागों की अध्यक्षता जिला स्तर के अधिकारी करते हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है।
किसी एक निश्चित क्षेत्र की इकाई जिसमें सार्वजनिक कार्यों का प्रबंध किया जाता है, वह जिला प्रशासन कहलाता है। जिला प्रशासन के उद्देश्यों में कानून व व्यवस्था बनाना, भू राजस्व एकत्र करना आदि है। जिला प्रशासन में जिला कलेक्टर वह धुरी है जिसके चारों ओर जिला प्रशासन घूमता है। उसकी कई प्रशासनिक भूमिकाएँ होती है। वह जिले का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी है जो राजस्व कार्य एवं जिला विकास अधिकारी, जिला निर्वाचन व जिला जनगणना अधिकारी तथा जिला मजिस्ट्रेट एवं जिला अधिकारी की भूमिका निभाता है। जिले में पुलिस व्यवस्था का प्रमुख जिला पुलिस अधीक्षक (S.P.) होता है जो भारतीय पुलिस सेवा (I.P.S.) का सदस्य होता है। इसके कारण जिला कलेक्टर की भूमिका में परिवर्तन हो गया है।

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जिला प्रशासन के विभिन्न कार्य निम्नानुसार हैं
  1. नियमतामक कार्य जैसे, शांति, कानून एवं व्यवस्था स्थापित करना, अपराधों पर नियंत्रण करना, भूमि प्रशासन, जिसमें राजस्व का निर्धारण, उसकी वसूली एवं अन्य बकाया राशि आती है, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति का नियंत्रण, विनियमन एवं वितरण।
  2. जिला प्रशासन कुछ विकास कार्य भी करता है, जिसमें कृषि उत्पादन, सहकारिता, पशु-पालन, मत्स्य उत्पादन तथा कार्यकारी कार्य- जैसे, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सामाजिक कल्याण।
  3. जिला प्रशासन संसद, राज्य विधान मण्डल तथा स्थानीय संस्थाओं (ग्रामीण एवं नगरीय, दोनों) के निर्वाचनों की व्यवस्था करता है।
  4. यह आपात सेवाओं की व्यवस्था करता है तथा बाढ़ एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करता है।
  5. शासन के प्रमुख प्रतिनिधि की हैसियत से कलेक्टर को कई कार्य करने पड़ते है जैसे : हथियारों के लाइसेंस देना, उनका नवीनीकरण करना, उनका निलंबन करना तथा उन्हें रद्द करना, छोटी बचत योजनाओं का प्रचार करना, प्रचार तथा लोक संपर्क कार्य करना तथा प्रोटोकॉल कर्त्तव्यों का निर्वाह करना।

प्रशासनिक अधिकारी विभाग का नाम
जिला पुलिस अधीक्षक पुलिस विभाग
जिला आबकारी अधिकारी आबकारी विभाग
जिला वाणिज्यिक कर अधिकारी वित्त विभाग
जिला अल्प बचत अधिकारी वित्त विभाग
उपनिदेशक सामान्य प्रावधायी निधि एवं राज्य बीमा वित्त विभाग
मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी चिकित्सा विभाग
जिला परिवीक्षा एवं समाज कल्याण अधिकारी सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता
जिला आयुर्वेद अधिकारी आयुर्वेद विभाग
जिला परिवहन अधिकारी परिवहन विभाग
जिला रोजगार अधिकारी श्रम नियोजन विभाग
जिला रसद अधिकारी खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग
जिला कृषि अधिकारी कृषि विभाग
जिला आयोजना अधिकारी आयोजना विभाग
जिला पशुपालन अधिकारी पशुपालन विभाग
जिला जनसम्पर्क अधिकारी सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग
जिला मूल्यांकन अधिकारी आयोजना विभाग
जिला सांख्यिकी अधिकारी आयोजना विभाग
जिला सैनिक कल्याण अधिकारी सैनिक कल्याण
सहायक निदेशक, उद्यान कृषि विभाग
महाप्रबन्धक जिला उद्योग केन्द्र उद्योग विभाग
मुख्य कार्यकारी अधिकारी पंचायती राज विभाग
जिला खेल अधिकारी श्रम नियोजन खेलकूद
सहायक विधि अधिकारी विधि एवं न्याय
सहायक रजिस्ट्रार सहकारिता विभाग
भू-जल वैज्ञानिक जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी
अधिशासी अभियन्ता (पी.एच.ई.डी.) जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी
अधिशासी अभियन्ता (पी.डब्ल्यू.डी.) सार्वजनिक निर्माण विभाग
सहायक लोक अभियोजक गृह विभाग
अधिशासी अभियन्ता (सिंचाई) सिंचाई विभाग
सहायक पर्यटन निदेशक पर्यटन, कला एवं संस्कृति
उप वन-संरक्षक वन विभाग
खनिज अभियन्ता खनिज विभाग
जिला शिक्षा अधिकारी शिक्षा विभाग

