राजस्थान में पंचायती राज
यह लेख राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था के विकास, संरचना और कार्यप्रणाली को सरल एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण से समझाता है। इसमें राज्य में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सोच, ग्राम स्तर से लेकर जिला स्तर तक पंचायतों की भूमिका और उनके माध्यम से ग्रामीण विकास को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है।
लेख में राजस्थान में पंचायती राज के ऐतिहासिक आधार, 73वें संविधान संशोधन के बाद हुए संस्थागत बदलाव, ग्राम सभा की शक्ति, पंचायत समिति और जिला परिषद की जिम्मेदारियों को आमजन की भागीदारी से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। कुल मिलाकर यह विवरण दर्शाता है कि राजस्थान में पंचायती राज केवल प्रशासनिक व्यवस्था नहीं, बल्कि ग्रामीण समाज को सशक्त बनाने और विकास को जमीनी स्तर तक पहुँचाने का एक प्रभावी माध्यम है।
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण पर आधारित यह व्यवस्था जनभागीदारी को बढ़ावा देकर विकास को निचले स्तर तक ले जाती है। भारत में ग्रामीण प्रशासन के रूप में जो व्यवस्था अपनायी गयी है। उसे 'पंचायती राज व्यवस्था' के नाम से जाना जाता है। पंचायती राज व्यवस्था ग्रामीण स्थानीय प्रशासन की एक ऐसी प्रणाली है जिसमें नागरिक विकास का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करते हैं। यह नागरिकों की पहल और साझेदारी द्वारा ग्राम विकास की संस्थागत व्यवस्था की प्रणाली भी है। भारत में स्थानीय शासन प्राचीन काल से विद्यमान रहा है। ग्राम इन संस्थाओं की प्राथमिक इकाई रहे है। प्राचीन काल, वैदिक काल में सभा, समिति, विदथ नामक राजनीतिक संस्थाएँ थी। सर्वप्रथम चोल साम्राज्य में ग्राम पंचायत व्यवस्था देखी जा सकती है। मुगल काल में ग्राम पंचायत व्यवस्था देखी जा सकती है। मुगल काल में 'ग्राम' प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। जिसका मुखिया मुकद्दम कहलाता था। मुगलकाल में नगर का प्रमुख 'कोतवाल' कहलाता था।
ब्रिटिश शासन काल में सबसे पहले, 30 दिसम्बर, 1687 में मद्रास शहर के लिए 'नगर निगम' की स्थापना की घोषणा की गयी। 1688 में इसकी स्थापना हुई। बाद में 1793 के चार्टर एक्ट के अधीन मद्रास, कलकत्ता तथा बम्बई तीनों महानगरों में नगर निगमों की स्थापना की गयी। तब इसका उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई के लक्ष्यों तक सीमित था।
1786 में लार्ड वर्क द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में लाये महाभियोग के साथ ही अंग्रेजों ने भारत में गाँवों को ऊपरी तौर पर जोड़ने का प्रयास किया। 1830 में गवर्नर जनरल लार्ड मेटकॉफ ने भारतीय गाँवों की रिपोर्ट भेजते हुए लिखा कि, 'भारतीय ग्राम समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य है, जो पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं और अपने लिये सभी सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं।' ये बाहरी दबावों से मुक्त है इनके अधिकारों और प्रबंधों में हस्तक्षेप न किया जाये।
भारत में नगर प्रशासन के विकास का दूसरा चरण 1882 ई. में लॉर्ड रिपन के प्रस्ताव से प्रारम्भ हुआ। उन्होंने स्थानीय स्वशासन पर विकेन्द्रीकरण प्रस्ताव पारित किया, इसलिए लार्ड रिपन को स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है। 1882 के प्रस्ताव को 'स्थानीय स्वशासन' का मैग्नाकार्टा' कहते हैं। वर्ष 1883 में सर चार्ल्स मेटकॉफ ने भारत के आत्मनिर्भर गाँवों को 'लघु गणराज्य' कहा है। स्थानीय सरकार के इतिहास में अन्य महत्वपूर्ण चरण 1909 में शाही विकेन्द्रीकरण आयोग की रिपोर्ट से प्रारम्भ हुआ इसने स्वायत्त प्रशासन के विकास की सिफारिश प्रशासनिक हस्तांतरण के एक साधन के रूप में की थी। इसने नगर अधिकारियों को अधिक स्वायत्त शक्तियाँ देने पर बल दिया।
1909 के भारत सरकार अधिनियम में एक भाग स्वायत्त सरकार के प्रसार से संबंधित था। अधिनियम की महत्वपूर्ण सिफारिशें थी।
- गैर सरकारी अध्यक्ष के साथ निर्वाचित सदस्यों का बहुमत हो।
- मताधिकार को बढ़ाना।
- कर लगाने की स्वतंत्रता।
स्वतंत्रता के दौरान बनाये गये संविधान के भाग-IV में नीति निदेशक तत्वों के अन्तर्गत अनुच्छेद-40 में पंचायतों के गठन का प्रावधान किया गया। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को 'संवैधानिक मान्यता' प्रदान करते हुए संविधान में एक नया भाग-9 'पंचायतें' नाम से जोड़ा, अनुच्छेद 243 से 243(O) या 243 से 243(ण) तक 16 अनुच्छेद जोड़े गए। एक नवीन अनुसूची-11 जोड़ी गई। 11वीं अनुसूची में 29 विषय शामिल किये गए। इन 29 कार्यों की सूची का उल्लेख अनुच्छेद 243(G)(छ) में किया गया है। ग्यारहवीं अनुसूची के विषयों पर कानून बनाने का उत्तरदायित्व पंचायतों को सौंपा गया हैं राज्य विधानमण्डल द्वारा विधि बनाकर पंचायतों को शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा।
पंचायती राज
भारत में पंचायती राज व्यवस्था ऋग्वैदिक काल से ही ढूँढी जा सकती है। वैदिक काल में सभा, समिति, विदथ और पंचायतों का उल्लेख मिलता है। इस समय गाँव के मुखिया को 'ग्रामणी' कहा गया। मौर्यकाल में ग्रामसभा के मुखिया को 'ग्रामिक' कहा जाता था। गुप्तकालीन व्यवस्था में भी ग्राम पंचायत का अत्यधिक महत्व था। इस समय शासन का विकेन्द्रीकरण विभिन्न स्तरों पर पाया जाता था। ग्रामीण मामलों के प्रबंधन हेतु एक पदसोपानिक व्यवस्था विद्यमान थी।
पंचायती राज के अन्तर्गत उस व्यवस्था को शामिल किया गया है, जिसमें गाँवों के लोगों को गाँव का प्रशासन और विकास अपनी इच्छा और जरूरतों के अनुसार करने का अधिकार प्राप्त होता है। महात्मा गाँधी के अनुसार भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है। अतः गाँवों को 'स्वराज्य' की नींव बनाया जाना चाहिए। पंचायतें राजनीति की प्रथम पाठशाला है। गाँधी जी आर्थिक एवं राजनैतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल समर्थक थे। वे गाँवों को स्वावलम्बी एवं स्वशासित इकाई मानते थे। भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 40 में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में पंचायती राज संस्थाओं के विकास का उत्तरदायित्व राज्यों को सौंपा गया। संविधान में स्थानीय शासन को 'राज्य सूची' में रखा गया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ग्रामीण जीवन के सम्पूर्ण स्तर को ऊँचा उठाने के लिए 2 अक्टूबर, 1952 को पंडित नेहरू ने 'सामुदायिक विकास' कार्यक्रम के नाम पर पंचायती राज के स्वरूप को आगे बढ़ाया, एक मंत्रालय भी गठित किया लेकिन बाद में इसे 'कृषि मंत्रालय' में मिला दिया। वर्ष 1953 में 'राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम' शुरू किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी विशेषज्ञता को बढ़ाना था।
इस व्यवस्था को स्थानीय शासन करने के साथ-साथ योजना निर्धारण एवं कार्यान्वयन की शक्ति और सत्ता भी प्रदान की गयी। ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में यह व्यवस्था राज्य सरकार के एक अभिकरण के रूप में कार्य करती है। इस प्रकार पंचायती राज संस्थाएँ एक साथ तीन भूमिकाएँ निभाता है।
- ग्रामीण स्थानीय सरकार की इकाई के रूप में।
- सामुदायिक विकास के यंत्र के रूप में।
- राज्य सरकार की एक एजेंसी या अभिकरण के रूप में।
बलवंतराय मेहता समिति, 1957
सामुदायिक विकास कार्यक्रम व राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम के मूल्यांकन, जनसहभागिता की समस्या के समाधान के संबंध में सुझाव देने के लिए योजना कार्यक्रम समिति द्वारा 16 जनवरी, 1957 में बलवंतराय मेहता की अध्यक्षता में एक आयोग (स्टडी टीम फॉर द कम्युनिटी प्रोजेक्ट्स एण्ड नेशनल एक्सटेंशन सर्विस) गठित किया। मेहता समिति स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की समस्या पर विचार करने के लिए गठित प्रथम समिति थी। बलवंतराय मेहता समिति ने 24 नवम्बर, 1957 में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में पंचायती राज संस्थाओं के त्रिस्तरीय गठन की सिफारिश की थी। इसके अलावा लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की सिफारिश की जिससे लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
बलवंत राय मेहता समिति ने पहली बार 'लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण' शब्द का प्रयोग किया। इसलिए बलवंत राय मेहता को पंचायती राज व्यवस्था का जनक या शिल्पी (वास्तुकार) कहा जाता है। उन्होंने विकेन्द्रीकरण से संबंधित निम्नलिखित प्रमुख अनुशंसाएँ की।
- त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था की स्थापना।
- जिला कलेक्टर जिला परिषद के अध्यक्ष होंगे।
- मध्य स्तरीय संस्था पंचायत समिति को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाने की सिफारिश की।
- इन निकायों को संसाधनों और शक्तियों का हस्तांतरण सुनिश्चित किया जाए।
मेहता समिति के इन सुझावों को भारत सरकार तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् ने 12 जनवरी, 1958 को स्वीकार कर लिया। 1 अप्रैल, 1958 को इनकी सिफारिशें प्रभाव में आयी। स्थानीय प्रशासन राज्य सूची का विषय होने के कारण राज्य सरकारों से यह अपेक्षा की गई कि वे मेहता समिति के सुझावों के आधार पर अपने-अपने राज्य में पंचायती राज व्यवस्था को अपनाए। अधिकांश राज्य सरकारों ने मेहता समिति के सुझावों को स्वीकार करते हुए त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था स्थापित की।
त्रि-स्तरीय पंचायती राज
- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, जिसमें ग्राम पंचायत व ग्राम सभा होगी।
- ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति या क्षेत्रीय समितियाँ जो सरकार के विकास सम्बन्धी कार्यों पर निगरानी रखेंगी।
- जिला स्तर पर जिला परिषद् जिसके सदस्य पंचायत समितियों के प्रतिनिधि, उस जिले के सांसद व विधायक होंगे जो पंचायत समितियों के कार्यों के मध्य समन्वय स्थापित करेंगे और जिले के विकास की दिशा में राज्य सरकार को परामर्श देंगे।
बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिश के आधार पर 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव से पंचायती राजव्यवस्था की त्रि-स्तरीय पद्धति लागू की गयी। इस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया थे वे भी लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के प्रबल समर्थक थे। इस प्रकार पंचायत राज व्यवस्था लागू करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य बन गया। यह विकेन्द्रीकरण का प्रथम प्रयास माना जाता है। मेहता समिति की सिफारिशों के बाद राजस्थान विधानसभा ने 2 सितम्बर, 1959 को राजस्थान पंचायत समिति एवं जिला परिषद अधिनियम, 1959 पारित कर त्रि-स्तरीय व्यवस्था को अपनाया। प्रयोग के तौर पर पंचायतीराज की शुरुआत आन्ध्रप्रदेश से की गई। मेहता समिति की सिफारिश पर आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश तथा बिहार में त्रि-स्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू की गयी। वर्ष 2009 में पंचायती राज व्यवस्था के 50 वर्ष पूर्ण होने पर वर्ष 2009 को "स्वर्ण जयंती वर्ष" के रुप में मनाया गया। 2009 में नरेगा का नाम मनरेगा (MGNREGA) किया।
