संभागीय आयुक्त
स्वतंत्रता के बाद प्रशासन को अधिक सुचारु और प्रभावी बनाने के लिए राज्य और जिले के बीच एक ऐसी इकाई की आवश्यकता महसूस की गई, जो दोनों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित कर सके। इसी आवश्यकता से संभाग और उसके प्रमुख संभागीय आयुक्त की अवधारणा सामने आई। यह लेख संभागीय आयुक्त की उत्पत्ति, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विभिन्न राज्यों में उसकी व्यवस्था, विशेष रूप से राजस्थान में उसके विकास, पुनर्गठन तथा वर्तमान स्वरूप को सरल और स्पष्ट रूप में समझाता है। साथ ही इसमें संभागीय आयुक्त कार्यालय की संरचना, कार्यकाल, भूमिका एवं उसके महत्वपूर्ण प्रशासनिक, राजस्व और विकास संबंधी कार्यों का मानवीय दृष्टिकोण से विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक इस पद के वास्तविक महत्व और प्रशासन में इसकी केंद्रीय भूमिका को आसानी से समझ सकें।
स्वतंत्रता पश्चात् प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से राज्यों को जिलों में बाँटा गया, परन्तु कुछ वर्षों बाद यह अनुभव किया गया कि राज्य व जिले के बीच उचित समन्वय नहीं स्थापित हो पा रहा है। इसलिए नई प्रशासनिक इकाई गठित की गई जो राज्य व जिला के मध्य उचित समन्वय स्थापित कर सके। जिसका नाम संभाग रखा गया। जिसका पदाधिकारी संभागीय आयुक्त कहलाया। कुछ राज्यों में संभाग को मण्डल भी कहते हैं।
राज्य प्रशासन के सर्वोच्च प्रशासकीय स्तर का प्रादेशिक स्तर पर यह पद महत्त्वपूर्ण पदों में से एक है। संभागीय आयुक्त अपने क्षेत्र में सरकार का प्रतिनिधि होता है। संभागीय आयुक्त संस्था सभी राज्यों में विद्यमान है।
संभागीय आयुक्त का पद लार्ड बैंटिक ने सन् 1829 में गठित किया गया था। लार्ड विलियम बैंटिक ने कलेक्टर के कार्यों को निर्देशित करने के लिए इस पद को सृजित किया था। स्वतन्त्रता के उपरान्त अनेक कारणों से इस पद को समाप्त करने के प्रयास किये गये परन्तु इसे पुनः जीवित किया गया। सर्वप्रथम मध्यप्रदेश में संभागीय आयुक्त व्यवस्था 1948 में शुरू की गई। इसके पश्चात् 1950 में महाराष्ट्र में तथा गुजरात ने सन् 1964 में इसे समाप्त करके, बाद में पुनः सृजित किया गया।
वर्तमान में यह राजस्थान, असम, बिहार, जम्मू और कश्मीर, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, उत्तरप्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में लागू है। राजस्थान में राज्य को प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से संभाग, जिला, उपखण्ड, तहसील व ग्रामों में बाँटा गया है। संभाग का प्राथमिक कार्य समन्वय एवं पर्यवेक्षण करना है।
राजस्थान में सबसे पहले संभागीय व्यवस्था 1949 में शुरू की गई। उस समय राज्य में पाँच संभाग जयपुर, जोधपुर, कोटा, उदयपुर व बीकानेर बनाए गए। अप्रैल, 1962 में मोहन लाल सुखाड़िया ने इस संभागीय व्यवस्था को समाप्त कर दिया। बाद में राजस्थान में 25 वर्षों के उपरान्त मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी ने इसे पुनः 26 जनवरी, 1987 को बहाल कर यह व्यवस्था शुरू की गई। वर्तमान में राजस्थान राज्य में 7 संभाग व 72 जिले हैं। अंतिम संभाग के रूप में 4 जून, 2005 को सातवें संभाग के रूप में ‘भरतपुर’ का गठन किया गया। 4 अगस्त, 2023 को संभागों का पुनर्गठन करते हुए तीन नये संभाग बनाये गये। राज्य के संभाग निम्नानुसार है-
| क्र. | संभाग का नाम | जिले |
|---|---|---|
| 1. | बीकानेर | बीकानेर, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, चूरू |
| 2. | जयपुर | जयपुर, बहरोड़-कोटपूतली, दौसा, खैरथल, अलवर, झुन्झुनूँ, सीकर |
| 3. | अजमेर | अजमेर, ब्यावर, टोंक, नागौर, डीडवाना-कुचामन, भीलवाड़ा |
| 4. | जोधपुर | जोधपुर, फलौदी, जैसलमेर, बाड़मेर, बालोतरा, जालौर, सिरोही, पाली |
| 5. | उदयपुर | उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, सलूम्बर, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा |
| 6. | कोटा | कोटा, बूँदी, बाराँ, झालावाड़ |
| 7. | भरतपुर | भरतपुर, धौलपुर, करौली, डीग, सवाईमाधोपुर, |
संभागीय आयुक्त कार्यालय