जिला कलेक्टर

जिला कलेक्टर का पद ब्रिटिश शासन की देन है। इस पद का सृजन 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा राजस्व वसूली व न्यायिक कार्यों को करने के लिए किया गया था। वह जिले का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है। 1773 में कलेक्टर का पद समाप्त कर दिया। 1781 में इसे पुनः स्थापित किया गया। कार्नवालिस जिसे भारतीय लोक सेवा का जनक भी कहते है, इन्होंने 1786 ई. में कलेक्टर को भू-राजस्व एकत्रण के अधिकार दिये गये और 1787 ई. में दण्डनायक की शक्तियाँ प्रदान की। राल्फ शैल्डन को ब्रिटिश शासन का प्रथम जिला कलेक्टर माना जाता है। 1793 ई. में ये दण्डनायक शक्तियाँ समाप्त कर दी गई और 1812 ई. में दण्डनायक शक्तियाँ पुनः दे दी गई। प्राचीन मौर्यकाल व गुप्तकाल में भी इसके समकक्ष विद्यमान रहे है अर्थशास्त्र में जिले को 'अहारा' और इसके प्रमुख अधिकारों को 'स्थानिक' नाम दिया गया। गुप्तकाल में जिले को 'विषय' और जिलाधीश को 'विषयपति' कहा गया। मुगलकाल में जिला प्रशासन को 'सरकार' कहा गया। इसका प्रमुख अधिकारी 'करोड़ी फौजदार' कहलाया। जिले का राजस्व अधिकारी 'अमल गुजार' कहलाता था। ब्रिटिश भारत में इसे 'कलेक्टर' कहा गया। भारत में 'जिला' शब्द का प्रयोग 1776 ई. में कलकत्ता के सन्दर्भ में किया गया। ब्रिटिश काल में इसे जिला कहा जाने लगा और जिले के प्रमुख को 'जिला कलेक्टर' कहा गया। देश के विभिन्न राज्यों में कलेक्टर को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे बिहार, कर्नाटक, असम, जम्मू एवं कश्मीर, पंजाब व हरियाणा में कलेक्टर को 'उपायुक्त' डिप्टी कमीश्नर (DC) कहते हैं। प. बंगाल व उत्तर प्रदेश में जिला दण्डनायक और राजस्थान में जिला कलेक्टर व जिला दण्डनायक कहते हैं। 1861 के भारतीय पुलिस अधिनियम द्वारा 'जिला' शब्द को स्पष्ट परिभाषित करते हुए इस अधिनियम में जिला पुलिस प्रशासन को कलेक्टर के अधीन करके इस पद को अधिक शक्तिशाली बनाया गया।

नियुक्ति

जिला कलेक्टर की नियुक्ति 'राज्य सरकार' द्वारा की जाती है साधारणतः वह अखिल भारतीय सेवा का सदस्य होता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा (I.A.S) में प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति को जिला कलेक्टर लगाया जाता है, जिसे कम से कम 5 वर्ष का अनुभव प्राप्त हो। इसके अलावा राज्य प्रशासनिक सेवा (R.A.S.) के वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारी को पदोन्नत कर भी जिला कलेक्टर लगा दिया जाता है। I.A.S. की सेवा शर्तों का नियमन भारत सरकार करती है। जिला कलेक्टर केन्द्र में गृह मंत्रालय और राज्य में सामान्य प्रशासन विभाग के अधीन होता है। जिला स्तर पर कलेक्टर राज्य सरकार की आँख, कान तथा बाँहों के रूप में कार्य करता है। वह जिला स्तरीय प्रशासन का मुखिया होता है। वह जिले में कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने के साथ-साथ, जिला दण्डनायक के रूप में तथा विभिन्न विकास कार्यों एवं राजस्व मामलों की देखरेख करता है। वह जिला स्तरीय प्रशासन में समन्वय स्थापित करता है। जिला कलेक्टर राज्य, जिला प्रशासन तथा जनता के मध्य कड़ी का कार्य करता है।