मेहता समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप भारत में पंचायती राज व्यवस्था अपनाने वाला राजस्थान देश का पहला और आन्ध्रप्रदेश दूसरा राज्य बना जब यहाँ 11 अक्टूबर, 1959 को महबूबनगर जिले में यह व्यवस्था लागू की गई। इसके पश्चात् 1960 में तमिलनाडु, कर्नाटक, असम में 1962 में महाराष्ट्र में 1963 में गुजरात में 1964 में पश्चिम बंगाल में लागू हुई। 1965 से 1977 तक पंचायती राज संस्थाओं का विकास अवरुद्ध हुआ। किन्तु एक राज्य से दूसरे राज्य में इसके स्वरूप में काफी अन्तर था। राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था 2 अक्टूबर, 1959 को लागू हुई और आंध्रप्रदेश में 11 अक्टूबर, 1959 को।
के. संथानम समिति, 1963
इस समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट में पंचायतों को सीमित राजस्व शक्तियाँ प्रदान करने तथा राज्य पंचायती राज वित्त निगमों की स्थापना की अनुशंसा की थी। 1964 में पुनः इस समिति को पंचायतों के चुनाव प्रक्रिया पर प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए नियुक्त किया। इसकी रिपोर्ट इन्होंने 1965 में सौंपी।
आर.के.खन्ना समिति, 1965
पंचायती राज संस्थाओं का अंकेक्षण (Audit) करने के लिए 1965 में स्टडी टीम ऑन पंचायती राज ऑडिट एंड एकाउंट्स ऑफ पंचायती राज का गठन आर.के. खन्ना की अध्यक्षता में किया गया।
जी.रामचन्द्रन समिति, 1966
पंचायती राज कार्मिकों की ट्रेनिंग संबंधी सुझाव देने के लिए 1966 में कमेटी ऑन पंचायती राज ट्रेनिंग सेंटर्स का गठन जी.रामचन्द्रन की अध्यक्षता में किया गया।
दया चौबे समिति, 1976
दया चौबे की अध्यक्षता में 1976 में कमेटी ऑन डेवलपमेंट एंड पंचायती राज का गठन किया।
अशोक मेहता समिति, 1977
पंचायती राज की भूमिका का विश्लेषण करने तथा इसके विकास हेतु सुझाव देने के उद्देश्य से मंत्रिमंडल सचिवालय के प्रस्ताव के आधार पर 12 दिसम्बर, 1977 को जनता पार्टी सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक नयी समिति गठित की। समिति को प्रवर्तित पंचायती राज तथा लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण प्रणाली की समीक्षा करने, संसाधनों के गतिशीलन्, योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन, पंचायती राज संस्थाओं के गठन, इनकी भूमिका, समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव देने का कार्य सौंपा। अशोक मेहता समिति द्वारा पंचायती राज पद्धति को पुर्नजीवित करने एवं मजबूत बनाने के लिए 21 अगस्त, 1978 में प्रस्तुत रिपोर्ट में द्वि-स्तरीय संरचना की संस्तुति की। जिसके अन्तर्गत अनेक गाँवों को मिलाकर मंडल पंचायत तथा शिखर पर जिला परिषद् स्थापित हो। जिला कलेक्टर सहित सभी अधिकारी जिला परिषद् के अधीन रखे जाये। अशोक मेहता समिति द्वारा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं महिलाओं के लिए भी आरक्षण का प्रावधान रखा गया। इसके साथ यह भी कहा गया कि पंचायती राज संस्थाओं के कार्यों में राज्य सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी । जिला परिषद कार्यकारी निकाय हो और वह राज्य स्तर पर योजना व विकास के लिए जिम्मेदार हो।
- जिला विकेन्द्रीकरण का प्रथम बिन्दु हो तथा विकास प्रशासन को जनप्रतिनिधि संचालित करें।
- गाँवों में मण्डल पंचायत से पृथक 'न्याय पंचायत' हो।
- पंचायत चुनावों में राजनीतिक दलों को भाग लेना चाहिए और चुनाव दलगत आधार पर हों।
- पंचायतों के चुनाव समय पर होने चाहिए।
- पंचायतों का कार्यकाल 4 वर्ष होना चाहिए।
- पंचायती राज के कार्यों को देखने के लिए एक मंत्री हो।
- जिला परिषद एवं मण्डल पंचायतों को पर्याप्त संसाधन हस्तान्तरित किये जायें।
- न्याय पंचायतों के गठन की सिफारिश की है।
महाराष्ट्र और गुजरात में जिला परिषदें सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं जिनका गठन प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा होता है। तमिलनाडु एवं कर्नाटक में जिला परिषद् के स्थान पर जिला विकास परिषद् होती है।
भारत में पंचायती राज के दो स्वरूप विकसित हुए, पहला था आन्ध्रप्रदेश स्वरूप, जिसमें खण्ड अर्थात् पंचायत समिति योजना और विकास की इकाई निर्धारित की गयी थी। दूसरा स्वरूप महाराष्ट्र स्वरूप कहलाता है, इसमें योजना और विकास की इकाई जिला अर्थात् जिला परिषद् होती है।
अरूणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नगालैण्ड में बुनियादी स्तर पर प्रशासनिक इकाई के रूप में 'जनजातीय परिषदें' हैं।
अन्य महत्वपूर्ण समितियाँ
1. सादिक अली कमेटी, 1964
राजस्थान पंचायती राज और विकास विभाग द्वारा 1964 में पंचायती राज पर अध्ययन दल का गठन किया गया। राजस्थान पंचायती राज व्यवस्था में सुधार हेतु गठित सादिक अली समिति ने प्रधान व जिला प्रमुख के चुनाव, वृहत्तर निर्वाचक मण्डल से करवाने का सुझाव दिया। निर्वाचक मण्डल में ग्राम पंचायत के अध्यक्ष (सरपंच) तथा सभी सदस्य शामिल हैं।
2. गिरधारी लाल व्यास कमेटी, 1973
सामुदायिक विकास और पंचायत विभाग राजस्थान द्वारा गिरधारी लाल व्यास की अध्यक्षता में 1973 में पंचायती राज पर उच्चस्तरीय समिति का गठन किया। व्यास समिति ने ग्राम सेवक एवं पदेन सचिव (वर्तमान पद नाम वी.डी.ओ. या ग्राम विकास अधिकारी) का पद सृजित करने की सिफारिश की। इसके साथ-साथ यह सिफारिश की कि पंचायत राज संस्थाओं को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध करावे जायें।
3. हनुमंत राव समिति, 1984
इस समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की, जनसंख्या की जरूरतों का ध्यान देना, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की योजना में जिला परिषद सबसे अहम निकाय होना चाहिए, जिला स्तर पर विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए जिला परिषद प्रमुख निकाय होनी चाहिए, आदि सिफारिश की।
4. जी.वी के. राव समिति, 1985
ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन की प्रशासनिक संरचना की समीक्षा करने के लिए 1985 में जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया। उन्होंने कहा कि नौकरशाही पंचायती राज संस्थाओं को कमजोर करती है तथा उनकी स्थिति 'बिना जड़ की घास' जैसी हो गई है। इन्होंने पंचायतों के नियमित चुनाव करवाने तथा जिला विकास आयुक्त का पद सृजित करने की सिफारिश की।
5. एल.एम. सिंघवी समिति, 1986
1986 में एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में रीवाइटलाइजेशन ऑफ पंचायती राज इंस्टीट्यूशन फॉर डेमोक्रेसी एंड डेवलपमेंट विषय पर रिपोर्ट देने के लिए राजीव गाँधी सरकार द्वारा समिति का गठन किया गया। इन्होंने सर्वप्रथम पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता देने की सिफारिश की। इन्होंने कहा कि संविधान संशोधन कर संविधान में नया भाग जोड़ा जाये, इसके स्वतंत्र, नियमित व निष्पक्ष चुनाव कराये जाये।
समिति की मुख्य सिफारिशें
पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (दर्जा) दिया जावे।
ग्राम न्यायालय एवं न्याय पंचायत स्थापित हो। राज्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा चुनाव सम्पन्न कराये जाये।
पंचायती राज से जुड़े मामलों को हल करने के लिए राज्य में 'न्यायिक अधिकरण' की स्थापना की जाये।
पी. के. थुंगन समिति, 1989
इस समिति की सिफारिश के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं के संवैधानिक मान्यता देने के लिए 73वाँ संशोधन पारित किया गया। पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से 1992 में 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया। जो 24 अप्रैल, 1993 को सम्पूर्ण देश में लागू हुआ। इसलिए वर्ष 2010 से 24 अप्रैल प्रतिवर्ष 'राष्ट्रीय पंचायत दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
राजस्थान में 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम राजस्थान पंचायती राज अधिनियम के रूप में 23 अप्रैल, 1994 से लागू हुआ। 73वें संविधान संशोधन में पंचायती राज की संस्थाओं की संरचना, कार्यों एवं अन्य मामलों के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। संविधान संशोधन में एक और स्तर के सम्बन्ध में प्रावधान रखे गए हैं जिसे ग्रामसभा के नाम से जाना जाता है। ग्राम सभा विधि निर्माण करने वाली निम्न स्तरीय इकाई है।
त्रिस्तरीय ढाँचा
पंचायतों को वैधानिक दर्जा देने की शुरूआत 64वें संविधान संशोधन विधेयक 1989 से हुए परन्तु विधेयक पारित नहीं हुआ था। पंचायती राज व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला परिषद् होती है जो नीति निर्माण करने वाली इकाई है, जिसमें निर्वाचित परिषद् होती है। परिषद् के मुखिया को जिला प्रमुख कहा जाता है। परिषद् में उप जिलाप्रमुख व जिला परिषद् सदस्य भी शामिल है। खण्ड स्तर पर पंचायत समिति पंचायती राज व्यवस्था की प्रमुख कार्यकारी इकाई होती है, जिसमें भी निर्वाचित परिषद् होती है जिसके मुखिया को प्रधान कहा जाता है। इसके अतिरिक्त उप प्रधान व सदस्य पंचायत समिति होते हैं। प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी को खण्ड विकास अधिकारी (बी.डी.ओ.) कहा जाता है। जो राजस्थान राज्य विकास सेवा (RRDS) का सदस्य होता है। जिसकी सेवा शर्तों का नियमन पंचायती राज विभाग करता है।
त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का तीसरा स्तर ग्राम पंचायत है। यह पंचायती राज व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई है। ग्राम पंचायत की एक परिषद् होती है जिसका मुखिया सरपंच के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त उपसरपंच व वार्ड पंच इसमें शामिल है। पंचायती राज व्यवस्था के तीनों स्तरों में कार्यों के निष्पादन के लिए समितियाँ गठित की जाती हैं। ग्राम सभा प्रत्येक पंचायत में होती है, जिसमें गाँवों के सभी वयस्क मतदाता सदस्य होते हैं। यह ग्राम पंचायत के कार्यों की समीक्षा करने के लिए उत्तरदायी होती है। पंचायती राज व्यवस्था की तीनों स्तरों की संस्थाओं का मुख्य कार्य ग्रामीण विकास करना होता है। पंचायती राज व्यवस्था के तीनों स्तर के कार्यों का विवरण संविधान में 11वीं अनुसूची में किया गया है।
73वाँ संविधान संशोधन