संभाग स्तर पर प्रशासनिक तंत्र का मुखिया संभागीय आयुक्त होता है। संभागीय आयुक्त कार्यालय संभाग का ऐसा प्रशासनिक कार्यालय है, जिसमें लगभग 30 से 50 कार्मिक प्रत्येक संभाग कार्यालय में होते हैं। संभाग का मुखिया अपने अधीनस्थ जिलों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखता है और उनके कार्यों के बीच समन्वय स्थापित करता है। संभागीय आयुक्त के पद पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ (IAS) अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है जो संभाग स्तर का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी होता है। उसकी सहायता के लिए अतिरिक्त संभागीय आयुक्त के पद पर राज्य प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी को नियुक्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त संभागीय कार्यालय में राजस्व व सांख्यिकी से सम्बन्धित और अन्य कार्मिक होते हैं। जिन्हें सम्बन्धित विभागों से संभागीय आयुक्त के कार्यालय में प्रतिनियुक्त किया जाता है। संभागीय आयुक्त का कार्यालय संभाग नगर में स्थित होता है।
कार्यकाल
संभागीय आयुक्त का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता है।
संभागीय आयुक्त कार्यालय की संरचना निम्न प्रकार से है -
भूमिका एवं कार्य (Role and Functions)
संभागीय आयुक्त कार्यालय राज्य प्रशासन की प्रमुख संचालन इकाई के रूप में कार्य करता है। प्रत्येक संभाग जिलों में संचालित विभिन्न प्रशासनिक व विकास योजनाओं का नियंत्रण व संचालन कार्य करता है। संभागीय आयुक्त कार्यालय की विशिष्ट भूमिका एवं कार्यों को, राज्य प्रशासन में निम्न बिन्दुओं में देख सकते है -
- जिला प्रशासन पर नियन्त्रण
- प्रशासनिक प्रक्रियाओं का नेतृत्व।
- स्थानीय इकाइयों का पर्यवेक्षण व मार्गदर्शन।
- विकास योजनाओं का क्रियान्वयन कार्य।
- अपीलीय प्राधिकारी के रूप में।
1. जिला प्रशासन पर नियन्त्रण
प्रत्येक संभाग में तीन से चार जिले होते हैं। संभागीय आयुक्त इन जिलों के प्रशासन पर नियन्त्रण रखता है। वह इस संभाग के अधीन आने वाले जिलों के जिला कलेक्टरों और उस क्षेत्र के अन्य प्रमुख अधिकारियों की बैठक आयोजित करता है। संभागीय आयुक्त बैठकों की समीक्षा करता है और आवश्यक दिशा-निर्देश भी देता है।
2. प्रशासनिक प्रक्रियाओं का नेतृत्व करना
जिला कलेक्टर व अन्य संभागीय अधिकारियों से वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन (ACR) प्राप्त करना।
स्वयं सेवी व गैर सरकारी समूहों (NGO) एवं दबाव समूहों के साथ सामंजस्य व समन्वय रखना।
प्रशासनिक अनियमितताओं की शिकायतों की सुनवाई।
तहसील, उपखण्ड, जिला इकाईयों के राजस्व मुकदमों की जाँच करना।
भूमि चकबन्दी कानून, भू-अन्तरण के प्रकरणों की नियमित रिर्पोट लेना।
नायब तहसीलदार, भू-अभिलेख निरीक्षक, पटवारियों के स्थानान्तरण।
3. स्थानीय इकाइयों का पर्यवेक्षण व मार्गदर्शन
स्थानीय स्तर की अधीनस्थ इकाईयों का पर्यवेक्षण व मार्गदर्शन करना।
अन्तर विभागीय समन्वय करना।
अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस अधिकारियों की व्यवस्था करना।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर नियंत्रण रखना।
4. विकास योजनाओं का क्रियान्वयन कार्य
प्रत्येक संभाग स्तर पर महिला, बच्चों, अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों आदि के कल्याण हेतु विभिन्न केन्द्रीय व राज्य योजनाओं की क्रियान्विति करवाना।
अपने क्षेत्र के विकास कार्यक्रमों व परियोजनाओं का समुचित क्रियान्वयन करवाना।
5. अपीलीय प्राधिकारी के रूप में
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम की धारा 75(i) च तथा 76 (ग) के अनुसार राजस्व अपीलीय प्राधिकारी के रूप में संभागीय आयुक्त को प्राधिकृत किया गया है। इसके अलावा संभागीय आयुक्त निम्नलिखित वादों की सुनवाई भी कर सकता है।
- (i) राजस्थान नगर पालिका अधिनियम,
- (ii) राजस्थान भूमि भवन कर अधिनियम,
- (iii) राजस्थान नगरीय भूमि हदबंदी अधिनियम,
- (iv) राजस्थान धार्मिक भवन तथा स्थान अधिनियम,
- (v) राजस्थान आबकारी अधिनियम तथा
- (vi) राजस्थान वन अधिनियम।


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