जिला कलेक्टर के कार्य

  1. भू-राजस्व एकत्र करना एवं भू दस्तावेजों का रखरखाव।
  2. भूमि सुधार
  3. जिले में कानून और व्यवस्था बनाना
  4. लोक कल्याणकारी कार्य
  5. प्राकृतिक आपदा में सहायता
  6. निर्वाचनों का संचालन, निर्देशन, नियंत्रण एवं समन्वय।
  7. प्रोटोकॉल कार्य
  8. जिला क्षेत्र का भ्रमण करना
  9. जिले में विकास संबंधी परियोजनाओं की निगरानी करना।
  10. औपचारिक बैठकों का आयोजन
  11. प्रशासकीय कार्य
  12. जिला प्रशासन एवं राज्य सरकार में समन्वय करना।
  13. अन्य कार्य (i) जनगणना संबंधी कार्य (जिला जनगणना अधिकारी) (ii) प्रचार/संचार माध्यमों से सम्पर्क बनाए रखना। (iii) अल्प बचत कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देना। (iv) जनसमस्याओं का निराकरण करना।

जिला प्रशासन में कलेक्टर की भूमिका

भारतीय प्रशासकीय व्यवस्था में जिला प्रशासन के प्रमुख की हैसियत से कलेक्टर को अनुपम स्थान प्राप्त है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व वह भारतीय सिविल सेवा का सदस्य होता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उसे प्रशासकीय सेवा द्वारा नियुक्त किया जाता है। कभी-कभी वह राज्य सिविल सेवा से पदोन्नत होकर इस पद को प्राप्त करता है। उसे विभिन्न प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं।

1. जिला दण्डनायक के रूप में जिला कलेक्टर के कार्य-
जिला दण्डनायक के रूप में जिला कलेक्टर जिले में शांति, सुरक्षा, एकता तथा कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना।
साम्प्रदायिक दंगों, उग्र राजनीतिक आंदोलनों, प्रदर्शन आदि पर नियंत्रण रखना।
हथियारों के लाईसेंस संबंधी कार्य
धारा 144 के अन्तर्गत आने वाले मामलों की सुनवाई।
पुलिस अधीक्षक के माध्यम से पुलिस पर नियंत्रण रखना।
विदेशियों के पारपत्र की जाँच करना। जाति, निवास, अन्य प्रमाण पत्र जारी करना।
विशेष परिस्थितियों में रात को पोस्टमार्टम कराने की अनुमति देना।
जिले में तस्करी, मादक पेय पदार्थों का अवैध व्यापार रोकना।

2. कलेक्टर के रूप में
जिला कलेक्टर जिले के राजस्व विभाग का प्रमुख होता है। वह भू-राजस्व तथा शासन के बकाया धन की वसूली के लिए उत्तरदायी होता है। जिला कलेक्टर नजूल भूमि का प्रशासन करता है। इसके अलावा भूमि सुधार, भूमि अधिग्रहण जैसे कार्य करता है। राजस्व विभाग के जिला स्तर के सभी अधिकारी जैसे, राजस्व सहायक, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, लंबरदार और पटवारी आदि उसी के निर्देशन, अधीक्षण तथा नियंत्रण में कार्य करते है तथा वह तकाबी कर्ज देता है तथा उसे वापस वसूल करता है। वह वसूली की हानि का निर्धारण करता है तथा बाढ़ और सूखे के समय सहायता संबंधी सिफारिश करता है। वह शासकीय सम्पत्ति का मुख्य प्रबंधक होता है।

3. जिला मजिस्ट्रेट के रूप में
पहले वह प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट; न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था। किन्तु अब कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक हो जाने के उपरांत उसकी स्थिति में परिवर्तन हो गया है। अब जिला मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्य नहीं करता, इसे अब अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट अथवा न्यायिक अधिकारी संपन्न करता है। जिला मजिस्ट्रेट अब केवल जिले के आपराधिक प्रशासन की सामान्य निगरानी रखता है। वह जिले में शासन और व्यवस्था के प्रबंध के लिए उत्तरदायी है। इस विषय में उसकी सहायता पुलिस अधीक्षक करता है। जिला मजिस्ट्रेट जिले की जेलों को भी नियंत्रित करता है तथा समय-समय पर उनका निरीक्षण भी करता है। वह जिले के अपराधों को रोकने संबंधी विधियों के उचित कार्यान्वयन के लिए भी उत्तरदायी है। हथियारों, विस्फोटकों तथा पेट्रोल पदार्थों के लाइसेंस भी प्रदान करता है।