73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा "पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान" कर 11वीं अनुसूची जोड़ी गई। संविधान में एक नया भाग-9 'पंचायतें' नाम से जोड़ा गया तथा अनुच्छेद 243 से 243ण ( 243 से 243 O) तक 16 अनुच्छेदों का वर्णन इस अनुसूची में है। इसके अन्तर्गत 29 विषय रखे गये हैं। 24 अप्रैल, 1993 को 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम लागू हुआ। इसलिए वर्ष 2010 से 24 अप्रैल को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पंचायत दिवस के रूप में मनाया जाता है।
73वें संविधान संशोधन की अभिपालना करने वाला प्रथम राज्य मध्य प्रदेश है।
73वें संविधान संशोधन की विशेषताएँ
इस संविधान संशोधन द्वारा ‘पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान’ करते हुये संविधान में नया भाग 9 और अनुसूची 11 जोड़ी गयी। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-
73वें व 74वें संविधान संशोधन के समय भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव थे।
परिभाषाएँ अनुच्छेद 243
इसके अन्तर्गत जिला, ग्रामसभा, मध्यवर्ती स्तर, पंचायत, पंचायत क्षेत्र, जनसंख्या व ग्राम को अनुच्छेद 243 में परिभाषित किया गया है। 243ख(b) के अनुसार ‘ग्राम सभा’ से तात्पर्य ग्राम पंचायत क्षेत्र के भीतर समाविष्ट (शामिल) किसी ग्राम से संबंधित निर्वाचक नामावली (मतदाता सूची) में पंजीकृत व्यक्तियों से मिलकर बने निकाय से है। अतः ग्राम सभा एक संवैधानिक संस्था है। जिसका उल्लेख अनुच्छेद 243A(क) में किया गया हैं राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अध्याय 2क में किया गया है। इस अधिनियम की धारा-8क से 8ड़ तक ग्राम सभा से जुड़े प्रावधान है।
मध्यवर्ती स्तर (Intermediate Level)
ग्राम और जिला के मध्य होगा जिसकी सूचना राज्यपाल जारी करेंगे। 'ग्राम' से तात्पर्य 'राज्यपाल' द्वारा इस भाग के प्रयोजनों के लिए, लोक अधिसूचना द्वारा ग्राम के रूप में विनिर्दिष्ट ग्राम अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत इस प्रकार विनिर्दिष्ट ग्रामों का समूह भी है।
त्रिस्तरीय संरचना
इस संशोधन के पश्चात् सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था का 'त्रिस्तरीय ढाँचा' स्थापित किया जायेगा अर्थात् प्रथम स्तर या आधारभूत स्तर पर ग्राम पंचायत, होगी जिसके दायरे में एक या अधिक गाँव होंगे। मध्यवर्ती स्तर पर या खण्ड या ब्लॉक या तालुका स्तर पर 'पंचायत समिति' का गठन किया जायेगा जिन प्रदेशों की जनसंख्या 20 लाख से कम है वहाँ मध्यस्तर बनाने की आवश्यकता नहीं होगी। सबसे ऊपर जिला स्तर होगा, जिसमें जिला परिषद स्थापित की जायेगी। जिला परिषद के दायरे में जिले का पूरा ग्रामीण क्षेत्र आता है।
ग्राम सभा अनु. 243(1)क
संविधान के अनुच्छेद 243(A) के अनुसार ग्राम पंचायत क्षेत्र के पंजीकृत मतदाताओं से मिलकर एक ग्रामसभा का निर्माण अनिवार्य रूप से किया जायेगा। यह एक संवैधानिक संस्था है। ग्रामसभा विधि बनाने का कार्य करेगी और प्रस्ताव पारित करेगी। इसके लिए गणपूर्ति 1/10 होनी चाहिए। राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 2क में ग्राम सभा संबंधी प्रावधान किये गये है।
ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता सरपंच द्वारा की जाती है। यदि सरपंच उपस्थित नहीं होते तो उपसरपंच द्वारा और यदि दोनों ही अनुपस्थित होते हैं तो ग्राम सभा द्वारा अपने में से ही बहुमत के आधार पर चुना गया व्यक्ति ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। एक वर्ष में ग्राम सभा की न्यूनतम दो बैठकें होनी चाहिए, क्योंकि किन्हीं भी दो बैठकों के बीच छहः माह से अधिक का समय नहीं हो सकता। वर्तमान में राजस्थान सरकार द्वारा प्रतिवर्ष 4 बैठकों का आयोजन किया जा रहा है। इसकी तिथियाँ 26 जनवरी, 01 मई, 15 अगस्त व 2 अक्टूबर प्रतिवर्ष हैं। साधारणतः जिला कलेक्टर जब चाहें ग्राम सभा की बैठकें बुला सकते हैं।
पंचायतों का गठन
संविधान के अनुच्छेद 243(B) या 243(ख) के द्वारा ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्य स्तर पंचायत समिति तथा सर्वोच्च स्तर जिला परिषद का गठन किया जायेगा। 'पंचायतों' से अर्थ 243(ख) के अन्तर्गत ग्राम के लिये गठित 'स्वशासन संस्था' से है।
अनुच्छेद 243ख के खण्ड (1) के अनुसार प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती या खण्ड (Block) स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया जायेगा। अनुच्छेद 243ख के खण्ड (2) के अनुसार जिस राज्य की जनसंख्या 20 लाख से कम है वहाँ मध्य स्तर (पंचायत समिति) का गठन नहीं किया जायेगा।
पंचायतों की संरचना अनुच्छेद- 243 ब/ग
राज्य विधानमण्डल कानून बनाकर पंचायतों की संरचना का निर्धारण करेगी। जिसमें विभिन्न वार्ड होंगे, पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा किया जायेगा। अध्यक्ष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष होगी। इसी प्रकार पंचायत समिति व जिला परिषद के अध्यक्षों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होगा। पंचायत समिति के प्रधान का चुनाव पंचायत समिति सदस्यों द्वारा तथा जिला परिषद के जिला प्रमुख का चुनाव जिला परिषद के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किया जायेगा। इनके लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होगी। प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को प्रादेशिक निर्वाचित क्षेत्रों में (Territorial Constituencies) में ऐसी रीति से विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र से एक व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किया जायेगा।
पंचायतों का चुनाव करवाने का निर्णय राज्य सरकार द्वारा लिया जाता है। चुनाव अधिसूचना राज्य सरकार द्वारा जारी की जाती है। चुनावों का निर्देशन, नियंत्रण राज्य निर्वाचन आयोग करता है।
स्थानों का आरक्षण अनुच्छेद- 243 क (घ)
प्रत्येक स्तर की पंचायत में सदस्यों के लिए अनुसूचित जाति, जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था की जायेगी। तथा सभी वर्गों की महिलाओं को 1/3 अर्थात् एक तिहाई 33.33% आरक्षण अनिवार्य रूप से देय होगा। केन्द्र सरकार ने 27 अगस्त, 2009 से महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी है। पहले यह आरक्षण एक तिहाई 1/3 था। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण राज्य विधानमंडल विधि बनाकर करेगा अर्थात् यह आरक्षण ऐच्छिक होगा।
पंचायतों का कार्यकाल
संविधान के अनुच्छेद 243(E) या 243(ड़) के द्वारा पंचायतों का कार्यकाल प्रथम बैठक से 5 वर्ष निर्धारित किया गया है। किसी कारणवश यदि 5 वर्ष से पूर्व ये संस्थाएँ भंग होती हैं तो 6 माह में चुनाव करवाना अनिवार्य होगा। यदि पंचायत के सामान्य चुनाव में 6 माह से कम का समय शेष रहा है, तो चुनाव आम चुनाव के साथ होगा।
सदस्यों की निरर्हताएँ (अयोग्यताएँ)
अनुच्छेद 243(F) या 243(च) के द्वारा राज्य विधानमण्डल के कानूनों के अन्तर्गत सदस्यों की अयोग्यता सम्बन्धी प्रावधान किये गये हैं।
पंचायतों की शक्तियाँ, अधिकार और उत्तरदायित्व
अनुच्छेद 243(G) या 243(छ) में पंचायतों की शक्तियों, अधिकारों व उत्तरदायित्वों का उल्लेख है। अनु. 243 G के अनुसार राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर पंचायतों को अधिकार एवं उत्तरदायित्व सौंपता है। संविधान के अनुच्छेद 243(G) का संबंध संविधान की 11वीं अनुसूची से है। इस अनुसूची में वर्णित 29 विषयों पर कानून बनाना तथा आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाना शामिल होगा।
पंचायतों की निधियाँ और उनकी करारोपण शक्तियाँ
राज्य विधानमण्डल किसी भी पंचायत को कर, फीस, शुल्क व पथकर तथा अन्य संचित निधियाँ इकट्ठी करने की शक्तियाँ प्रदान करना है। अनुच्छेद 243(H)/ G में व्यवस्थाएँ की गई है।
राज्य वित्त आयोग-अनुच्छेद 243(I)/(झ)
पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाने के लिए और अनुदान देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 243(I) / झ के द्वारा एक 'राज्य वित्त आयोग' के गठन की व्यवस्था की गई है।
पंचायतों के लेखों की जाँच
संविधान के अनुच्छेद 243(J) के द्वारा राज्य विधानमण्डल विधि बनाकर पंचायतों के लेखों का परीक्षण कर सकता है।
राज्य चुनाव आयोग (243 K/ट)
पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों के निर्देशन, नियन्त्रण, निगरानी और मतदाता सूचियाँ तैयार करने के लिए और निर्वाचन के लिए अनुच्छेद 243(K) / ट के अन्तर्गत 'राज्य चुनाव आयोग' की व्यवस्था की गई है।
केन्द्र शासित क्षेत्रों में अधिनियम का लागू होना
अनुच्छेद 243(L)/ (ठ) में केन्द्र शासित प्रदेशों में यह अधिकार राष्ट्रपति को दिये गये हैं। अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह व चण्डीगढ़ केन्द्र शासित प्रदेश में त्रि-स्तरीय व्यवस्था लागू है।
कतिपय क्षेत्रों पर संविधान के भाग 9 का लागू न होना
अनुच्छेद 243 (M) / (ड़) में यह व्यवस्था की गई है कि यह प्रावधान किन क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे।
विद्यमान कानूनों और पंचायतों का बना रहना
इस सम्बन्ध में अनुच्छेद 243 (N) में व्यवस्थाएँ की गई हैं।
निर्वाचन मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप का निषेध
संविधान के अनुच्छेद 243 (O) या 243 (ण) में यह व्यवस्था की गई है कि पंचायत चुनाव सम्बन्धी विवाद चुनाव याचिका द्वारा किसी ऐसे अधिकारी के समक्ष और ऐसी विधि से प्रस्तुत किये जायेंगे जिन्हें राज्य विधान मण्डल द्वारा तय किया गया हो।
| 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के महत्वपूर्ण अनुच्छेद | |
|---|---|
| अनुच्छेद 243 | परिभाषाएँ |
| अनुच्छेद 243 A (क) | ग्रामसभा |
| अनुच्छेद 243 B (ख) | ग्राम पंचायतों का गठन |
| अनुच्छेद 243 C (ग) | पंचायतों की संरचना |
| अनुच्छेद 243 D (घ) | स्थानों का आरक्षण - इसके द्वारा अनुसूचित जातियों और जन जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में तथा महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने की व्यवस्था की गई है। |
| अनुच्छेद 243 E (ड़) | पंचायतों की अवधि - पंचायतों का कार्यकाल प्रथम बैठक से 5 वर्ष का होगा। यदि किसी कारण से पंचायत भंग होती है, तो 6 माह के अन्दर चुनाव करवाना आवश्यक होगा। |
| अनुच्छेद 243 F (च) | सदस्यों की निरर्हताएँ - यदि किसी सदस्य को विधान मण्डल के चुनाव के लिए अयोग्य घोषित किया है, तो वह पंचायत चुनाव के लिए अयोग्य होगा। |
| अनुच्छेद 243 G (छ) | पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार व जिम्मेदारियाँ |
| अनुच्छेद 243 H (ज) | पंचायतों को कर लगाने व कोष इकट्ठा करने की शक्ति |
| अनुच्छेद 243 I (झ) | वित्तीय स्थिति की समीक्षा हेतु वित्त आयोग का गठन |
| अनुच्छेद 243 J (ञ) | पंचायत की लेखाओं का परीक्षण |
| अनुच्छेद 243 K (ट) | पंचायतों के चुनाव |
| अनुच्छेद 243 L (ठ) | संघ शासित प्रदेशों में लागू |
| अनुच्छेद 243 M (ड) | कुछ क्षेत्रों में लागू न होना |
| अनुच्छेद 243 N (ढ) | पंचायत व उपलब्ध नियमों का जारी रहना |