4. जिला प्रशासकीय अधिकारी के रूप में
जिला प्रशासकीय अधिकारी के रूप में वह राज्य सरकार का प्रमुख प्रतिनिधि होता है। वह जिले में सरकार के सामान्य हितों की देख-रेख करता है। वह सरकार के जिला स्तरीय अन्य कार्यालयों के बीच समन्वय स्थापित करता है। वह अपने अधीनस्थ उपखण्ड अधिकारी, तहसीलदार, नायब तहसीलदार तथा अन्य गजेटेड अधिकारियों की पदासीनता, स्थानांतरण तथा छुट्टी आदि की भी देख-रेख करता है। जिले का कोषागार उसी के अधीन रहता है। वह जिले का वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन तैयार करता तथा उसे राज्य सरकार के पास भेजता है। वह यह भी देखता है कि जिले में प्रशासन के विरुद्ध जनता की जो शिकायतें है उनका समुचित एवं प्रभावशाली समाधान हो।

5. जिला विकास अधिकारी के रूप में
जिला कलेक्टर स्थानीय प्रशासन के माध्यम से केन्द्र में राज्य सरकारी की योजनाओं व कार्यक्रमों को पूरा करवाता है और वह विकास कार्यों का पर्यवेक्षण करता है।

6. जिला निर्वाचन अधिकारी
जिला कलेक्टर जिले में सभी प्रकार के चुनावों अर्थात् संसद, विधानसभा एवं स्थानीय निकायों के चुनावों का प्रबंधन करता है। वह जिले का जिला निर्वाचन अधिकारी होता है जिले में चुनाव संबंधी कार्य उसी के निर्देशन में सम्पन्न होते हैं। वह जिला रिटर्निंग अधिकारी होता है।

सुधार

अहमदनगर में तत्कालीन कलेक्टर श्री अनिल कुमार लाखीना ने अपने जिला कार्यालय में 1984 में तीन स्तर पर सुधार किया -
(i) नागरिक-कर्मचारी संबंधों का नवीनीकरण ;
(ii) कार्यालय-प्रक्रिया को सरल करना जिससे फाइलें और रिकॉर्ड आसानी से उपलब्ध हो जाएं;
(iii) कार्यालय कार्मिकों के लिए अच्छी, काम करने लायक परिस्थितियाँ तथा चुस्त भौतिक पर्यावरण।

जिला कलेक्टर की भूमिका पर विभिन्न विचार
जिला कलेक्टर के व्यापक कार्य हैं इनको देखते हुए रैम्जे मैकडोनाल्ड ने जिला कलेक्टर की तुलना एक कछुए से की है जिसकी पीठ पर भारत सरकार का हाथी खड़ा हुआ है। साइमन कमीशन (भारतीय स्टेट्यूटरी कमीशन-1930) का कहना है कि, ‘‘वह केन्द्र सरकार का एकमात्र शक्तिशाली व मजबूत प्रतिनिधि है।’’ इसलिए वह ‘छोटी सरकार’ है। ‘जिलाधीश को एक अधिवक्ता, एक लेखाविद्य, एक सर्वेक्षणकर्ता तथा सजपत्रों का तैयार लेखक होना चाहिए।’ रजनी कोठारी ने अपनी रचना 'Politics in India' में कहा है कि ‘‘जिलाधीश संस्थागत करिश्मा है।’’ मई, 2005 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि ‘‘जिलाधीश प्रशासन की धुरी है’’। के.के. दास के अनुसार कही दूसरी जगह जिलाधीश के समान न तो कोई अधिकारी हुआ है और न ही होगा।

जिला योजना (अनु. 243 य.क)

जिला कलेक्टर एक मुख्य समन्वयक है, जो जिले की योजनाएँ तैयार करवाता है। कुछ राज्यों में जिला योजना एवं विकास परिषदें / बोर्ड स्थापित किए गए है जिनकी अध्यक्षता जिला कलेक्टर या जिले का कोई मंत्री करता है। कुछ राज्यों में इन परिषदों / बोर्ड को योजनाएँ बनाने के अधिकार दिए गए हैं, जबकि कुछ अन्य राज्यों में उनका कार्य केवल परामर्श देना है।
यद्यपि कुछ राज्यों में जिला योजना परिषदें बोर्ड स्थापित किए गए है तथापि जिला स्तर का योजना कार्य, राज्य की योजना की एक इकाई के रूप में ही प्रचलित हैं। जिला स्तर पर योजना से संबंधित संस्थाएँ अत्यन्त दुर्बल है। तृणमूल (Grassroot) योजना ने कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं किया है।
संक्षेप में, हम कह सकते है कि जिला प्रशासन के मूल उद्देश्य में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। समस्त राज्यों में नए उत्तरदायित्वों के वहन के लिए इन्हें एक नया स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। क्षेत्रीय प्रशासन की एक व्यवहारिक इकाई के रूप में समय की कसौटी पर यह खरा उतरा है और हम आशा करते हैं कि भविष्य में भी यह उसी स्थिति को कायम रखेगा।

उपखण्ड प्रशासन

राज्य में जिला प्रशासन के त्रि-स्तरीय अधिकारी वर्ग में मध्यम स्तर पर उप-खण्ड अधिकारी आता है यह पंचायती राज के विकास खण्ड से अधिकारी अलग होता है। इसे SDO या SDM कहा जाता है। इसे उपजिला कलेक्टर भी कहा जाता है। यह अधिकारी राजस्व इकाई का प्रशासनिक अधिकारी और व्यवहारिक प्रशासन की आधारशिला होता है। इसके अधीनस्थों में तहसीलदार, गिरदावर, कानूनगो व पटवारी तथा अन्य अधिकारी व कर्मचारी कार्य करते हैं। उपखण्ड अधिकारी के राजस्व सम्बन्धी दायित्व इतने विस्तृत होते हैं कि आम जनता इसे सर्वेसर्वा तक मानती है, यह अधिकारी जनता के आर्थिक, सामाजिक और कृषि सम्बन्धी जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है।
jila-prashasan
प्रशासकीय दृष्टि से राज्य को जिलों में तथा जिले को उपखण्डों व तहसीलों में विभाजित किया गया हैं, एक जिले में तहसीलों की संख्या 13 तक हो सकती है, अतः नियंत्रण का क्षेत्र बहुत अधिक हो जाता है, इसलिए जिला एवं तहसील के बीच एक स्तर और सृजित किया जाता है जिसे ‘उपखण्ड’ कहा जाता है। प्रत्येक उपखण्ड में एक अधिकारी नियुक्त किया जाता है जिसे उपखण्ड अधिकारी कहते है। सामान्यतः एक या कुछ तहसीलों या उप तहसीलों के समूह पर एक उपखण्ड स्थापित किया जाता है।
उपखण्ड के प्रमुख अधिकारी को भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। उत्तरप्रदेश व राजस्थान में इसे एस.डी.ओ. या एस.डी.एम. तमिलनाडु में उप-जिलाधीश तथा महाराष्ट्र में प्रान्त अधिकारी का नाम दिया गया है। जिला राजस्व कार्यालयों पर प्रतिवेदन, बम्बई (1919) के अनुसार, प्रान्त अधिकारी (एस.डी.ओ) मुख्य रूप से एक निरीक्षक, जाँच एवं पर्यवेक्षक अधिकारी है जो अपील सुनता है तथा मुकदमों के फैसले करता है। वह गाँवों में घूमकर लोगों की शिकायतें सुनता है तथा प्रत्यक्ष अनुभव लेता है।

नियुक्ति

उप-खण्ड अधिकारी के पद पर राज्य प्रशासकीय सेवा (राजस्थान प्रशासनिक सेवा) के व्यक्ति को कुछ अनुभव के बाद लगाया जाता है। कभी-कभी भारतीय प्रशासकीय सेवा के व्यक्ति को भी सेवा के प्रारम्भ में नियुक्त कर दिया जाता है। इन सेवाओं में भर्ती राजस्थान लोक सेवा आयोग द्वारा प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से की जाती है। जैसे आर.ए.एस. की भर्ती राजस्थान लोक सेवा आयोग तथा आई.ए.एस. के लिए भर्ती संघ लोक सेवा आयोग करता है। एस.डी.ओ. के कुछ पद तहसीलदार (आर.टी.एस.) के पदों से पदोन्नति के माध्यम से भी भरे जाते हैं। एस.डी.ओ. के पद के लिए अलग से कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं होता। सेवा, वर्ग के अनुसार प्रशिक्षण की अलग-अलग व्यवस्था की गई है। जैसे राजस्थान प्रशासकीय सेवा या राजस्थान तहसीलदार सेवा। एस.डी.ओ. का पद एक ‘सामान्यज्ञ पद’ है। इस पद पर कार्य करने वाले अधिकारी को उसकी सेवा श्रेणी के अनुसार सुविधाएँ प्रदान की जाती है। उपखण्ड अधिकारी जिला एवं तहसील प्रशासन के बीच की कड़ी है। इस दृष्टि से उपखण्ड में लगभग उन सभी उत्तरदायित्वों को पूरा करता है। जिन्हें जिले में जिलाधीश पूरा करता है।