| अनुच्छेद 243 O (ण) | चुनावी मामलों में कोर्ट के अवरोध पर रोक |
राजस्थान में पंचायती राज
स्वतंत्रता से पूर्व राजस्थान में देसी रियासतें थी और इन रियासतों के गाँवों में पंचायतें विद्यमान थी। इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा और कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान में पंचायतों के अस्तित्व का उल्लेख किया है। ये इकाईयाँ पंच-परमेश्वर के सिद्धान्त पर कार्य करती थी और इसी आधार पर उन्हें जनता में मान्यता प्राप्त थी। पंचायत के पंच के रूप में पाँच व्यक्तियों को चुनने के लिए भी एक निश्चित मापदंड थे। ये गाँव के ऐसे पाँच प्रतिष्ठित व्यक्ति होते थे, जो अपने-अपने क्षेत्र में विशेष अनुभव और गुण रखते थे, इन व्यक्तियों को समाज में आदर भाव से देखा जाता था। ये लोगों के बीच मतभेदों को दूर करने गाँव का विकास करने और गाँव की रक्षा करने में योगदान देते थे। ये संस्थाएँ अनौपचारिक थी, परन्तु फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में ये संस्थाएँ जनजीवन का ठोस आधार थी।
आधुनिक राजस्थान के गठन से पूर्व राजस्थान में सबसे पहले बीकानेर रियासत द्वारा 1928 में ग्राम पंचायत अधिनियम बनाया। इसके पश्चात् जयपुर में 1938 में, सिरोही में 1943 में, भरतपुर में 1944 में, करौली में 1949 में पंचायती राज कानून बनाये गये। राजस्थान निर्माण के पश्चात् 1949 में मुख्य पंचायत अधिकारी के अधीन अलग से पंचायती राज विभाग स्थापित किया गया। राजस्थान के प्रथम पंचायती राजमंत्री एस.के.डे बनाए गए। इसके पश्चात् 1953 में राजस्थान में 'राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1953' बनाया गया। जो 1 जनवरी, 1954 से लागू हुआ। यह अधिनियम संविधान के अनु. 40 में वर्णित दर्शन के अनुसार बनाया।
1957 में गठित बलवंत राय मेहता समिति द्वारा प्रस्तुत लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण सिफारिश के आधार पर राजस्थान ने लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण या पंचायती राज व्यवस्था लागू करने की पहल की। मेहता समिति की सिफारिश के अनुरूप राजस्थान में 'पंचायत समिति एवं जिला परिषद् अधिनियम, 1959' पारित किया गया जो 10 सितम्बर, 1959 को लागू हुआ। इस अधिनियम के द्वारा पंचायत समिति व जिला परिषद् का गठन हुआ। बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को मानते हुए सबसे पहले राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी। इस व्यवस्था का उद्घाटन 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर के 'बगदरी गाँव' में पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया। उस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया थे।
राजस्थान के राजनीतिक एकीकरण के पश्चात् राज्य में 1959 के पंचायत समिति एवं जिला परिषद अधिनियम 1959 के द्वारा 1960 में पहली बार पंचायतों के चुनाव हुए। क्योंकि ग्राम पंचायतें पहले से निर्वाचित थी इसलिए पहले चुनावों में पंचायत समिति व जिला परिषद् का गठन किया गया। क्योंकि राजस्थान पंचायती राज संस्थाओं का पहला चुनाव 1960 में हुआ था और अन्तिम चुनाव नवम्बर, 2020 में हुआ है। अतः अब तक राजस्थान में पंचायती राज संस्थाओं के 11 चुनाव हो चुके हैं। ये चुनाव 1960, 1965, 1978, 1981, 1988, 1995, 2000, 2005, 2010, 2015, 2020 में हुए हैं। राजस्थान में 1965 से 1978 तक की लम्बी अवधि में पंचायतों के चुनाव नहीं कराये गये।
पंचायतों में सुधार के लिए राजस्थान सरकार द्वारा 1964 में सादिक अली समिति का गठन किया गया। इस समिति द्वारा ग्राम सेवकों के प्रशिक्षण की अनुशंसा की गयी। इससे पहले 1963 में प्रशासनिक सुधार हेतु हरीश चन्द्र माथुर समिति, 1963 गठित की गयी थी। इसके पश्चात् गिरधारी लाल व्यास समिति, 1973 गठित की गयी। इस समिति द्वारा पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय स्थिति मजबूत करने के सुझाव दिये गये और समिति ने ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सेवक के पद के सृजन और नियुक्ति की सिफारिश की गयी। समिति ने जिला परिषदों को ग्रामीण विकास की सशक्त कड़ी बनाने और जिला स्तर की सभी ग्रामीण योजनाएँ जिला परिषदों को हस्तांतरित करने की सिफारिश की। इसके अतिरिक्त अध्ययन दल ने यह सिफारिश की कि पंचायत समिति के प्रधान तथा जिला परिषद् के प्रमुख का चुनाव इन संस्थाओं के सदस्यों द्वारा न करके निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाना चाहिए। 1981 ई. में शिवचरण माथुर द्वारा मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने पंचायती राज के प्रति विशेष प्रतिबद्धता दिखाई और राज्य को बीस संकल्प कार्यक्रम दिया। जिसका पहला संकल्प राज्य में पंचायती राज संस्थाओं, नगरपालिकाओं तथा सहकारी संस्थाओं के पूरे चुनाव सम्पन्न कराना था। इस संकल्प के अन्तर्गत राज्य सरकार द्वारा 10 दिसम्बर, 1981 से 10 जनवरी, 1982 तक केवल 31 दिन की अवधि में पंचायती राज के सामान्य चुनाव सम्पन्न कराये तथा ग्राम स्तर पर पंचायतों, खण्ड स्तर पर पंचायत समितियों एवं जिला स्तर पर जिला परिषदों का गठन कर पंचायती राज के पुनर्जीवन की प्रक्रिया प्रारम्भ की।
इसके पश्चात् पंचायतों को नवजीवन देने के लिए 30 जनवरी, 1982 को बीकानेर में पंचायती राज सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए कई घोषणाएँ की गई। इसके बाद 19-20 जुलाई, 1983 को भीलवाड़ा में प्रमुखों एवं प्रधानों का सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें पंचायतों को कार्य व शक्तियाँ हस्तांतरित करने की सिफारिश की गई। पंचायती राज रजत जयंती समारोह का आयोजन 7 अक्टूबर, 1984 को किया गया। इसी उपलक्ष्य में वर्ष 1984 में जयपुर में इंदिरा गाँधी ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान पंचायती राज संस्थाओं के जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाला राजस्थान का सर्वोच्च संस्थान है। यह संस्थान पंचायती राज और ग्रामीण विकास से संबंधित अध्ययन, शोध एवं प्रशिक्षण के लिये उत्तर भारत के प्रमुख संस्थानों में से एक है। यह ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज से जुड़ा संस्थान है। राज्य का पंचायती राज विभाग 'राजस्थान विकास' नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन करता है। जैसे भारत सरकार का ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग 'कुरुक्षेत्र' का प्रकाशन करता है।
गाडगिल समिति, 1988
इस समिति के द्वारा राज्य वित्त आयोग के गठन करने और पंचायतों को वित्तीय संसाधन दिए जाने की सिफारिश की और राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का भी सुझाव दिया।
हरलाल सिंह खर्रा समिति, 1990
पंचायती राज संस्थाओं में सुधार हेतु और संस्थाओं के लिए आवश्यक सुविधाओं तथा वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए सुझाव देने के लिए इस समिति का गठन किया गया। इस समिति द्वारा अपने प्रतिवेदन में निम्नलिखित सिफारिशें की-
- जिला ग्रामीण विकास प्राधिकरण (डी.आर.डी.ए.) का विलय जिला परिषद में कर दिया जाये।
- ग्रामीण सुविधाओं से जुड़े सभी प्रशासनिक मामलों खास कर शिक्षा, आयुर्वेद, स्वास्थ्य, हैण्डपम्प आदि में पंचायती राज संस्थाओं का नियंत्रण हो।
- पंचायती राज संस्थाओं को राजकीय सहायता 4 रुपये से बढ़ाकर 20 रुपये की जाये।
- पंचायतों को जुर्माना करने की शक्ति ₹ 200/ रुपये तक दी जाये तथा अन्य शुल्कों में भी वृद्धि की जाये।
कटारिया समिति
राजस्थान सरकार द्वारा वर्ष 2009 में गुलाबचन्द कटारिया की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। समिति द्वारा 11वीं अनुसूची के 29 विषय पंचायती राज संस्थाओं को सौंपने की सिफारिश की। वर्तमान में 21 विषय पंचायती राज संस्थाओं को सौंपे गये है।
73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992
ग्रामीण स्तर पर आधारभूत लोकतंत्र की स्थापना करने, पंचायती राज की अनिवार्यता बनाने एवं व्यवस्था में एकरूपता लाने के लिए 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 पारित किया गया।
इस अधिनियम से स्थानीय शासन (पंचायती राज) लोकतांत्रिक व्यवस्था का तीसरा महत्वपूर्ण स्तर बन गया। यह अधिनियम 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा द्वारा और 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा द्वारा पारित किया गया। इसके पश्चात् विभिन्न राज्यों द्वारा इस विधेयक का अनुसमर्थन किया गया और 20 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति का अनुमोदन प्राप्त हुआ। 24 अप्रैल, 1993 से यह अधिनियम लागू हुआ।
परन्तु मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों व पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग, पर्वतीय क्षेत्रों तथा 5वीं व छठी अनुसूची में वर्णित राज्यों में प्रावधान लागू नहीं होते है।
- 73वें संविधान संशोधन के प्रावधान सर्वप्रथम कर्नाटक राज्य द्वारा 10 मई, 1993 को लागू किये गए।
- 73वें संविधान संशोधन के अनुरूप नए कानून के अनुसार चुनाव सबसे पहले मध्य प्रदेश में मई-जून, 1994 में सम्पन्न हुए।
- राजस्थान में 73वाँ संविधान संशोधन 23 अप्रैल, 1994 से लागू हुआ और 73वें संविधान संशोधन के अनुरूप राजस्थान में प्रथम बार 1995 में चुनाव सम्पन्न हुए।
- इस अधिनियम के अनुरूप राजस्थान पंचायती राज नियम, 1996 बनाये गए जो 30 दिसम्बर, 1996 से लागू हुए।
इस संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग- 9 'पंचायतें' नाम से जोड़ा। अनुच्छेद 243 से 243 (O) तक जोड़े, अनुसूची- 11 जोड़ी। इसमें शामिल विषयों की संख्या 29 है।
राजस्थान सरकार ने 73वें संविधान संशोधन 1992 के अनुसरण में राजस्थान में पूर्व में लागू ‘राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1953’ तथा राजस्थान पंचायत समिति तथा जिला परिषद अधिनियम, 1959 को संशोधन करके 73वें संशोधन के अनुरूप बनाया और ‘राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994’ बनाया। यह अधिनियम 23 अप्रैल, 1994 को लागू हुआ। इस अधिनियम के संदर्भ में राजस्थान पंचायती राज विस्तार नियम, 1996 बनाये गये जो 30 दिसम्बर, 1996 से लागू किये गए। इसके पश्चात् इस अधिनियम में 1999 व वर्ष 2000 में संशोधन किये गए। इस प्रकार वर्तमान में राजस्थान में 73वें संविधान संशोधन पर आधारित कानून लागू है।
73वें संविधान संशोधन के सामान्य प्रावधान
- पहली बार पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया।
- ग्राम सभा को अनुच्छेद 243-A के द्वारा संवैधानिक दर्जा।
- निश्चित अवधि (5 वर्ष) में चुनाव।
- चुनावों हेतु एक स्वतंत्र राज्य निर्वाचन आयोग अनु. 243 K (ट) की व्यवस्था।
- सभी राज्यों में पंचायतों का त्रिस्तरीय ढाँचा लागू। यदि किसी राज्य की जनसंख्या 20 लाख से कम है तो वहाँ मध्य स्तर (पंचायत समिति) अनिवार्य नहीं।
- पंचायत समिति व जिला परिषद सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं द्वारा।
- आरक्षण- अनिवार्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति को उनकी जनसंख्या के अनुपात में, महिलाओं को एक तिहाई 1/3। राजस्थान में वर्ष 2010 से पंचायती राज संस्थाओं में 50% आरक्षण है।
जिला नियोजन समिति ( अनु. 243-ZD ) य घ
राज. पंचायती राज अधिनियम 1994 की धारा-121 और 74वें संविधान संशोधन, 1992 के प्रावधानों में जिला नियोजन समिति की व्यवस्था की गई है। जो जिले में वार्षिक योजना बनायेगी। जिला नियोजन समिति का अध्यक्ष जिला प्रमुख होगा।
योजना निर्माण की प्रक्रिया में जनसहभागिता सुनिश्चित करने के लिए 74वें संविधान संशोधन, 1992 के द्वारा जिला स्तर पर जिला नियोजन समिति के गठन का प्रावधान किया गया। जिला योजना समितियों का कार्य जिले के ग्रामीण व शहरी विकास के लिए योजना निर्माण करना है। राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 121 के अनुसार सरकार जिले में पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने के लिए और सम्पूर्ण जिले के लिए कोई एक विकास योजना प्रारूप तैयार करने के लिए जिला आयोजन के लिए एक विकल्प योजना प्रारूप तैयार करने के लिए जिला आयोजन समिति का गठन करेगी। समिति में सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा विधानमंडल के माध्यम से विधि बनाकर समय-समय पर राज-पत्र में अधि सूचना द्वारा तय की जायेगी। इससे पूर्व राजस्थान सरकार द्वारा 3 अप्रैल, 1991 को एक आदेश जारी कर जिला आयोजना प्रकोष्ठ गठित किया।
संविधान के अनुच्छेद 243 ZD में जिला नियोजन समिति का उल्लेख किया गया है। जिला आयोजन समिति के गठन, निर्वाचन एवं समिति की शक्तियों एवं कार्यों के विस्तार का उल्लेख राजस्थान पंचायती राज नियम, 1996 के नियम 350, 351 व नियम 352 में किया गया है। राज्य सरकार द्वारा 10 जुलाई, 1996 को अधिसूचना जारी करके राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 121(1) के द्वारा प्रत्येक जिले के लिए एक जिला नियोजन समिति में कुल 25 सदस्य होंगे। इस समिति की सदस्य संख्या अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होती है जैसे राजस्थान में 25, बिहार में 34, उत्तर प्रदेश में 40, छत्तीसगढ़ में 20 सदस्य होते है। समिति के 25 सदस्यों में से 20 सदस्य अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जिला परिषद् एवं संबंधित जिले की नगरपालिकाओं के निर्वाचित सदस्यों में से चुने जायेंगे। समिति में निर्वाचन प्रतिनिधियों का अनुपात जिले की नगरीय तथा ग्रामीण जनसंख्या के अनुपात में राज्य सरकार द्वारा अलग से अधिसूचित किया जायेगा। शेष 5 सदस्य राज्य सरकार द्वारा नामित (मनोनीत) होंगे।
राज्य सरकार द्वारा नामित सदस्यों में जिले का जिला कलेक्टर, अतिरिक्त कलेक्टर (विकास) एवं पदेन परियोजना निदेशक तथा जिला परिषद् के मुख्य कार्यकारी अधिकारी स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होंगे एवं दो अन्य मनोनीत सदस्य होंगे। ये सदस्य संसद सदस्यों/विधानसभा सदस्यों या राज्य सरकार द्वारा नाम निर्देशित स्वैच्छिक अभिकरणों का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों में से हो सकते हैं। जिला नियोजन समिति का अध्यक्ष संबंधित जिला परिषद् का जिला प्रमुख होगा। मुख्य आयोजना अधिकारी जिला आयोजना समिति का सदस्य सचिव होता है।
जिला नियोजन समिति की संरचना
- कुल सदस्य- 25 सदस्य
- निर्वाचित सदस्य- 20 सदस्य
- मनोनीत- 05 सदस्य
- अध्यक्ष- जिला प्रमुख
| क्र.सं. | संरचना | पद |
|---|---|---|
| 1. | जिला प्रमुख | अध्यक्ष |
| 2. | 20 सदस्य जिला परिषद तथा नगरीय संस्थाओं से जिले की ग्रामीण व शहरी जनसंख्या के अनुपात में | सदस्य |
| 3. | 5 मनोनीत सदस्य
(i) जिला कलेक्टर (ii) अतिरिक्त जिला कलेक्टर विकास (iii) मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिला परिषद (iv) 2 अन्य सदस्य | सदस्य |
| 4. | मुख्य आयोजना अधिकारी | सदस्य सचिव |
जिला नियोजन समिति (District Planning Committee)
प्रत्येक जिले में एक जिला नियोजन समिति का गठन किया जायेगा। जिला नियोजन समिति का गठन एवं संरचना राज्य विधानमंडल विधि बनाकर करेगा। परन्तु समिति की कुल सदस्य संख्या के 4/5 सदस्य (राजस्थान में 25 में से 20) जिला स्तर की पंचायत और नगरपालिकाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से उसी अनुपात में निर्वाचित किये जाएंगे जो अनुपात जिले में ग्रामीण और नगरीय जनसंख्या का होगा। शेष सदस्य मनोनीत (5 सदस्य) होंगे।
सिफारिश/रिपोर्ट
जिला नियोजन समिति का अध्यक्ष विकास योजना राज्य सरकार को अग्रेषित करेंगे।
जिला नियोजन समिति के कार्य एवं शक्तियाँ
राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 121 (5) के अनुसार समिति के-
(क) जिला आयोजन से संबंधित ऐसे कार्य होंगे जो सरकार द्वारा निश्चित किये जायेंगे।
(ख) जिला नियोजन समिति की शक्तियाँ ऐसी होगी जो राज्य सरकार निर्धारित करेगी।
कार्य
- पंचायतों एवं नगरपालिका द्वारा तैयार योजना को एक करना (समेकन)।
- सम्पूर्ण जिले के विकास के लिए एक योजना तैयार करना।
- इसके अतिरिक्त जिला नियोजन समिति निम्नलिखित बातों पर ध्यान देगी।
(i) पंचायतों व नगरपालिकाओं के सामान्य हित के विषय।
(ii) जल व भौतिक तथा प्राकृतिक संसाधनों का ध्यान रखना।
(iii) उपलब्ध वित्तीय व अन्य संसाधनों की मात्रा व प्रकार।
(iv) ऐसी संस्थाओं से परामर्श करना, जिन्हें राज्यपाल निर्दिष्ट करे।
इस प्रकार जिला नियोजन समिति पंचायती राज संस्थाओं और नगरीय निकायों द्वारा तैयार की गई वार्षिक योजना का समेकन कर सम्पूर्ण जिले के लिए जिला विकास योजना तैयार कर राज्य सरकार को अग्रेषित करेगी।
ग्राम पंचायत
ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत पंचायती राज प्रणाली की मूलभूत इकाई है। इसमें दो संस्थाएँ होती हैं- ग्राम सभा और ग्राम पंचायत।
ग्रामसभा
यह देश में कानून बनाने वाली सबसे छोटी संस्था है। यह प्रत्यक्ष लोकतंत्र व सहभागी लोकतंत्र का प्रमुख उदाहरण है। यह ग्राम स्वराज्य की मूल इकाई है। यह एक संवैधानिक संस्था है। जो ग्राम पंचायत क्षेत्र के पंजीकृत मतदाताओं से मिलकर बनती है। इसमें 18 वर्ष से अधिक आयु के पंजीकृत मतदाता शामिल है। किसी भी पंचायत क्षेत्र के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के समूह को ग्रामसभा कहा जाता है। भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अपनाने की दृष्टि से त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अतिरिक्त ग्राम सभा नामक संस्था का प्रावधान भी रखा गया है। ग्राम सभा की आवश्यकता एवं महत्व को देखते हुए 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में ग्रामसभा के सम्बन्ध में प्रावधान किये गये हैं।
पंचायती राज अधिनियम, 1959 में यह प्रावधान किया गया था कि प्रत्येक ग्राम पंचायत अपनी पंचायत क्षेत्र के समस्त वयस्क नागरिकों की एक सभा बुलायेगी। इसी व्यवस्था को ग्रामसभा के रूप में जाना जायेगा। 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् राजस्थान राज्य में जो नया अधिनियम, 1994 बनाया गया था उसमें ग्रामसभा के सम्बन्ध में विस्तृत प्रावधान किये गये हैं। वर्तमान में सम्पूर्ण देश में सभी राज्यों में ग्रामसभा के गठन का प्रावधान है।
ग्राम सभा का संगठन
उस ग्राम पंचायत क्षेत्र के ऐसे वयस्क नागरिक जिनका नाम विधानसभा की मतदाता सूची में होता है, ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की कार्यवाही को लिखने के लिए एक सचिव भी होता है, जिसे ग्राम विकास अधिकारी (VDO) के नाम से जाना जाता है।
ग्राम सभा की बैठकें
राजस्थान, पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा-8 क में ग्राम सभा और उसकी बैठकों के आयोजन हेतु प्रावधान किये गये हैं। राज्य में ग्राम सभाओं का आयोजन 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर एवं 1 मई को नहीं किया जाकर इन तिथियों के 15 दिन के अन्दर-अन्दर किये जाने की व्यवस्था की है। एक वर्ष में ग्राम सभा की न्यूनतम 2 बैठकें होनी चाहिए। किन्हीं भी दो बैठकों के बीच 6 माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए।
ग्राम सभा की बैठकें राज्य सरकार के निर्देशानुसार बुलाई जाती हैं। बैठकों की तिथि निर्धारण का दायित्व अब संबंधित ज़िले के जिला कलेक्टर को सौंपा गया है। सामान्य बैठकों के अतिरिक्त यह प्रावधान भी किया गया है कि यदि 1/10 सदस्य लिखित रूप से अपेक्षा करें तो ग्रामसभा की विशिष्ट बैठक 15 दिन के नोटिस पर भी बुलाई जा सकती है। ग्रामसभा की बैठक के लिए गणपूर्ति 1/10 सदस्य निर्धारित की गयी है। इसमें अ.ज./अ.ज. जा./ओबीसी तथा महिलाओं में से भी आबादी (जनसंख्या) के अनुपात में मतदाताओं का भाग लेना जरूरी है। ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायत का अध्यक्ष सरपंच ही होता है। सरपंच निर्वाचित होने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए।
ग्रामसभा में बैठक की अध्यक्षता सरपंच द्वारा की जाती है। यदि सरपंच अनुपस्थित होता है तो उपसरपंच द्वारा अध्यक्षता की जाती है और यदि दोनों ही अनुपस्थित हों तो ग्रामसभा के सदस्य अपने ही सदस्यों में से बहुमत द्वारा किसी एक को अध्यक्ष के लिए चयन करते हैं। बैठक में विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता है तथा आवश्यक निर्णय लिए जाते हैं। बैठक की कार्यवाही को ग्राम विकास अधिकारी द्वारा लिखा जाता है तथा बैठक में लिए गए निर्णय को संबंधित संस्था या व्यक्ति तक पहुँचाने का दायित्व भी ग्राम विकास अधिकारी का होता है।
ग्राम सभा के कार्य
राजस्थान में ग्रामसभा के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :-
- ग्राम पंचायत क्षेत्र के लिए सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्यक्रमों, योजनाओं, परियोजनाओं का अनुमोदन करना।
- वार्ड सभा द्वारा चयनित व्यक्तियों से लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों की प्राथमिकता निर्धारित करना,
- संबंधित वार्ड सभा से यह प्रमाण प्राप्त करना कि विभिन्न कार्यक्रमों के लिए उपलब्ध कराये गये वित्त का उचित तरीके से उपयोग कर लिया गया है,
- विकास की योजनाएँ बनाना व उन्हें अनुमोदित करना,
- ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को प्रोत्साहित करना,
- समाज के सभी समुदायों के बीच एकता को बढ़ाना,
- पंचायत द्वारा किये गये कार्यों का सरपंच से स्पष्टीकरण माँगना।
- ऐसे अन्य कार्य जो समय-समय पर अधिनियम के माध्यम से राज्य सरकार द्वारा सौंपे जायें।
- मनरेगा व MBADP/MLA Led/GPDP का वार्षिक प्लान बनाना व अनुमोदन करना।
- साक्षरता, शिक्षा एवं पोषण को प्रोत्साहित करना।
- वार्ड सभा द्वारा अनुशंसित कार्यों का अनुमोदन करना।
वार्ड सभा
राजस्थान पंचायतीराज अधिनियम 1994 की धारा 3 के अनुसार प्रत्येक वार्ड के लिए एक वार्ड सभा होगी जो उस वार्ड के पंजीकृत मतदाता से मिलकर बनेगी।