उपखण्ड अधिकारी के कार्य
उपजिला कलेक्टर मुख्य रूप से RML कार्यों को करता है अर्थात्
  1. राजस्व सम्बन्धित कार्य
  2. उपखण्ड या दण्डनायक कार्य
  3. कार्यपालक कार्य
  4. न्यायिक कार्य
  5. नियामकीय कार्य
  6. निरीक्षक सम्बन्धी कार्य
  7. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य

भू राजस्व अधिकारी
यह राजस्थान भू राजस्व अधिनियम 1956 के अधीन भू राजस्व से सम्बन्धित न्यायिक अर्द्ध-न्यायिक प्रशासनिक व वित्तीय ऋणकारी कार्यों के रूप में पटवारी, कानूनगो, अभिलेख निरीक्षक के कार्यों को देखता है, भूमि दुरुस्तीकरण, भूमि सुधार, ग्राम के नक्शे व अभिलेख, सीमांकन, सर्वेचिन्ह जैसे कार्य करता है। वह सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण रोकता है।

न्यायिक कार्य
प्रारम्भिक अपीलीय, एक पुनरीक्षण कार्य, भूमि विवाद, चारागाह, विवाह, भू राजस्व घिवाद, लगान, मुआवजे, अभिलेख, पंजीकरण जैसे कार्य देखता है। न्यायिक अधिकारी के रूप में यह भूमि संबंधी प्रकरणों में तहसीलदार के निर्णयों के विरुद्ध शिकायत सुनता है। वह पटवारी व कानूनगो पर नियंत्रण रखता है।

दण्डनायक
दण्डनायक के रूप में वह अपने क्षेत्र में कानून-व्यवस्था निश्चित करता है। इसके अतिरिक्त वह फौजदारी प्रकरण, शान्ति व्यवस्था बनाए रखने पुलिस रिमाण्ड, थाने व जेलों का निरीक्षण, अपने क्षेत्र में वह धारा 144 लागू करने जैसे काम करता है। प्रशासनिक अधिकारी के रूप में वह अपने अधीनस्थों पर नियंत्रण रखता है। उनका कार्य सम्पादन में मार्गदर्शन करता है व आमजन को शासन से मिलने वाली सुविधाएँ व वस्तुओं की पूर्ति सुनिश्चित करता है।

तहसीलदार

तहसीलदार राजस्थान तहसील सेवा का अधिकारी होता है। इस पद पर नायब तहसीलदार से पदोन्नत होकर आते है। तहसीलदार पद पर नियुक्तियाँ 66 प्रतिशत प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष भर्ती से होती है, शेष 34 प्रतिशत् पदों पर राजस्व निरीक्षकों से पदोन्नत होते हैं। तहसीलदार राजस्थान तहसीलदार सेवा का सदस्य होता है। तहसीलदार, उपखण्ड अधिकारी के निर्देशन में कार्य करता है। तहसीलदार, द्वितीय श्रेणी कार्यपालक मजिस्ट्रेट होता है। तहसीलदार तथा नायब तहसीलदारों की नियुक्ति राजस्व मंडल द्वारा की जाती है। इन पदों को अधीनस्थ सेवाओं में रखा गया है। इस पद पर प्रशिक्षण के लिए सर्वोद्देशीय राजस्व प्रशिक्षण विद्यालय, टोंक में भेजा जाता है। वहाँ उन्हें 18 माह के लिए दीवानी तथा फौजदारी प्रक्रिया, भारतीय दण्ड संहिता, राजस्थान काश्तकारी कानून 1955, भू - राजस्व अधिनियम आदि विषयों पर ज्ञान कराया जाता है। साथ ही पशुपालन, कृषि, स्वास्थ्य, पुलिस आदि से सम्बन्धित वरिष्ठ अधिकारी भी इनके समक्ष व्याख्यान देते है। उन्हें कुछ समय के लिए एक गाँव का व्यावहारिक रूप से सर्वेक्षण एवं भू- प्रबन्ध कागजात तैयार करने का काम दिया जाता है। प्रशिक्षण के पश्चात् नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्ति होती है।
राजस्व मण्डल प्रत्येक जिले की आवश्यकतानुसार उसके लिए नायब तहसीलदारों की नियुक्ति करता है। जिलाधीश उनके लिए तहसीलों को निर्धारित करता है, व्यवहार में इस समस्त प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका राजनीति की रहती है, तहसीलदार का वेतनमान उसकी बढ़ती जिम्मेदारी की तुलना में कुछ कम लगता है। तहसीलदार से एस.डी.ओ. के पद पर पदोन्नति के अवसर भी पर्याप्त मात्रा में नहीं रखे गये हैं।

तहसीलदार की भूमिका

तहसीलदार का पद ऐतिहासिक दृष्टि से जिलाधिकारी के पद से भी पुराना है। इस पद की यात्रा राजस्व एकत्र करने से आरम्भ हुई तथा सामान्य प्रशासन, कानून व्यवस्था, ग्रामीण सांख्यिकी, संकट कार्यों के बीच से होती हुई, अब अनेक सूत्री कार्यों को पूरा करने की ओर बढ़ रही है। तहसीलदार अरबी भाषा का शब्द है जो सरकारी मालगुजारी वसूल करने से सम्बन्धित इकाई है। यह शब्द मुगल काल में लोकप्रिय हुआ। राजपूताने में 1791 ई. में अलवर राज्य में प्रकाश में आया। 1872 ई. में बीकानेर व अजमेर में प्रकाश में आया।

नियुक्ति

तहसीलदार राजस्थान तहसीलदार सेवा का सदस्य होता है। जो राजस्व मण्डल अजमेर द्वारा नियुक्त किया जाता है। 2/3 पद पदोन्नति से तथा 1/3 पद RPSC द्वारा सीधी भर्ती में चुने जाते है।

नियामकीय कार्य
राजस्व एकत्र करना, राजस्व मामलों का निपटारा, सम्पत्ति के क्रय-विक्रय का पंजीयन, राशनिंग की वस्तुओं के वितरण का प्रबन्ध तथा भू-अभिलेख प्रमुख है। इन कार्यों के अलावा तहसीलदार अपने तहसील क्षेत्र में निम्नलिखित कार्यों के सन्दर्भ में निर्णय लेता है।
  1. भू-राजस्व - तहसील क्षेत्र के भू-अभिलेखों का निरूपण एवं संरक्षण करना।
  2. भू- अभिलेख - पटवारी, कानूनगो के कार्यों का निरीक्षण।
  3. उप- राजकोष - तहसील स्तर पर उपकोषालयों का संचालन।
  4. पंजीयन - पंजीयन अधिकारी के रूप में जन्म-मृत्यु व विवाह पंजीयन कार्यों का संचालन।
  5. राहत कार्य - भुगतान अधिकारी के रूप में कार्य।
  6. राजस्व सम्बन्धी झगड़े - राजस्व सम्बन्धी झगड़ों को निपटाना।
  7. राशनिंग - सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत उचित मूल्य दुकानों का नियंत्रण करना।
  8. न्यायिक अधिकारी के रूप में तहसीलदार, द्वितीय श्रेणी का कार्यपालक मजिस्ट्रेट होता है।

पटवारी
राजस्व प्रशासन के अन्तर्गत पटवारी का पद सबसे कनिष्ठ होता है परन्तु यह पद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल से ही राजशाही शासन में भी राजस्व या लगान की वसूली के लिए उत्तरदायी था। पटवारी का पद मुस्लिम शासकों की देन है। यह पद उतना ही प्राचीन है जितनी की राजशाही व्यवस्था। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ तक यह पद सरकार से स्वतंत्र था। 1873 ई के राजस्व कानून के अधीन यह पद सरकारी माना गया। पटवारी का पद बहुत महत्त्वपूर्ण है। कभी पटवारी के बारे में कहा जाता था कि- 'ऊपर करतार, नीचे पटवार'।
विभिन्न राज्यों में पटवारी का पद का नाम निम्नलिखित है-

राज्य नाम
1. उत्तरप्रदेश लेखपाल
2. महाराष्ट्र तलैटी या पटेल
3. तमिलनाडु करनम
4. पंजाब पटवारी
5. राजस्थान पटवारी

राजस्थान में 1963 में पटवारी पद का सृजन किया गया। राजस्थान में माथुर आयोग द्वारा पटवारी का पदनाम बदल कर लेखपाल करने का सुझाव दिया था। राजस्व प्रशासन की आधारभूत इकाई जिला स्तरीय प्रशासनिक व्यवस्था होती है जिला स्तरीय राजस्व प्रशासन व्यवस्था में पटवारी का पद सबसे निचले स्तर का है। परन्तु यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्मिक होता है।
राजस्थान भू राजस्व अधिनियम 1956 के द्वारा प्रत्येक जिले को पटवार सर्किलों में बाँटा जाता है। सामान्यतः एक पटवारी के अधीन 7500 एकड़ भूमि या 3000 खसरों की भूमि होती है। वह लगभग 2000 काश्तकारों के अभिलेख रखता है।
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भर्ती
राजस्थान में पटवार के पद पर भर्ती का अधिकार राजस्थान अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड जयपुर को प्राप्त है। भर्ती प्रतियोगिता परीक्षाओं के माध्यम से होती है इसके लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता स्नातक निर्धारित की गई है। परीक्षा वस्तुनिष्ठ प्रकार की होती है। जिसमें सामान्य ज्ञान, गणित व हिन्दी विषयों का एक सामूहिक पेपर होता है। जिसमें 300 अंक निर्धारित किए गए है। वर्तमान में प्रारम्भिक व मुख्य परीक्षा का आयोजन किया जाता है।