वार्ड सभा की एक वर्ष में न्यूनतम दो बैठकें होंगी। बैठकों के लिए गणपूर्ति कुल सदस्य संख्या का 1/10 सदस्य होंगे। वार्ड सभा की अध्यक्षता वार्ड पंच करेगा और उसकी अनुपस्थिति में वार्ड सभा के किसी ऐसे सदस्य द्वारा अध्यक्षता की जाएगी जो बैठक द्वारा अपने में से बहुमत द्वारा चुना गया हो।
वार्ड सभा वार्ड की प्रगति के लिए संकल्प पारित कर सकती है। यह संकल्प उपस्थित और मतदान देने वाले सदस्यों के बहुमत से पारित होना चाहिए।
ग्राम पंचायत
ग्राम पंचायत की संरचना
देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का तीसरा एवं आधारभूत (निम्नतर स्तर) है वह स्तर 'ग्राम पंचायत' के नाम से जाना जाता है। यह स्तर इसलिए महत्वपूर्ण माना गया है कि वास्तविक रूप में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का व्यावहारिक स्वरूप ग्राम पंचायत ही है। विभिन्न राज्यों में ग्राम पंचायत को भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में इस स्तर को 'पंचायत' नाम से जाना जाता है। असम, गुजरात व उत्तरप्रदेश में गाँव पंचायत व बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, पंजाब एवं पश्चिम बंगाल में इसे ग्राम पंचायत के नाम से जाना जाता है।
73वें संविधान संशोधन अधिनियम से पहले सम्पूर्ण देश में ग्राम पंचायत की संरचना एवं कार्यों में विभिन्नता पायी जाती थी, लेकिन 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से सम्पूर्ण देश पंचायतों की संरचना एवं कार्यों में एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। संविधान के अनुच्छेद 243 (बी) में 'पंचायतें' शब्द का उल्लेख किया गया है। सभी राज्यों ने संविधान संशोधन के अनुरूप पंचायतों की संरचना व कार्यों के निर्धारण के लिए अपने-अपने अधिनियम में संशोधन किया है। ग्राम पंचायत पंचायती राज की सबसे नीचे के स्तर की एक महत्वपूर्ण संस्था है। ग्राम पंचायत, पंचायती राज प्रणाली का प्रथम कार्यकारिणी स्तर है। ग्रामीण विकास से संबंधित कार्यों का संचालन इसी संस्था द्वारा किया जाता है। इस संस्था की संस्थापना का मुख्य उद्देश्य यह था कि प्रशासन में ग्रामीण क्षेत्रों की जनता की अधिक से अधिक सहभागिता सुनिश्चित की जावे। यही कारण है कि इस संस्था में समाज के सभी वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। इस स्तर पर भी आरक्षण के पूर्व वर्णित प्रावधान उसी रूप में लागू होते हैं। जैसे जिला परिषद् व पंचायत समिति पर। ग्राम सभा के ऊपर ग्राम पंचायत कार्य करती है। इसका अधिकार क्षेत्र ग्राम सभा द्वारा निर्वाचित 5 से 30 तक सदस्य होते हैं, जिनका चुनाव अलग-अलग राज्यों में पाँच वर्ष तक की अवधि के लिए गुप्त मतदान द्वारा होता है। राजस्थान में ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा ग्राम पंचायत के अध्यक्ष (सरपंच) का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। उपसरपंच का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से सरपंच व ग्राम पंचायत के वार्ड पंचों द्वारा किया जाता है। ग्राम पंचायत के साधारण सदस्यों के वार्ड पंचों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा होता है।
राजस्थान में नवीन पंचायती राज अधिनियम, 1994 में पंचायत की संरचना के सम्बन्ध में प्रावधान किये हैं। अधिनियम की धारा 9 के द्वारा राज्य सरकार किसी एक गाँव या गाँव के समूह के लिए ग्राम पंचायत की घोषणा कर सकती है। जिसमें 1999 व 2000 में संशोधन भी किये गये। धारा-39 के अनुसार, ग्राम पंचायत की प्रतिमाह 2 बैठकें होंगी। प्रथम बैठक 5 तारीख को व दूसरी बैठक 20 तारीख को प्रतिमाह होती है। यदि 5 या 20 तारीख को राजकीय अवकाश होता है तो बैठक अगले दिवस होती है। धारा-48 के अनुसार ग्राम पंचायत बैठक के लिए गणपूर्ति 1/3 सदस्य होती है।
पंचायत समिति
भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया गया है। इस व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण स्तर 'पंचायत समिति' को माना जाता है। सम्पूर्ण जिले को कुछ खण्डों में विभक्त किया जाता है एवं प्रत्येक खण्ड स्तर पर पंचायत समिति की स्थापना की जाती है। राजस्थान में इसे 'पंचायत समिति', मध्यप्रदेश में 'जनपद पंचायत', उत्तरप्रदेश में क्षेत्र 'पंचायत' कहते हैं। यह योजनाओं एवं कार्यक्रमों को अपने क्षेत्र में क्रियान्वित करती है। राजस्थान राज्य के सन्दर्भ में पंचायत समिति की संरचना एवं कार्यों का विवरण निम्न प्रकार से है।
संरचना
राजस्थान में पंचायत समिति की संरचना का निर्धारण नवीन पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 10 के अन्तर्गत किया गया है। इस अधिनियम में समय-समय पर संशोधन भी किये गये। इसमें न्यूनतम 15 सदस्य होने चाहिए। एक लाख से अधिक जनसंख्या होने पर प्रत्येक अतिरिक्त पन्द्रह हजार या उसके भाग के लिए 2 अतिरिक्त सदस्य होंगे। प्रशासनिक कार्यों को देखने के लिए राज्य विकास सेवा (RRDS) की नियुक्ति की जाती है। आर.आर.डी.एस. की भर्ती राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है। इनकी सेवा शर्तों का नियमन पंचायती राज विभाग करता है। इसके अलावा अतिरिक्त विकास अधिकारी, सहायक विकास अधिकारी, ए.ई.एन, जे.टी.ए., लेखाधिकारी, लेखा सहायक, वरिष्ठ लिपिक, कनिष्ठ लिपिक भी होते हैं।
पंचायत समिति के राजनैतिक प्रमुख को प्रधान कहा जाता है। जिसका चुनाव पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा अर्थात् डायरेक्टर पंचायत समिति के द्वारा किया जाता है। वह अपना त्यागपत्र जिला प्रमुख को देता है। इसके अतिरिक्त पंचायत समिति में उपप्रधान होता है। उपप्रधान का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से प्रधान व पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा किया जाता है। पंचायत समिति के सदस्यों का ‘चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता’ द्वारा किया जाता है। पंचायत समिति के उपप्रधान व सदस्य अपना त्यागपत्र प्रधान को देते हैं।
परिषद्
प्रत्येक पंचायत समिति में सर्वोच्च स्तर पर एक परिषद् होती है जिसमें दो प्रकार के सदस्य होते हैं ।
- निर्वाचित सदस्य
- मनोनीत सदस्य
1. निर्वाचित सदस्य
अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार प्रत्येक पंचायत समिति क्षेत्र को कुछ वार्डों में विभक्त किया जाता है । प्रत्येक वार्ड से एक सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होता है। अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि एक लाख तक की जनसंख्या वाले पंचायत समिति क्षेत्र में पन्द्रह वार्ड बनाये जायें । एक लाख से अधिक जनसंख्या की स्थिति में प्रत्येक 15,000 की जनसंख्या पद पर दो सदस्यों की वृद्धि कर दी जाये। पंचायत समिति में परिषद् के सदस्यों के चुनाव के लिए महिलाओं को एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जाने के अलावा अनुसूचित जाति व जनजातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में और ऐच्छिक रूप से ओ.बी.सी. को 21 प्रतिशत सीटों का आरक्षण दिया गया है। आरक्षण की इस व्यवस्था को चक्रानुक्रम से लागू किया जाता है । वर्ष 2010 के पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत पद आरक्षित कर दिये गये हैं।
पंचायत समिति के कार्य संचालन के लिए निर्वाचित सदस्यों में से दो पदाधिकारी निर्वाचित किये जाते हैं । पंचायत समिति के अध्यक्ष को प्रधान कहा जाता है एवं उपाध्यक्ष को उप प्रधान कहा जाता है। पंचायत समिति की एक माह में कम से कम एक बैठक होनी चाहिए। पंचायत समिति का प्रधान परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है एवं सम्पूर्ण प्रशासनिक तंत्र पर नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण रखता है। इस पद पर भी आरक्षण चक्रानुक्रम पद्धति से किया गया है।
प्रधान का निर्वाचन पंचायत समिति सदस्यों द्वारा 'अप्रत्यक्ष रूप' से किया जाता है। अधिनियम में प्रधान, उप-प्रधान एवं निर्वाचित सदस्यों को पद से हटाने सम्बन्धी प्रावधान भी किये गये हैं। यदि कोई सदस्य या पदाधिकारी त्यागपत्र दे देता है तो वह पद से हट सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार को भी यह अधिकार है कि वह किसी भी सदस्य या पदाधिकारी को निलम्बित कर सकती है।
2. मनोनीत सदस्य
पंचायत समिति की परिषद् में कुछ मनोनीत सदस्यों के सम्बन्ध में प्रावधान किये गये हैं। ये सभी मनोनीत सदस्य परिषद् की बैठकों में उपस्थित रहते हैं तथा आवश्यक सुझाव देते हैं, लेकिन इन्हें निर्णय लेते समय मत देने का अधिकार नहीं होता है। पंचायत समिति में इस कोटि के निम्न सदस्य होते हैं-
- पंचायत समिति क्षेत्र से प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद (MP)।
- पंचायत समिति क्षेत्र से प्रतिनिधित्व करने वाले विधानसभा सदस्य (MLA)।
- पंचायत समिति क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले समस्त ग्राम पंचायतों के अध्यक्ष अर्थात् सरपंच।
जिला परिषद्
भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत सर्वोच्च स्तरीय संस्था जिला परिषद् है। 73वें संविधान संशोधन से पूर्व विभिन्न राज्यों में इस स्तर को भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता था, जैसे तमिलनाडु व कर्नाटक में 'जिला विकास परिषद्', असम में 'महकमा परिषद्', गुजरात में 'जिला पंचायत' आदि। भारतीय संविधान में 'जिला परिषद्' नाम को ही स्वीकार किया गया है।
राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 की धारा 11 में जिला परिषद् के सम्बन्ध में प्रावधान रखे गए हैं। संविधान संशोधन में जिला परिषद् को केवल एक नीति निर्माण इकाई माना गया है। उसे कार्यकारी दायित्व नहीं दिए गए हैं। संविधान संशोधन से पूर्व महाराष्ट्र एवं गुजरात को छोड़कर सभी राज्यों में जिला परिषद् को नीति निर्माण इकाई ही बनाया गया था। महाराष्ट्र व गुजरात में जिला परिषद् को मुख्य कार्यकारी इकाई बनाया गया था, लेकिन संविधान संशोधन के पश्चात् इन राज्यों में भी परिवर्तन करके जिला परिषद् को केवल नीति निर्माण इकाई तक सीमित रखा गया है।
संगठन
73वें संविधान संशोधन के पश्चात् सभी राज्यों में जिला परिषद् की संगठनात्मक व्यवस्था में एकरूपता लायी गयी है। जो निम्न प्रकार से है।
- (क) निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्य,
- (ख) जिला परिषद् क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा व राज्य विधानसभा के सभी सदस्य,
- (ग) जिला परिषद् के क्षेत्र के अंतर्गत निर्वाचकों के रूप में पंजीकृत राज्यसभा के सभी सदस्य,
- (घ) जिला परिषद् क्षेत्र की सभी पंचायत समितियों के प्रधान।
राज्य सरकार जिला परिषद् के लिए निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या निर्धारित करती है। सामान्यतः 4 लाख की जनसंख्या वाले परिषद् क्षेत्र में 17 निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की जाती है। 4 लाख से अधिक जनसंख्या वाले जिले में 4 लाख से अधिक के प्रत्येक 1 लाख की जनसंख्या पर 2 सदस्यों की वृद्धि कर दी जाती है।