नियुक्ति
पटवारी की नियुक्ति 'राजस्व मण्डल' अजमेर द्वारा की जाती है।

प्रशिक्षण
चयन के पश्चात् चयनित प्रत्याशियों को राजस्व प्रशिक्षण स्थल टोंक या गजसिंहपुर (श्री गंगानगर) में प्रशिक्षण हेतु भेजा जाता है। प्रशिक्षण अवधि 9 माह निर्धारित की गई है। प्रशिक्षण के दौरान पटवारी भाषा, गणित, भूगोल, सर्वेक्षण एवं भू अभिलेख तैयार करने जैसे व्यवहारिक विषयों का अध्ययन करता है। इसके साथ-साथ पटवार पत्रावलियों को तैयार करने, राजस्व विधियों एवं आदेशों का व्यवहारिक ज्ञान दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान उसे राजस्व भत्ता दिया जाता है। अन्त में राजस्व मण्डल अजमेर द्वारा आयोजित एक विभागीय परीक्षा होती है। परीक्षा में उत्तीर्ण पटवारियों को राजस्व मण्डल अजमेर द्वारा जिलों में भेज दिया जाता है। पटवार सर्किल में नियुक्ति जिला कलेक्टर द्वारा की जाती है।

सेवा शर्तें
राजस्थान राजस्व मण्डल द्वारा, सेवा नियम राज्य सरकार के अनुरूप होते हैं।

स्थानान्तरण
जिला स्तर पर जिला कलेक्टर द्वारा स्थानान्तरण किया जाता है।

पटवारी के कार्य

(1) भू-अभिलेख संधारण
भूमि से सम्बन्धित रिकार्ड पटवारी के पास होता है। उसमें संशोधन करना और अद्यतन बनाये रखना पटवारी का कार्य है। इसके अतिरिक्त सीमा ज्ञान, पत्थरगढ़ी और रिकार्ड की नकल देने का कार्य पटवारी द्वारा किया जाता है। गोद और वसीयत के आधार पर भूमि का नामान्तरण करता है। वह जमाबंदी, नकल आदि भी जारी करता है। काश्तकार द्वारा नियमानुसार पटवारी के पास जाकर नकल प्राप्त की जा सकती है।

(2) गिरदावरी/वसूली कार्य
पटवारी अपने पटवार सर्किल में गिरदावरी/वसूली को जाता है। गिरदावरी का समय निम्न प्रकार होता है।
गिरदावरी- 16 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक
खरीफ- 1 फरवरी से 5 मार्च
रबी- 1 मई से 15 मई
जायद रबी- 1 मई तथा वर्ष भर

(3) विभिन्न प्रमाण पत्र जारी करना
पटवारी जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाणपत्र, हैसियत प्रमाण पत्र, वृद्धावस्था/विधवा व विकलांग पेंशन प्रार्थना पत्र, प्राप्त होने पर रिपोर्ट अंकित करना।

(4) कृषि जोत पास बुक तैयार करना, ऋण कृषि कागजात तैयार करना।

(5) जनगणना कार्य, निर्वाचन सम्बन्धी कार्य करना।

(6) पटवार हल्के की कृषि की हालत जिला कलेक्टर को बताना।

(7) तहसीलदार द्वारा ली जाने वाली बैठकों में उपस्थित होना।

(8) पटवार मण्डल के रास्तों के अतिक्रमण को हटवाना।

(9) आपातकालीन सहायता उपलब्ध करना।

(10) भूमि सुधार कार्य।

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Kartik Budholiya

Kartik Budholiya

Education, GK & Spiritual Content Creator

Kartik Budholiya is an education content creator with a background in Biological Sciences (B.Sc. & M.Sc.), a former UPSC aspirant, and a learner of the Bhagavad Gita. He creates educational content that blends spiritual understanding, general knowledge, and clear explanations for students and self-learners across different platforms.