निर्वाचन के लिए स्थानों के आरक्षण की व्यवस्था 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुरूप की गयी है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं। महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित होने वाले स्थानों के एक-तिहाई स्थान और अन्य वर्गों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित किये जाते हैं। इसी प्रकार जिला परिषद् के अध्यक्ष के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरक्षित स्थान चक्रानुक्रम के आधार पर आवंटित किये जाते हैं। परिषद् का कार्यकाल पाँच वर्ष, निर्धारित किया गया है। सदस्यों की योग्यता के लिए भी अधिनियम में प्रावधान किये गये हैं।
जिला प्रमुख
जिला प्रमुख का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से जिला परिषद् सदस्यों द्वारा किया जाता है। जिला प्रमुख जिला परिषद् का मुखिया होता है जो परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा आंतरिक प्रशासन पर नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण रखता है। जिला प्रमुख की अनुपस्थिति में उप जिला प्रमुख उसकी शक्तियों का प्रयोग करता है।
परिषद् की बैठकें, गणपूर्ति एवं प्रक्रिया
अधिनियम यह प्रावधान करता है कि जिला परिषद् की बैठकें तीन माह में एक बार आयोजित की जाएगी। ये बैठकें जिला परिषद् में मुख्यालय पर आयोजित की जाती हैं। निर्वाचन के पश्चात प्रथम बैठक मुख्य कार्यपालक अधिकारी द्वारा आमंत्रित की जाती है तथा इस बैठक की अध्यक्षता भी मुख्य कार्यपालक अधिकारी करता है। शेष सभी बैठकें जिला प्रमुख द्वारा आमंत्रित की जाती हैं तथा उनकी अध्यक्षता जिला प्रमुख द्वारा की जाती है। अधिनियम में यह प्रावधान भी किया गया है कि विशिष्ट परिस्थितियों में यदि जिला प्रमुख उचित समझें तो विशिष्ट बैठक भी आमंत्रित कर सकता हैं। किन्तु ऐसी बैठक जिला परिषद् के एक-तिहाई सदस्यों के लिखित रूप से अपेक्षा किये जाने पर ही आमंत्रित की जा सकती है।
अधिनियम में जिला परिषद् की बैठक के लिए गणपूर्ति, सदस्यों की कुल संख्या के एक तिहाई (1/3) सदस्य निर्धारित की गयी हैं। बैठक के लिए निश्चित समय से आधे घण्टे तक यदि गणपूर्ति नहीं होती है तो अध्यक्ष उस बैठक को स्थगित करके आगामी बैठक का समय निश्चित कर देता है जिसकी सूचना सूचनापट्ट पर लगा दी जाती है। गणपूर्ति के अभाव में स्थगित बैठक के पश्चात् होने वाली बैठक में गणपूर्ति पर विचार नहीं किया जाता। बैठक की अध्यक्षता जिला प्रमुख द्वारा की जाती है, यदि वह अनुपस्थित होता है तो उपजिल्ला प्रमुख अध्यक्षता करता है और यदि दोनों ही अनुपस्थित होते है तो उपस्थित सदस्य अपने सदस्यों में से ही अध्यक्षता के लिए एक सदस्य का चयन करते हैं। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि चयनित सदस्य को हिन्दी लिखने एवं पढ़ने का ज्ञान हो।
बैठक में विचार-विमर्श करने वाले विषयों का पूर्व निर्धारण कर लिया जाता है तथा सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं। अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार होता है। अधिनियम में यह प्रावधान रखा गया है कि बैठक में विचार किये जाने वाले विषयों से यदि प्रमुख, उप प्रमुख या किसी सदस्य का हित जुड़ा हो तो ऐसा व्यक्ति विचार-विमर्श में भाग नहीं ले सकता एवं न ही उसे निर्णय के लिए मत देने का अधिकार होता है। इस स्थिति के निर्धारण का दायित्व जिला परिषद् के मुख्य कार्यपालक अधिकारी का होता है। बैठक की समस्त कार्यवाहियों को लिखा जाता है जिसका दायित्व भी मुख्य कार्यकारी अधिकारी (C.E.O.) का होता है। बैठक में लिए गए निर्णयों को संबंधित व्यक्ति या संस्था तक पहुँचाने का दायित्व भी मुख्य कार्यकारी अधिकारी का ही होता है।
आंतरिक प्रशासन
जिला परिषद् के कार्यों को संचालित करने के लिए जिला परिषद् में आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था का गठन किया गया है अर्थात् इसका एक कार्यालय होता है। जिसका मुख्य अधिकारी मुख्य कार्यपालक अधिकारी के नाम से जाना जाता है। इस पद पर राज्य सरकार द्वारा 'राज्य प्रशासनिक सेवा' के अधिकारी की नियुक्ति की जाती है। राजस्थान में भारतीय प्रशासनिक सेवा (I.A.S.) प्रोबेशनर को भी (C.E.O.) लगा दिया जाता है।
जिला परिषद् के अन्य अधिकारी व कर्मचारी
मुख्य कार्यपालक अधिकारी की सहायता के लिए जिला परिषद् में राज्य सरकार द्वारा अन्य अधिकारी व कर्मचारी भी नियुक्त किये जाते हैं, जिनमें से प्रमुख रूप से एक मुख्य लेखाधिकारी होता है। यह अधिकारी वित्तीय कार्यों को निष्पादित करता है। जिला परिषद् में राज्य सरकार द्वारा उप जिला शिक्षा अधिकारी भी नियुक्त किया जाता है। जो जिले में पंचायती राज संस्थाओं द्वारा संचालित प्राथमिक शिक्षा केन्द्रों पर पर्यवेक्षण रखता है। इसके अतिरिक्त जिला परिषद् में अन्य कर्मचारी भी नियुक्त किये जाते हैं, जिनमें प्रमुखतः सहायक सचिव, सहायक अभियन्ता, लेखाकार, कार्यालय सहायक, लिपिक, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि है।
कार्यकाल
सभी पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों का कार्यकाल पद ग्रहण करने की तिथि से 5 वर्ष होता है यदि 5 वर्ष से पूर्व पद रिक्त होता है तो 6 माह में चुनाव कराया जाना अनिवार्य है।
योग्यताएँ
ग्राम पंचायत क्षेत्र का पंजीकृत मतदाता हो। न्यूनतम 21 वर्ष आयु हो।
आरक्षण
महिलाएँ 50%, वर्ष 2010 से। अनुसूचित जाति/जनजाति को जनसंख्या के अनुपात में।
त्यागपत्र व्यवस्था
राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1994 की धारा 36(1) के अनुसार ग्राम पंचायत के वार्ड पंच, उपसरपंच व सरपंच अपना त्यागपत्र विकास अधिकारी (B.D.O.) को देते हैं। धारा 36 (2) के अनुसार प्रधान अपना त्यागपत्र जिला प्रमुख को तथा उपप्रधान व पंचायत समिति सदस्य, प्रधान को अपना त्यागपत्र देते हैं। धारा 36(3) के अनुसार जिला प्रमुख अपना त्यागपत्र संभागीय आयुक्त को देता है। जिला परिषद् के अन्य सदस्य व उप जिला प्रमुख, जिला प्रमुख को त्यागपत्र देते है।
राजस्थान में पंचायती राज की प्रमुख संस्थाएँ
(1) इन्दिरा गाँधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान जयपुर- यह एक स्वशासी पंजीकृत संस्थान है, जिसकी स्थापना 25 मार्च, 1989 को जयपुर में हुई।
- इसका गठन पंचायती राज संस्थान और राज्य ग्रामीण विकास संस्था का विलय करके किया गया।
- इसका उद्देश्य पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास से संबंधित जनप्रतिनिधियों एवं समस्त पदाधिकारियों को प्रशिक्षण देना है।
(2) ग्राम सेवक प्रशिक्षण केन्द्र मण्डौर- जोधपुर
(3) पंचायत प्रशिक्षण केन्द्र, अजमेर, डूंगरपुर व बीकानेर में हैं।
राजस्थान ग्राम पंचायत और पंचायती समिति पुर्नगठन अधिनियम, 2019
इस अधिनियम के द्वारा राज्य सरकार द्वारा कुछ नई पंचायत समितियाँ और नई ग्राम पंचायतें बनायी गयी थी। जिससे राज्य में 352 पंचायत समितियाँ और 11,307 ग्राम पंचायतें हो गयी थी। इस अधिनियम के निर्णय से पूर्व सरकार द्वारा जनसंख्या के आधार पर ग्राम पंचायतों का गठन किया, जिसमें एक ग्राम पंचायत न्यूनतम 4000 व अधिकतम 6500 आबादी को आधार बनाया गया है और एक ग्राम पंचायत में कम से कम 5 वार्ड अनिवार्य होंगे और जिला कलेक्टरों को यह भी ध्यान रखना होगा एक पंचायत से टूटकर दूसरे पंचायत में शामिल किये जाने वाले गाँवों की पंचायत मुख्यालय से दूरी 8 किमी. से अधिक न हो और जिन पंचायत समितियों में 40 से अधिक ग्राम पंचायतें है तथा उनकी आबादी 2 लाख से अधिक है, उनको पुर्नगठित करके नयी पंचायत समितियाँ बनाई जाये और नई पंचायत समिति में कम से कम 25 ग्राम पंचायतें हो।
11वीं अनुसूची में वर्णित 29 विषय
- कृषि
- भूमि सुधार व मृदा संरक्षण
- लघु सिंचाई, जल प्रबंधन व जलग्रहण विकास
- पशुपालन, मुर्गीपालन व डेयरी पालन का विकास
- मत्स्य पालन
- लघु वन्य उपजें
- लघु उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग
- पुस्तकालय
- प्राथमिक व माध्यमिक स्कूली शिक्षा
- प्रौढ़ शिक्षा
- तकनीकी प्रशिक्षण व व्यावसायिक शिक्षा
- मेले
- सांस्कृतिक गतिविधियाँ
- स्वास्थ्य, साफ-सफाई, अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की व्यवस्था।
- सामुदायिक सम्पदा का संरक्षण
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली
- कमजोर वर्गों का कल्याण
- समाज कल्याण विकलांगों व निःश्रेष्ठजनों का कल्याण।
- महिला व बाल विकास के कार्य
- परिवार कल्याण
- गरीबी उन्मूलन
- गैर परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का विकास
- ग्रामीण विद्युतीकरण
- चारा व ईंधन की व्यवस्था
- पेयजल
- ग्रामीण आवास
- खादी ग्रामोद्योग
- सड़कें, नालियाँ, पुल आदि का निर्माण व रखरखाव
- सामाजिक वानिकी व कृषि वानिकी
नोट: 11वीं अनुसूची में वर्णित 29 विषयों में से 21 विषय पंचायती राज को हस्तांतरित कर दिये गये हैं। पूर्व में 16 विषय हस्तांतरित किये गये थे। 2 अक्टूबर, 2010 को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 5 विभाग जिनमें कृषि, प्रारंभिक शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएँ और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग शामिल है, को पंचायती राज संस्थाओं को सौंपें।
राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1994 की अध्याय एवं धाराएँ
अध्याय-1 : प्रारम्भिक
- धारा (1) : संक्षिप्त नाम, प्रसार और प्रारम्भ
- धारा (2) : विभिन्न परिभाषाएँ (ग्राम सभा की परिभाषा)
अध्याय-2 : वार्ड सभा
- धारा (3) : वार्ड सभा एवं उसकी बैठकें
- धारा (4) : वार्ड सभा की बैठक का कोरम कुल सदस्य संख्या 1/10 या 10 प्रतिशत होगा।
- धारा (5) : वार्ड सभा की बैठक की अध्यक्षता सम्बन्धित वार्ड पंच करेगा।
- धारा (6) : संकल्प
- धारा (7) : वार्ड सभा के कृत्य
- धारा (8) : सतर्कता समिति 8 (क) : ग्राम सभा और उसकी बैठकें 8 (ख) : गणपूर्ति 8 (ग) : पीठासीन अधिकारी 8 (घ) : संकल्प 8 (ङ) : ग्राम सभा के नेतृत्व
अध्याय-3 : पंचायती राज संस्थाएँ
- धारा (9) : ग्राम पंचायत गठन।
- धारा (10) : पंचायत समिति का गठन
- धारा (11) : जिला परिषद् का गठन
- धारा (12) : पंचायत की संरचना
- धारा (13) : पंचायत समिति की संरचना
- धारा (14) : जिला परिषद् की संरचना
- धारा (15) : सीटों पर आरक्षण (अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं हेतु आरक्षण का प्रावधान)
- धारा (16) : सरपंच, प्रधान एवं जिला प्रमुख के पदों पर आरक्षण का प्रावधान।
- धारा (17) : पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल एवं चुनाव।
- धारा (18) : निर्वाचक एवं निर्वाचक नामावली।
- धारा (19) : पंच या सदस्य के निर्वाचन हेतु योग्यताएँ एवं आयु।
- धारा (19ए) : एक व्यक्ति द्वारा पंचायती राज संस्थाओं की एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध।
- धारा (20) : एक ही समय किसी व्यक्ति के दो या अधिक पंचायती राज सदस्यता लेने पर प्रतिबन्ध।
- धारा (21) : पंचायती राज संस्थाओं के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष/सदस्य तथा संसद या विधानसभा की एक साथ सदस्यता लेने पर प्रतिबन्ध।
- धारा (26) : सरपंच व उसका चुनाव : सरपंच का चुनाव ग्राम पंचायत क्षेत्र में पंजीकृत मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष मतदान द्वारा सम्पन्न होगा।
- धारा (27) : उपसरपंच का चुनाव (ग्राम पंचायत के निर्वाचित पंचों एवं सरपंच द्वारा बहुमत से अपने में से)
- धारा (28) : पंचायत समिति के प्रधान का चुनाव : प्रधान एवं उपप्रधान का चुनाव समिति के निर्वाचित सदस्य अपने में से करेंगे।
- धारा (29) : जिला प्रमुख एवं उपप्रमुख का निर्वाचन : जिला परिषद् के निर्वाचित सदस्य अपने में से एक प्रमुख एवं एक उपप्रमुख का निर्वाचन करेंगे।
- धारा (30) : अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं सदस्यों का कार्यकाल : सम्बन्धित पंचायती राज संस्था के गठित रहने तक।
- धारा (32) : सरपंच व उपसरपंच की शक्तियाँ, कार्य एवं उत्तरदायित्व
- धारा (33) : प्रधान की शक्तियाँ, कार्य एवं उत्तरदायित्व
- धारा (34) : उपप्रधान की शक्तियाँ, कार्य एवं उत्तरदायित्व
- धारा (35) : जिला प्रमुख एवं उपप्रमुख की शक्तियाँ, कार्य एवं उत्तरदायित्व।
- धारा (36) : सरपंच, उपसरपंच, प्रधान, उपप्रधान, जिला प्रमुख, उप जिला प्रमुख एवं सदस्यों द्वारा इस्तीफा देना।
- धारा (37) : अध्यक्षों और उपाध्यक्षों में अविश्वास का प्रस्ताव
राजस्थान पंचायती राज अधिनियम की धारा 37 की उपधारा 11 में संशोधन- सरपंच, प्रधान, जिला प्रमुख को 25 अप्रैल, 2007 के अध्यादेश के अनुसार अब इनको 3/4 बहुमत से ही पद से हटाया जा सकेगा।
- धारा (38) : राज्य सरकार द्वारा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं सदस्यों को पद से हटाना या निलम्बित करना।
- धारा (39) : सदस्यता की समाप्ति कुछ अनर्हताओं के प्राप्त कर लेने पर।
- धारा (42) : रिक्त पदों को पुनः भरना
- धारा (45) : पंचायत की बैठकें : प्रत्येक 15 दिन में कम से कम एक बैठक
- धारा (46) : पंचायत समिति की बैठकें : प्रत्येक माह में कम से कम 1 बैठक
- धारा (47) : जिला परिषद् की बैठकें : प्रत्येक 3 माह में कम से कम एक बैठक
- धारा (53) : किसी पंचायत को कृत्यों का समनुदेशन
- धारा (81) : विकास अधिकारी की शक्तियाँ और कृत्य
- धारा (82) : मुख्य कार्यपालक अधिकारी और अन्य अधिकारी
- धारा (83) : जिला परिषद का कर्मचारिवृन्द
- धारा (84) : मुख्य कार्यपालक अधिकारी और अन्य अधिकारियों की शक्तियाँ और कृत्य।
- धारा (85) : विकास अधिकारी और मुख्य कार्यपालक अधिकारी की आपात शक्तियाँ।
अध्याय- 4 : राज्य सरकार आदि की शक्तियाँ
- धारा (92) : किसी पंचायत राज संस्था के संकल्प को रद्द या निलंबित करने की शक्ति।
- धारा (94) : किसी पंचायती राज संस्थान को भंग करने की सरकार की शक्ति।
- धारा (106) : नियमों और उप-विधियों का अतिलंघन
- धारा (107) : विवाद।
अध्याय- 5 : प्रकीर्ण
- धारा (108) : सदस्य और अधिकारी लोक सेवक होंगे।
- धारा (118) : वित्त आयोग का गठन
- धारा (119) : राज्य निर्वाचन आयोग के अधिकारी और कर्मचारिवृन्द
- धारा (121) : जिला आयोजन समिति
- धारा (122) : वार्षिक प्रशासनिक रिपोर्ट
- धारा (123) : कठिनाईयों का निराकरण
- धारा (124) : निरसन और व्यावृत्तियाँ।
ग्रामीण विकास में पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका
पंचायती राज लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण पर आधारित शासन है। जिसमें जनता स्वेच्छा से जनप्रतिनिधियों का चयन करते हैं और चुने हुए जनप्रतिनिधि ग्रामीण विकास के लिए योजनाएँ व कार्यक्रम बनाते हैं। पंचायती राज संस्थाओं का मूल उद्देश्य ग्रामीण विकास के प्रयासों और जनता के बीच तालमेल स्थापित करना है व पंचायती राज पद्धति 'तृण मूल लोकतंत्र' से संबंधित है।
ग्रामीण विकास का अर्थ
ग्रामीण विकास से तात्पर्य ग्रामीण क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सभी स्तरों के विकास से है। इसमें पंचायती राज संस्थाओं की प्रमुख भूमिका रही है। ग्रामीण विकास के बुनियादी पहलू हैं- ग्रामीण जन की आर्थिक उन्नति एवं समग्र मानव विकास जिसमें लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, खाद्य-सुरक्षा व सामाजिक सुरक्षा, स्वच्छ पेयजल व स्वच्छता सुविधाएँ आदि मूलभूत सुविधाएँ विकास के अवसरों के रूप में सुनिश्चित तौर पर प्राप्त हों। लोगों के विकास के समान अवसर आवश्यकतानुसार, सहमति से प्राप्त हों। पंचायत राज संस्थाओं की ग्रामीण विकास में भूमिका को निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है।
ग्राम पंचायत का योगदान
73वें संविधान संशोधन के पश्चात् पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान करते हुए संविधान के अनुच्छेद 243-B/ख में ग्राम पंचायतों का उल्लेख किया गया। ग्राम पंचायतें ग्रामीणों के राजनैतिक जीवन में विकास, सामाजिक जीवन में विकास, आर्थिक विकास, सार्वजनिक कल्याण में निम्नलिखित भूमिका निभाता है।
1. ग्रामीण राजनीतिक में ग्राम पंचायतों की भूमिका
ग्राम पंचायतें अपने-अपने क्षेत्र में राजनैतिक चेतना, राष्ट्रीय चेतना और जागरुकता तथा स्वावलम्बन की भावना के विकास हेतु श्रमदान, साप्ताहिक स्वास्थ्य दिवस आदि के संचालन में भूमिका निभाते हैं। ये संस्थाएँ उत्तम नागरिकता का पाठ पढ़ाती है। इसके साथ-साथ प्रशासनिक शिक्षा देती है। ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की प्रक्रिया जनसहभागिता आधारित हो तथा योजनाओं का निर्माण, क्रियान्वयन व सतत् प्रबोधन भी जन-भागीदारी से हो, इसके लिये हमारी नितांत आवश्यक भूमिका है- ग्राम सभाओं का नियमित व सक्रिय आयोजन सुनिश्चित कराना। वर्तमान में चल रही प्रमुख विकास योजनाएँ, जिनके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विकास, मानव विकास एवं सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना, पंचायती राज संस्थाओं की जिम्मेदारी है।
2. सामाजिक सुधार में भूमिका
पंचायती राज संस्थाएँ सामाजिक सुधार के अनेक कार्य करती है जैसे- बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध, दहेज प्रथा, ऊँच-नीच और छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों को रोकना। इसके अलावा शिक्षा की समुचित व्यवस्था करवाना। बाल तथा मातृत्व के कल्याण कार्य करना। सार्वजनिक बाजारों और मेलों की देखरेख करना आदि कार्य करती है। इसके लिए सामाजिक न्याय संबंधी योजनाएँ चलाना जैसे -
- सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ
- खाद्य सुरक्षा योजनाएँ
- अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग विकास कार्यक्रम
- अल्पसंख्यक मामलात विभाग की योजनाएँ
- दिव्यांगजन संबंधी विकास योजनाएँ
3. आर्थिक विकास में भूमिका
पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण विकास हेतु विभिन्न योजनाएँ व कार्यक्रम चलाकर आर्थिक वृद्धि में सहायक सिद्ध हो रही है। इसके लिए
- ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना करना।
- कृषि संबंधी सुधार कार्यक्रम शुरू करना।
- उन्नत बीज और कृषि क्षेत्रों की व्यवस्था करना।
- कुटीर उद्योग-धन्धों की व्यवस्था करना।
- सिंचाई की व्यवस्था करना।
- सहकारी समितियों का गठन करना। किसानों को ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध करवाना।
इसके लिए सरकार ने कई आर्थिक योजनाएँ भी शुरू की हैं।
- राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम/एसआरएलएम) - महिला स्वयं सहायता समूहों के कौशल निर्माण एवं आर्थिक संबलन की योजनाएँ
- दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना - (डीडीयूजीकेवाई)
- महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना (महात्मा गाँधी नरेगा)
- सांसद/विधायक आदर्श ग्राम योजना
- प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
- कृषि विकास एवं जलग्रहण विकास, पशुपालन, डेयरी, खादी व ग्रामोद्योग आदि।
4. ग्रामीण सार्वजनिक जीवन और कल्याण में ग्राम पंचायतों की भूमिका
इस हेतु पंचायती राज संस्थाएँ स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था करना, सफाई व पेयजल की व्यवस्था करना और क्षेत्र के नागरिकों को यातायात तथा संचार सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के कार्य करता है। इस हेतु निम्नलिखित योजनाएँ शुरू करता है।
मानव विकास संबंधी योजनाएँ
- राष्ट्रीय मिशन, जननी-शिशु सुरक्षा योजना।
- ग्रामीण पेयजल एवं मिशन जल शक्ति तथा स्वच्छ भारत मिशन
- सर्व शिक्षा अभियान/शिक्षा का अधिकार, 2009 एवं साक्षरता व सतत शिक्षा
- महिला-बाल विकास योजनाएँ एवं महिला व बाल अधिकार संरक्षण
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पंचायती राज संस्थाएँ विभिन्न योजनाओं के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक विकास में मुख्य भूमिका निभाता है।
1996 का पेसा अधिनियम (विस्तार अधिनियम)
दलीप सिंह भूरिया समिति की सिफारिशों के आधार पर दिसम्बर, 1996 में संसद में पंचायत उपबंध विधेयक (अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार) पारित किया गया। 1996 का पेसा (विस्तार अधिनियम) पंचायतों से सम्बन्धित संविधान के भाग-9 में पाँचवीं अनुसूची में वर्णित क्षेत्रों पर लागू होता। पहले यह आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान में लागू था। बाद में छत्तीसगढ़ व झारखण्ड में लागू हुआ। 2014 तक 10 राज्यों में लागू हो चुका था। हालांकि संसद इन प्रावधानों को कुछ अपवादों तथा संशोधनों सहित उक्त क्षेत्रों पर लागू कर सकती है। इस प्रावधान के अन्तर्गत संसद ने पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम 1996 पारित किया, जिसे पेसा एक्ट (PESA Act) अथवा विस्तार अधिनियम कहा जाता है। वर्तमान (2014) में भारत के 10 राज्यों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर पेसा प्रभावी (लागू) किया गया है। ये क्षेत्र है- तेलंगाना, आन्ध्रप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान। इनको दस आदिवासी क्षेत्रों में बाँटा गया है। जो चार राज्यों में स्थित हैं। असम-3, मेघालय-3, त्रिपुरा-1 और मिजोरम-3 स्वायत्त जिले हैं।
ग्राम सभा की संयुक्त बैठक
राजस्थान पंचायती राज (उपबंधों का अनुसूचित क्षेत्रों पर लागू होने के संबंध में उपान्तरण) नियम, 2011 में राजस्थान में ग्राम सभा की संयुक्त बैठकों का प्रावधान है। इन बैठकों की अध्यक्षता सरपंच द्वारा की जायेगी। संयुक्त बैठक में, प्रत्येक ग्राम सभा से सदस्यों के न्यूनतम 5% या 10 सदस्यों, इनमें से जो भी कम हो, की उपस्थिति अनिवार्य होगी।







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